पंजाबके मुरलीवाला ग्राममें सन् १८७३ को दिवालीके दिन गोस्वामी ब्राह्मणकुलमें रामतीर्थका जन्म हुआ। इनका घरका नाम तीर्थराम था। जन्मके कुछ समय ही बाद माताका परलोकवास हो जानेके कारण इनका पालन-पोषण इनकी बुआने किया।
गाँवकी पढ़ाई पूरी होनेपर तीर्थराम गुजरांवाला आये। वहाँ भगत धन्नारामजीकी देख-रेखमें इनकी शिक्षा चलने लगी। अत्यन्त गरीब होनेके कारण तीर्थरामको बहुधा उपवास करना पड़ता था, किंतु ये सदा मस्त रहते थे। इनकी प्रतिभा बड़ी तीव्र थी। गणितमें एम० ए० करके ये उसी कॉलेजमें प्रोफेसर हो गये।
बाबा नगीनासिंह वेदी नामके संतका इनके जीवनपर पढ़ते समय ही प्रभाव पड़ा। सबेरे-शाम ये घंटों रावी नदीके किनारे ध्यान लगाये बैठे रहा करते थे। छुट्टियोंमें मथुरा-वृन्दावन पहुँच जाते थे। श्रीकृष्णप्रेमका इनपर नशा छा गया था।
दृढ़ वैराग्य और सच्चे प्रेमके मेलसे इनका हृदय पवित्र हो गया। आत्मतत्त्वका साक्षात्कार हुआ। सन् १९०० में प्रोफेसरी छोड़कर ये स्वामी रामतीर्थ बन गये। वनों-पर्वतोंमें अपनी मस्तीमें अकेले घूमते रहना इन्हें सबसे प्रिय था।
लोगोंके बहुत आग्रह करनेपर विश्वधर्मपरिषद्में सम्मिलित होने ये जापान गये और वहाँसे अमेरिका गये। इनकी मस्ती अद्भुत थी। जो इनको देखता था, वही मुग्ध हो जाता था। अमेरिकन पत्रोंने तो आपका परिचय देते समय ‘जीवित ईसामसीह’ की उपाधि दी। ढाई वर्ष विदेशोंमें रहकर वे फिर भारतवर्ष लौट आये।
सन् १९०६ की दिवालीके प्रातःकाल उत्तराखण्डकी शीतल गंगाकी धारामें स्वामी रामतीर्थने डुबकी लगायी। उनका शरीर धारामें बह चला और वे प्रणवकी ध्वनिमें एक हो गये। दिवालीके दिन ही राम बादशाह इस पृथ्वीपर पधारे थे और दिवालीको ही यहाँसे चले गये।
स्वामी रामतीर्थ मस्तीमें अपनेको बादशाह कहते थे। ये सचमुच बादशाहोंके बादशाह थे। इनका त्याग अद्भुत था। शरीरका मोह इन्हें छू भी नहीं पाया था। चलते-फिरते, खाते-पीते, सब समय ये परमात्मसत्तामें ही एकाकार रहते थे। इन्होंने जगत्के लोगोंको एक ही संदेश दिया- ‘शरीरके तुच्छ मोहको त्यागो। इस क्षुद्र सीमामें घिरकर ही तुम क्षुद्र बन गये हो। शरीरसे ऊपर उठो ! अनन्त ज्ञान, अनन्त वैभव, अनन्त ऐश्वर्य तुम्हारा स्वरूप है। उस व्यापक परम चैतन्यसे अपने एकत्वका अनुभव करो।’