मंगलाचरण –
1. जो मन-बुद्धि के अतीत होकर भी, वेदान्त के समस्त सिद्धान्तों के विषय हैं, उन परम आनन्दमय (ब्रह्म-स्वरूप) सद्गुरु श्री गोविन्द को मैं प्रणाम करता हूँ ।
मुक्ति तथा उसके साधनों की दुर्लभता –
2. प्राणियों के लिये सर्वप्रथम तो मनुष्य देह प्राप्त करना ही अत्यन्त दुर्लभ है; उसमें भी पुरुष शरीर, उसमें भी ब्राह्मणत्व के संस्कार, उसमें भी वैदिक धर्म में प्रवृत्ति, उसमें भी शास्त्र के आत्म-अनात्म विचार रूपी तात्पर्य का सम्यक् ज्ञान, उसमें भी प्रत्यक्ष अनुभूति, उसमें भी ब्रह्म में निरन्तर स्थिति – ये उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं । इस प्रकार सैकड़ों करोड़ जन्मों के सत्कर्म रूपी पुण्यों के बिना मुक्ति नहीं मिलती ।
तीन दुर्लभ प्राप्तियाँ –
3. मनुष्य शरीर में जन्म, (आवागमन से) मोक्ष प्राप्ति की इच्छा (मुमुक्षा) और महापुरुषों का संग – ये तीनों चीजें अत्यन्त दुर्लभ हैं और ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त होती हैं ।
आत्मा को न जानना ही आत्महत्या है –
4. किसी प्रकार ऐसा दुर्लभ मानव-जन्म और उसमें भी पुरुष शरीर तथा वेदान्त-तत्त्व पर विचार करने की क्षमता प्राप्त करके भी, जो मूर्ख अपनी मुक्ति के लिये प्रयास नहीं करता, वह (क्षणिक तथा) मिथ्या वस्तुओं को ग्रहण करके अपना विनाश करने के कारण सचमुच का आत्महन्ता है । (Isha Upanishad, Verse 3)
5. जो व्यक्ति ऐसा दुर्लभ मानव-शरीर और फिर पुरुष देह भी पा करके अपने परम स्वार्थ-लाभ (मुक्ति) की चेष्टा में आलस्य करता है, उससे बड़ा मूर्ख इस दुनिया में दूसरा कौन होगा?
शास्त्रीय ज्ञान नहीं, आत्मज्ञान से मुक्ति होती है –
6. चाहे कोई कितने भी शास्त्र के उद्धरण देता रहे, चाहे कोई कितना ही देवताओं की प्रसन्नता के लिये याग-यज्ञ करता रहे, चाहे कोई कितने ही शास्त्रविहित कर्मों का अनुष्ठान करता रहे; परन्तु जीव का आत्मा (ब्रह्म) के साथ एकत्व की अनुभूति हुए बिना ब्रह्मा के सौ कल्पों अर्थात् करोड़ों वर्षों में भी मुक्ति नहीं हो सकती ।
7. वेदों की निश्चित घोषणा है कि धन के द्वारा अमृतत्व पाने की कोई आशा नहीं है ।*इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि (सकाम) कर्म मुक्ति का कारण नहीं हो सकता ।
गुरु के निर्देशानुसार साधना –
8. अतः विद्वान् व्यक्ति को चाहिये कि वह बाह्य जगत् के विषयों से सुख पाने की इच्छा को त्यागकर, किसी सज्जन तथा उदार गुरु के पास जाय और उनके द्वारा उपदेश के रूप में बतायी गयी साधना में मन को लगाकर, अपनी मुक्ति के लिये प्रयास करे ।
9. आत्म-दर्शन में निष्ठा के द्वारा योगारूढ़ की अवस्था को प्राप्त करके व्यक्ति को संसार-सागर में डूबी हुई अपनी आत्मा का स्वयं ही उद्धार करना चाहिये । (BG 6.5)
10. ऐसे धीर तथा विद्वान् साधक को (वेदान्त में कथित आत्मा के श्रवण, मनन आदि का) अभ्यास आरम्भ करने के बाद, सभी (सकाम) कर्मों को त्यागकर, जन्म-मृत्यु रूपी भव-बन्धन से मुक्त होने के लिये चेष्टा करनी चाहिये ।
मुक्ति – कर्म से नहीं, विवेक-विचार से होती है –
11. (निष्काम) कर्म के द्वारा आत्म-स्वरूप की प्राप्ति नहीं, बल्कि चित्त की शुद्धि मात्र होती है; आत्मानुभूति तो करोड़ों कर्मों के द्वारा भी नहीं, बल्कि केवल विचार के द्वारा होती है ।
12. जिस रस्सी में सर्प की भ्रान्ति होने के कारण यह महान् भय तथा दुःख उत्पन्न हुआ है, उसके वास्तविक स्वरूप की धारणा उचित विचार के द्वारा ही हो सकती है ।
13. तीर्थों में स्नान, दान या सैकड़ों प्राणायाम करने से भी नहीं, अपितु गुरु की हितकर उक्तियों पर विचार करने से ही ब्रह्मतत्त्व की अनुभूति देखने में आती है ।
अधिकारी निरूपण –
14. साधना में फलसिद्धि के लिये उत्तम अधिकारी होने की विशेष आवश्यकता है । इस सिद्धि में स्थान, काल आदि उपाय उसके सहायक मात्र हैं ।
15. अतः जिज्ञासु साधक को चाहिये कि वह उत्तम ब्रह्मवेत्ता दयासिन्धु गुरु की शरण लेकर आत्म-वस्तु पर विचार करता रहे ।
16. जो मेधावी, विद्वान् तथा शास्त्रों के पक्ष का मण्डन और उसके विपक्ष का खण्डन करने में कुशल है, ऐसे लक्षणोंवाला व्यक्ति ही आत्मविद्या का अधिकारी है ।
साधन चतुष्टय –
17. जो आत्मा-अनात्मा में विवेक कर सकता है, जो वैराग्यवान् है, जो शम आदि छह सम्पत्तियों से युक्त है, ऐसे मुमुक्षु – अर्थात् मोक्ष की इच्छा रखनेवाले व्यक्ति में ही ब्रह्म के विषय में जिज्ञासा करने की योग्यता मानी गयी है ।
18. इस ब्रह्मविद्या की सिद्धि में मनीषियों ने चार साधनाओं की आवश्यकता बतायी है । इनके होने से ही ब्रह्म-वस्तु में निष्ठा सधती है, इनके अभाव में नहीं सधती ।
19. नित्य-अनित्य वस्तु के बीच विवेक को पहला साधन माना जाता है । इसके बाद इहलोक तथा परलोक में भोगे जानेवाले कर्मफलों के प्रति वैराग्य की गणना होती है । तीसरा साधन है – शम आदि षट् सम्पत्तियाँ और चौथा है मुमुक्षा अर्थात् मुक्त होने की इच्छा । यह स्पष्ट है ।
विवेक मीमांसा –
20. ब्रह्म ही सत्य वस्तु है और जगत् मिथ्या – ऐसा दृढ़ निश्चय ही नित्यानित्य-वस्तु-विवेक कहलाता है ।
वैराग्य क्या है –
21. इस लोक के देहादि भोगों से लेकर ब्रह्मा के लोक तक के समस्त अनित्य भोग्य वस्तुओं को देखने, सुनने आदि की कामना को त्याग करने की इच्छा को वैराग्य करते हैं ।
शम या शान्ति –
22. प्रतिक्षण विषयों का दोष देखते हुए (विचार के द्वारा) उन्हें त्यागकर निरन्तर अपने लक्ष्य (ब्रह्म) से मन को लगाये रखने को ‘शम’ करते हैं । (यह छह सम्पत्तियों में प्रथम है) ।
दम और उपरति –
23. पाँचों ज्ञानेन्द्रियों तथा पाँचों कर्मेन्द्रियों को (संसार के) विषयों में से खींचकर उनके अपने-अपने गोलकों में स्थापित करने को ‘दम’ (आत्मसंयम) कहते हैं । मन की वृत्तियों को बाह्य वस्तुओं से प्रभावित न होने देना उत्तम ‘उपरति’ (विषयों से निवृत्ति) माना जाता है ।
तितिक्षा या सहनशीलता –
24. सभी प्रकार के दुःखों को, उन्हें दूर करने की चेष्टा और चिन्ता-विलाप आदि किये बिना ही सहन करना ‘तितिक्षा’ कहलाती है ।
श्रद्धा की परिभाषा –
25. शास्त्रों तथा गुरु के उपदेश अक्षरशः सत्य हैं, ऐसी निश्चयात्मिका बुद्धि को सन्तगण ‘श्रद्धा’ कहते हैं, इसी के द्वारा ‘वस्तु’ अर्थात् आत्मतत्त्व की प्राप्ति होती है ।
समाधान क्या है –
26. अपनी बुद्धि को केवल वेदान्त की चर्चा में लगाकर तृप्ति पाना नहीं, अपितु उसे सर्वदा सर्व प्रकार से शुद्ध ब्रह्म में स्थापित किये रखना ही ‘समाधान’ कहलाता है ।
मुमुक्षा की परिभाषा –
27. जीव के अहंकार से लेकर स्थूल शरीर तक के सारे बन्धन अज्ञान से उत्पन्न हुए हैं । अपने स्वरूप के ज्ञान द्वारा इनसे मुक्त होने की तीव्र इच्छा को ‘मुमुक्षा’ कहते हैं ।
28. ‘मुमुक्षा’ यदि मन्द या मध्यम प्रकार की हो, तो भी वैराग्य तथा शम-दम-आदि छह सम्पत्तियों और गुरुकृपा की सहायता से वृद्धि पाकर मोक्षफल प्राप्त कराती है ।
29. परन्तु जिस साधक में वैराग्य तथा मुमुक्षा की तीव्रता विद्यमान रहती है, उसी में शम आदि छह सम्पत्तियाँ सार्थक तथा मोक्ष- फल प्रदान करने वाली होती हैं ।
30. जिस साधक के चित्त में वैराग्य तथा मुमुक्षा – इन दोनों की कमी दीख पड़ती है, उसमें मरुभूमि में मरीचिका के समान शम आदि सम्पत्तियों का आभास मात्र होता है । अर्थात् वैराग्य तथा मुमुक्षा के बिना ब्रह्मबोध की आकांक्षा दिवा-स्वप्न के समान निरर्थक है ।
भक्ति का महत्त्व तथा परिभाषा –
31. मोक्ष प्राप्ति के साधनों में ‘भक्ति’ ही सर्वश्रेष्ठ है । अपने वास्तविक स्वरूप की खोज को भक्ति कहा जाता है ।
32. कुछ अन्य लोगों ने अपने आत्म-तत्त्व की खोज को ‘भक्ति’ कहा है । पूर्वोक्त (चार) साधनों से युक्त और तत्त्व को जानने का इच्छुक व्यक्ति ज्ञानी गुरु के पास जाय, तो वे उसे भव-बन्धन से मुक्त कर देते हैं ।
गुरु के लक्षण तथा प्रश्नविधि –
33. ऐसे गुरु के पास जाय, जो वेदशास्त्र के ज्ञाता हों, निष्पाप हों, कामनाशून्य हों, ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ हों, ब्रह्म-चिन्तन में तन्मय हों, ईंधन समाप्त हुई अग्नि के समान शान्त हों, अहेतुक दयासिन्धु हों और विनम्र सज्जनों के मित्र हों । (Qualifications of the Aspirant and the Teacher – Swami Vivekananda)
34. ऐसे गुरु की भक्तिपूर्वक प्रणाम, नम्रता तथा सेवा के द्वारा आराधना करके सन्तुष्ट करे और हाथ जोड़कर उनके सम्मुख उपस्थित होकर (इस प्रकार) अपना ज्ञातव्य विषय (आत्मतत्त्व) उनसे पूछे । (BG 4.34)
35. हे स्वामी, हे प्रणत-दीनजनों के बन्धु, हे करुणा के सिन्धु ! आपको मेरा प्रणाम है । मुझ भवसागर में पड़े हुए पर, आप अपनी करुणा की वर्षा करनेवाली सीधी दृष्टि डालकर मेरा उद्धार करें ।
36. इस संसार-रूपी वन की दुर्निवार्य दावाग्नि से दग्ध, दुर्भाग्य- रूपी आँधी से बुरी तरह कम्पमान, मृत्यु के भय से शरणागत की रक्षा कीजिये, क्योंकि मैं शरण लेने योग्य आपके अतिरिक्त अन्य किसी को भी नहीं जानता ।
37. कुछ ऐसे शान्त तथा सज्जन महात्मा होते हैं, जो स्वयं इस भीषण भवसागर को पार कर लेने के बाद, अहेतुक दया से प्रेरित होकर अन्य लोगों को भी पार करते हुए, वसन्त ऋतु के समान सबका हित करते हुए इस जगत् में निवास करते हैं । (See also: BG 3.25)
38. जैसे सूर्य के तीक्ष्ण किरणों से तप्त पृथ्वी को चन्द्रमा स्वयं ही अपने शीतल किरणों से तृप्त कर देता है, वैसे ही स्वयं प्रवृत्त होकर दूसरों के कष्टों के निवारण में तत्पर रहना ही इन महापुरुषों का स्वभाव है ।
39. हे प्रभो, मुझ संसार-ताप की दावाग्नि की ज्वालाओं से तप्त को; अपने ब्रह्मानन्द-रस की अनुभूति से युक्त, पवित्र, अति शीतल तथा युक्तिपूर्ण, अपनी वाणी-रूपी कलश से निःस्रित, कानों को आनन्द प्रदान करनेवाले वाक्यामृत से सिंचित कीजिये । धन्य हैं वे लोग, जो क्षण भर के लिये भी आपकी दृष्टि में आकर पात्र के रूप में स्वीकृत हो जाते हैं ।
40. इस भवसागर को मैं कैसे पार करूँगा? या मेरी क्या गति होगी? मेरे लिये कौन-सा उपाय है? – यह सब मैं कुछ भी नहीं जानता । कृपया मेरी रक्षा कीजिये । मेरे संसार-दुःख का नाश कीजिये ।
गुरु द्वारा शिष्य को आश्वासन तथा प्रोत्साहन –
41. गुरु को चाहिये कि इस प्रकार संसाररूपी दावानल* के ताप से दग्ध होकर अपनी शरण में आये हुए (शिष्य) को, अपनी करुणा से द्रवित हुई दृष्टि से देखकर तत्काल अभय प्रदान करे ।
42. वे गुरु ऐसे मुमुक्षु को कृपापूर्वक आत्म-तत्त्व का उपदेश प्रदान करें, जो अनन्य भाव से शरणागत हो, जो सम्यक् रूप से आज्ञा- पालन में तत्पर हो, जिसका चित्त शान्त हो, जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर चुका हो ।
43. हे विद्वान् ! तू भयभीत मत हो । तेरा विनाश नहीं होगा । संसार-रूपी सागर से पार जाने का उपाय है । अब मैं तुझे वह मार्ग दिखाता हूँ, जिस पर चलकर योगी लोग इसके पार चले गये ।
44. संसार-रूपी भय का नाश करने वाला एक महान् उपाय है । इसके द्वारा तू संसार-सागर को पार करके परम आनन्द की उपलब्धि करेगा ।
45. वेदान्त के तात्पर्य पर विचार करने पर उत्तम ज्ञान उत्पन्न होता है । तदुपरान्त उसके द्वारा संसार-रूपी दुःख का समूल नाश हो जाता है ।
46. वेदों की वाणी – श्रद्धा, भक्ति तथा ध्यानयोग – को मुमुक्षु के लिये मुक्ति पाने का साक्षात् कारण बताती है ।* जो कोई भी इन (तीनों) साधनों में निष्ठापूर्वक लगा रहता है, वह इस अज्ञान द्वारा कल्पित देह-बन्धन से मुक्त हो जाता है ।
47. तू वस्तुतः परमात्मा ही है, परन्तु अज्ञान से जुड़ जाने के कारण इस (‘मैं’-‘मेरा’-रूपी) अनात्मा के बन्धन में पड़ गया है और इसी से तेरा जन्म-मृत्यु-रूपी संसार-चक्र चल रहा है । विवेक-विचार द्वारा उत्पन्न आत्मज्ञान की अग्नि से (अहंकार आदि) सारे अज्ञान-कार्य को जला डाल ।
शिष्य के प्रश्न –
48. शिष्य ने कहा – हे प्रभो, मैं आपसे यह प्रश्न पूछता हूँ; कृपया इसे सुनिये । आपके मुख से इसका उत्तर सुनकर मैं कृतार्थ हो जाऊँगा ।
49. कृपया बताइये – बन्धन क्या है? यह कैसे आया है? यह कैसे स्थित है? इससे मुक्ति का क्या उपाय है? अनात्मा क्या चीज है? और परम आत्मा क्या है? इन दोनों (आत्मा-अनात्मा) के बीच विवेक कैसे हो?
गुरु द्वारा अभयदान –
50. गुरु बोले – तू धन्य है, कृतकृत्य है, तेरे कारण तेरा कुल पवित्र हुआ, क्योंकि तू अविद्या के बन्धन से मुक्त होकर (अपने) ब्रह्म-स्वरूप को प्राप्त करने का इच्छुक है ।
पुरुषार्थ की महिमा –
51. (गुरु बोले –) पिता का ऋणमोचन करनेवाले तो पुत्र आदि हो सकते हैं, परन्तु (अविद्यामय संसार के) बन्धन से मुक्त करनेवाला तो स्वयं को छोड़ दूसरा कोई नहीं होता ।
52. सिर पर रखे हुए भार आदि के द्वारा हो रहे कष्ट से दूसरे लोग छुटकारा दिला सकते हैं, परन्तु भूख-प्यास आदि से उत्पन्न होनेवाला दुःख स्वयं के (भोजन आदि किये) बिना अन्य किसी के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता ।
53. जो रोगी दवा का सेवन तथा उपयुक्त पथ्य ग्रहण करता है, उसी को आरोग्य होते हुए देखा जाता है । अन्य कोई कर्म करने से वह नीरोग होते हुए नहीं दिखता ।
54. जैसे चन्द्रमा का स्वरूप किसी अन्य की आँखों से नहीं, बल्कि अपनी ही आँखों द्वारा देखकर समझा जा सकता है, वैसे ही आत्मा-रूपी वस्तु का स्वरूप किसी विद्वान् के द्वारा नहीं, अपितु अपनी ही ज्ञान-दृष्टि से जानने योग्य है ।
55. अविद्या-कामना-कर्म (के चक्र) आदि का बन्धन, सैकड़ों करोड़ युगों में भी अपने प्रयास के बिना, भला कौन दूर कर सकता है? (अर्थात् मुक्ति स्वचेष्टा से ही हो सकती है ।)
शास्त्रज्ञान नहीं, अपितु आत्मज्ञान मुक्ति का साधन है
56. मोक्ष की सिद्धि योग या सांख्य या कर्म अथवा शास्त्र- अध्ययन के द्वारा नहीं; अपितु केवल ब्रह्म तथा आत्मा के एकत्व-बोध के द्वारा ही सम्पन्न होती है ।
57. वीणा का सौंदर्य तथा उसके तारों को बजाने की निपुणता, लोगों को आनन्द देने के साधन मात्र हैं; उसके द्वारा साम्राज्य (मुक्ति) की उपलब्धि नहीं होती ।
58. भाषा का ज्ञान, शब्द-संयोजन की कुशलता, शास्त्रों की व्याख्या में निपुणता तथा इसी तरह की विद्वत्ता – विद्वानों की मुक्ति के हेतु नहीं, अपितु भोग के साधन हैं ।
59. यदि पर-तत्त्व (ब्रह्म) का ज्ञान न हो, तो शास्त्र का अध्ययन निष्फल है; और पर-तत्त्व का ज्ञान हो जाय, तो भी शास्त्र का अध्ययन निष्फल ही है ।
60. शब्दों का जाल रूपी शास्त्र – चित्त को भ्रमित करने वाला विशाल वन है, अतः व्यक्ति को चाहिये कि वह ज्ञानी व्यक्ति के पास से प्रयासपूर्वक आत्मा का तत्त्व जान ले ।
आत्मज्ञान से ही मुक्ति –
61. जिस व्यक्ति को अज्ञान-रूपी सर्प ने डस लिया है, उसके लिये ब्रह्मज्ञान-रूपी औषधि को छोड़, वेदों तथा शास्त्रों से क्या लाभ? मंत्रों तथा औषधियों से क्या लाभ?
62. औषधि का सेवन किये बिना, केवल ‘औषधि’ शब्द का उच्चारण करने मात्र से रोग दूर नहीं होता, उसी प्रकार अपरोक्ष-अनुभूति हुए बिना केवल ‘ब्रह्म’ शब्द के उच्चारण मात्र से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती ।
63. जगत् के दृश्य पदार्थों का विलय यानी मिथ्यात्व का बोध किये बिना और आत्मा का तत्त्व जाने बिना, ‘ब्रह्म’ शब्द का उच्चारण मात्र करने से व्यक्ति को भला मुक्ति कैसे मिल सकती है? अर्थात् नहीं मिल सकती ।
64. शत्रुओं का संहार किये बिना तथा सम्पूर्ण पृथ्वी की सम्पदा को प्राप्त किये बिना, ‘मैं राजा हूँ’ – कहने मात्र से कोई राजा नहीं बन सकता ।
65. जैसे धरती में गड़ा हुआ धन उसे पुकारने मात्र से नहीं मिलता, अपितु उसे प्राप्त करने के लिये ज्ञानी व्यक्ति से सुनने, मिट्टी को खोदने, ऊपर के पत्थर आदि को हटाने और धन को निकालने की आवश्यकता होती है; वैसे ही अपने (अहंकार आदि) माया से मुक्त विशुद्ध आत्म-स्वरूप का बोध भी केवल तर्क-वितर्क से नहीं, अपितु ब्रह्मज्ञानियों द्वारा प्रदत्त उपदेश तथा उसके मनन, ध्यान आदि से ही प्राप्त होता है ।
पुरुषार्थ और उसका महत्त्व –
66. अतः, जैसे रोग आदि हो जाने पर व्यक्ति स्वयं ही उसे दूर करने की चेष्टा करता है, वैसे ही विवेकवान व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह भव-बन्धन से मुक्त होने के लिये स्वयं ही सर्व प्रकार से प्रयत्न करे ।
गुरु द्वारा आश्वासन तथा प्रोत्साहन –
67. आज तुमने जो प्रश्न किया (श्लोक ४९); वह उत्तम, शास्त्रज्ञों द्वारा समर्थित, संक्षिप्त, गम्भीर तात्पर्य से युक्त और मुमुक्षुओं द्वारा जानने के योग्य है ।
68. हे विद्वान् शिष्य, अब मैं जो कुछ कह रहा है, उसे ध्यान देकर सुनो; (क्योंकि) इसे सुनकर तुम तत्काल भव-बन्धन से मुक्त हो जाओगे ।
आत्मज्ञान के साधन –
69. समस्त अनित्य विषयों के प्रति तीव्र वैराग्य को मोक्ष- प्राप्ति का प्रथम कारण (उपाय) बताया गया है । उसके बाद शम, दम, तितिक्षा तथा श्रुति-विहित सकाम कर्मों के पूर्ण त्याग को (उसका उपाय बताया गया है) ।
70. इसके बाद मुनि (मननशील साधक) को गुरु से आत्मा के स्वरूप के विषय में वेदान्त के महावाक्य सुनना चाहिये, उसके बाद उसका मनन करना चाहिये और फिर दीर्घ काल तक नित्य निरन्तर उस आत्मा का ध्यान करना चाहिये । इसके बाद विद्वान् साधक निर्विकल्प परब्रह्म को प्राप्त करके इसी जीवन में निर्वाण का सुख अनुभव करता है ।
71. जिस आत्मा तथा अनात्मा के बीच भेद को तुम्हें विचारपूर्वक समझने की जरूरत है, अब मैं वही कहता हूँ । इसे ठीक से सुनकर अपने चित्त में दृढ़तापूर्वक धारण करो ।
स्थूल शरीर तथा उसके घटक –
72. मज्जा, अस्थि, मेद, मांस, रक्त, चर्म व त्वचा नामक धातुओं द्वारा जुड़े पाँव, जंघे, सीना, हाथ, पीठ, सिर (इन सारे) अंगों तथा उपांगों के द्वारा निर्मित और ‘मैं’ तथा ‘मेरा’ के रूप में प्रसिद्ध मोह के इस आश्रय को विद्वान् लोग ‘स्थूल शरीर’ कहते हैं ।
73 & 74. आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी – ये सूक्ष्म पंचभूत हैं; जो एक-दूसरे के अंशों से मिलकर स्थूल तथा स्थूल शरीर के गठन का हेतु बनते हैं । उनके (सूक्ष्म पंचभूत) गुण (मिलकर) भोक्ता जीव के सुख हेतु शब्द आदि (स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) – पाँच विषय बनते हैं ।
स्थूल-सूक्ष्म शरीरों तथा पंचभौतिक विषयों की निन्दा –
75. जो मूढ़जन इन विषयों के अति दुर्भेद्य आसक्ति रूपी महापाश से बँधे हुए हैं, वे अपने कर्मों-रूपी दूत द्वारा बलपूर्वक खींचे जाकर नीचे तथा ऊपर (के लोकों में) आते-जाते रहते हैं ।
76. हिरण, हाथी, पतंगा, मछली तथा भ्रमर – ये पाँच तरह के जीव अपने-अपने गुण के अनुसार (क्रमशः) शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध – इन पाँच में से एक-एक विषय में आबद्ध होकर मृत्यु को प्राप्त करते हैं; तो फिर इन पाँचों में आसक्त रहनेवाले मनुष्य की क्या गति होनेवाली है?
77. दोष की दृष्टि से देखें, तो भोग्य विषय काले नाग के विष से भी अधिक तीव्र (घातक) होता है, (क्योंकि) विष तो खानेवाले को ही मारता है, परन्तु यह (विषय) आँखों से देखनेवाले को भी मार डालता है ।
78. विषयों की आशा रूपी इस महा-बन्धन का त्याग करना अत्यन्त कठिन है; इससे मुक्त होनेवाला व्यक्ति ही मुक्ति का अधिकारी है, अन्य कोई भी – यहाँ तक कि छहों शास्त्रों को जाननेवाला भी नहीं ।
79. जो मुमुक्षु मन्द वैराग्यवाले होकर भी भवसागर से पार जाने की चेष्टा करते हैं, आशा-रूपी ग्राह उनका गला पकड़कर तीव्र वेग से हटाकर उन्हें बीच में ही डुबा देता है ।
वैराग्य की महिमा –
80. जिस साधक ने तीव्र वैराग्य रूपी तलवार से विषय-कामना रूपी ग्राह का वध कर डाला है, वह प्रत्येक बाधा से रहित होकर भव- सागर के पार चला जाता है ।
81. (रूप, रस आदि) भोग्य विषयों के कठिन मार्ग पर चल रहे, अशुद्ध बुद्धिवाले साधक के पग-पग पर उसके साथ इस मृत्यु को भी चलती जानो । फिर यह भी सत्य जानो कि हिताकांक्षी सच्चे गुरु के उपदेश तथा अपनी बुद्धि के सहारे चलनेवाला साधक (आत्मबोध-रूपी) फल-सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।
मोक्ष के साधन –
82. यदि तुम्हें मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा है, तो विषयों को विष के समान बहुत दूर से ही त्याग दो; और सन्तोष, दया, क्षमा, सरलता, शम तथा दम – इन गुणों का प्रतिदिन अमृत के समान आदरपूर्वक सेवन करो ।
देहासक्ति की निन्दा –
83. अनादि काल से अविद्या द्वारा किये गये बन्धन से मुक्ति के लिये प्रतिक्षण प्रयास रूपी अपने सच्चे कर्तव्य को छोड़कर, जो इस दूसरों के भोग्यरूपी अपनी देह के पोषण में आसक्त रहता है, वह इस कृत्य के द्वारा मानो आत्महत्या करता है । (Isha Upanishad, Verse 3)
84. जो व्यक्ति सारे समय शरीर के पालन-पोषण में ही व्यस्त रहते हुए अपने आत्म-स्वरूप का दर्शन करने का इच्छुक है, वह मानो घड़ियाल को ही काठ समझ उसे पकड़कर नदी पार करना चाहता है ।
85. मुमुक्षु (मुक्तिकामी) के लिये शरीर आदि के प्रति मोह ही महा-मृत्यु के समतुल्य है । जिसने मोह पर विजय पा ली है, वही मुक्तिपद का अधिकारी है ।
86. देह, स्त्री, पुत्र आदि के प्रति मोह-रूपी महामृत्यु पर विजय प्राप्त करो; इस (मोह) को जीतकर ही मुनिगण विष्णु के उस परम पद की उपलब्धि करते हैं ।
87. त्वचा, मांस, रक्त, स्नायु, मेद, मज्जा तथा अस्थियों से निर्मित और मल-मूत्र से परिपूर्ण – यह स्थूल शरीर निन्दनीय है ।
स्थूल शरीर तथा इसकी जाग्रत अवस्था –
88. जीवात्मा के पूर्व कर्मों के संयोग के फलस्वरूप, पंचीकृत स्थूल भूतों से, आत्मा के भोग-आयतन के रूप में यह स्थूल शरीर उत्पन्न हुआ है । उसकी जाग्रत अवस्था स्थूल पदार्थों के अनुभव पर आश्रित है ।
89. बाह्य इन्द्रियों के माध्यम से, जीव स्वयं ही माला, चन्दन, स्त्री आदि विविध प्रकार के स्थूल पदार्थों का भोग करता है; इसीलिये जाग्रत अवस्था में इस स्थूल शरीर का महत्त्व है ।
90. जिस स्थूल शरीर के आश्रय से व्यक्ति का सारा बाह्य संसार चलता है, उसे गृहस्थ के घर के समान समझो ।
91. जन्म-मृत्यु आदि गुण; मोटापा-कृशता, बचपन-यौवन आदि अवस्थाएँ; वर्ण तथा आश्रमों के नियम; अनेक प्रकार के रोग; मान-अपमान तथा अति सम्मान आदि विशेषताएँ स्थूल शरीर की ही हुआ करती हैं ।
92. कर्ण, त्वचा, नेत्र, घ्राण तथा जिह्वा – विषयों का बोध कराने के कारण ज्ञानेन्द्रियाँ कहलाती हैं; और वाणी, हाथ, पाँव, मलद्वार तथा लिंग की कर्म में प्रवृत्ति होने के कारण कर्मेन्द्रियाँ कहलाती हैं ।
मन आदि अन्तःकरण और उनके विविध कार्य –
93 & 94. अपनी क्रियाओं की विभिन्नता के अनुसार मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार – ‘अन्तःकरण’ कहलाते हैं । संकल्प-विकल्प के कारण ‘मन’ कहलाता है । पदार्थ की निश्चित अवधारणा के गुण से ‘बुद्धि’ कहलाता है । शरीर आदि में ‘मैं’ के अभिमान से ‘अहंकार’ कहलाता है और अपने सुख-साधन की खोज के गुण से ‘चित्त’ कहलाता है ।
पंचप्राण तथा उनके कार्य –
95. जैसे एक ही स्वर्ण (आभूषणों के रूप में) या जल (तरंगों, बुलबुलों आदि के रूप में) विभिन्न आकृतियाँ धारण कर लेता है, वैसे ही यह ‘प्राण’ क्रिया (तथा स्थान) के भेद से स्वयं ही प्राण-अपान-व्यान-उदान तथा समान – नामक पाँच वायुओं में परिणत होता है ।
सूक्ष्म शरीर के घटक –
96. (१) वाक् आदि पाँच कर्मेन्द्रियाँ, (२) श्रवण आदि पाँच, ज्ञानेन्द्रियाँ, (३) प्राण आदि पाँच वायु, (४) आकाश आदि पाँच महाभूत, (५) बुद्धि आदि अन्तःकरण-चतुष्टय, (६) अविद्या, (७) काम और, (८) कर्म – इन आठ पुरियों को सूक्ष्म शरीर कहते हैं ।
97. सुनो, सूक्ष्म शरीर को लिंग शरीर भी कहते हैं । यह अपंचीकृत पंच भूतों से गठित है; वासनाओं से युक्त होकर, कर्मफलों का भोग करानेवाला तथा अपने स्वरूप-ज्ञान के अभाव में आत्मा की अनादि उपाधि है ।
सूक्ष्म शरीर की स्वप्न अवस्था –
98 & 99. इस सूक्ष्म देहाभिमानी जीव की (जाग्रत से भिन्न) स्वप्न अवस्था होती है । इसमें (बाह्य करणों से रहित) अपना ही रूप अन्त तक दीप्तिमान रहता है । स्वप्न में बुद्धि स्वयं ही जाग्रत-काल की विभिन्न वासनाओं की सहायता से कर्तृत्व आदि भाव को प्राप्त करके विराजती है । यहाँ (स्वप्न में) यह परमात्मा स्वयं ही प्रकाशित होता है; (इसकी सभी वस्तुओं का) चिरकालीन द्रष्टा, केवल बुद्धिरूप उपाधियुक्त, बुद्धि द्वारा कल्पित कर्म के लेशमात्र द्वारा लिप्त नहीं होता, क्योंकि वह (आत्मा) असंग या निर्लिप्त है, अतः बुद्धिरूप उपाधि द्वारा कृत कर्मों के साथ जरा भी लिप्त नहीं होता ।
सूक्ष्म शरीर निर्लिप्त आत्मा की उपाधि है –
100. जैसे बढ़ई (अपने कार्य हेतु) बसुला आदि उपकरणों पर निर्भर करता है, वैसे ही चैतन्य-स्वरूप पुरुष (आत्मा) के सारे व्यावहारिक कर्म इस लिंग (सूक्ष्म) शरीर पर ही निर्भर हैं । इसीलिये आत्मा इस लिंग शरीर से पृथक् तथा असंग है ।
101. नेत्रों के गुण-दोष के कारण ही दृष्टि में अन्धता, अल्पता, तीक्ष्णता आदि लक्षण दीख पड़ते हैं; वैसे ही गूंगापन, बहरापन आदि मुख, कान आदि के दोष समझो, आत्मा के नहीं ।
पंचप्राण तथा उनके कार्य –
102. साँस लेना तथा छोड़ना, जँभाई लेना, छींकना, कफ निकलना आदि और देहत्याग – प्राण के कार्य हैं – ऐसा इस विषय के ज्ञाता कहते हैं । भूख तथा प्यास प्राण के धर्म हैं ।
मन आदि अन्तःकरणों का स्थान –
103. शरीर में ‘अन्तःकरण’ चैतन्य के आभास तथा तेज से युक्त होकर, नेत्र आदि (इन्द्रियों) से और ‘मैं’ (देखने तथा करनेवाला हूँ – इस) वृत्ति के साथ स्थित रहता है ।
अहंकार मीमांसा –
104. इस ‘अहंकार’ को, ‘मैं भले-बुरे कर्मों का कर्ता तथा सुख-दुःख का भोक्ता हूँ’ – इस बोध का अभिमानी समझना; और यही अहंकार सत्त्व आदि गुणों से जुड़कर जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति – नामक तीन अवस्थाओं को प्राप्त होता है ।
105. यह ‘अहंकार’ ही विषयों की अनुकूलता से सुखी तथा उनकी प्रतिकूलता से दुखी होता है । ये सुख तथा दुःख उस ‘अहंकार’ के गुण हैं; सदानन्दमय आत्मा के नहीं ।
आत्मा का सदानन्दमय स्वरूप –
106. इन्द्रियों के प्रिय विषय, अपने स्वतः के गुण से नहीं, अपितु ‘आत्मा’ के कारण प्रिय होते हैं । चूँकि आत्मा स्वतः ही सबका परम प्रिय है, अतः वह आत्मा सदानन्द है, उसको दुःख कभी नहीं हो सकता ।
107. इस कारण सुषुप्ति अर्थात् प्रगाढ़ निद्रा के समय भोग्य विषयों से रहित आत्मा के आनन्द का अनुभव होता है । (आत्मा के इस आनन्दमय स्वरूप के विषय में) श्रुति, प्रत्यक्ष, ऐतिह्य (परम्परा) तथा अनुमान – ये चार प्रमाण हैं ।
अनादि अनिर्वचनीय माया, अविद्या या अव्यक्त –
108. ‘माया’ या अविद्या परमेश्वर की शक्ति है । इसे अव्यक्त भी कहते हैं । यह अनादि माया ही सत्त्व आदि तीनों गुणों से समन्वित होकर (विश्व की) कारण-स्वरूप है । ज्ञानी लोग कार्य (जगत्) को देखकर उस (माया) का अनुमान करते हैं, जिसके द्वारा सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि होती है ।
109. यह (माया) सत् नहीं, असत् नहीं तथा उभयात्मिका भी नहीं है; (आत्मा से) भिन्न नहीं, अभिन्न नहीं तथा उभयात्मिका भी नहीं है; यह अंगयुक्त नहीं, अंगरहित नहीं तथा उभयात्मिका भी नहीं है; यह महा अद्भुत और अवर्णनीय स्वरूपवाली है ।
ब्रह्मज्ञान से त्रिगुणात्मक अविद्या माया का नाश –
110. जैसे रस्सी के ज्ञान से सर्प का भ्रम दूर होता है, वैसे ही शुद्ध अद्वय ब्रह्म के साक्षात्कार द्वारा इस (माया) का नाश होता है । अपने कार्यों से प्रसिद्ध होनेवाले सत्त्व, रज, तम – ये तीनों माया के ही गुण हैं ।
रजोगुण की विक्षेप शक्ति तथा उसके कार्य –
111. ‘रजोगुण’ से क्रियात्मक विक्षेप शक्ति प्रगट होती है, जिसके द्वारा चिर काल से विषयों में प्रवृत्ति का विस्तार हो रहा है । आसक्ति तथा दुख-सुख आदि जो मन के सारे विकार हैं, वे निरन्तर इसी से उत्पन्न होते हैं ।
112. काम, क्रोध, लोभ, दम्भ, दुर्भाव, अहंकार, ईर्ष्या, मात्सर्य आदि – ये घोर लक्षण रजोगुण के हैं, जिनसे मनुष्य के मन में सारी सांसारिक प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं । अतः रजोगुण ही बन्धन का कारण है ।
तमोगुण की आवरण शक्ति –
113. जिसके द्वारा वस्तु जैसी है, वैसी नहीं प्रतीत होती, वह ‘तमोगुण’ की ‘आवृत्ति’ या ‘आवरण’ नामक शक्ति है । यह आवरण- शक्ति ही व्यक्ति के संसार में आवागमन का कारण है और (रजोगुण से उद्भूत) ‘विक्षेप’-शक्ति कर्म में प्रवृत्ति का कारण है ।
114. मेधावी होकर भी, शास्त्रज्ञ होकर भी, व्यावहारिक बुद्धि से सम्पन्न होकर भी, अत्यन्त सूक्ष्म आत्मा के लक्षण जानकर भी, अनेक प्रकार से समझाये जाने पर भी, तमोगुण की (आवरण) शक्ति से अभिभूत होने के कारण, व्यक्ति (आत्मा को) असन्दिग्ध रूप से नहीं जान पाता । भ्रान्ति के वशीभूत होकर आरोपित (मिथ्या देह-गेह आदि) पदार्थों को सत्य तथा सुखद मानता है । उनके इन्हीं गुणों का अवलम्बन करता है । हाय, भयंकर तमोगुण की ‘आवरण’-शक्ति अत्यन्त प्रबल है ।
115. माया की इस ‘आवरण’-शक्ति से जुड़े हुए व्यक्ति को अभावना (अज्ञान) त्याग नहीं करता; विपरीत ज्ञान, अविश्वास तथा संशय त्याग नहीं करता । ‘विक्षेप’-शक्ति सचमुच ही अगणित प्रकार से भ्रान्ति उत्पन्न करती है ।
116. अज्ञान, आलस्य, जड़ता, निद्रा, प्रमाद (भ्रान्ति), मूर्खता आदि ‘तमोगुण’ के लक्षण हैं । इनसे बँधा हुआ व्यक्ति कुछ भी नहीं समझता; बल्कि निद्रालु अथवा लकड़ी के खम्भे के समान जड़ रहता है ।
शुद्ध तथा मिश्रित सत्त्वगुण के कार्य –
117. सत्त्वगुण जल के समान विशुद्ध है, तो भी रजोगुण तथा तमोगुण के साथ मिश्रित होकर संसार में आवागमन का कारण बनता है । शुद्ध चैतन्य-स्वरूप आत्मा सूर्य के समान सत्त्वगुण में प्रतिबिम्बित होकर जगत् के समस्त जड़ वस्तुओं को प्रकाशित करती है ।
118. अमानित्व आदि (गीता के अध्याय १३, श्लोक ८-१२ में कथित २० लक्षण); नियम (शौच, संतोष, तपस्या, स्वाध्याय तथा ईश्वरोपासना); यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह); श्रद्धा, भक्ति, मुमुक्षा तथा दैवी सम्पत्तियाँ (गीता के अध्याय १६ के श्लोक १-३ में कथित अभय आदि २६ लक्षण) और बुरे आचरण का त्याग – ये सभी मिश्रित ‘सत्त्वगुण’ के धर्म (लक्षण) हैं ।
119. प्रसन्नता, आत्म-स्वरूप का बोध, परम शान्ति, तृप्ति, अत्यन्त आनन्द, परमात्मा में निष्ठा; जिनके द्वारा निरन्तर आनन्द-रस का बोध होता रहता है – ये विशुद्ध ‘सत्त्वगुण’ के लक्षण हैं ।
कारण शरीर और उसकी सुषुप्ति अवस्था –
120. सत्त्व, रज तथा तम – इन तीन गुणों द्वारा जिस ‘अव्यक्त’ का वर्णन किया जाता है, वह आत्मा का ‘कारण’ शरीर है । जब इस (कारण-शरीर-अभिमानी आत्मा) को (जाग्रत तथा स्वप्न से) भिन्न उस अवस्था की प्राप्ति होती है, जिसमें इन्द्रियों तथा बुद्धि की सारी वृत्तियाँ लीन हो जाती हैं, तो उसे ‘सुषुप्ति’ अवस्था कहते हैं ।
121. सभी प्रकार के विषयों के ज्ञान की निवृत्ति और बुद्धि के बीज अर्थात् सूक्ष्म रूप से आत्मा (अर्थात् अविद्या रूप कारण शरीर) में निवास को ‘सुषुप्ति’ (गहरी निद्रा) की अवस्था कहते हैं । “मैं कुछ भी नहीं जानता” – यह पूरे जगत् का अनुभव होने के कारण सभी को इस (अविद्या रूप कारण शरीर) का बोध सम्भव है ।
अव्यक्त से विषयों तक सब अनात्मा और असत्य है –
122. देह, इन्द्रियाँ, प्राण, मन, अहंकार आदि हर तरह के विकार (परिवर्तनशील वस्तुएँ), इन्द्रियों के (शब्द, स्पर्श आदि) विषय, सुख-दुःख, आकाश आदि पंच महाभूत और अव्यक्त तक सम्पूर्ण विश्व- ब्रह्माण्ड – यह सब अनात्मा है ।
123. माया तथा महत् तत्त्व से लेकर देह तक माया के कार्यरूप सब कुछ मिथ्या तथा अनात्मा है । इसे तुम मरु-मरीचिका के समान (भ्रान्ति मात्र) समझो ।
124. अब मैं तुम्हें परमात्मा का स्वरूप विशेष रूप से बताता हूँ, जिसे जान लेने के बाद मनुष्य बन्धन से मुक्त हो जाता है और कैवल्य अवस्था को प्राप्त कर लेता है ।
साक्षी आत्मा पंच कोशों तथा तीन अवस्थाओं से भिन्न है –
125. (अन्नमय आदि) पंचकोशों से पृथक्, (जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति इन) तीन अवस्थाओं का साक्षी, ‘मैं’-‘मैं’ – बोध का नित्य आधार किसी चैतन्य तत्त्व का अस्तित्व (अवश्य) है ।
126. जो जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति – तीनों अवस्थाओं में बुद्धि की क्रिया – उसकी वृत्तियों की विद्यमानता तथा अभाव को, ‘मैं’ के रूप में जानता है, वही यह (चैतन्य-स्वरूप) आत्मा है ।
127. जो स्वयं सब कुछ देखता है, पर जिसे कोई भी नहीं देखता; जो बुद्धि-प्राण-इन्द्रियों आदि को चेतना देता है, पर बुद्धि आदि जिसे प्रकाशित नहीं कर पाते, वही (चैतन्य-स्वरूप) आत्मा है ।
128. जो इस सम्पूर्ण (स्थूल-सूक्ष्म) जगत् में व्याप्त है, परन्तु जिसे कोई भी व्याप्त नहीं कर सकता, यह विश्व जिसकी छाया-रूप है और जिसके प्रकाशित होने से यह सब कुछ प्रकाशित होता है – वही (चैतन्य-स्वरूप) आत्मा है ।
129. जिसके सान्निध्य मात्र से ही देह, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि अपने-अपने विषयों में मानो प्रेरित होकर लगी रहती हैं, वही यह (चैतन्य-स्वरूप) ‘आत्मा’ है ।
130. जिस नित्य-बोध-स्वरूप के द्वारा अहंकार से लेकर स्थूल देह तक, इन्द्रियों के सभी विषय और सुख-दुःख आदि का घट आदि के समान ज्ञान होता है, (वह ‘मैं’-रूपी आत्मा ही तुम्हारे जानने योग्य है) ।
131. यह अन्तरात्मा ही वह नित्य, अखण्ड, सुख के अनुभव स्वरूप, सर्वदा एकरूप, सभी विषयों में बोध-स्वरूप सनातन पुरुष है, जिसकी इच्छा से वाक् (वाणी) आदि इन्द्रियाँ तथा पंचप्राण अपने-अपने कार्यों में लगे रहते हैं ।
132. यह परम तेजोमय आत्मा – इस शरीर में, सत्त्वगुण से युक्त अन्तःकरण में, बुद्धिरूपी गुहा में तथा अव्यक्त आकाश (अर्थात् कारण शरीर) में निवास करता है और अपने तेज के द्वारा इस सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करता हुआ भी, सूर्य के समान उसके परे (साक्षीवत्) स्थित रहता है ।
133. यह आत्मा – मन तथा अहंकार के समस्त विकारों (रूपों) का ज्ञाता है और देह, इन्द्रियों तथा प्राणों के समस्त क्रिया-कलापों का भी ज्ञाता है; यह (तप्त) लौहपिण्ड में अग्नि के समान उन (मन आदि तथा क्रियाओं) में निहित रहता है, तथापि उसमें न कोई क्रिया होती है और न ही कोई परिवर्तन ही आता है ।
134. यह आत्मा नित्य है; न यह जन्म लेती है, न मरती है, न इसमें वृद्धि होती है, न इसका क्षय होता है और न इसमें कोई विकार आता है; जैसे घड़े के फूट जाने पर भी उसमें व्याप्त आकाश नष्ट नहीं होता, वैसे ही इस शरीर की मृत्यु के बाद भी उसमें स्थित आत्मा का नाश नहीं होता ।
135. प्रकृति (अर्थात् अव्याकृत तथा पंच महाभूत आदि कारण) और विकृति (अर्थात् शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक उसके कार्य) से भिन्न, यह शुद्ध ज्ञान-स्वरूप निर्गुण परमात्मा, बुद्धि के साक्षी के रूप में, इस अनन्त सत्-असत् (स्थूल-सूक्ष्म जगत्) को प्रकाशित करता हुआ, जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति अवस्थाओं में ‘मैं-मैं’ के रूप में लीला कर रहा है ।
136. हे शिष्य, तुम पूर्वोक्त लक्षण युक्त अपने आत्मस्वरूप को संयमित मन के द्वारा, निर्मल बुद्धि की कृपा से, स्वयं में ‘यह’ ‘मैं’ ही हूँ – ऐसा साक्षात् अनुभव करो; और (इस तरह) जन्म-मृत्यु-रूपी तरंगोंवाले अपार संसार-सागर को पार करके, ब्रह्म-स्वरूप में स्थित होकर कृतार्थ हो जाओ ।
बन्धन तथा उसके परिणाम –
137. देह आदि अनात्म-वस्तुओं में ‘मैं’ का बोध ही बन्धन है, जो अज्ञान द्वारा प्राप्त हुआ है और व्यक्ति के जन्म-मृत्यु आदि कष्टों की प्राप्ति का कारण है । जैसे रेशम का कीड़ा अपने तन्तुओं द्वारा कोआ बनाता है, वैसे ही वह इस अनित्य शरीर को सत्य मानकर इसमें ‘अहं’-बोध रखते हुए विषयों द्वारा इसके पोषण, शोधन तथा पालन में लगा रहता है ।
138. तमोगुण अर्थात् अज्ञान के द्वारा भ्रमित व्यक्ति को इस देहादि में आत्म-बुद्धि पैदा होती है । विवेक के अभाव में ही सर्प में रज्जु की धारणा होती है, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति अनेक विपत्तियों में जा गिरता है । अतः हे सखे, सुनो, मिथ्या वस्तु को ग्रहण करना ही बन्धन का कारण बन जाता है ।
तमोगुण की आवरण शक्ति तथा उसके परिणाम –
139. (ग्रहण-काल में) जैसे राहु विराट् सूर्य-मण्डल को पूरी तौर से ढक देता है, वैसे ही (माया की) यह तमोगुण-मयी आवरण-शक्ति अखण्ड, नित्य, अद्वय ज्ञान-शक्ति से प्रकाशमान अनन्त वैभवशाली आत्मा को आवृत्त कर लेती है ।
140. अति निर्मल, तेजोमय आत्म-स्वरूप जब अज्ञान से ढककर तिरोभूत प्रतीत होने लगता है, तब व्यक्ति भ्रान्तिवश अनात्मा शरीर को ही ‘मैं’ समझने लगता है । इसके बाद रजोगुण की ‘विक्षेप’ नामक प्रबल शक्ति व्यक्ति को काम-क्रोध आदि की रस्सियों से बाँधकर बहुत कष्ट देती है ।
माया की आवरण तथा विक्षेप शक्तियों द्वारा बन्धन की सृष्टि –
141. (मूल अज्ञान से उत्पन्न) महामोह रूपी मगरमच्छ के जबड़े में पड़कर, दुर्बुद्धि तथा कुत्सित गति को प्राप्त हुआ जीव, अपना आत्मज्ञान पाने का प्रयास भूल गया है; वह बुद्धि की (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति-रूपी) विभिन्न अवस्थाओं और (कर्तृत्व, भोक्तृत्व-रूपी) उसके गुणों का अनुकरण करते हुए, इस अपार संसार-समुद्र के विषय-रूपी विष के प्रवाह में कभी डूबता, तो कभी उतराता हुआ भ्रमण करता रहता है ।
142. जैसे सूर्य के तेज से निर्मित होनेवाली बादलों की पंक्ति सूर्य को ही ढककर स्वयं को प्रकाशित करने लगती हैं, वैसे ही आत्मा से उदित होनेवाला ‘अहं’ आत्म-तत्त्व को ढककर स्वयं को प्रकाशित करने लगता है ।
143. जैसे बुरे मौसम वाले दिन सूर्य घने बादलों से ढक जाने पर, ठण्डी हवा की आँधी मेघों को आकाश में इधर-उधर भगाती रहती है; वैसे ही आत्मा के निश्छिद्र अज्ञान-अन्धकार द्वारा ढक लिये जाने पर प्रबल विक्षेप-शक्ति मूढ़-बुद्धि व्यक्ति को अनेक प्रकार से कष्ट देते हुए पीड़ित करती है ।
144. (आवरण तथा विक्षेप) इन दो शक्तियों के कारण ही व्यक्ति बन्धन में पड़ा है; और इन्हीं से भ्रमित होकर वह देह को ही आत्मा समझकर संसार में भटकता रहता है ।
संसार-वृक्ष और फल-भोक्ता जीव-पक्षी –
145. इस संसार-रूपी वृक्ष का बीज अज्ञान है, देह में आत्मबुद्धि इसका अंकुर है, आसक्ति इसकी कोमल पत्तियाँ हैं, कर्म जल है, शरीर तना है, पंच प्राण इसकी शाखाएँ हैं, इन्द्रियाँ इसका अग्रभाग हैं, शब्द- स्पर्श-रूप आदि विषय इसके पुष्प हैं और विभिन्न कर्मों द्वारा उत्पन्न अनेक प्रकार के दुःख इसके फल हैं । जीव-रूपी पक्षी इस संसार-वृक्ष के फलों का भोक्ता है ।
अज्ञान ही बन्धन का मूल कारण है –
146. अज्ञान से उत्पन्न, देह आदि अनात्म वस्तुओं में (तादात्म्य- रूपी) इस बन्धन को स्वाभाविक रूप से अनादि तथा अनन्त कहा गया है । यही जीव के लिये जन्म, मृत्यु, रोग, वार्धक्य आदि दुःखों के प्रवाह की सृष्टि करता रहता है ।
विवेक द्वारा अज्ञान का नाश –
147. यह अज्ञान-बन्धन न तो अस्त्र-शस्त्रों से, न वायु से, न अग्नि से और न करोड़ों कर्मों के द्वारा ही नष्ट हो सकता है । विधाता की कृपा से प्राप्त विवेक-विज्ञान-रूपी तीक्ष्ण सुन्दर महा-खड्ग के बिना इसे नष्ट नहीं किया जा सकता है ।
संसार-वृक्ष के नाश का उपाय –
148. वेद-प्रमाण में विश्वास तथा (उनमें कथित) कर्तव्य-कर्मों में निष्ठा – इन्हीं के द्वारा व्यक्ति की चित्तशुद्धि होगी, इस विशुद्ध चित्त के द्वारा ही परमात्मा का ज्ञान होगा और इस ज्ञान के द्वारा ही संसार-वृक्ष का समूल नाश होगा ।
आत्मा के पाँच कोश –
149. जैसे कुएँ का जल, अपनी ही शक्ति से उत्पन्न शैवाल- समूह के द्वारा आच्छादित हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी (अपनी ही शक्ति से उत्पन्न) अन्नमय आदि पंच कोशों से आवृत्त हो जाने के कारण प्रकाशित नहीं होती ।
150. उस शैवाल-समूह को हटा देने पर, व्यक्ति के समक्ष, प्यास का कष्ट दूर करनेवाला तथा पीते ही तत्काल तृप्ति प्रदान करनेवाला अत्यन्त शुद्ध जल प्रकट हो जाता है ।
151. (उसी प्रकार विवेक-बुद्धि के द्वारा) पंचकोशों में आत्मबुद्धि नष्ट हो जाने पर विशुद्ध, नित्य, आनन्दमय, एकरस, अन्तर्यामी-रूप, सर्वश्रेष्ठ, स्वयंज्योति, अन्तरात्मा प्रकट हो जाती है ।
152. विचारवान व्यक्ति को संसार-बन्धन से मुक्ति हेतु आत्म- अनात्म-विवेक का अभ्यास करना चाहिये । इस विचार के द्वारा ही वह अपने सच्चिदानन्द-ब्रह्म-स्वरूप को जानकर आनन्दमय हो जाता है ।
153. जैसे मुँज-घास के छिलके को हटा दिया जाता है, वैसे ही (देह-मन आदि) सभी दृश्य पदार्थों में से विचार के द्वारा द्रष्टा, निर्लिप्त, निष्क्रिय आत्मा को पृथक् करके, उसी में सब कुछ को विलीन करके, जो आत्मा के साथ अभिन्न होकर रहता है, वही मुक्त है ।
अन्नमय कोश (स्थूल देह) पर विचार –
154. अन्न से उत्पन्न यह देह ही ‘अन्नमय-कोश’ है । यह अन्न से जीवित रहता है और उसके अभाव में नष्ट हो जाता है । त्वचा, चर्म, मांस, रक्त, अस्थि, विष्ठा आदि की राशि यह शरीर – नित्य-शुद्ध आत्मा होने के योग्य नहीं है ।
155. यह अन्नमय कोश (शरीर) जन्म के पूर्व और मृत्यु के बाद भी विद्यमान नहीं रहता । यह क्षणिक अस्तित्व वाला, क्षणिक गुणों वाला, सतत परिवर्तनशील स्वभाव वाला है; यह सर्वदा एकरूप नहीं रहता । यह जड़ है और घट के समान कुछ काल के लिये दीख पड़ता है । यह देहादि में होनेवाले परिणाम या परिवर्तनों का द्रष्टा-रूप आत्मा कैसे हो सकता है?
156. अंगहीन होने पर भी जीवित रहता है, इससे भी समझा जा सकता है कि हाथ-पाँवों से युक्त यह देह आत्मा नहीं है । किसी-किसी अंग का नाश होने पर भी, उस-उस इन्द्रिय की शक्ति का नाश न होने से (सिद्ध होता है कि) आत्मा किसी नियम के अधीन नहीं, अपितु देह आदि का नियन्ता है ।
157. देह, उसके धर्म, उसके कर्म तथा उसकी अवस्थाओं का साक्षी सत्-स्वरूप आत्मा है; इस (आत्मा) का देह आदि से पार्थक्य स्वतः ही सिद्ध है ।
158. यह शरीर हड्डियों का ढाँचा है, जिस पर मांस का लेप किया हुआ है, यह मल आदि से परिपूर्ण है और अत्यन्त दूषित है; यह शरीर स्वयं ही भला कैसे स्वयं से भिन्न अपना ज्ञाता (आत्मा) हो सकता है?
159. इस त्वचा, मांस, चर्बी, अस्थि तथा मल-मूत्र की राशि (शरीर) में – मूढ़जन ही ‘मैं’-बुद्धि लाते हैं । जबकि विचारशील व्यक्ति इन सबसे भिन्न परमार्थ तत्त्व (आत्मा) को ही अपने स्वरूप के रूप में जानते हैं ।
160. जड़बुद्धि के लोग ‘देह’ को ही ‘मैं’ मानते हैं; शास्त्र पढ़कर आत्मा के विषय में जाननेवाले कभी देह को और कभी (प्राण-मन-बुद्धि से युक्त) ‘जीवात्मा’ को ‘मैं’ मानते हैं; परन्तु जिन्होंने आत्म-अनात्म का विचार करके आत्मा को विशेष रूप से जान लिया है, ऐसे महात्मा लोगों की स्वयं में सर्वदा ‘मैं ब्रह्म हूँ’ – ऐसी धारणा बनी रहती है ।
161. हे निर्बोध मनुष्य ! तुम इस त्वचा, मांस, चर्बी, हड्डी, मल-मूत्र की राशि (शरीर) में ‘मैं’-बुद्धि को छोड़ दो; और ‘सबकी अन्तरात्मा-स्वरूप निर्विकल्प ब्रह्म’ में अपनी ‘मैं’-बुद्धि को लगाओ; और इस प्रकार परम शान्ति का अनुभव करो ।
162. कोई विद्वान् व्यक्ति भले ही वेदान्त-न्याय आदि शास्त्रों में पारंगत हो, तथापि जब तक वह इस मिथ्या देह-इन्द्रियों आदि में भ्रम से उत्पन्न हुई अहंता (‘मैं’-भाव) को नहीं त्यागता, तब तक उसकी मुक्ति की कोई बात ही नहीं उठती !
163. जैसे शरीर की छाया में, शरीर के प्रतिबिम्ब में, स्वप्न में देखे हुए शरीर में और मन में कल्पना किये गये शरीर में तुम्हारी जरा भी आत्मबुद्धि नहीं आती, वैसे ही जीवित शरीर में भी आत्मबुद्धि नहीं आनी चाहिये ।
164. चूँकि देह में आत्मबुद्धि ही अशुद्ध चित्तवाले लोगों के जन्म, जरा, व्याधि, मृत्यु आदि दुःखों का कारण है, अतः तुम इस देहात्म-बुद्धि को खूब यत्नपूर्वक त्याग दो । इस चित्त का त्याग कर देने के बाद पुनः जन्म आदि की सम्भावना नहीं रहती ।
प्राणमय कोश पर विचार –
165. पाँच कर्मेन्द्रियों से युक्त यह प्राण ही ‘प्राणमय कोश’ हुआ है । इसी के भीतर से पूरित होने से अन्नमय कोश (स्थूल शरीर) चेतनावान् होकर समस्त कार्यों में प्रवृत्त होता है ।
166. यह ‘प्राणमय कोश’ भी वायु का विकार है, क्योंकि यह श्वास-प्रश्वास के जैसे भीतर जाता और बाहर आता है; उसे भला-बुरा, अपना-पराया जरा भी नहीं समझता, नित्य परतंत्र होने से (यह प्राणमय कोश भी) आत्मा नहीं है ।
मनोमय कोश पर विचार –
167. पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, घ्राण तथा जिह्वा) और मन – एक साथ ‘मनोमय कोश’ कहलाते हैं । यह कोश जागतिक पदार्थों में ‘मैं’ और ‘मेरा’ रूपी कल्पना का कारण है । यह नाम आदि भेद करने की शक्ति से युक्त बलवान होने से, पिछले – प्राणमय कोश को व्याप्त करके व्यक्त होता है ।
168. विविध प्रकार की कामना-वासनाओं रूपी इंधन से जाज्वल्यमान यह ‘मनोमय कोश’ रूपी अग्नि, पाँच ज्ञानेन्द्रियों रूपी पाँच हवनकर्ताओं के द्वारा, पाँच विषयों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) रूपी घी (आहुति) की धारा से प्रचण्ड होकर इस जगत्-प्रपंच को वहन करती है अर्थात् चलाती है ।
169. मन के अतिरिक्त अन्य कोई अविद्या या अज्ञान नहीं है । मन ही भव-बन्धन का कारणभूत अविद्या है । उसके नष्ट हो जाने पर संसार का सब नष्ट हो जाता है; और उसका उदय होने से समस्त विश्व-प्रपंच का उदय हो जाता है ।
170. विषयों के अस्तित्व से रहित स्वप्न-अवस्था में मन ही अपनी शक्ति से भोक्ता, भोग्य आदि के रूप में समस्त संसार का सृजन करता है । जाग्रत अवस्था भी उससे भिन्न नहीं है, बल्कि वैसे ही यह सब कुछ मन का ही विलास है ।
171. सुषुप्ति अर्थात् प्रगाढ़ निद्रा के समय मन के लीन हो जाने पर कुछ भी नहीं रह जाता – यह सबका अनुभव है । अतः यह संसार व्यक्ति की कल्पना मात्र है, वास्तविक नहीं ।
172. जिस प्रकार वायु ही (आकाश में) बादल को लाते हैं और फिर वे ही उन्हें हटाकर ले जाते हैं, उसी प्रकार मन के द्वारा ही बन्धन की कल्पना की जाती है और उसी के द्वारा मोक्ष की भी कल्पना की जाती है ।
173. वह मन ही देह-इन्द्रिय तथा रूप-रस आदि सारे विषयों में आसक्ति की सृष्टि करता है; और जैसे रस्सी द्वारा पशु को बाँधा जाता है, वैसे ही इस आसक्ति के द्वारा जीव को बाँधता है । फिर बाद में देह आदि सारे विषयों के प्रति विष के समान विरक्ति पैदा करके इस बन्धन से छुड़ा देता है ।
174. अतः मन ही जीव के बन्धन तथा मोक्ष का कारण है । रजोगुण से मलिन हुआ मन बन्धन का कारण होता है और रजोगुण तथा तमोगुण से शुद्ध हुआ मन मोक्ष का कारण बन जाता है ।
विवेक-वैराग्य से मन की शुद्धि –
175. विवेक तथा वैराग्य – इन दो गुणों की वृद्धि से शुद्धता को प्राप्त होकर, मन मुक्ति के लिये तैयार होता है । अतः बुद्धिमान मुमुक्षु का कर्तव्य है कि वह सर्वप्रथम इन्हीं दोनों गुणों को दृढ़ करने का प्रयास करे ।
176. मन नाम का विशाल बाघ विषय-रूपी वनभूमि में घूमता रहता है । मुमुक्षु साधकों के लिये उचित है कि वे इस विषय-वन में न जाएँ ।
177. यह मन जाग्रत अवस्था में स्थूल रूप से और स्वप्न अवस्था में सूक्ष्म रूप से, निरन्तर असंख्य विषयों की सृष्टि करता है और भोक्ता जीव के शरीर, वर्ण, आश्रम, जाति के भेदों तथा उनके गुण, क्रिया, क्रिया के कारण तथा उससे प्राप्त होने वाले फलों का सृजन करता रहता है ।
178. आत्मा असंग चैतन्य-स्वरूप है, परन्तु मन उसे विमोहित (भ्रमित) करके, देह-इन्द्रिय-प्राण-रूपी रस्सियों द्वारा बाँधकर, ‘मैं’ और ‘मेरा’ – इस भाव के द्वारा सुख-दुःख आदि का उपभोग कराता है और स्वयं कामना-संकल्प आदि कर्मों में निरन्तर घुमाता रहता है ।
179. अध्यास* के दोष से ही पुरुष को यह जन्म-मृत्युमय संसार प्राप्त होता है । यह अध्यास-रूपी बन्धन निश्चय ही केवल मन द्वारा कल्पित है । यह मन ही रजोगुण तथा तमोगुण के दोषों से युक्त होकर अविवेकी पुरुष के जन्म आदि समस्त दुःखों का मूल कारण होता है ।
180. इसीलिये तत्त्वदर्शी ज्ञानी लोग मन को ही अविद्या (अज्ञान) कहते हैं । जैसे मेघों का समूह वायु के द्वारा (आकाश में) इधर-उधर परिचालित होता है, उसी प्रकार यह सारा संसार मनरूपी अविद्या के द्वारा परिचालित हो रहा है ।
मनःशुद्धि का महत्त्व –
181. अतः मुक्तिकामी साधक को प्रयत्नपूर्वक इस मन की शुद्धि का कार्य करना चाहिये । इसके शुद्ध हो जाने पर मुक्ति हाथ पर रखे हुए फल के समान सुलभ हो जाती है ।
182. (जो व्यक्ति) मोक्ष के प्रति प्रगाढ़ प्रीति के द्वारा, समस्त इन्द्रियग्राह्य (सौन्दर्य, रूप, रस, गन्ध आदि) विषयों के प्रति आसक्ति का समूल नाश और समस्त (सकाम) कर्मों का त्याग कर देता है; और सत्-स्वरूप ब्रह्म में पूर्ण श्रद्धा के साथ (शास्त्र या गुरुवाक्य के) श्रवण- मनन तथा निदिध्यासन में निष्ठावान हो जाता है, इस प्रकार वह अपनी बुद्धि की रजोगुणी वृत्ति का नाश कर डालता है ।
183. मनोमय कोश उत्पन्न और नष्ट होता है, इसमें परिणाम (परिवर्तन) होता है, यह दुःखात्मक है, यह (अन्य वस्तुओं के समान) एक विषय है, इस कारण यह भी कदापि परमात्मा नहीं हो सकता । द्रष्टा कभी दृश्य के रूप में दीख नहीं सकता ।
विज्ञानमय कोश पर विचार –
184. पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा (कर्तृत्व आदि) वृत्तियों से युक्त बुद्धि को ‘विज्ञानमय कोश’ कहते हैं । यही जीव के संसार (जन्म-मृत्यु रूपी आवागमन) का कारण है ।
185. चित्-शक्ति या चैतन्य के प्रतिबिम्ब को लेकर विद्यमान, प्रकृति (जड़) का विकार (कार्य), ज्ञान तथा क्रिया शक्ति से सम्पन्न (यह) विज्ञानमय कोश सर्वदा, पूर्ण रूप से देह-इन्द्रियों आदि में ‘मैं’ अभिमान किये रहता है ।
186 & 187. यह ‘अहं-स्वभाववाला’ विज्ञानमय कोश रूपी जीव अनादि काल से ही समस्त लौकिक तथा व्यावहारिक कर्मों का निर्वाहक है । यह अपनी पुरानी वासनाओं के अनुसार पुण्य तथा पाप करता है और उनके फल भी भोगता है । यह विभिन्न (मनुष्य, देव या पशु) योनियों में जन्म लेकर कभी ऊर्ध्व गति, तो कभी अधोगति को प्राप्त होता है । यही जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओं का अनुभव करता है और सुख-दुःख का भोग भी यह विज्ञानमय कोश ही करता है ।
188. यह (विज्ञानमय कोश) देह आदि द्वारा होनेवाले आश्रमविहित धर्म, कर्म, गुणों में – ‘यह सब मेरा ही है’ – निरन्तर ऐसा अभिमान लेकर आचरण करता रहता है । परमात्मा के निकट सान्निध्य के कारण यह (विज्ञानमय कोश) अत्यन्त प्रकाशमान है । इसी कारण यह इस (शुद्ध आत्मा) की उपाधि बन जाता है । वही भ्रान्तिवश स्वयं में ‘मैं’ बुद्धि आरोपित करके संसार में आवागमन करता है ।
189. यह ज्योति-स्वरूप विज्ञानमय कोश – समस्त प्राणों, कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों तथा हृदय में स्फुरित होता रहता है । चैतन्य-स्वरूप आत्मा कूटस्थ (स्थिर) होते हुए भी (विज्ञानमय) उपाधि से युक्त होकर कर्ता-भोक्ता बन जाता है ।
190. स्वयं सर्वात्मक होकर भी, (यह आत्मा) मिथ्या-स्वरूप वाली बुद्धि (विज्ञानमय कोश) की ससीमता को ग्रहण कर लेती है । फिर उसके साथ तादात्म्य अर्थात् अभिन्नता के दोष से स्वयं को अपनी आत्मा से वैसे ही पृथक् देखती है, जैसे कि (अज्ञानी व्यक्ति) घड़ों को मिट्टी से भिन्न देखता है ।
191. यह परात्मा अपने स्वरूप से सदा एकरूप होकर भी, अपने से भिन्न उपाधि के सम्बन्ध के फलस्वरूप उसके गुणों से युक्त होकर उस उपाधि के लक्षणों को वैसे ही प्रकट करता है, जैसे कि अविकारी अग्नि लौहपिण्ड के संयोग से उसके आकार को व्यक्त करता है ।
192. शिष्य बोला – भ्रम के कारण या किसी अन्य कारण से परमात्मा को जिस जीवभाव की प्राप्ति हुई है, वह अविद्या-रूपी उपाधि अनादि मानी जाती है । और अनादि वस्तु का नाश तो कभी सम्भव ही नहीं है !
193. अतः आत्मा का जीवभाव (कल्पित हो, या सत्य हो) कभी दूर होने वाला नहीं है और जन्म-मृत्यु-रूपी संसार भी सदा बना रहेगा । तो फिर, हे श्रीगुरु, मुझे बताइये कि इस जीवभाव से मेरी मुक्ति कैसे होगी?
जीव-भाव-रूपी बन्धन भ्रम से प्रतीत होता है –
194. श्रीगुरु बोले – हे विद्वान् शिष्य, तूने उत्तम प्रश्न किया, उसका उत्तर सावधानी से सुन । भ्रम के कारण उत्पन्न मोहाच्छन्न व्यक्ति की ‘मैं जीव हूँ’ – यह मिथ्या कल्पना प्रमाण-सिद्ध नहीं है ।
195. जैसे भ्रम के बिना आकाश में नीलिमा आदि नहीं दीख सकती; वैसे ही अज्ञान के बिना असंग, निष्क्रिय, निराकार आत्मा का विषय के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता ।
196. साक्षी, निर्गुण, निष्क्रिय तथा प्रत्येक जीव के अन्तर में बोध तथा आनन्द के रूप में विद्यमान आत्मा में बुद्धि भ्रम से ही जीवभाव की प्राप्ति हुई है । वह सत्य नहीं है । (यह भ्रम) अवस्तु होने के कारण, मोह के दूर हो जाने पर यह जीवभाव भी नहीं रह जाता ।
197. जैसे भ्रम के समय ही रस्सी में साँप दिखता है; भ्रम के दूर हो जाने पर साँप भी लुप्त हो जाता है; वैसे ही, जब तक प्रमादवश होनेवाली भ्रान्ति रहती है, तभी तक यह मिथ्या ज्ञान से उत्पन्न जीवभाव की सत्ता टिकती है ।
198 & 199. अविद्या तथा उसके कार्यों (अन्तःकरण, जगत् आदि) का भी अनादित्व स्वीकार किया गया है । परन्तु विद्या (ज्ञान) उत्पन्न हो जाने पर; मूल अविद्या तथा उसके (अन्तःकरण आदि) सारे कार्य, अनादि होने पर भी, वैसे ही नष्ट हो जाते हैं, जैसे जागने पर स्वप्न लुप्त हो जाता है । यह (अविद्या से उत्पन्न) सारा विश्व-प्रपंच अनादि होकर भी ‘प्राग्-अभाव’* के समान नित्य नहीं है, ऐसी स्पष्ट उपलब्धि होती है ।
200 & 201. प्राग्-अभाव अनादि होने पर भी, उसका विध्वंस देखने में आता है । बुद्धि-उपाधि के साथ सम्बन्ध से आत्मा में जीवभाव परिकल्पित हुआ है, परन्तु अन्य (शुद्ध आत्मा) स्वरूपतः उस (जीव) से भिन्न है । बुद्धि के साथ आत्मा का सम्बन्ध मिथ्या ज्ञान के फलस्वरूप है ।
सम्यक् ज्ञान से ही अज्ञान की निवृत्ति होती है –
202. सम्यक् ज्ञान से ही इस (बुद्धि-आत्मा के सम्बन्ध रूपी) अज्ञान की पूर्ण निवृत्ति होती है, किसी अन्य उपाय से नहीं । श्रुति के मतानुसार – ब्रह्म तथा आत्मा के एकत्व का विज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है ।
203. वह (सम्यक् ज्ञान) आत्मा तथा अनात्मा के बीच सम्यक् विवेक के द्वारा ही सिद्ध होता है । अतः अन्तरात्मा तथा मिथ्या आत्मा दोनों के बीच विवेक करना उचित है ।
204. जैसे खूब कीचड़ घुला हुआ जल (मलिन दिखता है, परन्तु) कीचड़ के दूर हो जाने पर वही जल स्वच्छ दिखता है, वैसे ही आत्मा भी अज्ञान दोष के दूर हो जाने पर स्पष्ट रूप से प्रकाशित होने लगता है ।
205. असत् (उपाधियों) की निवृत्ति हो जाने पर ही, इस प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) की सत्-स्वरूप आत्मा के रूप में स्पष्ट अनुभूति होती है । अतएव व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने सत्-स्वरूप आत्मा से अहंकार आदि वस्तुओं को भलीभाँति निकाल डाले ।
206. अतः यह विज्ञानमय नाम से वर्णित होनेवाला कोश भी परम आत्मा नहीं हो सकता; क्योंकि यह विकारवान् (परिवर्तनशील), जड़, परिछिन्न (सीमाबद्ध), दृश्य (इन्द्रियग्राह्य वस्तु), अस्थिर होने के कारण अनित्य है; (अतः) यह नित्य (आत्मा) नहीं हो सकता ।
आनन्दमय कोश पर विचार –
207. ‘आनन्दमय कोश’ – आनन्दमय आत्मा का प्रतिबिम्ब- स्वरूप है, परन्तु इसमें आनन्द की वृत्ति अज्ञान के माध्यम से प्रगट होने के कारण, यह तमोगुण से आवृत्त है । यह व्यक्ति के आकांक्षित वस्तुओं की प्राप्ति से उदय होनेवाले प्रिय आदि (प्रिय, मोद, प्रमोद) तीन गुणों से युक्त है । पुण्य कर्मों का अनुष्ठान करनेवाले भाग्यवान लोगों को जिस स्वतःस्फूर्त आनन्द का बोध होता है, वह आनन्दमय कोश में ही निहित है । इसी में समस्त देहधारी जीव बिना चेष्टा के ही आनन्द प्राप्त करते हैं ।
208. सुषुप्ति (प्रगाढ़ निद्रा) के समय (किसी भी विरोधी वृत्ति के अभाव में) आनन्दमय कोश की पूर्ण अभिव्यक्ति होती है; और स्वप्न तथा जाग्रत अवस्था के दौरान अपने अभीष्ट वस्तुओं के दर्शन के कारण अल्प अभिव्यक्ति होती है ।
209. यह आनन्दमय कोश भी कदापि परमात्मा नहीं है, क्योंकि यह (प्रिय, मोद, प्रमोद आदि) उपाधियों से युक्त है, (यह) प्रकृति का (अविद्याजनित) एक विकार (परिणाम) है, (यह) पुण्य-कर्मों के कार्य (फल) पर निर्भर है और विकारशील अन्य अन्नमय आदि कोशों से आच्छादित है ।
पाँचों कोशों के निराकरण से आत्मबोध –
210. श्रुति (उपनिषद्-वाक्यों) की युक्ति की सहायता से (नेति- नेति विचार के द्वारा) पाँचों कोशों का निराकरण कर दिये जाने के बाद अन्ततः केवल एक साक्षी बोधरूप आत्म-चैतन्य ही बच रहता है ।
211. यह स्वयंप्रकाश (ज्योतिर्मय) आत्मा – (आनन्दमय आदि) पंच कोशों से भिन्न तथा (जाग्रत आदि) तीनों अवस्थाओं का साक्षी होने के कारण – (जन्म आदि छह) विकारों से रहित, निर्मल, सदानन्द-स्वरूप है और विवेकवान व्यक्तियों द्वारा अपनी आत्मा के रूप में जानने योग्य है ।
212. शिष्य बोला – हे गुरुदेव, इन पाँचों कोशों को मिथ्या समझकर छोड़ देने के बाद, इस जगत् में मुझे सर्व पदार्थों के अभाव (शून्यता) के सिवा अन्य कुछ भी नहीं दिखता । आत्मविचार करनेवाले व्यक्ति के लिये अपनी आत्मा (मैं) के रूप में जानने को अब कौन-सी वस्तु बच रही?
आत्मा का स्वरूप –
213 & 214. श्रीगुरु बोले – हे विद्वान् शिष्य, तूने ठीक कहा । तू विचार करने में निपुण है । (जाग्रत तथा स्वप्न में) अहंकार आदि विकार और तदुपरान्त (सुषुप्ति में) उसका अभाव भी – यह सब कुछ जिसके द्वारा अनुभव किया जाता है और जो स्वयं अनुभव का विषय नहीं है, उसी ज्ञाता ‘आत्मा’ को तुम अपनी अति सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा जान लो ।
215. जिस-जिस विषय का जिस व्यक्ति को अनुभव होता है, उस-उस विषय के अस्तित्व के साक्षी के रूप में वह अनुभवी व्यक्ति विद्यमान रहता है । (परन्तु) वस्तु की अनुभूति के अभाव में उसके साक्षी होने का प्रश्न ही नहीं उठता ।
216. चूँकि यह स्वसाक्षी भाव (अस्तित्व) वाली अन्तरात्मा स्वयं ही अपना अनुभव करती है, अतः यह स्वयं ही साक्षात् परब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है ।
217. वह जो अन्तरात्मा के रूप में, निरन्तर ‘मैं’-‘मैं’ के रूप में, अन्तर में अनेकों प्रकार से स्फुरित होता है और जाग्रत्, स्वप्न तथा सुषुप्ति (इन तीन अवस्थाओं) में स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होता है, इस विभिन्न प्रकार के आकार-विकार धारण करनेवाले अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार) को (साक्षी रूप से) देखता हुआ, जो नित्य- आनन्द-चैतन्य-स्वरूप हृदय में स्फुरित होता है, उसी (आत्मा) को तुम अपना स्वरूप जानो ।
218. जैसे मूर्ख व्यक्ति घड़े में पड़ते सूर्य के प्रतिबिम्ब को देखकर उसी को सच्चा सूर्य समझ बैठता है, वैसे ही जड़ बुद्धिवाला व्यक्ति (मन, बुद्धि आदि) उपाधियों पर पड़ रहे शुद्ध चैतन्य के प्रतिबिम्ब को ही ‘मैं’ मानने लगता है ।
219. उसी प्रकार जैसे कि घट, उसमें जल तथा उसमें पड़ रहे सूर्य के प्रतिबिम्ब – सबको छोड़कर विद्वान् व्यक्ति इन तीनों के प्रकाशक, उपाधिरहित, स्वयंप्रकाश सूर्य का अवलोकन करता है ।
220, 221 & 222. उसी प्रकार शरीर (घट), बुद्धि (जल) तथा उसमें प.ड़ रहे चैतन्य के प्रतिबिम्ब (अहंता) को छोड़कर, शुद्ध बुद्धिरूपी गुहा में निहित अखण्ड ज्ञान-स्वरूप, द्रष्टा, सर्व-वस्तुओं के प्रकाशक, कारण- कार्य (सत्-असत्) से भिन्न आत्मा को नित्य, विभू (सर्वव्यापी), सर्वगत (सर्वचारी), अति सूक्ष्म, भीतर-बाहर से रहित, अपनी आत्मा से अभिन्न, अपने इस स्वरूप को भलीभाँति जानकर, आत्मज्ञ पुरुष – (स्वयं को) निष्पाप, रजोगुण की चंचलता तथा मलिनता आदि दोषों से रहित, मृत्यु के दुख से रहित बोध करते हैं । ऐसे कोई-कोई नित्यज्ञानी विद्वान् स्वयं को शोकहीन तथा आनन्द-स्वरूप बोध करके (‘अभयता’ में स्थित होकर) किसी से भी भय नहीं पाते । मुमुक्षु साधक के लिये आत्मतत्त्व की उपलब्धि के अतिरिक्त भव-बन्धन से मुक्त होने का दूसरा कोई मार्ग नहीं है ।
ब्रह्म तथा आत्मा की अभिन्नता –
223. ब्रह्म के साथ आत्मा की अभिन्नता का ज्ञान ही भवबन्धन से मुक्ति का कारण है । इसी ज्ञान के द्वारा विवेकी साधकों को अद्वितीय आनन्द-स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति होती है ।
224. ब्रह्म में स्थित विद्वान् निश्चय ही पुनः (जन्म-मृत्यु के) संसार-चक्र में लौटकर नहीं आते । अतः आत्मा व ब्रह्म की अभिन्नता की भलीभाँति अनुभूति कर लेनी चाहिये ।
225. सत्य-स्वरूप, ज्ञान-स्वरूप, अन्तहीन, विशुद्ध, सर्वश्रेष्ठ, स्वतःसिद्ध (प्रमाण-निरपेक्ष), नित्य, अखण्ड, आनन्द-स्वरूप, जीवात्मा से अभिन्न, निरन्तर (बाह्य-अन्तर-भेदरहित) ब्रह्म सर्वदा उज्ज्वल रूप में प्रकाशमान होवे ।
ब्रह्म और जगत् की अभिन्नता
226. अपनी आत्मा से भिन्न किसी भी अन्य वस्तु का अभाव होने के कारण, यह आत्मा सत्य, सर्वश्रेष्ठ तथा अद्वितीय है । परमार्थ तत्त्व का बोध होने पर जो अवस्था होती है, उस दशा में निश्चय ही ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कुछ भी स्वतंत्र रूप से नहीं रहता ।
227. अज्ञान के कारण नाना रूपों में प्रतीत होने वाला ‘इदम्’ रूपी सम्पूर्ण विश्व – असंख्य कल्पनाओं के दोष से रहित ब्रह्म ही है ।
228. घड़ा मिट्टी (रूपी कारण का) कार्य होने पर भी मिट्टी के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है । सर्वत्र घड़े का रूप अपने मिट्टी-स्वरूप से भिन्न नहीं होता । घड़ा कहाँ है? वह तो मिथ्या कल्पित नाम मात्र ही है ।
229. किसी के लिये भी मिट्टी से भिन्न घड़े का स्वरूप दिखाना सम्भव नहीं है । अतः घड़ा अज्ञान द्वारा कल्पित है; और मिट्टी ही परमार्थ रूप में सत्य है ।
230. सद्-ब्रह्म का कार्य (परिणाम) होने के कारण यह सब कुछ (पूरा विश्व-ब्रह्माण्ड) तन्मात्र अर्थात् ब्रह्म मात्र ही है, उससे भिन्न कुछ भी नहीं है । जो व्यक्ति (जगत् को) उससे भिन्न मानता है, उसका मोह (भ्रान्ति) अभी दूर नहीं हुआ है और वह मानो निद्रामग्न के समान बड़बड़ा रहा है ।
231. अथर्ववेद के अन्तर्गत आनेवाली महती श्रुति-वाणी*कहती है – यह विश्व (सब कुछ) ब्रह्म ही है – अतः यह सब कुछ ब्रह्म मात्र ही है । आरोपित वस्तु का अधिष्ठान (आधार) के साथ कोई भेद नहीं होता ।
232. यदि यह जगत् स्वरूपतः सत्य होता, तो उसका कभी नाश नहीं होता । इससे निगम (वेद) तथा भगवान का भी (गीतोक्त वाणी का) मिथ्यात्व प्रमाणित हो जाता । (अतः जगत् को सत्य मानने से उत्पन्न होनेवाले) ये तीनों दोष विचारशील व्यक्तियों के लिये स्वीकार्य तथा हितकर नहीं हैं ।
233. वस्तु-स्वरूप के यथार्थ ज्ञाता भगवान श्रीकृष्ण ने ‘मैं भूतों में स्थित नहीं हूँ … और वे भूतगण भी मुझमें स्थित नहीं हैं’ – कहकर पूर्वोक्त मत (जगत् का मिथ्यात्व) का समर्थन किया है ।
234. यदि यह (पंचभूतात्मक) जगत् सत्य होता, तो सुषुप्ति अर्थात् प्रगाढ़ निद्रा के समय भी अनुभूत होता । परन्तु चूँकि उस समय यह जरा भी अनुभव में नहीं आता, अतः यह स्वप्न के समान असत्य मिथ्या है ।
235. अतः इस जगत् का परमात्मा से पृथक् कोई अस्तित्व नहीं है । इसकी पृथक् सत्ता गुणों*(यथा आकाश में नीलापन) आदि के समान मिथ्या है । आरोपित गुण की क्या कोई सत्ता होती है? वस्तुतः उसका अधिष्ठान ही उस (आरोपित गुण या वस्तु) के रूप में प्रतीत होता है । (रस्सी ही सर्प के रूप में प्रतिभात होती है । सर्प की वास्तविक सत्ता नहीं होती ।)
236. अज्ञानी व्यक्ति को भ्रमवश जो कुछ अनुभव होता है, वह सब ब्रह्म ही है । सीपी (ब्रह्म) ही चाँदी (जगत्) के रूप में प्रतिभात होती है । इस जगत् के रूप में सदा ब्रह्म ही प्रकाशित होता रहता है । (परन्तु) ब्रह्म पर आरोपित यह जगत् तो केवल नाममात्र को है ।
ब्रह्म तथा इसका स्वरूप –
237 & 238. अतः जो कुछ भी इस जगत् के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है, वह सब वस्तुतः ब्रह्म ही है । वह सत्य-स्वरूप ब्रह्म अद्वितीय, विशुद्ध विज्ञानघन (चैतन्य-स्वरूप), निरंजन (निष्पाप), प्रशान्त (क्षोभरहित), आदि- अन्त (उत्पत्ति-विनाश) से रहित, निष्क्रिय, निरन्तर-आनन्द-रस-स्वरूप, मायाकृत सारे भेदों से रहित, नित्य, सुखरूप, निष्कल (ह्रास-वृद्धि-रहित), प्रमाणों के अतीत, निराकार, (मन-वाणी के) अगोचर, अविनाशी तथा स्वयं-ज्योति (दूसरे के द्वारा अप्रकाश्य) है ।
239. ब्रह्मनिष्ठ विद्वानों द्वारा साक्षात्कार किया जानेवाला यह परम तत्त्व (ब्रह्म) – ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान (जाननेवाला, जानने-योग्य तथा जानने की क्रिया) – इस त्रिविध कल्पना से रहित, अनन्त, निर्विकल्प (संकल्प- विकल्प-रहित), अद्वितीय तथा अखण्ड चैतन्य-स्वरूप है ।
240. मैं ही वह तेजोमय पूर्ण ब्रह्म हूँ, जिसका त्याग नहीं किया जा सकता, जिसका ग्रहण नहीं किया जा सकता, जो मन-वाणी के परे है, जो अप्रमेय (जिसे प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों द्वारा सिद्ध न किया जा सके) है और जो अनादि तथा अनन्त है ।
‘तत्त्वमसि’ महावाक्य की मीमांसा –
241. (छान्दोग्य उपनिषद् में उद्दालक ऋषि अपने पुत्र आरुणी को नौ बार ‘तत्त्वमसि’ – ‘वह तू है’ का उपदेश देते हैं । उसी सन्दर्भ में) श्रुति द्वारा ‘तत्’ (वह) और ‘त्वम्’ (तुम) शब्दों के वाच्य के रूप में बारम्बार ‘ब्रह्म’ तथा ‘जीव’ का एकत्व ही भलीभाँति प्रतिपादित किया गया है ।
242. (वहाँ) सूर्य तथा जुगनू, राजा तथा सेवक, समुद्र तथा कुआँ, मेरु पर्वत तथा परमाणु के समान परस्पर-विरुद्ध गुणवाले ‘तत्’ (वह) और ‘त्वम्’ (तुम) शब्दों का एकत्व वाच्यार्थ में नहीं, अपितु लक्ष्यार्थ की दृष्टि से बताया गया है ।
243. इन दोनों ‘तत्’ (वह/ब्रह्म) तथा ‘त्वम्’ (तुम/जीव) के बीच जो भेद है, वह वास्तविक नहीं, अपितु उपाधि द्वारा कल्पित मात्र है । यदि पूछो कि यह उपाधि क्या है? तो महत् आदि तत्त्वों की कारणभूत ‘माया’ ईश्वर की उपाधि है और कार्यरूप ‘पंचकोश’ जीव की उपाधि है ।
244. परमात्मा तथा जीव की ये जो (माया तथा अविद्या-पंचकोश) उपाधियाँ हैं, इनका भलीभाँति निराकरण हो जाने पर, न परमात्मा रह जाता है और न जीव । (अखण्ड शुद्ध चैतन्य मात्र रह जाता है) । जैसे राजा की उपाधि राज्य है और सैनिक की उपाधि ढाल है । उनसे राज्य तथा ढाल रूपी उपाधियों को हटा लेने पर, न राजा रह जाता है और न सैनिक ।
245. ‘अथातो आदेश’ (अब यह आदेश है)* – कहकर श्रुति स्वयं ही ब्रह्म में कल्पित द्वितीय वस्तु का निषेध करती है । श्रुति-प्रमाणों द्वारा समर्थित बुद्धि से (अविद्या तथा पंचकोश) इन दोनों का निराकरण अवश्य करना चाहिये ।
246. जैसे कि रज्जु में देखा हुआ सर्प तथा स्वप्न में देखा हुआ जगत् (सत्य नहीं है), वैसे ही ‘यह नहीं है’, ‘यह नहीं है’ – (ऐसा कहना) भी कल्पित (उपाधि) होने के कारण सत्य नहीं है । इस प्रकार समुचित युक्तियों के द्वारा दृश्य जगत् का निषेध करके तत्पश्चात् (ब्रह्म तथा जीव के) एकत्व को जान लेना चाहिये ।
247. अतः (ईश्वर तथा जीव) इन दोनों की अखण्ड एकरसता प्रमाणित करने के लिये ‘लक्षणा’* वृत्ति के द्वारा उन्हें भलीभाँति देखना चाहिये – यहाँ केवल ‘जहती’ लक्षणा या केवल ‘अजहती’ लक्षणा यथेष्ट नहीं है । अपितु ‘जहती’ तथा ‘अजहती’ – इन दोनों लक्षणाओं को एकत्र करके ही आत्म-स्वरूप पर विचार करना चाहिये ।
248 & 249. जैसे ‘वह यह देवदत्त है’ – इस वाक्य में विरुद्ध गुणों के अंश को त्यागकर एकता बतायी गयी है, वैसे ही ‘तत्-त्वम्-असि’ (वह तुम हो) – वाक्य में ‘तत्’ (वह) ‘त्वम्’ (तुम) दोनों शब्दों के विरुद्ध गुणोंवाले अंशों को त्यागकर, समुचित विचार करके चैतन्य मात्र लक्षण के द्वारा ब्रह्म तथा आत्मा की अखण्डता, ज्ञानी लोगों द्वारा पहचान ली जाती है । इसी प्रकार सैकड़ों महावाक्यों से ब्रह्म तथा आत्मा की अखण्ड रूप से एकता बतायी जाती है ।
250. ‘अस्थूलम्’ (यह स्थूल नहीं है) आदि श्रुति-वाक्यों की सहायता से इस असत्य शरीर आदि का निषेध करने से (उस आत्मा की अनुभूति होती है), जो स्वतःसिद्ध आकाशवत् निर्लिप्त तथा बुद्धि के अतीत है । अतः जो अनात्म वस्तुएँ अपनी आत्मा के रूप में तादात्म्य किये हुए प्रतीत हो रही हैं, उन्हें मिथ्या जानकर त्याग दो और विशुद्ध-बुद्धि की सहायता से – ‘ब्रह्म ही मैं हूँ’ – इस प्रकार अखण्ड ज्ञान-स्वरूप अपनी आत्मा की अनुभूति कर लो ।
251. घट आदि सब कुछ जो मिट्टी के कार्य या उत्पाद हैं, वे सर्वदा सत्य प्रतीत होते हैं, तथापि केवल मिट्टी ही हैं, वैसे ही यह सब कुछ सत् अर्थात् ब्रह्म से उत्पन्न, ब्रह्मात्मक, ब्रह्ममात्र ही है । चूँकि ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, एकमात्र वही – हमारी आत्मा ही सत्य है, अतः जो प्रशान्त, निर्मल, परम्, अद्वय ब्रह्म है, वह तुम्हीं हो ।
252. जैसे निद्रा के समय स्वप्न की अवस्था में देखे हुए कल्पित देश, काल, विभिन्न विषय और उसका ज्ञाता – सभी मिथ्या होते हैं, वैसे ही जाग्रत अवस्था में यह संसार भी (मिथ्या है), क्योंकि ये अपने अज्ञान के कार्य हैं । इसीलिये यह शरीर, इन्द्रियाँ, प्राण, अहंकार आदि भी मिथ्या हैं । अतः जो प्रशान्त, निर्मल, परम्, अद्वय ब्रह्म है, वह तुम्हीं हो ।
253. जहाँ भ्रान्ति के कारण कोई वस्तु (सर्प) कल्पित होती है, उसके मूल अधिष्ठान वस्तु (रज्जु) का ज्ञान होने पर उसका स्वरूप मात्र ही रह जाता है । उससे भिन्न अन्य कुछ नहीं रह जाता । (वैसे ही जैसे) स्वप्न में देखा हुआ वैचित्र्यमय जगत् स्वप्न में ही विलीन हो जाता है । जागने के बाद क्या अपने से भिन्न कुछ रह जाता है?
‘तत्त्वमसि’ महावाक्य पर ध्यान –
254. जो (ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि) जातियों से परे है, जो (समाज- नीति, राजनीति आदि) नीतियों से परे है, जो कुल-गोत्र से परे है, जो नाम-रूप से परे है, जो गुण-दोष तथा देश-काल तथा सभी विषयों के अतीत है, ऐसा जो ब्रह्म है, वह तुम्हीं हो – अपने अन्तःकरण में ऐसा ध्यान करो ।
255. जो सर्वश्रेष्ठ है, समस्त वाणियों का अविषय है, विशुद्ध ज्ञानरूपी नेत्र का विषय है, ऐसा जो शुद्ध चैतन्य-स्वरूप अनादि वस्तु है, वह ब्रह्म तुम्हीं हो, ऐसा अपने अन्तःकरण में चिन्तन करो ।
256. जो भूख, प्यास, शोक, मोह, वार्धक्य तथा मृत्यु – इन छह तरंगों के स्पर्श से अतीत है, जिसका योगिजन हृदय में चिन्तन करते हैं, जो इन्द्रियों के द्वारा अनुभूत नहीं हो सकता, जो बुद्धि के परे है, ऐसा जो निर्दोष ब्रह्म है, वह तुम्हीं हो, ऐसा अपने अन्तःकरण में चिन्तन करो ।
257. जो भ्रान्ति द्वारा कल्पित इस जगत् तथा इसके अंशों का आश्रय है, जो स्वयं ही अपना आश्रय है, जो कारण तथा कार्य अर्थात् सूक्ष्म तथा स्थूल से भिन्न है, जो अवयवरहित अर्थात् अखण्ड है, जिसकी कोई उपमा नहीं हो सकती, ऐसा जो ब्रह्म है, वह तुम्हीं हो, ऐसा अपने अन्तःकरण में चिन्तन करो ।
258. जो जन्म, वृद्धि, बदलाव, क्षय, रोग तथा मृत्यु – इन छह विकारों से रहित है, जो अव्यय है, जो विश्व की सृष्टि तथा विनाश का कारण है, ऐसा जो ब्रह्म है, वह तुम्हीं हो – ऐसा अपने अन्तःकरण में चिन्तन करो ।
259. जिसमें भेदों का अस्त या नाश हो चुका है, जो अस्ति या सत्ता मात्र लक्षणवाला है, जो तरंगरहित समुद्र की भाँति निश्चल है, जो नित्यमुक्त है, जो भेदरहित अर्थात् अखण्ड स्वरूप वाला है, ऐसा जो ब्रह्म है, वह तुम्हीं हो – ऐसा अपने अन्तःकरण में चिन्तन करो ।
260. जो एक ही सत्ता होकर भी अनेक विषयों की उत्पत्ति का कारण है, जो अन्य सभी कारणों के निषेध करने का कारण है, (परन्तु) जो स्वयं कार्य तथा कारण से भिन्न है, वह ब्रह्म तुम्हीं हो – ऐसा अपने अन्तःकरण में चिन्तन करो ।
261. जो निर्विकल्प, असीम तथा अविनाशी है, जो क्षर तथा अक्षर जगत् से भिन्न है; जो सर्वश्रेष्ठ, चिरन्तन, नित्यानन्द-स्वरूप, निरंजन (निष्पाप) है, वह ब्रह्म तुम्हीं हो – ऐसा अपने अन्तःकरण में चिन्तन करो ।
262. जो स्वयं स्वर्ण के समान सर्व कालों में निर्विकार है, परन्तु भ्रमवश नाम, रूप, गुण तथा क्रिया की सत्ता से अनेक प्रकार से प्रकट होता है, वह ब्रह्म तुम्हीं हो, ऐसा अपने अन्तःकरण में चिन्तन करो ।
263. जिससे भिन्न कुछ भी नहीं है, जो बुद्धि के भी परे है, जो सबकी एकरस अन्तरात्मा है, जो सच्चिदानन्द स्वरूप है, अनन्त और अव्यय के रूप में प्रकाशित हो रहा है, वह ब्रह्म तुम्हीं हो, ऐसा अपने अन्तःकरण में चिन्तन करो ।
‘तत्त्वमसि’ पर ध्यान का फल –
264. पिछले (दस) श्लोकों में जो तत्त्व कहा गया, उसका श्रुति-सम्मत युक्तियों तथा बुद्धि के द्वारा से अपने मन में चिन्तन करो । इससे संशय आदि से रहित तत्त्वज्ञान, हाथ में लिये हुए जल के समान, अपने अधीन हो जायेगा ।
265. पंचभूतों के संघात-रूप शरीर में, चैतन्य-स्वरूप विशुद्ध आत्मा को, सेना में स्थित राजा के समान जानकर, सर्वदा अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए, इस ज्ञान का आश्रय लेकर विश्व-ब्रह्माण्ड को ब्रह्म में विलीन कर दो ।
266. स्थूल तथा सूक्ष्म से भिन्न, परम, अद्वितीय, सत्य-स्वरूप ब्रह्म बुद्धि-रूपी गुहा में स्थित है । जो उस (ब्रह्म) के साथ एकात्म होकर उस गुहा में निवास करता है, हे वत्स, उसका दुबारा (मातृगर्भ-रूपी) गुहा में प्रवेश नहीं होता ।
अध्यास-निरूपण तथा उसका निराकरण –
267. आत्म-स्वरूप का (परोक्ष) ज्ञान हो जाने के बाद भी, ‘मैं कर्ता और भोक्ता हूँ’ – ऐसी जो दृढ़ तथा बलवती अनादि वासना रह जाती है, वही संसार-बन्धन का हेतु है । उसे अन्तर्मुखी दृष्टि की सहायता से, अपने आत्म-स्वरूप में स्थित रहते हुए, प्रयत्नपूर्वक दूर कर देना चाहिये । इस वासना के क्षय को ही मुनिगण ‘मुक्ति’ कहते हैं ।
268. देह, इन्द्रियों आदि अनात्म वस्तु में, जो ‘मैं’ तथा ‘मेरा’ रूप बोध है, वह ‘अध्यास’ (मिथ्या ज्ञान) कहलाता है । विद्वान् साधक को चाहिये कि वह अपनी आत्मनिष्ठा के द्वारा इसे दूर कर दे ।
269. अपनी बुद्धि तथा उसकी समस्त वृत्तियों को (प्रकाशित करनेवाला) साक्षी-स्वरूप जो अन्तरात्मा है, उसे जानकर और ‘वह (चैतन्य-स्वरूप) मैं हूँ’ – इस सद्वृत्ति के द्वारा (देह आदि) अनात्म वस्तुओं में आत्म-बुद्धि को त्याग दो ।
270. लोकाचार का अनुसरण त्यागकर, देह की सेवा को त्यागकर और विद्वत्ता दिखाने हेतु शास्त्र-चर्चा छोड़कर, अपनी (अन्तरात्मा के ऊपर के) अध्यास को दूर करो ।
271. लोक-वासना (अर्थात् अन्य लोगों को सन्तुष्ट करने की चेष्टा) के कारण, शास्त्र-वासना (अर्थात् शास्त्रचर्चा द्वारा आनन्द प्राप्त करने की इच्छा) के कारण और देह-वासना (अर्थात् शरीर के सौन्दर्य तथा भोगसुख की चेष्टा) के कारण भी, जीव को यथार्थ ज्ञान नहीं हो पाता ।
272. ज्ञानी व्यक्तियों का कहना है कि संसार-रूपी कारागार से मुक्ति पाने के इच्छुकों के लिये, ये तीनों सुदृढ़ वासनाएँ मानो पाँवों में बँधी हुई लोहे की जंजीर हैं । जो इनसे छुटकारा पा लेता है, वही मुक्ति प्राप्त करता है ।
273. जैसे अगरू-चन्दन की दिव्य सुगन्ध जल आदि के सम्पर्क के कारण घोर दुर्गन्ध से ढक जाती है, (किन्तु) उसे रगड़ने तथा उसके बाह्य गन्ध को भलीभाँति हटा दिये जाने पर चन्दन की स्वाभाविक सुगन्ध प्रकट हो जाती है ।
274. वैसे ही जीव का अन्तःकरण में परमात्मा का बोध-रूपी सौरभ, अनन्त अदम्य वासनाओं (संस्कारों) रूपी धूल से ढका हुआ है । (विचार रूपी) कठोर संघर्षण के द्वारा चन्दन के सुगन्ध के समान ही वह अभिव्यक्त हो उठता है ।
275. आत्मा की सुगन्ध को असंख्य वासनाओं के समूह ने आच्छादित कर रखा है । निरन्तर आत्म-चिन्तन के द्वारा उन वासनाओं का नाश हो जाने पर अपना स्वरूप स्वतः ही प्रस्फुटित या अभिव्यक्त हो उठता है ।
276. मन ज्यों-ज्यों अपनी अन्तरात्मा में स्थित होता जाता है, त्यों-त्यों वह बाह्य वासनाओं को छोड़ता जाता है; और वासनाओं का पूर्ण नाश हो जाने पर उसे अबाध रूप से आत्म-साक्षात्कार होने लगता है ।
277. योगी का मन सदैव अपनी आत्मा में ही स्थित होकर स्वयं नष्ट हो जाता है और साथ ही वासनाओं का भी क्षय हो जाता है, (अतः) अपने अध्यास (देहादि में अहंता के बोध) को दूर करो ।
278. (सत्त्वगुण तथा रजोगुण – इन) दो गुणों के द्वारा तमोगुण का नाश होता है, सत्त्वगुण के द्वारा रजोगुण का नाश होता है और शुद्ध सत्त्वगुण के द्वारा सत्त्वगुण का नाश होता है; अतः अपने अध्यास (देहादि में अहंबोध) को दूर करो ।
279. प्रारब्ध ही शरीर का पोषण करता है – ऐसा निश्चय करके अविचल धैर्य का आलम्बन करके अपने ‘अध्यास’ (देहादि में अहंता के बोध) को दूर करो ।
280. “मैं जीव नहीं, अपितु पर ब्रह्म हूँ” – इस प्रकार तत् (ब्रह्म) से भिन्न अनात्म वस्तुओं का निषेध करके, (पूर्व जन्मों की) वासनाओं (संस्कारों) के वेग के फलस्वरूप प्राप्त हुए अपने ‘अध्यास’ (देहादि में अहंबोध) को दूर करो ।
281. श्रुति (वेदान्त-वाक्य), युक्ति तथा अपनी अनुभूतियों के द्वारा सबको अपना आत्म-स्वरूप जानकर, (जाग्रत, स्वप्न आदि) किसी भी काल में आभास रूप में प्राप्त अपने ‘अध्यास’ (देहादि में अहंबोध) को दूर करो ।
282. मननशील ज्ञानी में, (निरहंकारिता के कारण) विषयों के ग्रहण तथा उनके त्याग की वृत्ति न होने से, उनमें कोई कर्मप्रयास नहीं रहता । (अतः) निरन्तर ब्रह्म में एकनिष्ठा के द्वारा अपने ‘अध्यास’ (देहादि में अहंबोध) को दूर करो ।
283. ‘तत्त्वमसि’ तथा अन्य महावाक्यों से उत्थित होनेवाले, ब्रह्म तथा आत्मा के एकत्व-बोध द्वारा, ब्रह्म में अपने स्वरूप-बोध की दृढ़ता के लिये अपने ‘अध्यास’ (देहादि में अहंबोध) को दूर करो ।
284. इस (स्थूल-सूक्ष्म) शरीर में जो अहंता है, उसके पूर्णतः नाश हो जाने तक, सावधानीपूर्वक आत्मा से युक्त रहकर अपने ‘अध्यास’ (देहादि में अहंबोध) को दूर करो ।
285. जब तक जीव तथा जगत् की अनुभूति स्वप्नवत् (मिथ्या) प्रतीत होने लगे, तब तक हे विद्वान्, अपने ‘अध्यास’ को दूर करो ।
286. निद्रा द्वारा, लोगों के साथ चर्चा द्वारा और शब्द-स्पर्श आदि विषयों द्वारा भी, अपने स्वरूप को भूलने का जरा भी अवसर न देकर, अपने हृदय में आत्मा का ध्यान करो ।
स्थूल तथा सूक्ष्म देहादि पदार्थों से तादात्म्य दूर करो –
287. अपने माता-पिता के मल से उत्पन्न होनेवाले इस मल- मांसमय (घृण्य) शरीर को चाण्डाल के समान दूर त्यागकर, ब्रह्म के साथ अपनी एकता की अनुभूति करके कृतकृत्य (धन्य) हो जाओ ।
288. हे मुनि, जैसे (घड़ा टूटने पर उसमें स्थित) घटाकाश महाकाश में विलीन हो जाता है, वैसे ही अपनी आत्मा को परमात्मा में अखण्ड रूप से विलीन करके, तुम सदा-सर्वदा के लिये मौन – शान्त हो जाओ ।
289. अपने सत्स्वरूप आत्मा के ज्ञान द्वारा, अपने स्वप्रकाश अधिष्ठान को अपना स्वरूप जानकर, अपने शरीर तथा ब्रह्माण्ड – दोनों को ही मलपात्रों के समान त्याग दो ।
290. स्थूल शरीर में जो अहं-बुद्धि है, उसे अपने सदानन्दमय चैतन्य-स्वरूप में निविष्ट करके, लिंग अर्थात् सूक्ष्म शरीर में भी अहंता को त्यागकर, सर्वदा कैवल्य अर्थात् अद्वैत-स्वरूप में स्थित रहो ।
291. जैसे दर्पण में नगर का प्रतिबिम्ब पड़ता है, वैसे ही जिस वस्तु में यह जगत् आभासित हो रहा है, वह ब्रह्म मैं ही हूँ – यह जानकर तुम कृतकृत्य हो जाओगे अर्थात् तुम्हारे लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहेगा ॥
292. जैसे अभिनेता (नाटक सम्पन्न हो जाने के बाद) अपने धारण किये हुए वेश को त्याग देता है; वैसे ही तुम भी अपने चैतन्य, अद्वय, आनन्दमय, निराकार, निष्क्रिय वास्तविक आद्य स्वरूप को जानकर, अपने इस शरीर रूपी मिथ्या वेश का परित्याग कर दो ।
293. यह दृश्य (देह) पूरी तौर से मिथ्या ही है । अहं में क्षणिकत्व दीख पड़ने के कारण वह सत्य नहीं है । अहं-विषयक ‘मैं सब जानता हूँ’ – ऐसा बोध क्षणिक होने के कारण भला कैसे सत्य सिद्ध हो सकता है?
294. परन्तु शुद्ध आत्मा अहंकार का आदि साक्षी है । सुषुप्ति में भी उसके (साक्षी-रूप में) उपस्थित होने के कारण वह नित्य है, इसीलिये स्वयं श्रुति ही उसे अजन्मा तथा नित्य करती है । अतः वह अन्तरात्मा सत् (सूक्ष्म-कारण) तथा असत् (स्थूल-कार्य) से विलक्षण है ।
295. जो (स्थूल, सूक्ष्म आदि) समस्त विकारी (परिवर्तनशील) वस्तुओं का द्रष्टा और जाननेवाला है, उसे स्वयं नित्य अपरिवर्तनशील ही होना चाहिये । जाग्रत अवस्था की कल्पना, स्वप्न तथा सुषुप्ति में बारम्बार इन (स्थूल तथा सूक्ष्म) दोनों शरीरों का अभाव स्पष्ट रूप से देखने में आता है ।
296. अतः बुद्धि द्वारा कल्पित इस (स्थूल देह रूपी) मांसपिण्ड में अभिमान त्याग दो; और तीनों काल में अबाधित रूप से चलने वाले अखण्ड-बोध को अपना आत्म-स्वरूप जानकर परम शान्ति को प्राप्त करो ।
297. भीगे हुए शव के सदृश स्थूल शरीर का आश्रय लेकर विद्यमान कुल, गोत्र, नाम, रूप, आश्रम आदि के अभिमान को त्यागो; और लिंग या सूक्ष्म शरीर के कर्तापन, भोक्तापन आदि धर्मों (उपाधियों) का भी त्याग करके अपने अखण्ड सुख-स्वरूप में स्थित हो जाओ ।
आत्मज्ञान की मुख्य बाधा अहंकार को दूर करो –
298. व्यक्ति के संसार-बन्धन (चक्र) के कारण-रूप अन्य अनेक (काम-क्रोध आदि) बाधाएँ भी दीख पड़ती हैं, (परन्तु) उन सबका मूल (अज्ञान का) प्रथम कार्य ‘अहंकार’ (‘मैं’-बोध) ही है ।
299. जब तक दुष्ट अहंकार के साथ अपना सम्बन्ध रहता है, तब तक उससे विलक्षण (विपरीत लक्षणवाली) मुक्ति की बात को लेश मात्र भी नहीं समझा जा सकता ।
300. (ग्रहण के बाद) राहु से मुक्त चन्द्रमा के समान, व्यक्ति अहंकार से मुक्त होने के बाद अपने निर्मल, पूर्ण, सदानन्द, स्वयंप्रकाश आत्म-स्वरूप की उपलब्धि करता है ।
301. जो अत्यन्त भ्रान्तिपूर्ण तमोगुणी बुद्धि के द्वारा उत्पन्न होकर शरीर में ‘अहंकार’ के रूप में प्रतिभात हो रहा है, उसका पूर्णतया विनाश हो जाने पर ही सर्व बाधाओं से मुक्त ब्रह्मात्म-भाव अर्थात् ‘मैं ब्रह्म हूँ’ की अनुभूति होती है ।
302. अहंकाररूपी महाबलवान भयंकर सर्प ने ब्रह्मानन्द-रूपी खजाने को अपनी कुण्डली के द्वारा छिपा रखा है । वह (सत्त्व-रजस्-तमस्) गुणों-रूपी तीन प्रचण्ड फनों द्वारा उसकी रक्षा कर रहा है । (केवल) धीर-विवेकी साधक (ही) श्रुतियों के उपदेशानुसार प्राप्त विशेष ज्ञानरूपी तलवार के द्वारा इन तीनों फनों को काटकर इस सर्प का पूर्ण विनाश करके उस आनन्दमय सम्पदा (ब्रह्मानन्द) का भोग करने में समर्थ है ।
303. अथवा जब तक शरीर में जरा-सा भी विष का प्रभाव रह जाता है, तब तक व्यक्ति नीरोग कैसे हो सकता है? वैसे ही जब तक योगी में अहंता हो, तब तक उसकी मुक्ति कैसे हो सकती है?
304. अपने आन्तरिक स्वरूप के तत्त्व-विवेक से अहंता की पूर्ण निवृत्ति हो जाने पर, उसके द्वारा उत्पन्न नाना विकल्पों (कल्पना, विकार, संशय आदि) का संहार जो जाने पर – यह (ब्रह्म) मैं हूँ – ऐसा बोध प्राप्त होता है ।
305. जो अहंता-बुद्धि परिवर्तनशील है, अपनी सहज चिदानन्द- रूप स्थिति को चुरानेवाली है, आत्मा के प्रतिबिम्ब को ग्रहण करनेवाली है, कर्तृत्व में अहंकार रखनेवाली है, उसे तत्काल त्याग दो; (क्योंकि) उसके अध्यास के फलस्वरूप (ही) तुम चैतन्यमय आनन्दमूर्ति अन्तरात्मा को यह जन्म-मृत्यु-जरा आदि अनेक दुःखों से पूर्ण संसार प्राप्त हुआ है ।
306. तुम सदा एकरूप चैतन्यमय, सर्वव्यापी, आनन्द-स्वरूप अनिन्द्य कीर्तिवाले और अविकारी हो । तुममें बाहर से अहंकार का अध्यास हुए बिना अन्य किसी भी प्रकार से संसार की स्थिति सम्भव ही नहीं है ।
307. अतः भोजन करते समय गले में (फँस गये) काँटे के समान, अपने इस अहंकार-रूपी शत्रु को विशिष्ट ज्ञान रूपी महा खड्ग के द्वारा विच्छिन्न करके, स्पष्ट रूप से प्रकट होनेवाले आत्म-साम्राज्य के सुख का यथेच्छा उपभोग करो ।
308. अतएव, ‘अहम्’ आदि (‘मैं’-‘मेरा’) वृत्तियों को संयमित करके, परमार्थ-अनुभूति के द्वारा आसक्ति को त्यागकर, आत्मसुख की अनुभूति के द्वारा निर्विकल्प अर्थात् द्वैतरहित ब्रह्म में स्थित होकर पूरी तौर से शान्त हो जाओ ।
309. यह महाशक्तिमान् अहं जड़ से काट दिये जाने पर भी, यदि चित्त द्वारा क्षण भर के लिये भी पुनः संकल्पित हो जाय, तो वह पुनः जीवित होकर, वर्षा काल में वायु द्वारा लाये गये मेघ के समान, सैकड़ों विक्षेपों की सृष्टि करता है ।
310. अहंकार-रूपी शत्रु को वशीभूत करने के बाद, विषयों के चिन्तन के द्वारा उसे जरा भी मौका नहीं देना चाहिये, अन्यथा सूखे हुए चकोतरे के वृक्ष में डाले हुए जल के समान, वही उसके पुनर्जीवन का हेतु बन जाता है ।
310. अहंकार-रूपी शत्रु को वशीभूत करने के बाद, विषयों के चिन्तन के द्वारा उसे जरा भी मौका नहीं देना चाहिये, अन्यथा सूखे हुए चकोतरे के वृक्ष में डाले हुए जल के समान, वही उसके पुनर्जीवन का हेतु बन जाता है ।
कामनाएँ ही संसार का कारण हैं, उनका नाश करो –
311. अपने शरीर में तादात्म्य (आत्मबुद्धि) रखनेवाला व्यक्ति ही कामना-परायण होता है, इसके विपरीत लक्षणवाला (देहाभिमान रहित) व्यक्ति भला कैसे कामनापरायण हो सकता है? अतः भेदबुद्धि के द्वारा विषयों का चिन्तन करना ही संसार-बन्धन का कारण है ।
312. कार्य (सकाम कर्म) में वृद्धि होने से उसके (वासना-रूपी) बीज में वृद्धि होती देखने में आती है (और) कार्य का नाश होने पर उसके (वासना-रूप) बीज का भी नाश हो जाता है, अतः सकाम कर्म का त्याग कर देना चाहिये ।
313. वासनाओं में वृद्धि होने से व्यक्ति के सकाम कर्मों में वृद्धि होती जाती है । सकाम कर्म बढ़ने से व्यक्ति की वासनाओं में वृद्धि होती जाती है । इस प्रकार मनुष्य का जन्म-मृत्यु रूपी संसार-चक्र कभी रुकता नहीं ।
314. अपने संसार-बन्धन को काट डालने के लिये यति अर्थात् साधक को चाहिये कि वह विषयों के ‘चिन्तन’ और सकाम ‘कर्म’ – इन दोनों को जलाकर भस्म कर डाले; क्योंकि इनके द्वारा वासना में वृद्धि होती है ।
315 & 316. (विषय-चिन्तन एवं सकाम कर्म) इन दोनों के द्वारा बढ़ती हुई वह ‘वासना’ जीव के संसार-बन्ध का कारण बनती हैं । इन तीनों के नाश का उपाय है – सभी अवस्थाओं में, सदैव, सर्वत्र, सभी प्रकार से हर (वस्तु तथा व्यक्ति) को ब्रह्ममात्र-दर्शन करते हुए सत् अर्थात् ब्रह्म-स्वरूप की वासना को सुदृढ़ करना – इससे ये तीनों लय को प्राप्त होते हैं ।
317. सकाम कर्मों का नाश होने पर विषय-चिन्तन का नाश होता है, इसके फलस्वरूप वासना-क्षय होता है और वासना का अत्यन्त अभाव ही ‘मोक्ष’ कहलाता है और उसी को ‘जीवन्मुक्ति’ भी कहते हैं ।
318. ब्रह्म-साक्षात्कार की सद्-वासना के विशेष रूप से प्रकट हो जाने पर, मैं-मेरा आदि (तथा उससे सम्बद्ध) वासनाएँ उसी प्रकार सहज भाव से विलुप्त हो जाती हैं, जैसे कि रात का घोर अन्धकार भी उदीयमान प्रातःकालीन सूर्य के देदीप्यमान प्रकाश से सहज ही विलीन हो जाता है ।
319. जैसे सूर्य का उदय हो जाने पर अन्धकार तथा उसके फलस्वरूप होनेवाले नाना प्रकार के अनर्थों का समूह दिखायी नहीं देता, वैसे ही अद्वय (ब्रह्म-जीव-ऐक्य) के आनन्द-रस की अनुभूति हो जाने पर, न कोई बन्धन रह जाता है और न किसी दुःख का लेशमात्र ही रह जाता है ।
320. बाह्य तथा आन्तरिक दृश्य-प्रपंच का पूर्ण रूप से विलोप करते हुए, अस्ति मात्र आनन्दघन ब्रह्म का ध्यान करते हुए, प्रारब्ध कर्मों के समाप्त होने तक सावधानीपूर्वक काल यापन करना चाहिये ।
आत्मा का निरन्तर ध्यान करते रहना चाहिये –
321. ब्रह्मनिष्ठा में कभी भी प्रमाद (असावधानी) नहीं करना चाहिये । ब्रह्माजी के पुत्र भगवान सनत्कुमार ने (महाभारत में) प्रमाद को मृत्यु कहा है ।
322. (साधक के लिये) अपने स्वरूप के अनुसन्धान में प्रमाद से बढ़कर अन्य कोई भी अनर्थकारी (विपत्ति) नहीं है; क्योंकि प्रमाद से ही मोह होता है, मोह से अहंकार, अहं से बन्धन और बन्धन के कारण अपार दुःख सहना पड़ता है ।
323. जैसे कुलटा नारी अपने प्रिय उपपति को विचलित कर देती है, वैसे ही स्वरूप-विस्मृति भी विद्वान् साधक को भोग्य विषयों की ओर उन्मुख देखकर बुद्धि को दूषित करके उसे विचलित कर देती है ।
324. जैसे पानी के ऊपर से हटाया गया शैवाल क्षण मात्र भी अलग नहीं रहता (छोड़ते ही तत्काल उसे फिर ढक लेता है), वैसे ही माया भी ज्ञानी के आत्मचिन्तन से विमुख होते ही उसे आच्छन्न कर लेती है ।
325. जैसे खेलने की गेंद यदि असावधानी वश सीढ़ियों पर गिरकर स्वतः नीचे-नीचे गिरती चली जाती है, वैसे ही यदि साधक का चित्त (ब्रह्मरूपी) लक्ष्य से जरा-सा भी बहिर्मुख हुआ, तो क्रमशः पतित होता चला जाता है ।
326. मन, भोग्य विषयों में प्रविष्ट होकर उनके गुणों का चिन्तन करता रहता है; इस सम्यक् चिन्तन के फलस्वरूप उनके लिये कामना उत्पन्न होती है और कामना के फलस्वरूप व्यक्ति प्रवृत्ति – उसे प्राप्त करने की चेष्टा में लग जाता है ।
327. अतः विचारशील ब्रह्मतत्त्व को जाननेवाले साधक के लिये प्रमाद (असावधानी) से बढ़कर दूसरी कोई मृत्यु नहीं है । समाधि में मन को एकाग्र करनेवाला समुचित सिद्धि प्राप्त करता है । इसलिये सावधानी के साथ चित्त को (ब्रह्म वस्तु में) एकाग्र करो ।
328. इस (प्रमाद करने) से व्यक्ति अपने आत्म-स्वरूप से विचलित हो जाता है और (देहात्म-बुद्धि बढ़ जाने से) नीचे की योनियों में पतित हो जाता है । ऐसे पतित जीव का नाश हुए बिना पुनः उन्नति देखने में नहीं आती । अतः सभी अनर्थों के कारण-रूपी ‘संकल्प’ का त्याग करो ।
329. जिसे जीवित अवस्था में ही कैवल्य (जीवन्मुक्ति) प्राप्त हुई है, वह देहान्त की अवस्था में विदेह-मुक्त हो जाता है । पर जिसमें जरा भी भेदज्ञान रह जाता है, उसे भय बना रहता है – ऐसा यजुर्वेद* में कहा गया है ।
330. इस विचारशील साधक को यदि कभी सर्वव्यापी अनन्त अखण्ड ब्रह्म में अल्प मात्र भी भेद दिखायी देता है, तो प्रमाद (असावधानी) के फलस्वरूप दिखनेवाला वह भेद ही उस साधक के लिये भय का कारण हो जाता है ।
स्थूल तथा सूक्ष्म देहादि पदार्थों से तादात्म्य के कुपरिणाम –
331. वेद-स्मृति तथा न्यायशास्त्र के सैकड़ों प्रमाणों के द्वारा निषिद्ध किये गये इस दृश्य संसार में जो व्यक्ति (मैं-मेरा-रूप) आत्मबुद्धि करता है, ऐसा निषिद्ध कर्म करनेवाला चोर के समान दुःख-पर-दुःख उठाता रहता है ।
332. सत्य अर्थात् आनन्द-स्वरूप ब्रह्म की खोज में लगा हुआ, (अविद्याजनित मोह से) मुक्त हुआ व्यक्ति सर्वदा अपनी आत्म-स्वरूप की महिमा अनुभव करता है; परन्तु मिथ्या (अनित्य वस्तुओं) की खोज में लगा हुआ (देहाभिमानी) व्यक्ति बरबाद हो जाता है । इस बात की सत्यता सज्जन तथा चोर के दृष्टान्त* में दीख पड़ती है ।
333. संन्यासी को चाहिये कि वह बन्धन में डालनेवाले देह आदि मिथ्या वस्तुओं की चिन्ता छोड़कर ‘यह आत्मा मैं स्वयं हूँ’ – ऐसी आत्मदृष्टि में स्थिर हो जाय । क्योंकि ब्रह्म के साथ अपने आत्मा के इस अभिन्नता की अनुभूति से प्राप्त निष्ठा ही परम सुख का कारण होती है और अविद्या के फलस्वरूप होनेवाले दुःखों का हरण करती है ।
334. बाह्य विषयों के चिन्तन के फलस्वरूप दुखदायी कामनाएँ क्रमशः अधिकाधिक बढ़ती जाती हैं – इस बात को विवेक के द्वारा जानकर बाह्य विषयों का चिन्तन छोड़कर नित्य-निरन्तर अपनी आत्मा के चिन्तन में लगे रहो ।
335. बाह्य विषयों का चिन्तन छूट जाने पर मन की प्रसन्नता प्राप्त होती है, मन की प्रसन्नता से परमात्मा का दर्शन होता है, परमात्मा का दर्शन होने पर संसार (आवागमन) के बन्धन का नाश हो जाता है; अतः बाह्य विषयों के चिन्तन का त्याग ही मोक्ष-प्राप्ति का उपाय है ।
336. ऐसा भला कौन व्यक्ति होगा, जो विद्वान्, सत् तथा असत् में विवेक करनेवाला, वेदों को प्रमाण माननेवाला, परमार्थ का दर्शन करनेवाला और मोक्ष का आकांक्षी होकर भी बच्चों के समान (अज्ञानपूर्वक) अपने अधःपतन की ओर ले जानेवाले, मिथ्या वस्तुओं का आश्रय लेगा?
337. देह आदि में आसक्ति रखनेवाले की मुक्ति नहीं हो सकती; और मुक्त व्यक्ति में देहादि का अभिमान नहीं होता; उसी प्रकार जैसे कि सुषुप्त व्यक्ति को जाग्रत अवस्था का और जाग्रत व्यक्ति को स्वप्न अवस्था का बोध नहीं होता, क्योंकि वे भिन्न गुणों के आश्रयवाले हैं ।
338. जो व्यक्ति अपने शुद्ध मन के द्वारा स्वयं को ही सभी चर तथा अचर वस्तुओं तथा प्राणियों का आन्तरिक एवं बाह्य आधार जानकर, समस्त उपाधियों को त्यागकर, अखण्ड रूप से पूर्ण आत्मभाव में स्थित रहता है, वही मुक्त है ।
339. यह सर्वात्म-भाव भवबन्धन से मुक्ति का हेतु है, इस सर्वात्म-भाव से बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं है । आत्मनिष्ठा के द्वारा दृश्य जगत का त्याग कर देने पर व्यक्ति को इस सर्वात्म-भाव की प्राप्ति हो जाती है ।
340. जो व्यक्ति देह को अपना स्वरूप मानकर रहता है, जो इन्द्रियग्राह्य विषयों के भोग में आसक्त चित्तवाला है, जो तदनुसार उनकी प्राप्ति के लिये कर्मों में लगा हुआ है, उसके लिये दृश्य का अग्रहण (त्याग) भला कैसे होगा? (पर) जिन लोगों ने समस्त धर्म-कर्म आदि विषयों का त्याग कर दिया है, जो लोग आत्मनिष्ठा परायण हैं, जो लोग चिर-आनन्द की प्राप्ति के इच्छुक हैं, ऐसे तत्त्वज्ञ लोगों को ही यत्नपूर्वक दृश्य विषयों का अग्रहण (त्याग) करना चाहिये ।
निर्विकल्प समाधि से आत्मज्ञान –
341. जिसने वेदान्त-वाक्यों का श्रवण कर लिया है, ऐसे ‘शान्तो दान्तः’* – शम, दम आदि से साधनों से युक्त संन्यासी के लिये ही श्रुति सर्वात्म-सिद्धि हेतु समाधि का विधान करती है ।
342. चूँकि वासनाएँ अनन्त जन्मों से चली आ रही हैं, अतः (उनसे उद्भूत) प्रबल शक्तिवाले अहंकार का सहसा विनाश कर पाना, निश्चल भाव से निर्विकल्प समाधि में स्थित लोगों के अतिरिक्त – विद्वानों द्वारा भी सम्भव नहीं है ।
343. विक्षेप-शक्ति – आवरण-शक्ति के बल पर ही मोहिनी अहंबुद्धि के द्वारा व्यक्ति को उस (अहंबुद्धि) के गुणों द्वारा विक्षिप्त या चंचल किये रहती है ।
344. आवरण-शक्ति का पूरी तौर से विनाश हुए बिना, विक्षेप-शक्ति पर विजय प्राप्त करना अति कठिन है । दूध तथा जल के पृथक्करण के समान, दृक् (द्रष्टा आत्मा) और दृश्य (अनात्मा) के बीच का भेद स्पष्ट हो जाने पर, स्वाभाविक रूप से ही, आत्मा पर से उसका आवरण नष्ट हो जाता है । यदि मिथ्या वस्तुओं में चित्त का विक्षेप न हो, तो असन्दिग्ध भाव से ज्ञान प्रतिबन्ध-रहित अर्थात् अबाध हो जायेगा ।
345. स्पष्ट ज्ञान से उत्पन्न होनेवाला सम्यक् विवेक, द्रष्टा (आत्मा) और दृश्य (अनात्म पदार्थों) का विभाजन करके, माया द्वारा उत्पन्न मोह-बन्धन को छिन्न कर देता है, जिसके फलस्वरूप मुक्त हुआ व्यक्ति पुनः संसार में नहीं आता ।
346. परब्रह्म तथा जीव (अवर) का एकत्व-बोध कराने वाली विवेकरूपी ज्ञानाग्नि, निश्चित रूप से, अविद्या के गहन अरण्य को पूरी तौर से जला डालती है । अद्वैतभाव में प्रतिष्ठित हुए उस जीव के लिये संसारचक्र में आवागमन का बीज भी क्या रह जाता है?
347. पदार्थ का यथार्थ दर्शन होने पर, निश्चित रूप से, आवरण दूर हो जाता है, मिथ्या ज्ञान का विनाश हो जाता है और उस पर विक्षेप द्वारा उत्पन्न दुःख चले जाते हैं ।
अधिष्ठान-रूप ब्रह्म-वस्तु को जानो –
348. रज्जु के यथार्थ स्वरूप के ज्ञान से – (आवरण अर्थात् रज्जु विषयक अज्ञान, विक्षेप अर्थात् सर्प की मिथ्या भ्रान्ति और उससे होनेवाला भय तथा दुःख) – ये तीनों ही दृष्टि में आ जाते हैं । अतएव बन्धनों से मुक्ति के लिये विद्वान् को ब्रह्मवस्तु का यथार्थ तत्त्व जान लेना चाहिये ।
349. जैसे अग्नि के सम्पर्क से लौहखण्ड गरम तथा लाल प्रतीत होता है, वैसे ही सत्-वस्तु के योग से बुद्धि भी प्रमाता (ज्ञाता आदि) के रूप में प्रकाशित होती है । उसके कार्यरूप (ज्ञाता तथा ज्ञान) दोनों ही भ्रम, स्वप्न तथा मनोरथ के रूप में मिथ्या ही देखने में आते हैं ।
350. अतः अहंकार से लेकर देह-पर्यन्त – (बुद्धि द्वारा) अनुभव में आनेवाले सारे विषय प्रकृति के विकार हैं । ये सभी प्रति क्षण अन्य भाव को प्राप्त होते रहने के कारण मिथ्या हैं, परन्तु आत्मा में कभी परिवर्तन नहीं आता ।
351. परम आत्मा – अपने यथार्थ स्वरूप से नित्य, एक, अद्वय, अखण्ड, चैतन्य, एकरूप, बुद्धि आदि का साक्षी, स्थूल तथा सूक्ष्म से भिन्न, ‘अहम्’ (मैं) शब्द का लक्षितार्थ और (प्रत्येक वस्तु के) अन्तर में निहित चिर-आनन्द-घन-स्वरूप है ।
352. विवेकी व्यक्ति इस प्रकार सत् (चैतन्य-आत्मा) और असत् (जड़-अनात्मा) का विभाजन करके, अपनी ज्ञानदृष्टि द्वारा यथार्थ तत्त्व का निश्चय करने के बाद, अपनी आत्मा को अखण्ड ज्ञान-स्वरूप जानकर, उन (आवरण, विक्षेप तथा दुःखों) से मुक्त होकर सहज शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।
निर्विकल्प समाधि का फल –
353. जब निर्विकल्प समाधि के द्वारा अद्वय (एकमेवाद्वितीय) आत्मा का दर्शन होता है, तब हृदय में पड़ी हुई अज्ञान की गाँठ (चिज्जड़ ग्रन्थि) का पूरी तौर से नाश हो जाता है ।
354. ‘तू’, ‘मैं’, ‘यह’ – ऐसी कल्पना बुद्धि के दोष से उत्पन्न होती है । निर्विशेष, अद्वय, परमात्मा, समाधि की उपलब्धि होने पर, ब्रह्मतत्त्व की ठीक-ठीक अवधारणा हो जाने से, व्यक्ति का सारा विकल्प (नानात्व-बोध) नष्ट हो जाता है ।
355. शान्त मनवाला, इन्द्रियों को दमित रखनेवाला, विषयों से पूर्णतः विरत, क्षमाशील (सहिष्णु) यति (साधक) – समाधि में स्थित होकर, निरन्तर सर्वात्म-भाव का अभ्यास करता है (सभी प्राणियों तथा वस्तुओं को अपनी ही आत्मा जानता है) । इस चिन्तन के द्वारा अविद्या (माया) के अन्धकार से उत्पन्न सभी विकल्पों (मिथ्या कल्पनाओं) को सहज ही दग्ध करके, वह ब्रह्माकार वृत्ति द्वारा निष्क्रिय तथा निर्विकल्प अवस्था में स्थित होकर सुखपूर्वक निवास करता है ।
356. जो लोग अपने कर्ण आदि बाह्य इन्द्रियों, चित्त (अन्तःकरण) तथा अहंकार को चैतन्य-स्वरूप आत्मा में विलीन करके समाधिस्थ रहते हैं; केवल वे ही संसार-बन्धन से मुक्त होते हैं; परन्तु केवल ब्रह्मज्ञान की चर्चा करते रहनेवाले अन्य लोग (भव-बन्धन से) मुक्त नहीं होते ।
357. (देह, मन, बुद्धि आदि) उपाधियों के भेद से व्यक्ति का आत्मस्वरूप स्वयं भी अनेक रूपों में विभक्त हो गया है; परन्तु उपाधियों का नाश होने पर वह केवल अखण्ड आत्मस्वरूप रह जाता है । अतः विद्वान् (साधक) को चाहिये कि वह उपाधियों के लय (नाश) हेतु निरन्तर निष्ठापूर्वक निर्विकल्प समाधि में अवस्थान करे ।
358. सत्-स्वरूप ब्रह्म में आसक्त मनुष्य, अपनी अनन्य निष्ठा के द्वारा निश्चय ही अपने ब्रह्म-स्वरूप को प्राप्त हो जाता है, (उसी प्रकार जैसे कि) भ्रमर का ध्यान करता हुआ कीट भ्रमर ही हो जाता है ।
359. जैसे कीट अन्य समस्त क्रियाओं (भोजन आदि) से आसक्ति को छोड़कर, निरन्तर भ्रमर का ही चिन्तन करते हुए भ्रमरत्व को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही योगी भी अनन्य निष्ठापूर्वक परमात्म-तत्त्व का ध्यान करके उस ब्रह्मतत्त्व से एक हो जाता है ।
360. यह परमात्म-तत्त्व अति सूक्ष्म है, स्थूल दृष्टि के द्वारा इसकी अनुभूति नहीं हो सकती । यह अतीव शुद्ध बुद्धि वाले उत्तम व्यक्तियों के द्वारा, समाधि अर्थात् एकाग्र चित्त की सहायता से परम सूक्ष्म वृत्ति के द्वारा ही जाना जा सकता है ।
361. जिस प्रकार स्वर्ण अग्नि तथा क्षार की सहायता से शोधित होने पर, अपने सारे मल को त्यागकर अपने विशुद्ध तेजस्विता आदि गुणों को प्राप्त होता है, वैसे ही ध्यान के द्वारा (साधक का) मन अपनी सत्त्व, रजस् तथा तमोगुण रूपी मलिनता को त्यागकर अपने तत्त्व (परब्रह्म रूपी स्वरूप) को प्राप्त कर लेता है ।
362. पूर्वोक्त निरन्तर अभ्यास (ब्रह्मचिन्तन) द्वारा मन जब शुद्ध होकर ब्रह्म में लीन हो जाता है; तब स्वतः (सहज भाव से) विकल्परहित, अद्वैत ब्रह्मानन्द की रसानुभूति कराने वाली (निर्विकल्प) समाधि की अवस्था प्राप्त हो जाती है ।
363. इस निर्विकल्प समाधि के फलस्वरूप समस्त वासना-ग्रन्थियों का विनाश हो जाता है, समस्त कर्मफलों का सर्व प्रकार से क्षय हो जाता है, भीतर और बाहर से सर्वदा बिना किसी प्रयत्न के ही (सहज भाव से) अपने आत्म-स्वरूप का स्फुरण होता रहता है ।
364. ब्रह्मविद्या के ‘श्रवण’ की अपेक्षा ‘मनन’ को सौगुना उत्कृष्ट मानना चाहिये, मनन की अपेक्षा ‘निदिध्यासन’ को लाखगुना (और) ‘निर्विकल्प’ समाधि को अनन्तगुना उत्कृष्ट मानना चाहिये ।
365. निर्विकल्प समाधि के द्वारा ब्रह्मतत्त्व का अत्यन्त स्पष्ट तथा निश्चित रूप से साक्षात्कार होता है, अन्य किसी प्रकार से नहीं होता । क्योंकि मन – अपनी चंचलता के कारण अन्य अनात्म वस्तुओं के साथ मिश्रित रहता है ।
366. अतः इन्द्रियों को संयत करके, मन को शान्त करके निरन्तर अन्तरात्मा-रूपी ब्रह्म में समाधिस्थ होओ । और ब्रह्म के साथ आत्मा के एकत्व की अनुभूति के द्वारा, अनादि अविद्या-माया द्वारा उत्पन्न अज्ञान-अन्धकार का विनाश करो ।
योग अथवा एकाग्रता के साधन –
367. वाणी पर संयम, विषयों का असंग्रह, आशा न करना, क्रियाओं का त्याग और नित्य एकान्तशीलता – ये योग के प्रथम द्वार हैं ।
368. एकान्तवास इन्द्रियों के संयम में सहायक है, बाह्य इन्द्रियों का संयम (दम) चित्त के संयम का साधन है, आन्तरिक इन्द्रियों के संयम से अहं-वासना का नाश होता है, इसके फलस्वरूप योगी को निरन्तर ब्रह्मानन्द रस की अनुभूति होती है; अतएव मुनि (मननशील साधक) को चाहिये कि वह सतत चित्तनिरोध के लिये प्रयत्न करता रहे ।
369. वाणी (अर्थात् सभी इन्द्रियों) को मन में अर्पित करो, मन को बुद्धि में, बुद्धि को उसके साक्षी (अन्तरात्मा) में लय करो और उसे (अन्तरात्मा को) भी निर्विकल्प ब्रह्म में विलीन करके परम शान्ति प्राप्त करो ।
370. देह, प्राण, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि उपाधियों की जिस- जिस वृत्ति के साथ इस योगी (साधक) का संयोग होता है, वह उसी-उसी भाव के साथ एकाकार हो जाता है ।
371. (देह, इन्द्रियों आदि उपाधियों से सम्बन्ध की) निवृत्ति के द्वारा, मुनि (मननशील साधक) की सहज भाव से सभी प्रकार के बाह्य विषयों से भलीभाँति उपरति हो जाती है और उसे सदा ब्रह्मानन्द-रस की अनुभूति होती रहती है ।
वैराग्य से कामनाओं तथा विषयों का त्याग –
372. आन्तरिक (मन की वासनाओं का) त्याग और बाह्य (भोग्य विषयों का) त्याग – वैराग्यवान व्यक्ति के लिये ही सम्भव हो पाता है । विरागी व्यक्ति मोक्ष की प्रबल इच्छा से आन्तरिक एवं बाह्य आसक्तियों का त्याग कर देता है ।
373. केवल विरागी ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति ही बाह्य (भोग्य) विषयों के प्रति आसक्ति और अहंकार (तथा राग-द्वेष) आदि आन्तरिक आसक्ति का त्याग कर सकता है ।
विवेक-वैराग्य मुक्ति के सहायक हैं –
374. हे विचारशील वत्स, जान रखो कि वैराग्य और बोध (विवेक) साधक के लिये पक्षी के दो पंखों के समान हैं । इन दोनों के बिना, इनमें से केवल एक के द्वारा मुक्ति-रूपी भवन के सर्वोच्च तल पर आरोहण करना सम्भव नहीं है ।
375. अत्यन्त वैराग्यवान् साधक को ही समाधि होती है, समाधिवान् व्यक्ति का ही तत्त्वज्ञान दृढ़ होता है, तत्त्वज्ञानी को ही संसार-बन्धन से मुक्ति मिलती है और ऐसे मुक्त पुरुष को ही चिरन्तन सुख की अनुभूति होती है ।
376. संयमी व्यक्ति के लिये वैराग्य से बढ़कर दूसरा कोई भी सुख का साधन मेरे देखने में नहीं आता । यह वैराग्य यदि अति शुद्ध आत्मबोध से जुड़ा हो, तो उससे स्वाधीन साम्राज्य का सुखभोग होता है । चूँकि यह चिरन्तन मुक्ति-रूपी युवती तक ले जाने का श्रेष्ठ द्वार है, अतः तुम सभी अवस्थाओं में स्पृहा-राहित्य की सहायता से नित्य श्रेयस् अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति हेतु सर्वदा अपनी प्रज्ञा को आत्मा में स्थापित करो ।
ध्यान या आत्मचिन्तन ज्ञानप्राप्ति का साधन है –
377. विष के तुल्य भोग्य विषयों की आशा को छिन्न कर डालो, क्योंकि यह मृत्यु का रूप है । जाति, कुल, आश्रम का अभिमान त्यागकर सकाम कर्मों को बहुत दूर से छोड़ दो । मिथ्या देह आदि में आत्मबुद्धि का त्याग करो । अपनी प्रज्ञा को आत्मा में स्थिर करो, क्योंकि तुम स्वरूप से द्रष्टा मात्र हो, मन के भी अतीत हो और अद्वय परब्रह्म हो ।
378. ब्रह्मरूपी लक्ष्य पर मन को खूब दृढ़तापूर्वक स्थापित करके, कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों को बाह्य विषयों से रोककर उनके स्व-स्थानों में स्थिर करके, शरीर को निश्चल करके और उसके अस्तित्व की उपेक्षा करके, ब्रह्म तथा आत्मा की एकता की अनुभूति करके, उसी में तन्मयतापूर्वक अखण्ड-वृत्ति के साथ निरन्तर ब्रह्मानन्द-रस का आस्वादन करते रहो । अन्य निस्सार फल देनेवाले अनुष्ठानों से क्या लाभ?
379. दुःखों के कारण मोहरूप जागतिक विषयों का चिन्तन को त्याग करके मुक्ति के कारण-स्वरूप आनन्दमय आत्मा का चिन्तन करो ।
380. ह स्वयंज्योति तथा सबकी साक्षी आत्मा विज्ञानमय कोश में निरन्तर असंख्य रूपों में विराज रही है । असत् से भिन्न उस आत्मा को लक्ष्य बनाकर, अखण्ड वृत्ति की सहायता से उसे अपनी आत्मा (मैं वही हूँ) के रूप में अनुभव करो ।
381. भिन्न वृत्तियों का वर्जन करके, अविच्छिन्न भाव से इस (आत्मा) का चिन्तन करते हुए अपने स्वरूप को स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिये ।
382. इस (स्वरूप) में आत्मबोध (अहंता) को दृढ़ करके, अहंकार आदि का सम्यक् रूप से त्याग करके, उस (देह आदि) के प्रति टूटे हुए घट के समान उदासीन भाव से रहना चाहिये ।
383. विशुद्ध मन को – अपने साक्षिस्वरूप, बोधमात्र, स्वरूप (आत्मा) में लगाकर, धीरे-धीरे स्थिरता की उपलब्धि करके, अपने पूर्ण स्वरूप का साक्षात्कार कर लो ।
384. अपने अज्ञान द्वारा कल्पित – देह, इन्द्रियों, प्राण, मन, अहंकार आदि समस्त उपाधियों से विमुक्त आत्मा को पूर्ण महा-आकाश के समान अखण्ड रूप में देखना चाहिये ।
385. (जैसे) घट, कलश, अन्नागार, सूई आदि सैकड़ों उपाधियों से विमुक्त आकाश एक रहता है, अनेक नहीं; वैसे ही अहंता आदि से विमुक्त शुद्ध परब्रह्म एक (अद्वितीय) है ।
386. सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से लेकर घास के तिनके तक – सारी उपाधियाँ पूर्णतः मिथ्या हैं । अतः अपनी आत्मा को ही अद्वितीय आत्मा के रूप में पूर्ण भाव से विराजमान देखो ।
387. जिस अधिष्ठान में भ्रान्ति के कारण कोई वस्तु कल्पित होती है, विवेक हो जाने पर वह वस्तु मूल अधिष्ठान मात्र ही रह जाती है, उससे भिन्न नहीं दिखती । (जैसे) भ्रान्ति का नाश होने पर (रस्सी में) देखा गया सर्प रस्सी के रूप में ही प्रकाशित हो उठता है, वैसे ही यह विश्व आत्म-स्वरूप में प्रकाशित हो उठता है ।
388. तुम स्वयं ही ब्रह्मा हो, स्वयं विष्णु हो, स्वयं इन्द्र हो और स्वयं शिव हो; तुम स्वयं ही सम्पूर्ण विश्व हो, तुम्हारी अपनी आत्मा से भिन्न अन्य कुछ भी नहीं है ।
सब कुछ सच्चिदानन्द ब्रह्म मात्र है –
389. आत्मा स्वयं ही अन्दर है, स्वयं बाहर है, स्वयं सामने है, स्वयं पीछे है, स्वयं दाहिने है, स्वयं बाएँ है, इसी प्रकार स्वयं ऊपर है और स्वयं ही नीचे भी है ।
390. जैसे तरंग, फेन, भँवर, बुलबुले आदि सभी स्वरूप से जल मात्र हैं, वैसे ही देह से लेकर अहंकार तक सब कुछ चैतन्य मात्र है । यह सब विशुद्ध एकरस चैतन्य ही है ।
391. वाणी (आदि इन्द्रियों) तथा मन द्वारा ज्ञात होनेवाला यह सारा जगत् सत्-स्वरूप ही है, अन्य कुछ भी नहीं । यह सब प्रकृति की सीमा के परे स्थित सत्स्वरूप ब्रह्म से भिन्न कुछ भी नहीं है । क्या कलश, घट, कुम्भ आदि मिट्टी से पृथक् हैं? तुम माया की मदिरा से भ्रान्त होकर ही ‘मैं’-‘तुम’ आदि बोल रहे हो ।
392. ‘यत्र नान्यत्’ वाक्य में क्रियापद के बारम्बार प्रयोग से श्रुति – मिथ्या अध्यास की निवृत्ति के लिये द्वैत का निषेध करती है । (सन्दर्भ – “यत्र नान्यत्पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति स भूमा – जहाँ अन्य कुछ नहीं देखता, अन्य कुछ नहीं सुनता, अन्य कुछ नहीं जानता, वही भूमा – अनन्त ब्रह्म है ।” छान्दोग्य उपनिषद ७-२४-१)
393. तुम स्वयं ही आकाशवत् निर्मल, निर्विकल्प, निःसीम, निःस्पन्द, निर्विकार, अन्दर-बाहर से रहित, अनन्य, अद्वितीय परं ब्रह्म हो, इसके सिवा तुम्हारे लिये जानने योग्य अन्य है ही क्या?
394. इस (जीव-ब्रह्म-एकता) के विषय में अनेक प्रकार से क्या कहना? जीव स्वयं ही ब्रह्म है, यह सारा फैला हुआ जगत् ब्रह्म ही है, श्रुति (वेद) ब्रह्म को अद्वितीय कहती है । ‘मैं ब्रह्म ही हूँ’ – इस प्रकार ज्ञानप्राप्त बुद्धिवाले बाह्य विषयों को सर्वथा त्यागकर, निरन्तर चिदानन्द- स्वरूप होकर स्वयं को ब्रह्म से अभिन्न अनुभव करते हैं । यह ध्रुव सत्य है ।
395. सर्वप्रथम मल-मूत्र से युक्त मलिन देह में अहं-बोध से उत्पन्न कामनाओं को नष्ट करो । तत्पश्चात् वायु के समान (चंचल) सूक्ष्म शरीर के साथ भी बलपूर्वक वैसा ही करो । वेदों में जिस नित्य आनन्दमूर्ति आत्मा की महिमा वर्णित है, वह मैं ही हूँ – ऐसा पहचान कर ब्रह्मरूप में अवस्थान करो ।
396. जब तक मनुष्य शव-जैसे शरीर की उपासना करता है, तब तक वह अपवित्र रहता है, उसे दूसरों से क्लेश मिलता रहता है और वह जन्म, मृत्यु तथा रोग का आश्रय बना रहता है । (परन्तु) जब वह अचल शुद्ध मंगलमय आत्मा को अपना स्वरूप जान लेता है, तो तत्काल इन क्लेशों से मुक्त हो जाता है । श्रुति भी ऐसा ही कहती है ।
397. अपनी आत्मा पर आरोपित, असंख्य कल्पित वस्तुओं का निराकरण हो जाने पर, स्वयं पूर्ण अद्वितीय निष्क्रिय परम ब्रह्म मात्र ही रह जाता है ।
द्वैत का जरा भी अस्तित्व नहीं है –
398. चित्तवृत्तियों के (समाधि द्वारा) सत्स्वरूप निर्विकल्प परात्मा ब्रह्म में विलीन हो जाने पर, उसे यह विकल्प (जगत) बिल्कुल भी दिखायी नहीं देता । तब यह केवल वाणी का विषय मात्र रह जाता है । (इसमें सत्यबोध नहीं होता ।)
399. उस एक ब्रह्म-वस्तु में यह वैचित्र्यमय विश्व रूपी विकल्प मिथ्या कल्पना मात्र है । उस निर्विकार, निराकार, निर्गुण परब्रह्म में भेद कहाँ से आयेगा?
400. द्रष्टा-दर्शन-दृश्य आदि भावों से रहित उस अद्वितीय निर्विकार, निराकार, निर्गुण ब्रह्म-वस्तु में भेद कहाँ से आयेगा?
401. महा-प्रलय-काल के समुद्र के समान अत्यन्त परिपूर्ण अद्वितीय निर्विकार, निराकार, निर्गुण ब्रह्म-वस्तु में भेद कहाँ से आयेगा?
402. प्रकाश में अन्धकार के समान जिसमें भ्रान्ति का कारण (अज्ञान) पूरी तौर से विलीन हो जाता है, उस अद्वितीय निर्विकार, निराकार, निर्गुण ब्रह्म-वस्तु में भेद कहाँ से आयेगा?
403. एकात्म-भाव के परम तत्त्व (ब्रह्म) में भेद की बात ही भला कैसे बैठ सकती है? सुख-स्वरूप सुषुप्ति अवस्था (प्रगाढ़ निद्रा) में भला किसने भेद देखा है?
404. उस परब्रह्म की अनुभूति होने के पूर्व भी उस निर्विकल्प, सत्यस्वरूप परब्रह्म में विश्व का अस्तित्व ही नहीं होता । जैसे तीनों कालों (भूत, वर्तमान या भविष्य) में कभी रस्सी में सर्प का अस्तित्व नहीं होता अथवा मृग-मरीचिका में जल की एक बूँद भी नहीं रहती ।
ब्रह्म और ब्रह्माण्ड एक तथा अभिन्न हैं –
405. श्रुति स्वयं कहती है कि इस संसार में दिखनेवाला द्वैत माया मात्र है और परमार्थ की दृष्टि से अद्वैत ही सत्य है । सुषुप्ति अवस्था में भी इसका प्रत्यक्ष अनुभव होता है ।
406. ज्ञानी लोगों ने रज्जु-सर्प आदि (के दृष्टान्त) में आरोपित वस्तु की अधिष्ठान से अभिन्नता देखी है । विकल्प (एक वस्तु में दूसरे का ज्ञान) केवल भ्रान्ति रहने तक ही रहता है ।
आत्मज्ञान का उपाय –
407. इस विकल्प (भ्रान्ति) का कारण चित्त है । चित्त का अभाव होने पर ऐसा नहीं होता । अतः चित्त को अन्तरात्मा रूपी परब्रह्म में लगाओ ।
408. ज्ञानी व्यक्ति समाधि के समय अपने हृदय (बुद्धि) में कुछ ऐसे सतत बोधरूप तथा केवल आनन्दरूप पूर्ण ब्रह्म का अनुभव करता है; जो निरुपम, निःसीम, नित्यमुक्त, निष्क्रिय, असीम गगन के समान (असंग), अखण्ड और निर्विकल्प है ।
409. ज्ञानी व्यक्ति समाधि के समय अपने हृदय में उस पूर्ण ब्रह्म का अनुभव करता है; जो कार्य-कारण सम्बन्ध से रहित है, मन-वाणी के अगोचर है, एकरस है, अनुपम है, ज्ञान के प्रमाणों के परे है, निगम (वेद) के वाक्यों से प्रमाणित है, सर्वदा ‘अस्मत्’-प्रत्यय (अहंबोध) से ओतप्रोत है ।
410. ज्ञानी व्यक्ति समाधि के समय अपने हृदय में उस पूर्ण ब्रह्म का अनुभव करता है; जो अजर (वार्धक्य-रहित) है, अमर है; जो ऐसी वस्तु के स्वरूप वाला है, जिसके सारे अभाव दूर हो गये हैं, जो समुद्र के समान शान्त है, जो नामरहित है, जो गुण-दोष-रूपी विकारों से रहित हो गया है; जो शाश्वत, शान्त और अद्वितीय है ।
411. अपने स्वरूप में अन्तःकरण को स्थिर करके अखण्ड वैभवशाली आत्मा का साक्षात्कार करो और जन्म-जन्मान्तर के संस्कार- रूप दुर्गन्धयुक्त अहंकार आदि बन्धनों को छिन्न करके, प्रयत्नपूर्वक अपने नर-जन्म को सफल करो ।
412. हृदयगुहा में स्थित (स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण रूप) सभी उपाधियों से मुक्त, सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप, अद्वितीय आत्मा का चिन्तन करो, तो पुनः इस (जन्म-मृत्यु-रूप) संसार-चक्र में आने की बात ही नहीं उठेगी ।
ज्ञान द्वारा स्थूल-सूक्ष्म देहों से तादात्म्य नाश –
413. प्रारब्ध-कर्मों के फलभोग हेतु, व्यक्ति की छाया के समान मात्र आभास-रूप दिखनेवाले, शव के समान दूर परित्यक्त, इस शरीर को महात्मा पुनः धारण नहीं करते ।
414. सतत विमलबोध तथा आनन्दरूप आत्मा की अनुभूति करके इस जड़ तथा मलरूप उपाधि (शरीर) को दूर त्याग दो । इसके बाद इस शरीर का स्मरण तक मत करो, क्योंकि उल्टी की हुई वस्तु की स्मृति घृणा ही पैदा करती है ।
415. श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी – इस (देह आदि दृश्य प्रपंच) को, उसके मूल अविद्या के साथ, सत्स्वरूप निर्विकल्प ब्रह्मज्ञान की अग्नि में पूरी तौर से जलाने के बाद, स्वयं नित्य-विशुद्ध बोधानन्द-स्वरूप आत्मा के साथ विराज करता है ।
416. गाय के गले में पड़ी माला के समान, प्रारब्ध-कर्मों द्वारा गुँथा हुआ यह शरीर चला जाय या रहे – आनन्द-स्वरूप ब्रह्म में जिसकी सारी वृत्तियाँ लीन हो गयी हैं, ऐसा तत्त्ववेत्ता उस ओर फिर नहीं देखता ।
417. स्वरूप से अपने को अखण्ड-आनन्दमय आत्मा के रूप में अनुभूति करने के बाद, तत्त्ववेत्ता भला क्या इच्छा करता हुआ और किस हेतु से शरीर का पोषण करेगा?
आत्मज्ञान तथा जीवनमुक्ति का फल –
418. आत्मज्ञ जीवन्मुक्त सिद्ध योगी को सर्वदा अपने बाहर तथा भीतर, आत्मा में आनन्द-रस का स्वाद मिलता रहता है – यही (आत्मज्ञान का) फल है ।
419. वैराग्य का फल है ज्ञान, ज्ञान का फल है (बाह्य विषयों से) उपरति और उपरति का फल है – आत्मानन्द की अनुभूति से शान्ति ।
420. यदि परवर्ती अवस्थाओं का अभाव हो, तो पूर्ववर्ती अवस्थाएँ निष्फल हैं, (परन्तु पिछले श्लोक में कथित वैराग्य, बोध व उपरति का क्रम ठीक हो, तो) स्वतः ही विषयों से निवृत्ति, परम तृप्ति और अनुपम आनन्द की उपलब्धि होती है ।
421. सामने आये दुःख में उद्विग्न न होना, यह ब्रह्मविद्या का प्रत्यक्ष फल है । (माया रूपी अध्यास की) भ्रान्ति के समय (मनुष्य द्वारा) जो विभिन्न निन्दनीय कर्म किये जाते हैं, विवेक हो जाने के बाद वह उन्हें भला कैसे कर सकता है?
422. विद्या का फल है – असत् (मिथ्या) वस्तु (संसार) से निवृत्ति और अज्ञान का फल है उसमें (असत् विषयों में) प्रवृत्ति । मृगमरीचिका (सीपी-रजत) आदि में ज्ञानी तथा अज्ञानी का इसी प्रकार (निवृत्ति तथा प्रवृत्ति) देखने में आती है । ऐसा यदि (निवृत्ति-प्रवृत्ति-भेद) न होता, तो ब्रह्मज्ञानी को इससे भिन्न दूसरा दृष्ट फल क्या होगा?
423. यदि अज्ञानजनित हृदयग्रन्थि का समूल विनाश हो जाय, तो अनिच्छु (कामनाहीन) व्यक्ति के लिये स्वयं विषय ही भला कैसे प्रवृत्ति का कारण हो सकता है?
साधक की विविध उपलब्धियाँ –
424. जिस अवस्था में भोग्य विषयों के प्रति कामना-वासना का उदय नहीं होता, उसे ‘वैराग्य’ की परम सीमा जानो । जिस अवस्था में अहंभाव का उदय नहीं होता, उसे ‘बोध’ (ज्ञान) की अन्तिम सीमा जानो । और जिस ब्रह्म-आत्मा के ऐक्यबोध की अवस्था में चित्तवृत्ति विलीन होकर वापस नहीं लौटती, उसे ‘उपरति’* की सीमा समझो ।
स्थितप्रज्ञ या जीवन्मुक्त ज्ञानी के लक्षण –
425. जो (ज्ञानी) सदैव ब्रह्म-स्वरूप में स्थित रहने के फलस्वरूप बाह्य विषयों की सत्यता के बोध से पूर्णतः मुक्त हो गया है, वह दूसरों द्वारा लाये गये अन्न-वस्त्र आदि भोग्य वस्तुओं को निद्राच्छन्न (तन्द्रालु) या बालक के समान (उस ओर बिना मनोनियोग के) ग्रहण करता है; फिर कभी (व्युत्थान के समय) विषयों की ओर बुद्धि लौटने पर सब कुछ स्वप्न में देखे जगत् के समान देखता हुआ जगत् में निवास करता है; अनन्त पुण्यों के फल का भोग करनेवाला अत्यन्त विरल (दुर्लभ) वह (ज्ञानी) धन्य और पूजनीय है ।
426. अपनी आत्मा ब्रह्म में ही विलीन हो जाने के फलस्वरूप, जो (व्यक्ति) पूर्णतः निर्विकार तथा (कर्तृत्वबोध न होने से बाह्यतः) निष्क्रिय हो जाता है, जो सदा आनन्द में रहता है, ऐसे संन्यासी को स्थितप्रज्ञ जानो ।
427. (‘तत्त्वमसि’ महावाक्य में ‘तत्’ तथा ‘त्वं’ पदों द्वारा लक्षित) ‘ब्रह्म’ (परमात्मा) और ‘आत्मा’ (अन्तरात्मा) को उसके शोधित अर्थात् निरुपाधिक शुद्ध ब्रह्मात्म-ऐक्य बोध में डूबनेवाली निर्विकल्प तथा चिन्मात्रा (चैतन्य मात्र) वृत्ति को ‘प्रज्ञा’ कहते हैं । जिसकी ऐसी प्रज्ञा सुदृढ़ भाव से अपने स्वरूप में स्थित है, उसे ‘स्थितप्रज्ञ’ कहते हैं ।
428. जिसकी ‘प्रज्ञा’ ब्रह्म में ही ‘स्थित’ है (यानी जो स्थितप्रज्ञ है), जिसे निरन्तर आनन्द की प्राप्ति होती रहती है, जिसके मन से जगत्-प्रपंच विस्मृतप्राय हो गया है, उसे जीवन्मुक्त समझा जाता है ।
429. परब्रह्म में विलीन हुआ जिस ज्ञानी का मन जागता रहकर भी जाग्रत अवस्था के लक्षणों (अहंता, ममता, राग-द्वेष, नानात्व-दर्शन आदि) से पूर्णतः विहीन होता है, जिसका बोध (ज्ञान) वासनाहीन होता है, उसे जीवन्मुक्त कहते हैं ।
430. जिसके मन से (राग-द्वेष आदि) संसार-विषयक कल्पना शान्त हो गये हैं, जो कलाओं अर्थात् अंग-प्रत्यंगोंवाला देहधारी होकर भी देहात्मबोध से रहित है, जिसका चित्त (जन्म-मृत्यु आदि की) चिन्ताओं से पूर्णतः मुक्त हो गया है, उसे जीवन्मुक्त कहते हैं ।
431. (प्रारब्धवश) छाया के समान रह जानेवाली देह में विद्यमान रहते हुए भी, अहंता और ममता का नितान्त अभाव होना – यह जीवन्मुक्त का लक्षण है ।
432. भूतकाल में हुई घटनाओं का स्मरण (विश्लेषण) न करना, भविष्य में ‘क्या होगा या नहीं होगा’ – इसका विचार न करना और वर्तमान काल में प्राप्त (अनुकूल या प्रतिकूल, सुख-दुखमय) परिस्थितियों के प्रति पूर्णतः उदासीन रहना – यह जीवन्मुक्त का लक्षण है ।
433. गुण-दोषों से युक्त एक-दूसरे से भिन्न (वैचित्र्यपूर्ण) स्वभाव वाले इस संसार में सर्वत्र समत्व (ब्रह्मरूप) देखना – यह जीवन्मुक्त का लक्षण है ।
434. प्रिय या अप्रिय – जो भी प्राप्त होता है, दोनों अवस्थाओं में मन की समदृष्टि से निर्विकार बने रहना – यह जीवन्मुक्त का लक्षण है ।
435. चित्त के ब्रह्मानन्द के रस का आस्वादन लेने में ही मग्न रहने के कारण, भीतर और बाहर का सब कुछ भूल जाना – यह जीवन्मुक्त यति (संन्यासी) का लक्षण है ।
436. जो अपनी देह, इन्द्रियों आदि तथा कर्तव्य के विषय में भी अहं-मम (‘मैं’-‘मेरा’) का भाव छोड़कर उदासीनतापूर्वक रहता है, वह जीवन्मुक्ति के लक्षणों वाला है ।
437. श्रुति (या गुरु) से महावाक्य-श्रवण के द्वारा जिसे अपने ब्रह्मभाव की अनुभूति हो गयी है और जो संसार-रूप बन्धन से मुक्त हो चुका है, वह जीवन्मुक्ति के लक्षणों वाला है ।
438. जिसे देह, इन्द्रियों आदि में ‘अहम्’ (‘मैं’) का भाव और अन्य वस्तुओं में ‘इदम्’ (‘यह’) का भाव कभी भी नहीं होता, वह जीवन्मुक्त माना जाता है ।
439. जो अपनी ‘प्रज्ञा’ के द्वारा अपनी अन्तरात्मा तथा ब्रह्म के बीच और ब्रह्म तथा सृष्टि के बीच – कभी भी भेद नहीं देखता, वह जीवन्मुक्ति के लक्षणों वाला है ।
440. इस शरीर की सज्जन लोग पूजा कर रहे हों या इसे दुर्जन लोग कष्ट दे रहे हों – (दोनों स्थितियों में) जिसका समभाव (हर्ष-विषाद- राहित्य) बना रहता है, वह जीवन्मुक्ति के लक्षणों वाला है ।
441. समुद्र में नदियों के प्रवाह के समान जिस ज्ञानी में दूसरों द्वारा प्रेरित (निन्दा-स्तुति, प्रिय-अप्रिय आदि) विषय प्रविष्ट होकर ब्रह्म वस्तु में विलीन हो जाते हैं, किसी विकार की सृष्टि नहीं करते, ऐसा यति (सन्त) मुक्त हो चुका है ।
442. जिस व्यक्ति को ब्रह्मतत्त्व का (आत्म-स्वरूप से) साक्षात्कार हो गया है, उसके लिये पहले (अज्ञान काल) के समान संसार के विषयों में रुचि या अरुचि नहीं रह जाती । (पर) यदि संसार में ऐसी प्रवृत्ति देखने में आती है, तो फिर उसे ब्रह्मभाव का बोध नहीं हुआ है; वह तो बहिर्मुखी है ।
443. यदि कहो कि उस (ब्रह्मज्ञ) में पुराने संस्कारों के वेग से अब भी सांसारिकता देखने में आती है, तो हम कहेंगे कि ऐसा नहीं होगा, (क्योंकि) सत्स्वरूप, एकमेवाद्वितीय ब्रह्म की अनुभूति होने पर वासनाएँ (संस्कार) क्षीण हो जाती हैं ।
444. अत्यन्त कामुक व्यक्ति की भी भोग-वासना माता के समीप जाने पर कुण्ठित हो जाती है, वैसे ही पूर्ण आनन्द-स्वरूप ब्रह्म का ज्ञान हो जाने पर मनीषी के चित्त में कोई भी विषय-कामना उठ नहीं सकती ।
आत्मज्ञान के बाद प्रारब्ध की स्थिति –
445. निदिध्यासन-शील अर्थात् ध्यान-परायण व्यक्ति में बाह्य विषयों का बोध देखने में आता है; इसे देखकर ही श्रुति (छान्दोग्य. ६/१४/२) इसे प्रारब्ध कर्मों का फल बताती है ।
446. जब तक सुख-दुख आदि का अनुभव होता है, तब तक ऐसा मानते हैं कि प्रारब्ध कर्म फल दे रहा है । फल का उदय किसी पूर्व क्रिया का द्योतक है, क्रिया के अभाव में कहीं भी फल का उदय दिखाई नहीं देता ।
447. जैसे स्वप्न में किये हुए सारे (भले-बुरे) कर्म जागते ही लुप्त हो जाते हैं, वैसे ही ‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) का ज्ञान होने पर सौ करोड़ कल्पों में संचित हुए कर्म भी विलीन हो जाते हैं ।
448. स्वप्न देखते समय यदि कोई पुण्य कर्म या जघन्य पाप हो जाता है, तो निद्रा से जागने पर क्या (उसके लिये) व्यक्ति को स्वर्ग या नरक में ले जाया जाएगा?
449. जो आत्मा आकाशवत् असंग तथा उदासीन है; उसकी (‘वही मैं हूँ’ ऐसी) अनुभूति कर लेने पर ज्ञानी भावी कर्मफलों से जरा भी और कभी भी लिप्त नहीं होता ।
450. जैसे आकाश – घट तथा उसमें स्थित सुरा के गन्ध से लिप्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा (स्थूल शरीर तथा सूक्ष्म अन्तःकरण की) उपाधियों से सम्बद्ध होकर भी उनके गुणों से लिप्त नहीं होती ।
451. जैसे लक्ष्य की ओर छोड़ा जा चुका बाण लक्ष्यभेद करता ही है (उसे बीच में रोका नहीं जा सकता), वैसे ही आत्मज्ञान का उदय होने के पूर्व (इस जन्म में) आरम्भ हो चुके (प्रारब्ध) कर्म फल दिये बिना नष्ट नहीं होते ।
452. बाघ समझकर छोड़ा गया बाण, बाद में ‘वह गाय है’ – जानने पर भी उसे रोका नहीं जा सकता । वह पूरी शक्ति के साथ लक्ष्यभेद करता ही है ।
453. ज्ञानी लोगों के लिये भी प्रारब्ध कर्म निश्चय ही (संचित तथा आगामी कर्मों की अपेक्षा) अधिक बलवान होता है । केवल भोग के द्वारा ही उसका क्षय किया जा सकता है । सम्यक् आत्मज्ञान की अग्नि द्वारा पिछले जन्मों में संचित तथा आगामी कर्मों का नाश किया जा सकता है । जो लोग ब्रह्म तथा आत्मा की एकता की अनुभूति करके सर्वदा तन्मयतापूर्वक उसी बोध में स्थित रहते हैं, उसके लिये तीनों कर्मों (प्रारब्ध, संचित तथा आगामी) का कभी अस्तित्व नहीं रह जाता, वे निर्गुण ब्रह्म ही हो जाते हैं । (ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति ।)
454. जैसे निद्रा से जागे हुए व्यक्ति का स्वप्न में देखी हुई वस्तुओं के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता, वैसे ही उपाधियों के तादात्म्य (देहात्मबोध) से रहित, केवल ब्रह्मात्मबोध के साथ अपनी आत्मा में ही स्थित हुए मुनि (ज्ञानी) के लिये प्रारब्ध की सत्यता कहना उचित नहीं ।
455. निद्रा से जगा हुआ व्यक्ति स्वप्न में देखी हुई छाया-देह में ‘अहम्’ (मैं) एवं ‘मम’ (मेरा) और उसके साथ ही उस छायादेह के उपयोगी प्रपंच (सुत, दारा, धन, सम्पदा, घर-द्वार आदि) में ‘इदम्’ (यह) का भाव नहीं रखता; अपितु वह अपनी आत्मा के रूप में जागते हुए स्थित रहता है ।
456. जगा हुआ व्यक्ति – स्वप्न में दिखे हुए मिथ्या वस्तुओं का, न तो समर्थन की इच्छा करता है, न उस जगत् को ग्रहण (प्राप्त) करता है । यदि उसमें इस मिथ्या-रूप स्वप्न-जगत् में अनु-प्रवृत्ति (आसक्ति) देखने में आती है, तो यह निश्चित जानो कि वह (अज्ञान-निद्रा से) जगा हुआ नहीं है ।
457. इसी प्रकार जो (ज्ञानी) परब्रह्म में आत्म-स्वरूप बोध के साथ स्थित है, वह उस (एकमेवाद्वितीय ब्रह्म) से भिन्न कुछ भी नहीं देखता । जैसे स्वप्न में देखी हुई वस्तु की स्मृति रह जाती है, वैसी ही पहले की स्मृति के अनुसार ज्ञानी का भोजन, शौच आदि होता रहता है ।
458. देह कर्म के फलस्वरूप निर्मित हुआ है, अतः उसके निर्माण के पीछे प्रारब्ध कर्म का हाथ है, ऐसा माना जा सकता है; पर अनादि आत्मा के विषय में ऐसी कल्पना अयुक्तिसंगत है । आत्मा कर्म द्वारा निर्मित नहीं है ।
459. श्रुति की अमोघ उक्ति है – वह आत्मा ‘अजन्मा, नित्य और शाश्वत है ।’२ उस आत्मबोध में स्थित हुए (ज्ञानी) के सन्दर्भ में प्रारब्ध की कल्पना भला कैसे सम्भव है?
460. देहात्म-बोध में स्थिति होने तक ही प्रारब्ध-कर्म युक्तिसंगत है, (श्रुति को) देहात्म-भाव मान्य नहीं है, अतः प्रारब्ध कर्मों की कल्पना को छोड़ देना चाहिये ।
461. (ज्ञानी के) शरीर के प्रारब्ध की कल्पना भी (कि वह प्रारब्ध से बना है) भ्रान्ति है । (क्योंकि) अध्यस्त वस्तु (देह) की सत्ता ही भला कहाँ है? और असत्य का जन्म भी भला कैसे हो सकता है? जिस (मिथ्या) शरीर का जन्म ही नहीं हुआ, उसका नाश भला कैसे होगा? फिर उस मिथ्या वस्तु (शरीर) का प्रारब्ध भी भला कहाँ से हो सकता है?
462 & 463. ‘यदि आत्मज्ञान से अज्ञान के सारे कार्य समूल नष्ट हो जाते हों, तो फिर ज्ञानी का शरीर (अज्ञान का कार्य होने से) कैसे रह सकता है?’ ऐसी शंका करनेवाले मूढ़बुद्धि (अज्ञानी) लोगों के समाधान हेतु श्रुति बाह्य (सापेक्ष) दृष्टि से प्रारब्ध के बारे में कहती है, न कि ज्ञानी लोगों के देह आदि की सत्यता समझाने के लिये ।
द्वैत या नानात्व का पूर्णतः अभाव है –
464. ब्रह्म सभी प्रकार से परिपूर्ण, अनादि, अनन्त, अप्रमेय (प्रत्यक्ष, अनुमान आदि ज्ञान के साधनों के अतीत), अविक्रिय (अपरिणामी, परिवर्तन-रहित), एक और अद्वैत है । इसमें नानात्व (बहुत्व) का लेश तक नहीं है ।
465. ब्रह्म सत्-स्वरूप, चैतन्य-स्वरूप, नित्य आनन्द-स्वरूप, निष्क्रिय, एक और अद्वैत है । इसमें नानात्व (बहुत्व) का लेश तक नहीं है ।
466. ब्रह्म सबका अन्तर्यामी, एकरस (घनीभूत), पूर्ण, अनन्त, सर्वव्यापी, एक और अद्वैत है । इसमें नानात्व (बहुत्व) का लेश तक नहीं है ।
467. ब्रह्म (सबका स्वरूप होने के कारण) न त्याज्य है न ग्राह्य, न किसी में स्थित होने योग्य है, न इसका कोई अन्य आश्रय है; यह एक और अद्वैत है । इसमें नानात्व (बहुत्व) का लेश तक नहीं है ।
468. ब्रह्म निर्गुण, निरवयव (अंशरहित या अविभाज्य), सूक्ष्म, निर्विकल्प (मन के अगोचर), निरंजन (दोषरहित), एक और अद्वैत है । इसमें नानात्व (बहुत्व) का लेश तक नहीं है ।
469. जिसके स्वरूप का निरूपण नहीं हो सकता और जो मन तथा वाणी के अगोचर है, यह ब्रह्म एक और अद्वैत है । इसमें नानात्व (बहुत्व) का लेश तक नहीं है ।
470. ब्रह्म सत्-स्वरूप, सर्व ऐश्वर्यों से सम्पन्न, स्वतःसिद्ध (स्वयं अपना प्रमाण), शुद्ध, बोधस्वरूप, उपमारहित, एक और अद्वैत है । इसमें नानात्व (बहुत्व) का लेश तक नहीं है ।
आत्मबोध का फल –
471. जिनकी विषयों से आसक्ति दूर हो गयी है, जिन्होंने समस्त भोगों का विशेष रूप से त्याग कर दिया है, जो (मन से) शान्त हो चुके हैं, जिनकी इन्द्रियाँ पूर्णतः दान्त (संयमित) हो चुकी हैं, ऐसे संयमशील महात्मा लोग, इस परम ब्रह्मतत्त्व की अनुभूति करके, अन्त में (देह छूटने पर) आत्मबोध के द्वारा परम आनन्द-रूप मोक्ष को प्राप्त होते हैं ।
472. हे शिष्य, तुम भी आत्मा के इस आनन्द-घन-स्वरूप परम तत्त्व का विचार करके, अपने मन में कल्पित मोह (उल्टे ज्ञान) को धोकर – प्रबुद्ध, मुक्त और (इस प्रकार) कृतार्थ हो जाओ ।
473. निर्विकल्प समाधि के द्वारा, तुम स्फुट (स्पष्ट) ज्ञान की दृष्टि से निश्चल-स्वरूप आत्मतत्त्व को देख लो । यदि गुरु से सुने हुए उपदेश (अहं ब्रह्मास्मि या अन्य महावाक्य) के अर्थ की ठीक तथा असन्दिग्ध रूप से धारणा हो गयी है, तो दुबारा इस विषय में विकल्प-संशय नहीं होता ।
मुक्ति की अनुभूति अपने भीतर होती है –
474. अपने अविद्या-बन्धन के साथ सम्बन्ध टूट जाने से, जो सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप आत्मा की प्राप्ति हो जाती है; उसमें शास्त्र, युक्ति (वेदार्थ के अनुकूल तर्क) तथा गुरु का उपदेश ही प्रमाणभूत हैं, और दूसरी ओर अपने अन्तःकरण में होनेवाली अनुभूति भी (प्रत्यक्ष तथा सर्वोच्च) प्रमाण है ।
475. बन्धन, मुक्ति, तृप्ति, चिन्ता, स्वस्थता, भूख आदि स्वयं अनुभव करने की (स्वसंवेद्य या अपरोक्ष) चीजें हैं; दूसरों को इनका ज्ञान आनुमानिक (परोक्ष) मात्र होता है । (अनुमान गलत भी हो सकता है और सही भी ।)
476. शास्त्र और गुरु मानो तट पर स्थित रहकर (दूर से, परोक्ष रूप से) ब्रह्मात्म-बोध कराते हैं; जबकि विद्वान् (शिष्य) परमेश्वर की कृपा से प्राप्त ‘प्रज्ञा’ (प्रकृत ज्ञान, अपने भीतर प्रत्यक्ष अनुभूति) के द्वारा ही (अज्ञान-रूप भवसागर को) पार कर लेता है; (और ब्रह्मात्म-बोध-रूपी लक्ष्य तक पहुँचकर उसमें प्रतिष्ठित हो जाता है) ।*
477. अपनी स्वयं की अनुभूति के द्वारा ही, अपनी अखण्ड (सर्वव्यापी) आत्मा को अपना स्वरूप जानकर, अपने निर्विकल्प स्वरूप के द्वारा (अपनी साधना में) सिद्ध हुआ वह (महात्मा) अपने प्रत्यक्ष स्वरूप में स्थित रहता है ।
अखण्ड ब्रह्म ही जीव-जगत के रूप में दीख रहा है –
478. समस्त वेदान्तों (उपनिषदों) का यही सार-निष्कर्ष है कि समस्त जीव तथा जगत् ब्रह्म ही हैं । उस अखण्ड-रूप ब्रह्मात्म-स्वरूप में स्थिति को ही मोक्ष कहते हैं । ब्रह्म की अद्वितीयता (अद्वैत होने) में श्रुति के वाक्य ही प्रमाण हैं ।
शिष्य की अनुभूति तथा वक्तव्य –
479. शान्त इन्द्रियों तथा संयमित अन्तःकरण वाला वह शिष्य इस प्रकार गुरु के उपदेश, श्रुतियों के प्रमाण तथा अपनी युक्तियों के द्वारा, किसी एकान्त स्थान में एक शुभ मुहूर्त में अपने विशुद्ध स्वरूप की अनुभूति करके (पर्वत के समान) निश्चल आकृतिवाला होकर आत्मा में स्थित हो गया ।
480. कुछ काल तक मन को परब्रह्म में एकाग्र रखने के बाद व्युत्थित होकर वह परम आनन्द के साथ बोला –
481. ब्रह्म तथा आत्मा की एकता की अनुभूति से, मेरी (जगत् की सत्यता वाली व्यावहारिक) बुद्धि नष्ट हो गयी है, मेरी सारी प्रवृत्तियाँ (मन में उठनेवाली इच्छाएँ, विचार, कल्पनाएँ आदि) गलित हो गयी हैं, (अब) मैं ‘यह’ (इन्द्रिय-ग्राह्य विषयों को) और ‘यह नहीं’ (इन्द्रियों के अगोचर विषय को) भी नहीं जानता और (समाधि के) इस आनन्द के अपार होने के फलस्वरूप मैं यह भी नहीं जानता कि यह कितना और कैसा है !
482. स्व-आनन्द के अमृतरस से परिपूर्ण परब्रह्म महासागर के वैभव का निरूपण करने में वाणी असमर्थ है; मन के द्वारा उसकी कल्पना करना भी असम्भव है । जैसे वर्षा के समय समुद्र पर ओलों की बरसात होने पर, वे समुद्र के जल के साथ एकाकार हो जाते हैं, वैसे ही मेरा मन भी (ब्रह्म-सागर के) अंश के भी अंश के लेशमात्र में विलीन होकर अब अपने आनन्द-स्वरूप में स्थिर हो गया है ।
483. अभी-अभी तो मैंने जगत् को देखा था; वह कहाँ गया, उसे कौन ले गया, वह किसमें विलीन हो गया? क्या यह बड़े ही आश्चर्य की बात नहीं है !
484. अखण्ड आनन्दरूपी अमृत से परिपूर्ण ब्रह्म महासागर में ग्रहणीय क्या हो सकता है, त्याज्य क्या हो सकता है, (स्वयं से) पृथक् क्या हो सकता है और (स्वयं से) भिन्न (विपरीत) क्या हो सकता है?
485. मैं यहाँ (ब्रह्म के साथ एकात्म-बोध के समुद्र में) न कुछ देख रहा हूँ, न कुछ सुन रहा हूँ, न कुछ जान रहा हूँ । मैं सब कुछ से विलक्षण (भिन्न) सदानन्द रूप में अपने स्वरूप (आत्मा) में स्थित हूँ ।
486. नित्य अपार दया के सागर, व्यापक, नित्य-अद्वय-आनन्द के रस-स्वरूप, आसक्तियों से मुक्त, सत्पुरुषों में श्रेष्ठ, महात्मा श्रीगुरुदेव को मेरा बारम्बार प्रणाम है ।
487. जिनकी चन्द्रमा की घनीभूत चाँदनी के समान निर्मल कृपा-कटाक्ष पड़ने से, संसार ताप से उत्पन्न मेरे क्लेश धुलकर नष्ट हो गये और क्षण मात्र में ही मुझे अखण्ड आनन्द रूप ऐश्वर्यमय अक्षय आत्म-स्वरूप की प्राप्ति हुई, (उन श्रीगुरुदेव को मेरा बारम्बार प्रणाम है) ।
488. हे गुरुदेव, आपकी कृपा से मैं धन्य हो गया हूँ, कृतकृत्य (सभी कर्तव्यों से मुक्त) हो गया हूँ, संसार-बन्धन (आवागमन) से मुक्त हो गया हूँ; मैं नित्य आनन्द-स्वरूप हो गया हूँ, मैं पूर्ण हो गया हूँ ।
489. मैं असंग (अनासक्त) हूँ, मैं अनंग (स्थूल देह से रहित) हूँ, मैं अलिंग (सूक्ष्म शरीर से रहित) हूँ, मैं अभंगुर (नित्य) हूँ । मैं प्रशान्त, अनन्त, निर्मल और चिरन्तन हूँ ।
490. मैं अकर्ता (कर्तृत्व-बोध-रहित) हूँ, मैं अभोक्ता (भोक्तृत्व- बोध-रहित) हूँ, मैं अविकारी (अपरिवर्तनशील) हूँ, मैं अक्रिय (क्रिया के अतीत) हूँ, मैं शुद्ध ज्ञान-स्वरूप हूँ, मैं निर्गुण और चिर कल्याण-स्वरूप हूँ ।
491. मैं द्रष्टा, श्रोता, वक्ता, कर्ता, भोक्ता से पृथक हूँ । मैं नित्य, निरन्तर, निष्क्रिय, असीम, असंग, पूर्ण, बोध-स्वरूप आत्मा हूँ ।
492. मैं ‘यह’ (प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय) नहीं हूँ, मैं ‘वह’ (परोक्ष ज्ञान का विषय) भी नहीं हूँ । मैं (प्रत्यक्ष तथा परोक्ष) दोनों का ही प्रकाशक हूँ । मैं परम शुद्ध हूँ । मैं बाह्य-अभ्यन्तर से रहित पूर्ण, अद्वितीय ब्रह्म ही हूँ ।
493. मैं उपमारहित हूँ, उत्पत्तिरहित तत्त्व हूँ, ‘मैं’-‘तुम’, ‘यह’- ‘वह’ आदि कल्पनाओं के परे हूँ । मैं नित्य, आनन्दस्वरूप, एकरस, सत्य, अद्वितीय ब्रह्म मात्र हूँ ।
494. मैं नरकासुर का नाश करनेवाला नारायण हूँ, मैं त्रिपुरासुर का नाश करनेवाला शिव हूँ, मैं अन्तर्यामी पुरुष हूँ, मैं ईश्वर हूँ । मैं अखण्ड बोध-स्वरूप हूँ, मैं सबका साक्षी हूँ, मेरा कोई भी शासक नहीं और मैं अहंता-ममता से रहित हूँ ।
495. मैं ही सभी प्राणियों में चैतन्य-स्वरूप से भीतर तथा बाहर आश्रय देता हुआ स्थित हूँ । पहले मैंने जिसे ‘यह’-‘यह’ के रूप में अपने से पृथक देखा था, भोक्ता तथा भोग्य के रूप में देखा था, वह सब मैं ही हूँ ।
496. मुझ अखण्ड आनन्द-रूपी समुद्र में मायारूपी वायु के चलने से विश्व-ब्रह्माण्ड रूपी तरंगमाला उठती और विलीन होती रहती हैं ।
497. जैसे अविभाज्य तथा पूर्ण काल में लोगों द्वारा अपनी समझ के अनुसार वर्ष, अयन, ऋतु आदि की कल्पना कर ली जाती है, वैसे ही मुझ निष्कल-निर्विकल्प (आत्मा) में भ्रान्ति के कारण स्थूल-सूक्ष्म आदि पदार्थों की कल्पना कर ली जाती है ।
498. जैसे मृगमरीचिका का विराट् प्रवाह ऊसर भूमि को गीला नहीं कर सकता, (वैसे ही) अत्यन्त दोषों से परिपूर्ण मूढ़ लोगों द्वारा अधिष्ठान (आत्मा) पर आरोपित दोष-गुण उसे कदापि दूषित नहीं कर पाते ।
499. मैं आकाश के समान निर्लिप्त हूँ, मैं सूर्य के समान प्रकाशित होनेवाली वस्तुओं से पृथक् हूँ, मैं पर्वत के समान सदा-सर्वदा निश्चल हूँ और मैं समुद्र के समान असीम हूँ ।
500. जैसे बादलों के साथ आकाश का कोई सम्बन्ध नहीं होता, वैसे ही देह के साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है । अतः देह में होनेवाली जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति अवस्थाओं के साथ मेरा सम्बन्ध भला कैसे हो सकता है?
501. उपाधि (देह-मन आदि में अहंता) आती है और वही जाती है; उपाधि ही (भले-बुरे) कर्म करती है और वही उसके (पुण्य-पाप-रूपी) फलों का भोग करती है; वही वृद्ध होती है और वही मरती है; (इन सबके बीच) मैं (आत्मस्वरूप) पर्वत के समान अचल-अटल स्थित रहता हूँ ।
502. मुझ नित्य एकरस तथा अंशरहित (पूर्ण) में, न (कर्म करने की) प्रवृत्ति है और न (उससे विमुख होने ही) निवृत्ति है । जो (आत्मा) आकाशवत् एकात्मक, घनीभूत, अविच्छिन्न और पूर्ण है, वह भला कैसे कोई चेष्टा (क्रिया) करेगा?
503. निरिन्द्रिय, मनरहित, निर्विकार, निराकार, अखण्ड ब्रह्म-सुख की अनुभूति करनेवाले मुझ (आत्मा) में भला पाप और पुण्य कहाँ से आ सकते हैं? श्रुति भी मुझे ‘अनन्वागतम्’ – पाप-पुण्य द्वारा अस्पृश्य (बृहदा., ४/३/२२) बताती है ।
504. किसी गर्म या ठण्डे पदार्थ अथवा भले या बुरे पदार्थ का छाया द्वारा स्पर्श होने पर, व्यक्ति को उसके स्पर्श का बोध नहीं होता, क्योंकि वह अपनी छाया से भिन्न है ।
505. जैसे घर में जल रहे दीपक को वहाँ होनेवाली घटनाएँ स्पर्श नहीं कर पातीं, वैसे ही (अन्तःकरण तथा विषयों के) गुणधर्म उनसे पृथक् अविकारी, उदासीन, साक्षी-स्वरूप आत्मा का स्पर्श नहीं कर पाते ।
506. जैसे सूर्य (संसार में हो रहे) कर्मों का साक्षीमात्र है, जैसे अग्नि के संयोग से लोहे में दाहकता का गुण आ जाता है, जैसे रस्सी स्वयं में आरोपित वस्तु (सर्प) से असंग रहती है, वैसे ही मैं कूटस्थ चैतन्य-स्वरूप आत्मा भी (साक्षी, असंग) स्वभाव वाला हूँ ।
507. न मैं किसी कर्म का कर्ता हूँ और न करानेवाला; न मैं किसी भी भोग का भोक्ता हूँ और न भोग करानेवाला; न मैं दृश्यों को देखनेवाला हूँ और न दिखानेवाला; मैं तो इन्द्रियों का अगोचर वह स्वयंज्योति आत्मा हूँ ।
508. जैसे जल के हिलने से उसमें प्रतिबिम्बित निश्चल सूर्य भी हिलता हुआ प्रतीत होता है, वैसे ही मूढ़बुद्धि लोग (देह-मन आदि) उपाधियों में क्रिया होने से (उनसे तादात्म्य वश) निष्क्रिय चैतन्य आत्मा को क्रियाशील समझ ‘मैं कर्ता हूँ’, ‘मैं भोक्ता हूँ’, ‘हाय, मैं मरा !’ आदि कहते रहते हैं ।
509. यह जड़ शरीर चाहे जल में पड़ा रहे या स्थल में; ‘मैं’ इसके गुणों के साथ वैसे ही लिप्त नहीं होता, जैसे ‘आकाश’ घट में रहता हुआ भी उसके गुणों से निर्लिप्त रहता है ।
510. कर्तापन, भोक्तापन, दुष्टता, उन्मत्तता, जड़ता, बद्धता, मुक्तता आदि सभी बुद्धि (रूपी उपाधि) की कल्पनाएँ हैं; केवल अद्वय परब्रह्म रूपी अपने स्वरूप (आत्मा) में इनका कोई अस्तित्व नहीं होता ।
511. प्रकृति में दसों, सैकड़ों या हजारों तरह के विकार होते रहते हैं; (परन्तु) मुझ असंग, चैतन्यस्वरूप को उनसे क्या लेना-देना ! मेघ क्या कभी आकाश का स्पर्श कर सकते हैं?
512. जिस (अद्वय ब्रह्म) में, अव्यक्त (प्रकृति) से लेकर स्थूल शरीर तक यह सारा विश्व-ब्रह्माण्ड आभास मात्र प्रतीत होता है, जो (अद्वय ब्रह्म) आकाश के समान सूक्ष्म तथा अनादि अनन्त है, वह अद्वय ब्रह्म ही मेरा स्वरूप है ।
513. जो (ब्रह्म) सबका आधार है, सभी वस्तुओं का प्रकाशक है, सभी प्रकार के आकारों वाला है, सब कुछ में प्रविष्ट (ओतप्रोत) है; (तथापि) जो इन सबसे पृथक, नित्य, शुद्ध, निश्चल और निर्विकल्प है, वह अद्वय ब्रह्म ही मैं हूँ ।
514. जो (अद्वय ब्रह्म) माया के समस्त विकारों (भेदों) से रहित है, जो अन्तरात्मा के रूप में अधिष्ठित है, जो बुद्धि-वृत्तियों के परे है, वह सत्य, ज्ञान, अनन्त आनन्द-रूप अद्वय ब्रह्म ही मेरा स्वरूप है ।
515. मैं निष्क्रिय हूँ, मैं निर्विकार (अपरिवर्तनशील) हूँ, मैं अंशरहित (पूर्ण) हूँ, मैं निराकार हूँ, मैं निर्विकल्प, नित्य, निरालम्ब और अद्वय हूँ ।
516. मैं सबका आत्म-स्वरूप हूँ, मैं सब कुछ हूँ, मैं सबके परे हूँ, मैं अद्वय हूँ, मैं शुद्ध अखण्ड चैतन्य-स्वरूप हूँ, मैं अबाध आनन्द-स्वरूप हूँ ।
517. हे महामना गुरुदेव, आपकी कृपा के महिमामय प्रसाद के रूप में मुझे इस स्वाराज्य (अपने स्वरूप) के साम्राज्य के वैभव (ब्रह्मानन्द) की प्राप्ति हुई है । आपको नमस्कार करता हूँ – बारम्बार नमस्कार करता हूँ ।
518. मैं माया द्वारा निर्मित इस महास्वप्न (रूपी संसार) में दिन- पर-दिन जन्म, बुढ़ापा तथा मृत्यु रूपी गहन वन में भटकता हुआ इसके अनेक प्रकार के दुःख-तापों से कष्ट उठाता रहा और अहंकार-रूपी बाघ के द्वारा पीड़ित रहा । हे गुरुदेव, आपने मुझ पर अत्यन्त कृपा करके मुझे (अज्ञान की) इस प्रगाढ़ निद्रा से जगाकर, मेरी पूरी तौर से रक्षा की है ।
519. हे गुरुराज, आप अनिर्वचनीय तेज-स्वरूप हैं, सदा एकरूप हैं और इस विश्व-ब्रह्माण्ड के रूप में प्रकाशित हो रहे हैं, आपको नमस्कार करता हूँ ।
उपदेश का उपसंहार –
520. समाधि के द्वारा आत्मसुख को पाकर, ब्रह्मज्ञान के द्वारा प्रबुद्ध, आनन्दपूर्ण हृदय से युक्त, उत्तम शिष्य को इस प्रकार प्रणिपात करते देखकर उन महात्मा गुरुदेव ने पुनः ये श्रेष्ठ बातें कहीं ।
521. जाग्रत-स्वप्न आदि सभी अवस्थाओं में, जगत् ब्रह्मबोध का प्रवाह है; अतः जगत् सर्व प्रकार से ब्रह्म ही है । आध्यात्मिक दृष्टि की सहायता से, प्रशान्त मन से ऐसा ही सभी अवस्थाओं में देखो । नेत्रोंवाला व्यक्ति चारों ओर विभिन्न रूपों के अतिरिक्त क्या अन्य कुछ देखता है? इसी प्रकार ब्रह्मज्ञानी के लिये बुद्धि के विहार हेतु सत्स्वरूप ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य क्या रह जाता है?
522. ऐसा कौन विवेकवान व्यक्ति होगा, जो परब्रह्म के आनन्द- रस की अनुभूति को छोड़कर, (पंच-भूतात्मक जगत की) शून्य वस्तुओं में रस लेगा? अत्यन्त आल्हाद-दायक चन्द्रमा के प्रकाशित रहते भला कौन चित्र में अंकित चन्द्रमा को देखना चाहेगा?
523. असत् या मिथ्या पदार्थों का चाहे कितना भी अनुभव क्यों न लिया जाय, उनसे तृप्ति नहीं मिलती और दुख भी नहीं मिटते । अतः अद्वैत ब्रह्मानन्द के रस की अनुभूति के द्वारा तृप्त होकर और अपने सत्-स्वरूप में प्रतिष्ठित होकर सुख में अवस्थान करो ।
524. हे बुद्धिमान शिष्य, स्वयं को अद्वय आत्मा के रूप में जानते हुए, सदा सबमें स्वयं को ही देखते हुए और आत्मानन्द की निरन्तर अनुभूति करते हुए काल यापन करो ।
525. निर्विकल्प अखण्ड बोधरूप आत्मा में भेद (द्वैत) देखना ऐसा ही है मानो आकाश में नगर की कल्पना करना । अतः सर्वदा अपने अद्वय आनन्दमय स्वरूप में परम शान्ति की उपलब्धि करके मौन धारण कर लो ।
जीवन्मुक्त के लक्षण –
526. ब्रह्मज्ञ महात्मा की बुद्धि, जो पहले मिथ्या कल्पना तथा द्वैत देखने का हेतु थी, अब ब्रह्मात्म-बोध की उस अवस्था में पहुँचकर स्थिर और पूर्णतः शान्त हो गयी है; जिसमें निरन्तर अद्वयानन्द की सुखानुभूति मात्र रह जाती है ।
527. आत्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके आत्मानन्द रस का पान करनेवाले ब्रह्मज्ञ पुरुष के लिये निर्वासना तथा मौन से अधिक उत्तम सुखकर अन्य कुछ भी नहीं है ।
528. आत्मा में रमण करनेवाले ब्रह्मज्ञ मुनि – चाहे चलते हैं, या ठहरते हैं, या बैठे रहते हैं, या लेटे रहते हैं या अन्य प्रकार से, यथेच्छा व्यवहार करते हैं ।
529. जिनकी चित्तवृत्तियाँ बद्ध हो गयी हैं, जो तत्त्वज्ञान में प्रतिष्ठित हो गये हैं; ऐसे महात्मा के लिये स्थान, काल, आसन, दिशा, यम (इन्द्रिय-संयम), लक्ष्य (ध्यान-धारणा) आदि की अपेक्षा नहीं रहती । स्वतः के ज्ञान (आत्मज्ञान) के लिये भला किस नियम की अपेक्षा हो सकती है?
530. जिनके द्वारा पदार्थ को बोध होता है, उस प्रमाण (नेत्र आदि इन्द्रियों) की निर्दोषता के अतिरिक्त, ‘यह घट है’ यह जानने के लिये अन्य किस नियम की अपेक्षा होती है?
आत्मा का स्वरूप –
531. यह नित्यसिद्ध आत्मा (महावाक्य-श्रवण आदि) प्रमाण से प्रकट होती है । यह अनुभूति स्थान, काल या शुद्धि की भी अपेक्षा नहीं रखती ।
532. (देवदत्त नाम के व्यक्ति के लिये) ‘मैं देवदत्त हूँ’ यह बोध किसी बाह्य परिस्थिति की अपेक्षा नहीं रखता, वैसे ही ब्रह्मज्ञ व्यक्ति के लिये ‘मैं ब्रह्म हूँ’ यह ज्ञान भी (किसी बाह्य परिस्थिति की अपेक्षा नहीं रखता) ।
533. जैसे सूर्य के तेज से सारा जगत् प्रकाशित होता है; वैसे ही जिसके तेज से यह अनात्मक, असत्, मिथ्या, तुच्छ जगत् प्रकाशित हो रहा है, उस (ब्रह्म) का भला कौन प्रकाशक हो सकता है?
534. सारे वेद, शास्त्र तथा पुराण और सारे पंच महाभूत जिसके द्वारा अर्थवान होते हैं, उस विज्ञाता (ब्रह्म) को भला कौन प्रकाशित करेगा?
535. यह आत्मा स्वयंज्योति, अनन्त शक्तिमान, अप्रमेय (प्रत्यक्ष, अनुमान आदि सभी ज्ञान के साधनों द्वारा अगम्य) और समस्त अनुभूतियों का स्वरूप है । केवल उसी को जानकर सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मज्ञ पुरुष भव-बन्धन से पूर्णतः मुक्त होकर सब कुछ पर विजय प्राप्त कर लेता है ।
जीवन्मुक्त महापुरुष की जीवनचर्या –
536. न उसे किसी वस्तु या व्यक्ति के वियोग का खेद होता है, न वह विषयों की प्राप्ति से हर्षित होता है, न किसी से आसक्ति रखता है और न विरक्त होता है । वह निरन्तर आत्मानन्द-रस से तृप्त होकर सर्वदा आत्मा में ही क्रीड़ा करता और स्वयं में ही आनन्द प्राप्त करता रहता है ।
537. जैसे बालक भूख-प्यास तथा शारीरिक पीड़ा को भूलकर अपने खिलौने को लेकर खेलता रहता है, वैसे ही ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति ‘अहंता’-‘ममता’ से रहित होकर सुखपूर्वक अपनी आत्मा में रमण करता रहता है ।
538. ब्रह्मज्ञ पुरुष निश्चिन्त तथा दीनतारहित भाव से भिक्षा में प्राप्त अन्न का भोजन करता है, नदियों से जल पी लेता है, स्वाधीन भाव से सर्वत्र विचरण करता है, निर्भयता के साथ कभी जंगल में, तो कभी श्मशान में सो जाता है; वस्त्रों को धोना या सुखाना छोड़कर वल्कल धारण करता है, या दिगम्बर ही रहता है; पृथ्वी पर शयन करता है, वेदान्त के पथ पर विचरण करता है और परब्रह्म में क्रीड़ा करता है ।
539. किसी भी बाह्य चिह्न से रहित आत्मवेत्ता, बाह्य विषयों से अनासक्त, देह में अभिमान न रखते हुए उसी का आश्रय लेकर, प्राप्त हुए विषयों का शिशु के समान दूसरों की इच्छानुसार भोग करता है ।
540. (वह आत्मवेत्ता) कभी नंगा रहता है, तो कभी उत्तम वस्त्र धारण करता है; कभी वल्कल या मृगचर्म धारण करता है, तो कभी उसका आच्छादन ज्ञान मात्र रहता है; कभी उन्मत्त के समान, तो कभी अबोध बालक की भाँति और कभी पिशाच के समान भूतल पर विचरण करता है ।
541. एकाकी विचरण करनेवाला, कामनाशून्य होकर सर्वदा अपनी आत्मा में ही सन्तुष्ट रहनेवाला, स्वयं सभी की आत्मा के रूप में विराजमान, ब्रह्मज्ञ पुरुष समस्त भोगों को स्वीकार करता है ।
542. कभी वह अज्ञानी के रूप में, तो कभी विद्वान् के रूप में निवास करता है; कभी सम्राट् के समान वैभव में रहता है, कभी पागल के समान भ्रमण करता है, कभी सौम्य या प्रिय रूप में प्रकट होता है और कभी अजगर के समान निश्चल पड़ा रहता है; कभी वह सम्मानित होता है, कभी अपमानित होता है और कभी दूसरों से अज्ञात रहता है; ब्रह्मज्ञ पुरुष इसी प्रकार निरन्तर परमानन्द में सुखी रहते हुए (पृथ्वी पर) विचरण करता है ।
543. (ब्रह्मज्ञ पुरुष) निर्धन होते हुए भी सदा सन्तुष्ट रहता है, बिना किसी सहायक के भी महा बलवान होता है, बिना भोग किये भी सदैव तृप्त रहता है और सबसे भिन्न होकर भी सबके प्रति समदृष्टि रखता है ।
544. वह (ब्रह्मज्ञ पुरुष) कर्म करते हुए भी निष्क्रिय रहता है, कर्मफलों का भोग करता हुआ भी अभोक्ता है, देह में रहता हुआ भी देहाभिमान से रहित है, देह द्वारा सीमाबद्ध रहकर भी सर्वव्यापी (सर्वत्र विद्यमान) है ।
545. सर्वदा देहात्मबोध रहित इस ब्रह्मज्ञानी पुरुष को कभी प्रिय- अप्रिय (सुख-दुख) और वैसे ही भला-बुरा (पुण्य-पाप) स्पर्श नहीं करते ।
546. स्थूल (सूक्ष्म) देह आदि से सम्बन्ध रखनेवाले देहाभिमानी व्यक्ति के लिये ही सुख तथा दुख (रूपी फल देनेवाले) भले तथा बुरे कर्म होते हैं; परन्तु सदा आत्मस्वरूप में निमग्न रहनेवाले मुनि के द्वारा भले-बुरे कर्म और उनके (सुख-दुख रूपी) फल भी भला कैसे होंगे?
547. वस्तु का स्वरूप न जानने के कारण ही (ग्रहण के समय) सामान्य लोग सूर्य के अग्रस्त होने पर भी अन्धकार के कारण ग्रस्त जैसा बोध होने से भ्रान्तिवश उसे (राहु द्वारा) ग्रस्त कहते हैं ।
548. इसी प्रकार अज्ञानी लोग, देह तथा उससे जुड़े समस्त बन्धनों से मुक्त सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मज्ञ पुरुष के देहाभास मात्र को देखकर उसे देहवान समझते हैं ।
549. साँप जैसे अपने केंचुली को त्याग देता है, वैसे ही (ब्रह्मज्ञानी) ‘देह’ में अहंता-बोध से मुक्त होकर केवल प्राणवायु द्वारा थोड़ा-बहुत हिलते-डुलते हुए स्थित रहता है ।
ब्रह्मज्ञ पुरुष का साक्षिभाव –
550. जैसे लकड़ी का टुकड़ा नदी के प्रवाह द्वारा ऊँचे या नीचे स्थानों को ले जाया जाता है, वैसे ही (ब्रह्मज्ञ पुरुष का) शरीर दैव या प्रारब्ध कर्म के द्वारा यथाकाल उपस्थित होने वाले फलों का उपभोग करता रहता है । (उसकी अपनी इच्छा-अनिच्छा या अभिमान का लेशमात्र भी नहीं रहता ।)
551. देहाभिमान से रहित जीवन्मुक्त ब्रह्मज्ञ पुरुष, प्रारब्ध कर्मों द्वारा कल्पित कामनाओं के द्वारा (भोजन-पान आदि) विषयों में सामान्य संसारी लोगों के समान ही आचरण करता है । परन्तु वह सिद्धपुरुष स्वयं सभी संकल्प-विकल्पों से मुक्त होकर कुम्हार के चाक की नाभि या धुरी के समान शरीर में साक्षी भाव से परम शान्तिपूर्वक निवास करता है ।
552. साक्षिभाव में स्थित रहनेवाला वह ब्रह्मज्ञ पुरुष, न तो इन्द्रियों को भोग्य विषयों में लगाता है और न ही दूर करता है । आत्मानन्द के प्रगाढ़ रसपान में सदा विभोर रहनेवाला, वह कर्म-फलों की अल्प मात्र भी अपेक्षा नहीं करता ।
553. जो लक्ष्य अर्थात् निदिध्यासन और अलक्ष्य अर्थात् विषय चिन्तन – इन दोनों का त्याग करके केवल शुद्ध आत्मा के रूप में स्थित रहते हैं, वे ब्रह्मज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ और स्वयं साक्षात् शिव के समान वन्दनीय हैं ।
554. वे ब्रह्मज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ, जीवित रहते हुए भी सदैव मुक्त और कृतार्थ रहते हैं; और स्वरूपतः ब्रह्म होने के कारण (स्थूल-सूक्ष्म देहों के रूप में) उपाधियों का नाश होने पर अद्वय ब्रह्म में लीन हो जाते हैं ।
555. जैसे नाटक में काम करनेवाला अभिनेता, अन्य वेश धारण किये हुए या सभी वेशों का त्याग करके भी, सर्वदा वही व्यक्ति रहता है, वैसे ही सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मज्ञ पुरुष सभी अवस्थाओं में ब्रह्म ही रहते हैं, अन्य कुछ नहीं होते ।
556. वृक्ष के सूखे हुए पत्ते के समान ब्रह्मज्ञ महापुरुष का शरीर चाहे जहाँ भी पतित हो जाय । वह स्वयं तो (मृत्यु के) पहले ही ज्ञानाग्नि में दग्ध हो चुका ।
557. सत्स्वरूप ब्रह्म में सर्वदा पूर्ण अद्वैत आनन्दमय आत्मा में स्थित रहनेवाले ब्रह्मज्ञानी पुरुष को, त्वचा-मांस तथा विष्ठा के पिण्ड रूपी देह का त्याग करने के लिये उपयुक्त स्थान, समय आदि की अपेक्षा नहीं रहती ।
558. क्योंकि न देह की मृत्यु का नाम मोक्ष है और न दण्ड- कमण्डलु के त्याग का, (बल्कि) हृदय की अविद्याजनित (चित्-जड़) ग्रन्थि का नाश होना ही मोक्ष है । (अतः ब्रह्मज्ञ पुरुष के देहत्याग में स्थान-काल की अपेक्षा नहीं रहती ।)
559. वृक्ष का पत्ता चाहे नाले में पड़े या नदी में, किसी शिव- मन्दिर में गिरे या किसी चबूतरे पर, उससे वृक्ष का क्या भला या बुरा हो सकता है?
आत्मा का स्वरूप –
560. जैसे वृक्ष से पत्ते, फूल तथा फल गिरकर विनष्ट हो जाते हैं; वैसे ही देह, इन्द्रियाँ, प्राण, बुद्धि आदि उपाधियों का नाश हो जाता है; अपने सत् तथा आनन्द स्वरूपभूत आत्मा का नाश नहीं होता । आत्मा वृक्ष के समान नित्य-निरन्तर विद्यमान रहती है ।
561. (वेद में) ‘प्रज्ञानघन’ (बृहदा. ४/५/१३) आदि श्रुतिवाक्यों के द्वारा यथार्थ सत्यसूचक आत्मा के लक्षणों का वर्णन करके, उपाधिवाले जीव का ही नाश बताया गया है ।
562. ‘अविनाशी वा अरेऽयमात्मा’ (अरे, यह आत्मा अविनाशी है) – यह श्रुतिवाक्य विकारी तथा नाशवान देह में रहनेवाली आत्मा के अविनाशित्व की बात कहती है । (बृहदा., ४/५/१४)
आत्मज्ञान के बाद पुनर्जन्म नहीं होता –
563. जैसे पत्थर, वृक्ष, घास, धान, भूसी आदि जलने पर मिट्टी में ही परिणत हो जाते हैं; वैसे ही देह, इन्द्रियाँ, प्राण, मन आदि समस्त दृश्य पदार्थ ज्ञानाग्नि में दग्ध हो जाने के बाद शुद्ध आत्म-स्वरूप को प्राप्त होते हैं ।
564. अन्धकार जैसे सूर्य के विपरीत-धर्मी होकर भी सूर्य के प्रकाश में विलीन हो जाता है, वैसे ही सारे दृश्य पदार्थ ब्रह्म में ही विलीन हो जाते हैं ।
565. जैसे घट के नष्ट होने पर घटाकाश निःसन्देह महाकाश ही हो जाता है, वैसे ही उपाधियों का नाश हो जाने पर ब्रह्मज्ञ पुरुष स्वयं ब्रह्म ही हो जाता है ।
566. जैसे दूध को दूध में, तेल को तेल में, जल को जल में डालने पर, वह उससे मिलकर एकाकार हो जाता है, वैसे ही आत्मज्ञानी पुरुष आत्मा के साथ अभिन्न हो जाता है ।
567. इस प्रकार यह ब्रह्मज्ञानी यति अखण्ड सत्स्वरूपता, ब्रह्मभाव या विदेह-मुक्ति को पाकर पुनः इस संसार-चक्र में नहीं लौटता ।
568. (क्योंकि) सत्स्वरूप ब्रह्म तथा आत्मा के एकत्व-बोध के फलस्वरूप जिनकी अविद्या आदि से उत्पन्न होनेवाले तीनों (स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण) शरीर दग्ध हो गये हैं, उनकी ब्रह्मीभूत अवस्था के फलस्वरूप (उनका पुनर्जन्म नहीं होता), ब्रह्म का पुनर्जन्म भला कहाँ से होगा?
569. बन्धन तथा मोक्ष – दोनों ही माया द्वारा कल्पित हैं । अपनी आत्मा में इन दोनों का वास्तविक अस्तित्व उसी प्रकार नहीं है, जैसे कि निष्क्रिय रस्सी में सर्प की भ्रान्ति आती है और चली भी जाती है ।
570. आवरण या उपाधि के रहने या न रहने से ही बन्धन या मोक्ष कहे जाते हैं । ब्रह्म का कोई भी आवरण नहीं है; द्वितीय वस्तु के अभाव में (अद्वय) ब्रह्म अनावरण है । यदि होता, तो फिर अद्वैत सिद्धान्त अप्रमाणित हो जायगा, श्रुति (वेद) द्वैत को स्वीकार नहीं करती ।
571. बन्धन तथा मोक्ष बुद्धि के गुण हैं, इन्हें मूढ़ लोग भ्रान्तिवश आत्म-स्वरूप पर आरोपित करते हैं, उसी प्रकार जैसे कि मेघ द्वारा दृष्टि के ढक जाने पर (सूर्य के ढक जाने की भ्रान्ति होती है); क्योंकि ब्रह्म तो अक्षय, अद्वय, असंग तथा चैतन्य-स्वरूप है ।
572. ब्रह्मस्वरूप आत्मा में बन्धन है – यह बोध; और बन्धन नहीं है, ऐसा अनुभव – ये दोनों ही बुद्धि के गुण से होते हैं, नित्य वस्तु आत्मा के गुण से नहीं ।
573. अतः बन्धन तथा मोक्ष – ये दोनों माया द्वारा कल्पित हैं, आत्मा में कदापि नहीं रहते । निष्कल (निरवयव या पूर्ण), निष्क्रिय, शान्त, निर्मल, निरंजन, अद्वितीय, आकाश के समान परम ब्रह्म में (बन्धन या मोक्ष की) कल्पना भला कहाँ से हो सकती है?
574. किसी की उत्पत्ति नहीं होती और न विनाश होता है, न कोई बद्ध है और न कोई साधक है, न कोई मुमुक्षु है और न कोई मुक्त है – यही परम सत्य है ।
575. तुम्हें (दम्भ, लोभ आदि) कलियुग के दोषों से मुक्त, निष्काम चित्तवाला तथा मोक्ष की इच्छुक जानकर, मैंने अपने पुत्र के समान तुम्हारे समक्ष आज इस श्रेष्ठ परम गोपनीय समस्त वेदों के शीर्ष-स्थानीय उपनिषदों के सारभूत सिद्धान्त-रूप परब्रह्म तत्त्व को बारम्बार प्रकट किया ।
576. गुरुदेव की ये बातें सुनकर भव-बन्धन से मुक्त वह शिष्य परम भक्तिपूर्वक उनके चरणों में प्रणत हुआ और उनकी सम्यक् आज्ञा पाकर विदा हुआ ।
577. ब्रह्मानन्द के समुद्र, निमग्न चित्तवाले, समस्त द्वैत भावों से रहित गुरुदेव भी समस्त पृथ्वी को पवित्र करते हुए विचरण करने लगे ।
578. मुक्ति के इच्छुकों (मुमुक्षुओं) को सुगमतापूर्वक आत्मबोध कराने हेतु गुरु-शिष्य-संवाद के माध्यम से आत्मतत्त्व का यह निरूपण सम्पन्न हुआ ।
579. जो लोग वेद आदि शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट साधनाओं के द्वारा चित्त के दोषों से मुक्त हो गये हैं, जिन्हें संसार के सुखों से विरक्ति हो गयी है, जो प्रशान्त चित्तवाले हैं, जो वेदान्त की श्रुतियों का रस लेने में समर्थ हैं, ऐसे मुक्तिकामी साधकगण इस कल्याणकारी उपदेश का आदर करें ।
580. संसार-मार्ग के त्रिविध ताप-रूपी सूर्य-किरणों से उद्भूत दाह की पीड़ा से कातर लोग जल की इच्छा से भ्रान्तिवश मरुभूमि-रूपी संसार में भ्रमण करते रहते हैं । उनके अति निकट स्थित सुधा-सागर रूपी सुखकर अद्वय ब्रह्म का दर्शन कराने तथा मुक्ति प्रदान करनेवाली श्री शंकराचार्य की इस वाणी की सर्वदा जय हो ।
श्रीमत् परमहंस परिव्राजकाचार्य भगवत्-पूज्यपाद श्री गोविन्द के शिष्य श्रीमत् शंकराचार्य द्वारा रचित विवेक-चूडामणि ग्रन्थ समाप्त हुआ ।
॥ ॐ तत् सत् ॐ ॥