पैठणमें संवत् १५९०के लगभग श्रीएकनाथजीका जन्म हुआ था। इनके पिता श्रीसूर्यनारायणजी और माता श्रीरुक्मिणीजी थीं। जन्मके कुछ काल बाद ही माता-पिताका देहान्त हो जानेके कारण इनका पालन-पोषण इनके पितामह चक्रपाणिजीने किया।
श्रीएकनाथजी बचपनसे बड़े प्रतिभाशाली और भजननिष्ठ थे। एक दिन रातके समय शिवालयमें बैठे हरिगुण गा रहे थे -उसी समय इन्हें देवगढ़में श्रीजनार्दन पन्तजीके पास जानेका दिव्य आदेश मिला। तत्काल ही ये चल पड़े और तीसरे दिन देवगढ़ पहुँच गये। श्रीजनार्दन स्वामीने इन्हें अधिकारी जानकर अपना शिष्य बनाया।
श्रीएकनाथजी छः वर्षतक गुरुसेवामें रहे। गुरुकी कृपासे ही इन्हें भगवान् दत्तात्रेयका साक्षात् दर्शन हुआ। इसके बाद गुरुकी आज्ञासे शूलभंजनपर्वतपर जाकर ये कठोर तप करते रहे। तप पूरा हो जानेपर फिर गुरुदेवके पास लौट आये। अब इन्हें गुरुदेवने संतदर्शन तथा भक्तिका प्रचार करनेके उद्देश्यसे तीर्थयात्रा करनेकी आज्ञा दी। तीर्थयात्रामें ही इन्होंने चतुःश्लोकी भागवतपर मराठीमें पद्मग्रन्थ लिखा।
श्रीएकनाथजीके पितामहने श्रीजनार्दन स्वामीसे एकनाथजीके नाम विवाह करके गृहस्थ बननेका आज्ञापत्र लिखा लिया था। तीर्थयात्रासे जब एकनाथजी लौट रहे थे, तब मार्गमें ही उनके पितामहने वह आज्ञापत्र दिखाया। गुरुकी आज्ञा स्वीकार करके एकनाथजीने विवाह किया। इनकी पत्नी श्रीगिरिजाबाई बड़ी ही पतिपरायणा आदर्श गृहिणी थीं।
श्रीएकनाथजीके ग्रन्थोंमें सबसे लोकप्रिय ग्रन्थ श्रीमद्भागवतके एकादश स्कन्धका मराठी पद्यानुवाद है। उनके और भी कई ग्रन्थ महाराष्ट्रमें प्रचलित हैं एवं सम्मान्य माने जाते हैं। इनके धैर्य, अक्रोध, क्षमा एवं सर्वत्र भगवान्को देखनेके दृढ़ भावके विषयमें कई घटनाएँ प्रसिद्ध हैं।
प्रयागसे गंगाजलकी काँवर लेकर श्रीरामेश्वरजीको चढ़ानेके लिये एकनाथजी जा रहे थे। मार्गमें एक प्यासा गधा तड़फ रहा था। एकनाथजीने वह गंगाजल उस गधेको पिला दिया।
उनके घर रातमें भूखे ब्राह्मण आये। वर्षा हो रही थी, भोजन बनानेको सूखा ईंधन नहीं था। एकनाथजीने अपने पलंगके पाये-पाटी जलानेको देकर भोजन बनवाया।
चैत्र कृष्ण ६ सं० १६५६ को गोदावरी-तटपर ही एकनाथजीने शरीर छोड़ा। उस समय ये पूर्ण स्वस्थ थे। गोदावरी स्नान करके हरिभक्तोंकी कीर्तनध्वनिके मध्य ही उन्होंने समाधि ले ली।