राजयोग का यह संक्षिप्त विवरण कूर्मपुराण के एकादश अध्याय का मुक्त्त अनुवाद है :
योगाग्नि मनुष्य के पापपिंजर को दग्ध कर देती है। तब सत्त्वशुद्धि होती है और साक्षात् निर्वाण की प्राप्ति होती है। योग से ज्ञानलाभ होता है; ज्ञान फिर योगी की मुक्ति के पथ का सहायक है। जिनमें योग और ज्ञान, दोनों ही वर्तमान हैं, ईश्वर उनके प्रति प्रसन्न होता है। जो लोग प्रतिदिन एक बार, दो बार, तीन बार या सारे समय महायोग का अभ्यास करते हैं, उन्हें देवता समझना चाहिए। योग दो प्रकार के हैं; जैसे – अभावयोग और महायोग। जब शून्य तथा सब प्रकार के गुण से रहित रूप से अपना चिन्तन किया जाता है, तब उसे अभावयोग कहते हैं; और जिस योग के द्वारा आत्मा का आनन्दपूर्ण, पवित्र और ब्रह्म के साथ अभिन्न रूप से चिन्तन किया जाता है, उसे महायोग कहते हैं। योगी इनमें से प्रत्येक के द्वारा ही आत्मसाक्षात्कार कर लेते हैं। हम दूसरे जिन योगों के बारे में शास्त्रों में पढ़ते या सुनते हैं, वे सब योग इस उत्तम महायोग – जिसमें योगी अपने को तथा सारे जगत् को साक्षात् भगवत्स्वरूप देखते हैं – के साथ एक श्रेणी में शामिल नहीं हो सकते। यह सारे योगों में श्रेष्ठ है।
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, ये राजयोग के विभिन्न अंग या सोपान हैं। यम का अर्थ है – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इस यम से चित्तशुद्धि होती है। शरीर, मन और वचन के द्वारा कभी किसी प्राणी की हिंसा न करना या उन्हें क्लेश न देना – यह अहिंसा कहलाता है। अहिंसा से बढ़कर और धर्म नहीं। मनुष्य के लिए जीव के प्रति यह अहिंसाभाव रखने से अधिक और कोई उच्चतर सुख नहीं है। सत्य के द्वारा हम कर्मफल के भागी होते हैं; सत्य से सब कुछ मिलता है; सत्य में सब कुछ प्रतिष्ठित है। यथार्थ कथन को ही सत्य कहते हैं। चोरी से बलपूर्वक दूसरे की चीज को न लेने का नाम है अस्तेय। तन-मन-वचन से सर्वदा सब अवस्थाओं में मैथुन का त्याग ही ब्रह्मचर्य है। अत्यन्त कष्ट के समय में भी किसी मनुष्य से कोई उपहार ग्रहण न करने को अपरिग्रह कहते हैं। अपरिग्रह-साधना के पीछे यह कारण है कि किसी से कुछ लेने से हृदय अपवित्र हो जाता है, लेनेवाला हीन हो जाता है, वह अपनी स्वतन्त्रता खो बैठता है और बद्ध एवं आसक्त्त हो जाता है।
निम्नलिखित साधन भी योग में सफलता के लिए सहायक हैं और वे हैं नियम अर्थात नियमित अभ्यास और व्रतपरिपालन। तप, स्वाध्याय, सन्तोष, शौच और ईश्वरप्रणिधान – इन्हें नियम कहते हैं। व्रत-उपवास या अन्य उपायों से देहसंयम करना शारीरिक तपस्या कहलाता है। वेदपाठ या दूसरे किसी मन्त्रोच्चारण को सत्त्वशुद्धिकर स्वाध्याय कहते हैं। मन्त्र जपने के लिए तीन प्रकार के नियम है – वाचिक, उपांशु और मानस। वाचिक से उपांशु जप श्रेष्ठ है और उपांशु से मानस जप। जो जप इतने ऊँचे स्वर से किया जाता है कि सभी सुन सकते हैं, उसे वाचिक जप कहते हैं। जिस जप में ओठों का स्पन्दन मात्र होता है, पर पास रहनेवाला कोई मनुष्य सुन नहीं सकता, उसे उपांशु कहते हैं। और जिसमें किसी शब्द का उच्चारण नहीं होता, केवल मन ही मन जप किया जाता है और उसके साथ उस मन्त्र का अर्थ स्मरण किया जाता है, उसे मानसिक जप कहते हैं। यह मानसिक जप ही सब से श्रेष्ठ है। ऋषियों ने कहा है – शौच दो प्रकार के हैं, बाह्य और आभ्यन्तर। मिट्टी, जल या दूसरी वस्तुओं से शरीर को शुद्ध करना बाह्य शौच कहलाता है, जैसे – स्नानादि। सत्य एवं अन्यान्य धर्मों के पालन के द्वारा मन की शुद्धि को आभ्यन्तर शौच कहते हैं। बाह्य और आभ्यन्तर, दोनों ही शुद्धि आवश्यक हैं। केवल भीतर पवित्र रहकर बाहर अशुचि रहने से शौच पूरा नहीं हुआ। जब कभी दोनों प्रकार के शौच का अनुष्ठान करना सम्भव न हो, तब आभ्यन्तर शौच का अवलम्बन ही श्रेयस्कर है। पर ये दोनों शौच हुए बिना कोई भी योगी नहीं बन सकता। ईश्वर की स्तुति, स्मरण और पूजा-अर्चनारूप भक्त्ति का नाम ईश्वरप्रणिधान है।
यह तो यम और नियम के बारे में हुआ। उसके बाद है आसन। आसन के बारे में इतना ही समझ लेना चाहिए कि वक्षःस्थल, ग्रीवा और सिर को सीधे रखकर शरीर को स्वच्छन्द रीति से रखना होगा। अब प्राणायाम के बारे में कहा जाएगा। प्राण का अर्थ है, अपने शरीर के भीतर रहनेवाली जीवनीशक्ति, और आयाम का अर्थ है, उसका संयम। प्राणायाम तीन प्रकार के हैं – अधम, मध्यम, और उत्तम। वह तीन भागों में विभक्त है, जैसे – पूरक, कुम्भक और रेचक। जिस प्राणायाम में बारह सेकण्ड तक वायु का पूरण किया जाता है, उसे अधम प्राणायाम कहते हैं। जिसमें चौबीस सेकण्ड तक वायु का पूरण किया जाता है उसे मध्यम प्राणायाम और जिसमें छत्तीस सेकण्ड तक वायु का पूरण किया जाता है उसे उत्तम प्राणायाम कहते हैं। अधम प्राणायाम से पसीना, मध्यम प्राणायाम से कम्पन और उत्तम प्राणायाम से उच्छ्वास अर्थात् शरीर का हल्कापन एवं चित्त की प्रसन्नता होती है। गायत्री वेद का पवित्रतम मन्त्र है। उसका अर्थ है, ‘हम इस जगत् के जन्मदाता परम देवता के तेज का ध्यान करते हैं, वे हमारी बुद्धि में ज्ञान का विकास कर दें।’ इस मन्त्र के आदि और अन्त में प्रणव यानी ओंकार लगा हुआ है। एक प्राणायाम में गायत्री का तीन बार मन ही मन उच्चारण करना पड़ता है। प्रत्येक शास्त्र में कहा गया है कि प्राणायाम तीन अंशों में विभक्त है – जैसे, रेचक अर्थात् श्वासत्याग, पूरक अर्थात् श्वासग्रहण और कुम्भक अर्थात् श्वास की स्थिति या श्वासधारण। अनुभवशक्तियुक्त्त इन्द्रियाँ लगातार बहिर्मुखी होकर काम कर रही हैं और बाहर की वस्तुओं के सम्पर्क में आ रही हैं। उनको अपने वश में लाने को प्रत्याहार कहते हैं। अपनी ओर खींचना या आहरण करना – यही प्रत्याहार शब्द का प्रकृत अर्थ है।
हृत्कमल में या सिर के ठीक मध्यदेश में या शरीर के अन्य किसी स्थान में मन को धारण करने का नाम है धारणा। मन को एक स्थान में संलग्न करके, फिर उस एकमात्र स्थान को अवलम्बनस्वरूप मानकर एक विशिष्ट प्रकार के वृत्तिप्रवाह उठाये जाते हैं; दूसरे प्रकार के वृत्तिप्रवाहों से उनको बचाने का प्रयत्न करते करते वे प्रथमोक्त्त वृत्तिप्रवाह क्रमशः प्रबल आकार धारण कर लेते हैं और ये दूसरे वृत्तिप्रवाह कम होते होते अन्त में बिलकुल चले जाते हैं, फिर बाद में उन प्रथमोक्त्त वृत्तियों का भी नाश हो जाता है और केवल एक वृत्ति वर्तमान रह जाती है। इसे ‘ध्यान’ कहते हैं। और जब इस अवलम्बन की भी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, सम्पूर्ण मन जब एक तरंग के रूप में परिणत हो जाता है, तब मन की इस एकरूपता का नाम है समाधि। तब किसी विशेष प्रदेश या चक्रविशेष का अवलम्बन करके ध्यानप्रवाह उत्थापित नहीं होता, केवल ध्येय वस्तु का भाव (अर्थ) मात्र अवशिष्ट रहता है। यदि मन को किसी स्थान में बारह सेकण्ड धारण किया जाए, तो उससे एक धारणा होगी; यह धारणा द्वादशगुणित होने पर एक ध्यान, और यह ध्यान द्वादशगुणित होने पर एक समाधि होगी।
सूखे पत्तों से ढकी हुई जमीन पर, चौराहे पर, अत्यन्त कोलाहलपूर्ण या डरावने स्थान में, दीमक के ढेर के समीप, अथवा जहाँ अग्नि या जल से किसी भय की आशंका हो, जहाँ जंगली जानवर हों, जो स्थान दुष्ट लोगों से भरा हो – ऐसे स्थानों में योग की साधना करना उचित नहीं। यह बात विशेषकर भारत के बारे में लागू होती है। जब शरीर अत्यन्त आलसी या बीमार मालूम होता है अथवा जब मन अत्यन्त दुःखपूर्ण रहता हो, तब भी साधना नहीं करनी चाहिए! किसी गुप्त और निर्जन स्थान में जाकर साधना करो, जहाँ लोग तुम्हें बाधा पहुँचाने न आ सकें। अपवित्र जगह में बैठकर साधना मत करना, वरन् सुन्दर दृश्यवाले स्थान में या अपने घर के एक सुन्दर कमरे में बैठकर साधना करना। साधना में प्रवृत्त होने के पहले समस्त प्राचीन योगियों, अपने गुरुदेव तथा भगवान् को प्रणाम करना और फिर साधना में प्रवृत्त होना।
ध्यान का विषय पहले ही कहा जा चुका है। अब ध्यान की कुछ प्रणालियाँ वर्णित की जाती हैं। सीधे बैठकर अपनी नाक के ऊपरी भाग पर दृष्टि रखो। तुम देखोगे कि उससे मन की स्थिरता में विशेष रूप से सहायता मिलती है। आँख के दो स्नायुओं को वश में लाने से प्रतिक्रिया के केन्द्रस्थल को काफी वश में लाया जा सकता है, अतः उससे इच्छाशक्ति भी बहुत अधीन हो जाती है। अब ध्यान के कुछ प्रकार कहे जाते हैं। सोचो, सिर के कुछ ऊपर एक कमल है – धर्म उसका मध्यभाग है, ज्ञान उसकी नाल है, योगी की अष्टसिद्धियाँ उस कमल के आठ दलों के समान हैं और वैराग्य उसके अन्दर की कर्णिका यानी बीजकोश है। जो योगी अष्टसिद्धियाँ आने पर भी उनको छोड़ सकते हैं, वे ही मुक्ति प्राप्त करते हैं। इसीलिए अष्टसिद्धियों का बाहर के आठ दलों के रूप में, तथा अन्दर की कर्णिका का परवैराग्य अर्थात् अष्टसिद्धियाँ आने पर भी उनके प्रति वैराग्य के रूप में वर्णन किया गया है। इस कमल के अन्दर हिरण्मय, सर्वशक्तिमान, अस्पर्श, ओंकारवाच्य, अव्यक्त, किरणों से परिव्याप्त परम ज्योति का चिन्तन करो। उस पर ध्यान करो।
और एक प्रकार के ध्यान का विषय बताया जाता है : सोचो कि तुम्हारे हृदय में एक आकाश है, और उस आकाश के अन्दर अग्निशिखा के समान एक ज्योति उद्भासित हो रही है – उस ज्योतिशिखा का अपनी आत्मा के रूप में चिन्तन करो, फिर उस ज्योति के अन्दर और एक ज्योतिर्मय आकाश की भावना करो; वही तुम्हारी आत्मा की आत्मा है – परमात्मस्वरूप ईश्वर है। हृदय में उसका ध्यान करो। ब्रह्मचर्य, अहिंसा, महाशत्रु को भी क्षमा कर देना, सत्य, आस्तिक्य – ये सब विभिन्न व्रत हैं। यदि इन सब में तुम सिद्ध न रहो, तो भी दुःखित या भयभीत मत होना। प्रयत्न करो, धीरे धीरे सब हो जाएगा। विषय की लालसा, भय और क्रोध छोड़कर जो भगवान का शरणागत हुआ है, उनमें तन्मय हो गया है, जिसका हृदय पवित्र हो गया है, वह भगवान् के पास जो कुछ चाहता है, भगवान् उसी समय उसकी पूर्ति कर देते हैं। अतः ज्ञान, भक्त्ति या वैराग्य के माध्यम से उनकी उपासना करो।
“जो किसी से घृणा नहीं करता, जो सब का मित्र है, जो सब के प्रति करुणासम्पन्न है, जिसका अहंकार चला गया है, जो सदैव सन्तुष्ट है, जो सर्वदा योगयुक्त्त, यतात्मा और दृढ़ निश्चयवाला है, जिसका मन और बुद्धि मुझमें अर्पित हो गयी है, वही मेरा प्रिय भक्त्त है। जिससे लोग उद्विग्न नहीं होते, जो लोगों से उद्विग्न नहीं होता, जिसने अतिरिक्त हर्ष, दुःख, भय और उद्वेग त्याग दिया है, ऐसा भक्त्त ही मेरा प्रिय है। जो किसी का भरोसा नहीं करता, जो शुचि और दक्ष है, सुख और दुःख में उदासीन है, जिसका दुःख चला गया है, जो निन्दा और स्तुति में समभावापन्न है, मौनी है, जो कुछ पाता है, उसी में सन्तुष्ट रहता है, जिसके कोई निर्दिष्ट घरबार नहीं, सारा जगत् ही जिसका घर है, जिसकी बुद्धि स्थिर है, ऐसा व्यक्ति ही मेरा प्रिय भक्त्त है।”(१) ऐसे व्यक्ति ही योगी हो सकते हैं।
नारद नामक एक महान् देवर्षि थे। जैसे मनुष्यों में ऋषि या बड़े बड़े योगी रहते हैं, वैसे ही देवताओं में भी बड़े बड़े योगी हैं। नारद भी वैसे ही एक अच्छे और अत्यन्त महान् योगी थे। वे सर्वत्र भ्रमण किया करते थे। एक दिन एक वन से जाते हुए उन्होंने देखा कि एक मनुष्य ध्यान में इतना मग्न है और इतने दिनों से एक ही आसन पर बैठा है कि उसके चारों ओर दीमक का ढेर लग गया है। उसने नारद से पूछा, “प्रभो, आप कहाँ जा रहे हैं?” नारदजी ने उत्तर दिया, “मैं वैकुण्ठ जा रहा हूँ।” तब उसने कहा, “अच्छा, आप भगवान् से पूछते आएँ, वे मुझ पर कब कृपा करेंगे, मैं कब मुक्ति प्राप्त करूँगा।” फिर कुछ दूर और जाने पर नारदजी ने एक दूसरे मनुष्य को देखा। वह कूद-फाँद रहा था, कभी नाचता था, तो कभी गाता था। उसने भी नारदजी से वही प्रश्न किया। उस व्यक्ति का कण्ठस्वर, चालढाल आदि सभी उन्मत्त के समान थे। नारदजी ने उसे भी पहले के समान उत्तर दिया। वह बोला, “अच्छा, तो भगवान् से पूछते आएँ, मैं कब मुक्त्त होऊँगा।” लौटते समय नारदजी ने दीमक के ढेर के अन्दर रहनेवाले उस ध्यानस्थ योगी को देखा। उस योगी ने पूछा, “देवर्षे, क्या आपने मेरी बात पूछी थी?” नारदजी बोले, “हाँ, पूछी थी।” योगी ने पूछा, “तो उन्होंने क्या कहा?” नारदजी ने उत्तर दिया, “भगवान् ने कहा, ‘मुझको पाने के लिए उसे और चार जन्म लगेंगे’।” तब तो वह योगी घोर विलाप करते हुए कहने लगा, “मैंने इतना ध्यान किया है कि मेरे चारों ओर दीमक का ढेर लग गया, फिर भी मुझे और चार जन्म लेने पड़ेंगे!” नारदजी तब दूसरे व्यक्ति के पास गये। उसने भी पूछा, “क्या आपने मेरी बात भगवान् से पूछी थी?” नारदजी बोले, “हाँ, भगवान् ने कहा है, ‘उसके सामने जो इमली का पेड़ है, उसके जितने पत्ते हैं, उतनी बार इसको जन्म ग्रहण करना पड़ेगा।’ ” यह बात सुनकर वह व्यक्ति आनन्द से नृत्य करने लगा और बोला, “मैं इतने कम समय में मुक्ति प्राप्त करूँगा!” तब एक देववाणी हुई – “मेरे बच्चे, तुम इसी क्षण मुक्ति प्राप्त करोगे।” वह दूसरा व्यक्ति इतना अध्यवसायसम्पन्न था! इसीलिए उसे वह पुरस्कार मिला। वह इतने जन्म साधना करने के लिए तैयार था। कुछ भी उसे उद्योगशून्य न कर सका। परन्तु वह प्रथमोक्त्त व्यक्ति चार जन्मों की ही बात सुनकर घबड़ा गया। जो व्यक्ति मुक्ति के लिए सैकड़ों युग तक बाट जोहने को तैयार था, उसके समान अध्यवसायसम्पन्न होने पर ही उच्चतम फल प्राप्त होता है।
[१] गीता, १२. १३-१९