दक्षिणके देहूग्राममें संवत् १६६५ में तुकारामजीका जन्म हुआ था। इनके पिताका नाम बोलोजी और माताका नाम कनकाबाई था। तेरह वर्षकी अवस्थामें पिताने इनका विवाह कर दिया, किंतु इनकी पत्नी रखुमाईको दमेकी बीमारी थी। इसलिये पिताने इनका दूसरा विवाह किया। दूसरी पत्नीका नाम जिजाई था।
तुकारामजीके पिता जब वृद्ध हो गये, तब उन्होंने घरका भार अपने बड़े पुत्रको देना चाहा; किंतु तुकारामजीके बड़े भाई सावजी बड़े ही विरक्त थे। इसलिये घरका भार १७ वर्षकी अवस्थामें तुकारामजीपर ही पड़ा। चार वर्षतक घरका सब काम ये ठीक चलाते रहे। उसके बाद तो इनपर संकटोंका पहाड़ ही टूट पड़ा।
पहले माता-पिताका देहान्त हुआ। फिर बड़े भाईकी स्त्रीका देहान्त होनेसे ये और भी विरक्त हो गये और घर छोड़कर तीर्थयात्रा करने निकल गये।
इनकी पहली स्त्री बहुत सुशीला थी। किंतु उसका और इनके बड़े पुत्रका भी देहान्त हो गया। दूसरी स्त्री अत्यन्त कर्कशा थी। वह बराबर कटु वाक्य कहा करती थी। इन्हीं कठिन दिनोंमें अकाल भी पड़ गया। इन सब विपत्तियोंने तुकारामजीके वैराग्यको पक्का कर दिया।
देह-गेहकी सब चिन्ता छोड़कर भगवान्के भजनमें ही तन्मय रहनेवाले तुकारामजीके मुखसे अपने-आप कविता प्रकट हो गयी। उनके अभंगोंमें ज्ञानका गूढ़ तत्त्व प्रकट होने लगा। किंतु वाघोलीके वेदान्तके विद्वान् पण्डित रामेश्वरभट्टजीको यह बात बहुत बुरी लगी कि शूद्र होकर भी तुकाराम वेद-वेदान्तकी गूढ़ बातें मराठीमें कहें। उन्होंने देहूके हाकिमसे यह आज्ञा दिलायी कि ‘तुकाराम देहू छोड़कर कहीं चले जायँ।’ इसपर तुकारामजी रामेश्वरभट्टके पास गये और पूछा कि ‘जो अभंग बन गये हैं-उनका क्या किया जाय।’ रामेश्वरभट्टने उन्हें नदीमें डुबा देनेको कहा। तुकारामजीने अभंगोंकी बहियाँ इन्द्रायणीमें डुबा दीं।
किंतु इससे तुकारामजीको बड़ा दुःख हुआ। दुःखके कारण अन्न-जल त्यागकर वे श्रीविठ्ठल-मन्दिरके सामने एक शिलापर तेरह दिन पड़े रहे। अन्तमें भगवान् उनके सामने प्रकट हुए और बोले- ‘तुम्हारे अभंगोंकी बहियाँ तो मैंने तुम्हारे भक्तोंको दे दी हैं। सचमुच अभंगोंकी बहियाँ नदीसे ऊपर आकर भक्तोंको मिल गयी थीं।
चैत्र कृष्ण २ संवत् १७०६ को तुकारामजी इस लोकसे चले गये। कहा जाता है कि भगवान्के दूत उन्हें सशरीर विमानमें बैठाकर वैकुण्ठ ले गये।