पण्ढरपुरसे पचास कोसपर औंढ़िया नागनाथ एक प्रसिद्ध शिवक्षेत्र है। यहींपर यजुर्वेदी ब्राह्मणकुलमें विसोबाका जन्म हुआ था। सराफीका काम करनेके कारण ये सराफ कहे जाते थे। विसोबाके घरमें साध्वी पत्नी और चार लड़के थे। घरसे ये सम्पन्न थे। इनका गृहस्थ-जीवन सादा और पवित्र था। घरके काम-काज करते हुए भी इनके मुखसे बराबर पाण्डुरंगका नाम निकला करता था और चित्त उन्हीं श्रीविठ्ठलमें लगा रहता था। अतिथिसेवा तो गृहस्थका सर्वोपरि कर्तव्य है। इनके यहाँसे कभी भी अतिथि बिना सत्कार पाये जाता नहीं था। अतिथिको साक्षात् नारायण समझकर ये उसकी पूजा करते थे।
एक बार दक्षिणदेशमें घोर दुर्भिक्ष पड़ा। अन्न मिलना दुर्लभ हो गया। क्षुधासे पीड़ित हजारों स्त्री-पुरुष विसोबाके द्वारपर एकत्र होने लगे। विसोबाने समझा कि नारायणने कृपा की है। इतने रूपोंमें वे सेवाका सौभाग्य देने पधारे हैं। वे खुले हाथों लुटाने लगे। जो आता, तृप्त होकर जाता। भीड़ बढ़ती गयी। अन्नभण्डार समाप्त हो गया। रुपयेसे बहुत महँगा अन्न खरीदकर बाँटा जाने लगा। विसोबा निर्धन हो गये, पर भीड़ तो बढ़ती ही गयी। घरके गहने, बर्तन आदि बेचकर भी अभ्यागतोंका विसोबाने सत्कार किया। जो एक दिन नगरसेठ था, वही कंगाल हो गया। संसारके लोग हँसी करने लगे। कोई मूर्ख कहता था, कोई पागल बतलाता था। धन होनेपर जो चाटुकारी किया करते थे, वे ही व्यंग कसने लगे। किंतु विसोबाको इन बातोंकी चिन्ता नहीं थी। वे तो अभ्यागतोंके रूपमें नारायणकी सेवा करते थे।
निरन्तर बाँटा ही जाय तो कुबेरका कोष भी समाप्त हो जायगा। विसोबाके पास कुछ भी नहीं बचा। अब कंगाल, भूखे अभ्यागतोंका स्वागत कैसे हो ? स्वयं नारायण द्वारपर दो मुट्ठी अन्न माँगने आयें तो क्या उन्हें लौटा दिया जा सकेगा ? परंतु देनेके लिये अन्न आये कहाँसे ? विसोबाने अपने गाँवसे कई कोस दूर काँसे गाँव जाकर वहाँके पठानसे कई हजार रुपये ब्याजपर लिये। पठान इनको नगरसेठ जानता था, अतः उसने रुपये दे दिये। इनके आनन्दका पार नहीं रहा। घर आकर सब रुपयोंका अन्न ले लिया गया और वह दरिद्रनारायणकी सेवामें लगने लगा। गाँवके लोगोंको इनके कर्ज लेनेकी बातका पता लग गया। द्वेषियोंने जाकर पठानसे इनकी वर्तमान दशा बता दी। वह आकर इनसे रुपये माँगने लगा। इन्होंने कहा- ‘सात दिनमें मैं रुपये दे दूँगा।’ पठान मानता तो नहीं था, पर गाँवके लोगोंने उसे समझाया। लोग जानते थे कि विसोबा अपनी बातके पक्के हैं। सत्यकी रक्षाके लिये वे प्राण भी दे सकते हैं। पठान चला गया।
छः दिन बीत गये। विसोबा कहाँसे प्रबन्ध करें ? अब उन्हें कौन कर्ज देगा? वे रात्रिमें अपने भगवान्से प्रार्थना करने लगे- ‘नाथ! आजतक आपने मेरी एक भी बात खाली नहीं जाने दी। आज मेरी लाज आपके हाथ है। विसोबा आज मर जाय, तो भी उसका सत्य बच जायगा। हे हरि, मैं तुम्हारी ही बाट देख रहा हूँ।’ नेत्रोंसे अखण्ड आँसूकी धारा चल रही है। विसोबाको अपनी देहका पता ही नहीं। वे प्रार्थना करनेमें तल्लीन हो गये हैं।
सच्चे हृदयकी कातर प्रार्थना कभी निष्फल नहीं गयी। दीनबन्धु प्रभु तो आर्त प्रार्थना सुन लेते हैं अधम पामर प्राणीकी भी। उनका भक्त प्रार्थना करे और वे स्थिर रहें, यह तो सम्भव ही नहीं है। उन लीलामयने विसोबाके मुनीमका रूप धारण किया और समयपर पठानके पास पहुँच गये। पठानको आश्चर्य हुआ कि ऐसे अकालके समय इतने रुपये विसोबाको किसने दिये; पर उन मुनीम-रूपधारीने उसे समझा दिया कि विसोबाकी साख तथा सचाईके कारण रुपये मिलनेमें कठिनाई नहीं हुई। कई आदमियोंके सामने हिसाब करके ब्याजसहित पाई-पाई मुनीमने चुका दिया और पुरनोटपर भरपाईकी रसीद लिखवा ली।
दूसरे दिन विसोबा स्नान करके गीतापाठ करने बैठे तो पुस्तकमें फटा पुरनोट मिला। वे पूजा करके सीधे पठानके घरको चल पड़े। वहाँ जाकर बोले-‘भाई ! मुझे क्षमा करो। मैं तुम्हारा रुपया पूरे ब्याजसहित दे दूँगा। मुझे कुछ समय दो।’ पठान आश्चर्यमें आकर बोला- ‘आप कहते क्या हैं? आपका मुनीम कल ही तो पूरे रुपये दे गया है। मैंने आपसे रुपये माँगकर गलती की। जितने रुपये चाहिये, आप ले जाइये। आपसे पुरनोट लिखानेकी मुझे कतई जरूरत नहीं।’ विसोबाके आश्चर्यका पार नहीं रहा। गाँवके लोगोंने भी बताया कि ‘आपका मुनीम रुपया दे गया है।’ घर लौटकर मुनीमसे उन्होंने पूछा। बेचारा मुनीम भला, क्या जाने। वह हक्का-बक्का रह गया। अब विसोबाको निश्चय हो गया कि यह सब उनके दयामय प्रभुकी ही लीला है। उन्हें बड़ी ग्लानि हुई। उनके लिये पाण्डुरंगको इतना कष्ट उठाना पड़ा ! सब कुछ छोड़-छाड़कर वे पण्ढरपुर चले आये। ऐसे उदार स्वामीको छोड़कर अब उनका मन अन्यत्र रहनेका नहीं हुआ। वे अब भजनमें लीन हो गये।
श्रीज्ञानेश्वरके मण्डलमें विसोबा पीछे सम्मिलित हुए। उन्होंने योगका अभ्यास किया और सिद्ध महात्मा माने जाने लगे। उन्होंने स्वयं कहा है- ‘चांगदेवको मुक्ताबाईने अंगीकार किया और सोपानदेवने मुझपर कृपा की। अब जन्म-मरणका भय नहीं रहा।’ श्रीज्ञानेश्वरको ये भगवान्का अवतार ही मानते थे।
श्रीनामदेवजीको भगवान्ने स्वप्नमें आदेश किया कि वे विसोबासे दीक्षा लें। इस भगवदीय आज्ञाको स्वीकार करके जब नामदेव इनके पास आये तो ये एक मन्दिरमें शिवलिंगपर पैर फैलाये लेटे थे। नामदेवको इससे बड़ा आश्चर्य हुआ। इन्होंने कहा- ‘नमिया ! मैं बूढ़ा हो गया हूँ। मुझसे पैर उठते नहीं। तू ऐसे स्थानपर मेरे पैर रख दे, जहाँ शिवलिंग न हो।’ नामदेवजीने इनके पैर वहाँसे हटाकर नीचे रखे, पर वहाँ भूमिमेंसे दूसरा शिवलिंग प्रकट हो गया। अब नामदेव समझ गये। वे गुरुदेवके चरणोंपर गिर पड़े। नामदेवजीने अपने अभंगोंमें इनकी बड़ी महिमा गायी है।