श्रीविठ्ठल पन्तके तीन पुत्र और एक कन्या थी। उनके नाम थे निवृत्तिनाथ, ज्ञानेश्वर, सोपानदेव और मुक्ताबाई। श्रीविठ्ठल पन्तने अपने गुरु स्वामी श्रीरामानन्दजीकी आज्ञासे संन्यास लेनेके बाद पुनः गृहस्थधर्म स्वीकार कर लिया था। अतः ब्राह्मणोंके आदेशसे अपनी पत्नी श्रीरुक्मिणी बाईके साथ उन्होंने प्रायश्चित्त करनेके लिये प्रयाग त्रिवेणी संगममें देह-त्याग कर दिया। उस समय उनके चारों पुत्र बहुत छोटे थे।
श्रीज्ञानेश्वरका जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी सं० १३३२ में आलन्दीमें हुआ था। उनकी पाँच वर्षकी अवस्थामें ही उनके माता-पिताने देहत्याग कर दिया। इसके बाद आलन्दीके ब्राह्मणोंने कहा – ‘यदि पैठणके विद्वान् तुमलोगोंको यज्ञोपवीतका अधिकारी मान लेंगे तो हमलोग भी उसे स्वीकार कर लेंगे।’ ब्राह्मणोंकी सम्मति मानकर वे चारों बालक पैठण गये। पैठण पहुँचनेपर वहाँके विद्वान् ब्राह्मणोंकी सभा हुई। उन लोगोंने कहा-‘ इन बालकोंकी शुद्धि केवल भगवान्की अनन्य भक्ति करनेसे हो सकती है।’
ये चारों भाई-बहिन जन्मसे ही परम भक्त, ज्ञानी और अद्भुत योगसिद्ध थे। श्रीज्ञानेश्वरजी तो योगकी जैसे मूर्ति ही थे। पैठणमें दुष्ट लोगोंने इनपर व्यंग किये और अन्तमें ज्ञानेश्वरजीसे कहा- ‘यदि तुम सबमें एक आत्मा देखते हो तो भैंसेसे वेदपाठ कराओ।’ ज्ञानेश्वरजीने जैसे ही भैंसेके ऊपर हाथ रखा कि उसके मुखसे शुद्ध वेदमन्त्र निकलने लगे।
श्राद्धके समय जब पैठणके ब्राह्मणोंने इनके यहाँ भोजन करना स्वीकार नहीं किया, तब ज्ञानेश्वरजीने पितरोंको प्रत्यक्ष बुलाकर उन्हें भोजन कराया। इस चमत्कारको देखकर पैठणके ब्राह्मणोंने इन्हें शुद्धिपत्र लिखकर दे दिया।
कुछ दिन पैठण रहकर सभी भाइयोंके साथ ज्ञानेश्वरजी नेवासे स्थानमें आये। इसी स्थानमें उन्होंने अपने बड़े भाई श्रीनिवृत्तिनाथजीके आदेशसे गीताका ज्ञानेश्वरी भाष्य सुनाया।
वे अपने बड़े भाईको गुरु मानते थे। ज्ञानेश्वरी सुनानेके समय उनकी अवस्था केवल पंद्रह वर्षकी थी।
समस्त दक्षिण भारतमें ज्ञानेश्वर महाराज पूजित होने लगे थे। उस समयके सभी प्रसिद्ध संत उनका बहुत सम्मान करते थे।
कुल इक्कीस वर्षकी अवस्थामें मार्गशीर्ष कृष्ण १३ सं० १३५३ को उन्होंने जीवित समाधि ले ली। उसके एक वर्षके भीतर ही सोपानदेव, मुक्ताबाई और श्रीनिवृत्तिनाथजी भी इस लोकसे परमधाम चले गये।