जन्मौषधिमन्त्रतपः समाधिजाः सिद्धयः॥१॥
सूत्रार्थ – सिद्धियाँ जन्म, औषधि, मन्त्र, तपस्या और समाधि से प्राप्त होती हैं।
व्याख्या – कभी कभी मनुष्य पूर्वजन्म में प्राप्त सिद्धियों या शक्तियों को लेकर जन्म ग्रहण करता है। इस बार वह मानो उनके फलों का भोग करने के लिए ही जन्म लेता है। सांख्यदर्शन के महान् जनक कपिल के बारे में कहा जाता है कि वे जन्म से ही सिद्ध थे। ‘सिद्ध’ शब्द का अर्थ है – जो कृतकार्य हो चुके हैं।
योगी दावा करते हैं कि रसायनविद्या अर्थात् औषधि आदि के द्वारा ये सब शक्तियाँ प्राप्त हो सकती हैं। तुम सभी जानते हो कि रसायनविद्या का प्रारम्भ आलकेमी(१) के रूप में हुआ। मनुष्य पारसमणि (philosopher’s stone), संजीवनी अमृत(२) (elixir of life) आदि का अन्वेषण करते थे। भारत में ‘रासायन’ नामक एक सम्प्रदाय था। उसका यह मत था कि सूक्ष्मतत्त्वप्रियता, ज्ञान, आध्यात्मिकता, धर्म – ये सब सत्य अच्छे अवश्य हैं, पर शरीर ही वह यन्त्र है, जिससे इन्हें प्राप्त किया जा सकता है। यदि बीच बीच में शरीर भग्न अर्थात् मृत्युग्रस्त होता रहे, तो उससे उस चरम लक्ष्य पर पहुँचने में काफी अधिक समय लग जाएगा। मान लो, कोई मनुष्य योगाभ्यास करने का या आध्यात्मिक होने का इच्छुक है। अधिक उन्नति करने के पहले ही, मान लो, उसकी मृत्यु हो गयी। तब उसने और एक देह लेकर फिर से साधना करना शुरू किया। कुछ समय बाद फिर उसकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार बारम्बार मरने और जन्म लेने से तो उसका काफी समय नष्ट हो गया। अब यदि शरीर को इतना सबल और निर्दोष बनाया जा सके कि उसके जन्म और मृत्यु बिलकुल बन्द हो जाएँ, तो आध्यात्मिक उन्नति के लिए उतना ही अधिक समय मिल सकेगा। इसीलिए ये ‘रासायन’ सम्प्रदायवाले कहते हैं कि पहले शरीर को सबल बनाओ। उनका दावा है कि शरीर को अमर बनाया जा सकता है। उनका अभिप्राय यह है कि यदि मन ही शरीर का कठन करनेवाला हो, और यदि यह सत्य हो कि प्रत्येक व्यक्ति का मन उस अनन्त शक्ति के प्रकाश का एक एक विशेष मार्ग मात्र है, तो ऐसे प्रत्येक मार्ग के लिये बाहर से इच्छानुसार शक्ति संग्रह करने की कोई निर्दिष्ट सीमा नहीं हो सकती। अतः हम सदा के लिए इस शरीर को क्यों न अक्षुण्ण रख सकेंगे? हम जितने शरीर धारण करते हैं, उन सब का गठन हमें ही करना पड़ता है। ज्योंही इस शरीर का पतन होगा, त्योंही फिर से हमें एक और शरीर गढ़ना पड़ेगा। जब हममें यह शक्ति है, तो इस शरीर से बाहर न जाकर, हम यही और अभी यह गठनकार्य क्यों न कर सकेंगे? यह मत पूर्ण रूप से सत्य है। यदि यह सम्भव हो कि हम मृत्यु के पश्चात् भी जीवित रहकर अपना शरीर पुनः गढ़ लें, तो फिर शरीर का पूरा ध्वंस किये बिना, उसे केवल क्रमशः परिवर्तित करते हुए, इसी जन्म में शरीर तैयार करना हमारे लिए क्यों असम्भव होगा? उनका यह भी विश्वास था कि पारा और गन्धक में बड़ी अद्भुत शक्ति निहित है। इन द्रव्यों से एक विशेष तौर से बनी हुई चीजों द्वारा मनुष्य जितने दिन इच्छा हो, शरीर को अक्षुण्ण बनाये रख सकता है। दूसरे कुछ लोगों का विश्वास था कि कुछ विशिष्ट औषधियों के सेवन से आकाश-गमन आदि सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं। आजकल की आश्चर्यजनक औषधियों का अधिकांश, विशेषतः औषधि में धातु का व्यवहार, हमने ‘रासायन’ सम्प्रदायवालों से पाया है। योगियों के कोई कोई सम्प्रदाय कहते हैं कि हमारे बहुतेरे प्रधान गुरुगण अभी भी अपनी पुरानी देहों में विद्यमान हैं। योग के बारे में जिनका प्रामाण्य अकाट्य है, वे पतंजलि इसे अस्वीकार नहीं करते।
मन्त्रशक्ति – ‘मन्त्र’ का अर्थ है कुछ पवित्र शब्द, जिनका निर्दिष्ट नियम से उच्चारण करने पर ये अद्भुत शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। हम दिन-रात ऐसी अद्भुत घटनाओं के बीच रह रहे हैं कि हमें उनका कोई महत्त्व नहीं मालूम पड़ता, हम उन्हें साधारण समझते हैं। मनुष्य की शक्ति की, शब्द की शक्ति की और मन की शक्ति की कोई निर्दिष्ट सीमा नहीं है।
तपस्या – तुम देखोगे कि यह तप प्रत्येक धर्म में हैं। धर्म के इन सब अंगों के साधन में हिन्दू सब से बढ़े-चढ़े हैं। तुम ऐसे अनेक लोग पाओगे, जो सारे जीवन भर अपना हाथ ऊपर उठाए रखते हैं, यहाँ तक कि अन्त में उनके हाथ सूखकर नष्ट हो जाते हैं। बहुतसे लोग दिनरात खड़े ही रहते हैं, और अन्त में उनके पैर फूल जाते हैं। वे इतने कड़े हो जाते हैं कि फिर मोड़े नहीं जा सकते। सारे जीवन भर उन्हें खड़ा ही रहना पड़ता है। मैंने एक समय ऊपर हाथ उठाए हुए एक व्यक्ति को देखा था। मैंने उससे पूछा, “जब तुम पहले-पहल इसका अभ्यास करते थे, तब तुम्हें कैसा लगता था?” उसने कहा, “पहले-पहल भयानक पीड़ा मालूम होती थी, इतनी कि मुझे नदी में जाकर पानी में डूबे रहना पड़ता था; उससे कुछ समय के लिए पीड़ा थोड़ी कम मालूम होती थी। एक महीने बाद फिर कोई विशेष कष्ट नहीं हुआ।” इस प्रकार के अभ्यास से सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
समाधि – यही यथार्थ योग है, यही इस शास्त्र का मुख्य विषय है – और यही सिद्धि का प्रधान साधन है। पहले जिन सब के बारे में कहा गया है, वे गौण साधन मात्र हैं। उनके द्वारा वह परमपद प्राप्त नहीं होता। समाधि के द्वारा हम मानसिक, नैतिक या आध्यात्मिक, जो कुछ चाहें सब प्राप्त कर सकते हैं।
जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात्॥२॥
सूत्रार्थ – जात्यन्तरपरिणाम – एक जाति से दूसरी जाति में परिवर्तन – प्रकृति के पूर्ण होने से होता है।
व्याख्या – पतंजलि ने कहा है कि ये शक्तियाँ जन्म से प्राप्त होती हैं, कभी कभी वे औषधिविशेष से भी प्राप्त होती हैं, फिर तपस्या से भी उन्हें पाया जा सकता है। उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि इस शरीर को जब तक इच्छा हो, रखा जा सकता है। अभी वे यह बता रहे हैं कि शरीर के एक जाति से दूसरी जाति में परिणत होने का क्या कारण है। वे कहते हैं कि यह प्रकृति के पूर्ण होने से होता है। अगले सूत्र में वे इसकी व्याख्या करते हैं।
निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत्॥३॥
सूत्रार्थ – सत् और असत् कर्म प्रकृति के परिणाम (परिवर्तन) के प्रत्यक्ष कारण नहीं हैं, वरन् वे उसकी बाधाओं को दूर कर देनेवाले निमित्त मात्र हैं – जैसे, किसान जब पानी के बहने में रुकावट डालनेवाली मेड़ को तोड़ देता है, तो पानी अपने स्वभाव से ही बह जाता है।
व्याख्या – जब कोई किसान खेत में पानी सींचने की इच्छा करता है, तो उसे अन्य किसी जगह से पानी लाने की आवश्यकता नहीं होती। खेत के समीपवर्ती जलाशय में पानी संचित है, बीच में बाँध रहने के कारण पानी खेत में नहीं आ पा रहा है। किसान उस बाँध को खोल भर देता है, और बस, पानी गुरुत्वाकर्षण के नियमानुसार, अपने आप खेत में बह आता है। इसी प्रकार, सभी व्यक्तियों में सब प्रकार की उन्नति और शक्ति पहले से ही निहित है। पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है; केवल उसके द्वार बन्द हैं, वह अपना यथार्थ रास्ता नहीं पा रही है। यदि कोई इस बाधा को दूर कर सके, तो उसकी वह स्वाभाविक पूर्णता अपनी शक्ति के बल से अभिव्यक्त होगी ही। और तब मनुष्य अपने भीतर पहले से ही विद्यमान शक्तियों को प्राप्त कर लेता है। जब यह बाधा दूर हो जाती है और प्रकृति को अपनी अप्रतिहत गति प्राप्त हो जाती है, तब हम जिन्हें पापी कहते हैं, वे भी साधु में परिणत हो जाते हैं। प्रकृति ही हमें पूर्णता की ओर ले जा रही है, कालान्तर में वह सभी को वहाँ ले जाएगी। धार्मिक होने के लिए जो कुछ साधनाएँ और प्रयत्न हैं, वे सब केवल निषेधात्मक कार्य हैं – वे केवल बाधा को दूर कर देते हैं और इस प्रकार उस पूर्णता के द्वार खोल देते हैं, जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है; जो हमारा स्वभाव है।
प्राचीन योगियों का विकासवाद आज आधुनिक विज्ञान के शोध से अपेक्षाकृत अच्छी तरह समझ में आ सकेगा। फिर भी योगियों की व्याख्या आधुनिक व्याख्या से कहीं श्रेष्ठ हैं। आधुनिक मत कहता है, विकास के दो कारण हैं – ‘यौन-निर्वाचन’ (sexual selection) और बलिष्ठ-अतिजीविता (survival of the fittest)(३) पर ये दो कारण पर्याप्त नहीं मालूम होते। मान लो, मानवी ज्ञान इतना उन्नत हो गया कि शरीरधारण तथा पति या पत्नी की प्राप्ति सम्बन्धी प्रतियोगिता उठ गयी। तब तो आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं के मतानुसार, मानवी उन्नतिप्रवाह रुद्ध हो जाएगा और जाति की मृत्यु हो जाएगी। फिर, इस मत के फलस्वरूप तो प्रत्येक अत्याचारी व्यक्ति अपने विवेक से छुटकारा पाने की एक युक्त्ति पा लेता है। ऐसे मनुष्यों की कमी नहीं, जो दार्शनिक नामधारी बन, जितने भी दुष्ट और अनुपयुक्त्त मनुष्य हैं (मानो ये ही उपयुक्त्तता-अनुपयुक्त्तता के एकमात्र विचारक हैं), उन सब को मारकर मनुष्यजाति की रक्षा करना चाहते हैं! किन्तु प्राचीन विकासवादी महापुरुष पतंजलि कहते हैं कि परिणाम या विकास का वास्तविक रहस्य है – प्रत्येक व्यक्ति में जो पूर्णता पहले से ही निहित है, उसी की अभिव्यक्ति या विकास मात्र। वे कहते हैं कि इस पूर्णता की अभिव्यक्ति में बाधा हो रही है। हमारे अन्दर यह पूर्णतारूप अनन्त ज्वार अपने को व्यक्त करने के लिए संघर्ष कर रहा है। ये संघर्ष और होड़ केवल हमारे अज्ञान के फल हैं। ये इसलिए होते हैं कि हम नहीं जानते कि यह दरवाजा कैसे खोला जाए और पानी भीतर कैसे लाया जाए। हमारे पीछे जो अनन्त ज्वार है, वह अपने को व्यक्त करेगा ही। वही समस्त अभिव्यक्ति का कारण है। केवल जीवनधारण या इन्द्रियसुखों को चरितार्थ करने की चेष्टा इस अभिव्यक्ति का कारण नहीं है। ये सब संघर्ष तो वास्तव में क्षणिक हैं, अनावश्यक हैं, बाह्य व्यापार मात्र हैं। ये सब अज्ञान से पैदा हुए हैं। सारी होड़ बन्द हो जाने पर भी, जब तक हममें से प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक हमारे भीतर निहित यह पूर्णस्वभाव हमें क्रमशः उन्नति की ओर अग्रसर कराता रहेगा। अतः यह विश्वास करने का कोई कारण नहीं कि होड़ या प्रतियोगिता उन्नति के लिए आवश्यक है। पशु के भीतर मनुष्य अव्यक्त रूप से निहित है; ज्योंही द्वार खोल दिया जाता है, अर्थात् ज्योंही बाधा हट जाती है, त्योंही वह मनुष्य व्यक्त हो जाता है। इसी प्रकार, मनुष्य के भीतर भी देवता अव्यक्त रूप से विद्यमान है, केवल अज्ञान का आवरण उसे व्यक्त नहीं होने देता। जब ज्ञान इस आवरण को चीर डालता है, तब भीतर का वह देवता व्यक्त हो जाता है।
निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात्॥४॥
सूत्रार्थ – बनाये हुए चित्त केवल अस्मिता (अहंतत्त्व) से बने होते हैं।
व्याख्या – कर्मवाद का तात्पर्य यह है कि हमें अपने भले-बुरे कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है, और सारे दर्शनशास्त्रों का एकमात्र उद्देश्य यह है कि मनुष्य अपनी महिमा को जान ले। सभी शास्त्र मनुष्य की – आत्मा की – महिमा की घोषणा कर रहे हैं, फिर उसके साथ कर्मवाद का भी प्रचार कर रहे हैं। शुभ कर्मों का शुभ फल और अशुभ कर्मों का अशुभ फल होता है। यदि शुभ और अशुभ कर्म आत्मा पर प्रभाव डाल सकते हों, तो फिर आत्मा तो कुछ भी नहीं रही। वास्तव में अशुभ कर्म तो पुरुष के अपने स्वरूप की अभिव्यक्ति में बाधा भर डालते हैं, और शुभ कर्म उन बाधाओं को दूर कर देते हैं। तभी पुरुष की महिमा प्रकट होती है। स्वयं पुरुष में कभी परिवर्तन नहीं होता। तुम चाहे जो करो, तुम्हारी महिमा को – तुम्हारे अपने स्वरूप को – कुछ भी नष्ट नहीं कर सकता; क्योंकि कोई भी वस्तु आत्मा पर प्रभाव नहीं डाल सकती। उससे आत्मा पर मानो एक आवरण भर पड़ जाता है, जिससे आत्मा की पूर्णता ढक जाती है।
योगी जल्दी जल्दी कर्म का क्षय कर डालने के लिए कायव्यूह (शरीरसमूह) का सृजन करते हैं। फिर इन सब शरीरों के लिए वे अपनी अस्मिता या अहंतत्त्व से बहुतसे चित्तों की सृष्टि करते हैं। इन निर्मित चित्तों को, मूल चित्त से उनका भेद स्पष्ट करने के लिए ‘निर्माणचित्त’ कहते हैं।
प्रवृत्तिभेदे प्रयोजकं चित्तमेकमनेकेषाम्॥५॥
सूत्रार्थ – यद्यपि इन विभिन्न बनाये हुए चित्तों के कार्य विभिन्न प्रकार के हैं, तो भी वह एक आदि (मूल) चित्त ही उन सब का नियन्ता है।
व्याख्या – ये अलग अलग चित्त, जो अलग अलग देहों में कार्य करते हैं, ‘निर्माणचित्त’ कहलाते हैं और इन निर्मित शरीरों को ‘निर्माणदेह’ कहते हैं। भूत और मन मानो दो अनन्त भाण्डार के समान हैं। योगी होने पर ही तुम उन पर अधिकार प्राप्त करने का रहस्य जान सकोगे। तुम्हें तो वह सदैव विदित था, पर तुम उसे भूल भर गये थे। तुम जब योगी हो जाओगे, तो वह फिर से तुम्हारी स्मृति में आ जाएगा। तब तुम उसे लेकर जो इच्छा हो, वही कर सकोगे। जिस उपादान से इस बृहत् ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होती है, यह निर्माणचित्त भी उसी उपादान से निर्मित होता है। मन और भूत आपस में एक दूसरे से बिलकुल भिन्न पदार्थ नहीं हैं, वे तो एक ही पदार्थ की दो विभिन्न अवस्थाएँ मात्र हैं। अस्मिता ही वह उपादान, वह सूक्ष्म वस्तु है, जिससे योगी के ये निर्माणचित्त और निर्माणदेह तैयार होते हैं। अतएव, योगी जब प्रकृति की इन शक्तियों का रहस्य जान लेते हैं, तब वे अस्मिता नामक पदार्थ से जितनी इच्छा हो, उतने मन और शरीर निर्माण कर सकते हैं।
तत्र ध्यानजमनाशयम्॥६॥
सूत्रार्थ – उन विभिन्न चित्तों में से जो चित्त समाधि द्वारा उत्पन्न होता है, वह वासनाशून्य होता है।
व्याख्या – विभिन्न व्यक्तियों में हम जो विभिन्न प्रकार के मन देखते हैं, उनमें वही मन सब से ऊँचा है, जिसे समाधि-अवस्था प्राप्त हुई है। जो व्यक्ति औषधि, मन्त्र या तपस्या के बल से कुछ शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है, उसकी वासनाएँ बनी ही रहती हैं; पर जो व्यक्ति योग के द्वारा समाधि प्राप्त कर लेता है, केवल वही समस्त वासनाओं से मुक्त्त होता है।
कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्॥७॥
सूत्रार्थ – योगियों के कर्म शुक्ल भी नहीं और कृष्ण भी नहीं; (पर) दूसरों के कर्म तीन प्रकार के होते हैं – शुक्ल, कृष्ण और मिश्र।
व्याख्या – जब योगी इस प्रकार की पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं, तब उनके कार्य और उन कार्यों के फल उन्हें फिर बाँध नहीं सकते; क्योंकि उनमें वासना का संस्पर्श नहीं रह जाता। वे केवल कर्म किये जाते हैं। वे दूसरों के हित के लिए काम करते हैं, दूसरों का उपकार करते हैं, किन्तु वे उसके फल की चाह नहीं रखते। अतः वह उनके पास नहीं आता। पर साधारण मनुष्यों के लिए, जिन्हें यह सर्वोच्च अवस्था प्राप्त नहीं हुई है, कर्म त्रिविध होते हैं – कृष्ण (पापकर्म), शुक्ल (पुण्यकर्म) और मिश्र (पाप और पुण्य मिले हुए)।
ततस्तद्विपाकानुगुणानामेवाभिव्यक्तिर्वासनानाम्॥८॥
सूत्रार्थ – इन त्रिविध कर्मों से प्रत्येक अवस्था में वे ही वासनाएँ प्रकट होती हैं, जो केवल उस अवस्था में प्रकट होने के योग्य हैं। (अन्य सब उस समय के लिए स्तिमित रूप से रहती है।)
व्याख्या – मान लो, मैंने पाप, पुण्य और मिश्रित, ये तीन प्रकार के कर्म किये। उसके बाद, मान लो, मेरी मृत्यु हो गयी और मैं स्वर्ग में देवता हो गया। मनुष्यदेह की वासना और देवदेह की वासना एक समान नहीं है। देवदेह खाना-पीना कुछ नहीं करती। यदि बात ऐसी हो, तो फिर आत्मा के जो पूर्व अभुक्त्त कर्म हैं, जो अपने फलस्वरूप खाने-पीने की वासना को जन्म देते हैं, वे सब भला कहाँ जाते हैं? जब मैं देवता हो जाता हूँ, तब ये कर्म कहाँ रहते हैं? इसका उत्तर यह है कि वासना उपयुक्त्त वातावरण और क्षेत्र को पाने पर ही प्रकट होती है। जिस समय जिन वासनाओं के प्रकट होने के उपयुक्त्त वातावरण आता है, उस समय केवल वे ही प्रकट होंगी। शेष सब संचित रहेंगी। इस जीवन में हमारी बहुतसी देवोचित वासनाएँ हैं, बहुतसी मनुष्योचित और बहुतसी पाशविक। जब हम देवदेह धारण करते हैं, तो केवल शुभ वासनाएँ ही प्रकट होती हैं, क्योंकि तब उनके प्रकट होने का उपयुक्त्त अवसर आता है। जब हम पशुदेह धारण करते हैं, तो केवल पाशविक वासनाएँ ही ऊपर आती हैं और शुभ वासनाएँ बाट देखती रहती हैं। इससे क्या पता चलता है? यही कि वातावरण की सहायता से हम इन वासनाओं का दमन कर सकते हैं। जो कर्म उस वातावरण के उपयुक्त्त और अनुकूल हैं, केवल वे ही प्रकट होंगे। इससे यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है कि वातावरण की शक्ति स्वयं कर्म का भी दमन कर सकती है।
जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानन्तर्यं
स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्वात्॥९॥
सूत्रार्थ – स्मृति और संस्कार एकरूप होने के कारण, जाति, देश और काल का व्यवधान रहने पर भी, वासनाओं (कर्मसंस्कारों) का आनन्तर्य रहता है अर्थात् उनमें व्यवधान नहीं होता।
व्याख्या – समस्त अनुभूतियाँ सूक्ष्म आकार धारण कर संस्कार के रूप में परिणत हो जाती हैं। जब वे संस्कार फिर से जागृत होते हैं, तब उसी को स्मृति कहते हैं। ज्ञानपूर्वक किये गये वर्तमान कर्म के साथ, संस्कार के रूप में परिणत पूर्व-अनुभूतियों का जो परस्पर अज्ञानयुक्त्त सम्बन्ध है, यहाँ पर उसका भी ‘स्मृति’ शब्द से बोध होता है। प्रत्येक देह में वही संस्कारसमष्टि कर्म का कारण होती है, जो उसी जाति की देह से प्राप्त हुई है। भिन्न जाति की देह से लब्ध संस्कार-समष्टि उस समय स्तिमित रूप से रहती है। प्रत्येक शरीर इस प्रकार कार्य करता है, मानो वह उसी जाति की देहपरम्परा का एक वंशज हो। इस तरह हम देखते हैं कि वासनाओं का क्रम नष्ट नहीं होता।
तासामनादित्वं चाशिषो नित्यत्वात्॥१०॥
सूत्रार्थ – सुख की तृष्णा नित्य होने के कारण वासनाएँ भी अनादि हैं।
व्याख्या – जो कुछ अनुभव या भोग होते हैं, वे सुख की इच्छा से ही उत्पन्न होते हैं। भोग का कोई आदि नहीं है, क्योंकि प्रत्येक नया भोग पहले किये हुए भोग से उत्पन्न प्रकृति या संस्कार पर आधारित रहता है। अतएव वासना अनादि है।
हेतुफलाश्रयालम्बनैः संगृहीतत्वादेषामभावे तदभावः॥११॥
सूत्रार्थ – हेतु, फल, आश्रय और (शब्दादि) विषय – इनसे वासनाओं का संग्रह होता है, इसलिए इन (चारों) का अभाव होने से उन (वासनाओं) का भी अभाव हो जाता है।
व्याख्या – वासनाएँ कार्य-कारण सूत्र(४) से ग्रथित हैं। मन में कोई वासना उदित होने पर वह अपना फल उत्पन्न किये बिना नष्ट नहीं होती। फिर चित्त समस्त पूर्ववासनाओं (कर्मसंस्कारों) का आश्रय है – एक बड़ा भाण्डारस्वरूप है। ये वासनाएँ संस्कार के रूप में संचित रहती हैं। जब तक उनका कार्य समाप्त नहीं हो जाता, तब तक वे नष्ट नहीं होती। फिर, जब तक इन्द्रियाँ बाहरी विषयों को ग्रहण करती रहेंगी, तब तक नयी नयी वासनाएँ भी उठती रहेंगी। यदि वासना के हेतु, फल, आश्रय और विषय नष्ट कर दिये जा सकें, तभी उसका समूल विनाश हो सकता है।
अतीतानागतं स्वरूपतोऽस्त्यद्वभेदाद्धर्माणाम्॥१२॥
सूत्रार्थ – वस्तु के धर्म विभिन्न रूप धारण कर सब कुछ हुए हैं, इसलिए अतीत और अनागत (भविष्य) स्वरूपतः विद्यमान हैं।
व्याख्या – तात्पर्य यह है कि असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं होती। अतीत और अनागत यद्यपि व्यक्त रूप से नहीं रहते, फिर भी वे सूक्ष्म अवस्था में रहते हैं।
ते व्यक्तसूक्ष्मा गुणात्मानः॥१३॥
सूत्रार्थ – वे (धर्म) कभी व्यक्त अवस्था में रहते हैं, फिर कभी सूक्ष्म अवस्था में चले जाते हैं, और गुण ही उनकी आत्मा अर्थात् स्वरूप हैं।
व्याख्या – गुण का तात्पर्य है सत्त्व, रज और तम – ये तीन पदार्थ। उनकी स्थूल अवस्था ही यह परिदृश्यमान जगत् है। भूत और भविष्य इन तीन गुणों की अभिव्यक्ति की विभिन्न प्रणाली से उत्पन्न होते हैं।
परिणामैकत्वाद्वस्तुतत्त्वम्॥१४॥
सूत्रार्थ – परिणाम में एकत्व रहने के कारण वस्तु वास्तव में एक है।
व्याख्या – यद्यपि वस्तुएँ तीन हैं अर्थात् सत्त्व, रज और तम, फिर भी उनके परिणामों में एक पारस्परिक सम्बन्ध रहने के कारण सभी वस्तुओं में एकत्व है, ऐसा समझना चाहिए।
वस्तुसाम्ये चित्तभेदात्तयोर्विभक्त्तः पन्थाः॥१५॥
सूत्रार्थ – वस्तु के एक होने पर भी, चित्त भिन्न भिन्न होने के कारण, विभिन्न प्रकार की वासनाएँ और अनुभूतियाँ होती हैं।
व्याख्या – तात्पर्य यह कि मन से स्वतन्त्र, बाह्य जगत् का अस्तित्व है। यहाँ पर बौद्धों के विज्ञानवाद का खण्डन किया जा रहा है। चूँकि भिन्न भिन्न लोग एक ही वस्तु को विभिन्न रूप से देखते हैं, इसलिए वह किसी व्यक्तिविशेष की कल्पना मात्र नहीं हो सकती।(५)
तदुपरागापेक्षित्वाच्चित्तस्य वस्तु ज्ञाताज्ञातम्॥१६॥
सूत्रार्थ – चित्त में वस्तु के प्रतिबिम्ब पड़ने की अपेक्षा रहने के कारण वस्तु कभी ज्ञात और कभी अज्ञात होती है।
सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्यापरिणामित्वात्॥१७॥
सूत्रार्थ – चित्तवृत्तियाँ सदा ज्ञात रहती हैं, क्योंकि उस (चित्त) का स्वामी पुरुष अपरिणामी है।
व्याख्या – अब तक जिस सिद्धान्त की बात कही गयी है, उसका सारांश यह है कि जगत् मनोमय और भौतिक, इन दो प्रकार का है। ये मनोमय और भौतिक जगत् सतत परिवर्तनशील हैं। यह पुस्तक क्या है? यह नित्य परिवर्तनशील कुछ परमाणुओं की समष्टि मात्र है। कुछ परमाणु बाहर जा रहे हैं और कुछ भीतर आ रहे हैं; यह बस, एक भँवर के समान है। पर प्रश्न यह है कि ऐसा होने पर फिर एकत्वबोध कैसे हो रहा है? यह पुस्तक सर्वदा एक ही रूप में कैसे दिखती है? कारण यह है कि ये सब परिणाम लयबद्ध (नियमित) रूप से हो रहे हैं। वे मेरे मन में लयबद्ध रूप से अनुभव-प्रवाह भेज रहे हैं। और यद्यपि उनके विभिन्न अंश सतत परिवर्तनशील हैं, तो भी वे ही एकत्र होकर एक अविच्छिन्न चित्र का ज्ञान उत्पन्न कर रहे हैं। मन स्वयं सतत परिवर्तनशील है। मन और शरीर मानो विभिन्न मात्रा में गतिशील एक ही पदार्थ के दो स्तर मात्र हैं। तुलना में एक धीमी और दूसरी द्रुततर होने के कारण हम उन दोनों गतियों को सहज ही पृथक् कर सकते हैं। जैसे एक रेल चल रही है, और एक गाड़ी उसके पास से जा रही है। कुछ परिमाण में इन दोनों की ही गतियाँ निर्णीत हो सकती हैं। किन्तु तो भी दूसरे एक पदार्थ की आवश्यकता है। एक निश्चल वस्तु रहने पर ही गति का अनुभव किया जा सकता है। पर जहाँ दो-तीन वस्तुएँ विभिन्न मात्रा में गतिशील हैं, वहाँ हमें पहले सब से जोर से चलनेवाली वस्तु का अनुभव होता है, और फिर उससे धीरे चलनेवाली वस्तुओं का। अब प्रश्न यह है कि मन कैसे अनुभव करे? वह तो हमेशा गतिशील है। अतः दूसरी एक वस्तु का रहना आवश्यक है, जो अपेक्षाकृत धीमे रूप से गतिशील हो, उसके बाद उसकी अपेक्षा धीमी गतिशील वस्तु चाहिए, फिर उसकी भी अपेक्षा धीमी – इस प्रकार चलते चलते तो इसका कहीं अन्त न होगा। अतएव, युक्त्ति हमें किसी एक स्थान में रुक जाने के लिए बाध्य करती है। किसी अपरिवर्तनशील वस्तु को जानकर हमें इस अनन्त शृंखला की समाप्ति करनी ही पड़ेगी। इस कभी समाप्त न होनेवाली गतिशृंखला के पीछे अपरिणामी, असंग, शुद्धस्वरूप पुरुष विद्यमान है। जिस प्रकार मैजिक लैन्टर्न से आलोक की किरणें आकर सफेद कपड़े पर प्रतिबिम्बित हो उस पर सैकड़ों चित्र उत्पन्न करती हैं, पर किसी तरह उसे कलंकित नहीं कर पाती, ठीक उसी प्रकार विषयानुभूति से उत्पन्न संस्कार पुरुष में प्रतिबिम्बित मात्र होते हैं।
न तत्स्वाभासं दृश्यत्वात्॥१८॥
सूत्रार्थ – चित्त दृश्य होने के कारण स्वप्रकाश नहीं है।
व्याख्या – प्रकृति में सर्वत्र महाशक्ति की अभिव्यक्ति देखी जाती है, किन्तु वह स्वप्रकाश नहीं है, स्वभाव से चैतन्यस्वरूप नहीं है। केवल पुरुष ही स्वप्रकाश है, उसके प्रकाश से ही प्रत्येक वस्तु उद्भासित हो रही है। उसी की शक्ति समस्त जड़ पदार्थ और शक्ति के माध्यम से प्रकाशित हो रही है।
एकसमये चोभयानवधारणम्॥१९॥
सूत्रार्थ – एक ही समय में दो वस्तुओं को समझ न सकने के कारण चित्त स्वप्रकाश नहीं है।
व्याख्या – यदि चित्त स्वप्रकाश होता, तो वह एक साथ ही अपना तथा अपने विषय का अनुभव कर पाता। किन्तु ऐसा नहीं होता। चित्त जब किसी विषयवस्तु में तल्लीन रहता है, तो यह अपने सम्बन्ध में कुछ चिन्तन नहीं कर सकता। अतः मन स्वप्रकाश नहीं है, केवल पुरुष ही स्वप्रकाश है।
चित्तान्तरदृश्ये बुद्धिबुद्धेरतिप्रसङ्गः स्मृतिसङ्क,अरश्च॥२०॥
सूत्रार्थ – एक चित्त को दूसरे चित्त का दृश्य मान लेने पर वह दूसरा चित्त फिर तीसरे चित्त का दृश्य होगा – इस प्रकार अनवस्था प्राप्त होगी और स्मृति का भी सम्मिश्रण हो जाएगा।
व्याख्या – मान लो, एक दूसरा चित्त है, जो इस पहले चित्त का अनुभव करता है। तब तो एक ऐसे तीसरे चित्त की आवश्यकता होगी, जो उस दूसरे चित्त का अनुभव करे। अतएव, इस प्रकार इसका कहीं अन्त न होगा। इससे स्मृति की भी गड़बड़ी उपस्थित हो जाएगी, क्योंकि तब स्मृति का कोई निर्दिष्ट भण्डार नहीं रह जाएगा।
चितेरप्रतिसंक्रमायास्तदाकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनम्॥२१॥
सूत्रार्थ – चित् (पुरुष) अपरिणामी है; चित्त जब उसका आकार धारण करता है, तब वह ज्ञानमय हो जाता है।
व्याख्या – ज्ञान पुरुष का गुण नहीं है, यह हमें स्पष्ट रूप से समझा देने के लिए पतंजलि ने यह बात कही है। चित्त जब पुरुष के पास आता है, तब पुरुष मानो उसमें प्रतिबिम्बित होता है और उस समय के लिए चित्त ज्ञानवान् हो जाता है। तब ऐसा प्रतीत होता है मानो वही स्वयं पुरुष है।
दृष्टृदृश्योपरक्तं चित्तं सर्वार्थम्॥२२॥
सूत्रार्थ – चित्त जब द्रष्टा और दृश्य इन दोनों से रंग जाता है, तब वह सब कुछ समझने में समर्थ होता है।
व्याख्या – एक ओर दृश्य अर्थात् बाह्य जगत् चित्त में प्रतिबिम्बित हो रहा है, और दूसरी ओर द्रष्टा अर्थात् पुरुष उसमें प्रतिबिम्बित हो रहा है; इसी से उसमें सब प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने की शक्ति आती है।
तदसंख्येयवासनाभिश्चित्रमपि परार्थं संहत्यकारित्वात्॥२३॥
सूत्रार्थ – वह (चित्त) असंख्य वासनाओं से चित्रित होने पर भी दूसरे (अर्थात् पुरुष) के लिए है, क्योंकि यह संहत्यकारी (संयुक्त्त होकर कार्य करनेवाला) है।
व्याख्या – यह चित्त नाना प्रकार के पदार्तों की समष्टिस्वरूप है; अतः वह अपने लिए काम नहीं कर सकता। इस संसार में जितने संहत या मिश्र पदार्थ हैं, सभी का प्रयोजन किसी अन्य वस्तु से है – ऐसी किसी तीसरी वस्तु से, जिसके लिए वे पदार्थ इस तरह से संहत या मिश्रित हुए हैं। अतएव, यह चित्तरूपी संहति या मिश्रण केवल पुरुष के लिए है।
विशेषदर्शिन आत्मभावभावनाविनिवृत्तिः॥२४॥
सूत्रार्थ – विशेषदर्शी अर्थात् विवेकी पुरुष के चित्त में आत्मभाव नहीं रह जाता।
व्याख्या – विवेक-बल से योगी जान लेते हैं कि पुरुष चित्त नहीं है।
तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भाव(६) चित्तम्॥२५॥
सूत्रार्थ – उस समय चित्त विवेकप्रवण होकर कैवल्य के पूर्वलक्षण को प्राप्त करता है।
व्याख्या – इस प्रकार योगाभ्यास से विवेकशक्तिरूप दृष्टि की शुद्धता प्राप्त होती है। हमारी आँखों के सामने से आवरण हट जाता है, और तब हम वस्तु के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि करते हैं। हम तब जान लेते हैं कि प्रकृति एक यौगिक पदार्थ है और उसके ये सारे दृश्य केवल साक्षीस्वरूप पुरुष के लिए हैं, तब हम जान लेते हैं कि प्रकृति ईश्वर नहीं है। इस प्रकृति की सारी संहति, सारे संयोग केवल हमारे हृदय-सिंहासन में विराजमान राजा पुरुष को यह सब दृश्य दिखाने के लिए हैं। जब दीर्घ काल तक अभ्यास के फलस्वरूप विवेक का उदय होता है, तब भय चला जाता है और कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है।
तच्छिद्रेषु प्रत्ययान्तराणि संस्कारेभ्यः॥२६॥
सूत्रार्थ – उसके विघ्नस्वरूप बीच बीच में जो विचार उत्पन्न होते हैं, वे संस्कारों से आते हैं।
व्याख्या – ‘हमें सुखी करने के लिए कोई बाहरी वस्तु आवश्यक है’, ऐसा विश्वास पैदा करनेवाले जो सब भाव हममें उठते हैं, वे सिद्धिलाभ में बाधक हैं। पुरुष स्वभाव से सुखस्वरूप और आनन्दस्वरूप है। पर यह ज्ञान पूर्वसंस्कारों से ढका हुआ है। इन सब संस्कारों का क्षय होना आवश्यक है।
हानमेषां क्लेशवदुक्त्तम्॥२७॥
सूत्रार्थ – जिन उपायों से क्लेशों के नाश की बात (सूत्र २।१०) कही गयी है, इन (संस्कारों) को भी ठीक उन्हीं उपायों से नष्ट करना होगा।
प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेर्धर्ममेघः समाधिः॥२८॥
सूत्रार्थ – तत्त्वों के विवेकज्ञान से उत्पन्न ऐश्वर्य में भी जिनका वैराग्य हो जाता है, उनका विवेकज्ञान सर्वथा प्रकाशमान रहने के कारण उन्हें धर्ममेघ समाधि प्राप्त हो जाती है।
व्याख्या – जब योगी इस विवेकज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं, तब उनके पास पूर्व अध्याय में बतलायी गयी सिद्धियाँ आती हैं, पर सच्चे योगी इन सब का परित्याग कर देते हैं। उनके पास धर्ममेघ नामक एक विशेष प्रकार का ज्ञान, एक विशेष प्रकार का आलोक आता है। इतिहास ने संसार के जिन सब महान् धर्माचार्यों का वर्णन किया है, उन सभी को यह धर्ममेघ समाधि हुई थीं। उन्होंने ज्ञान का मूल स्रोत अपने भीतर ही पाया था। सत्य उनके निकट अत्यन्त स्पष्ट रूप से प्रकाशित हुआ था। पूर्वोक्त सिद्धियों की असारता को छोड़ देने के कारण शान्ति, समता और पूर्ण पवित्रता उनका स्वभाव ही बन गयी थी।
ततः क्लेशकर्मनिवृत्तिः॥२९॥
सूत्रार्थ – उस (धर्ममेघ समाधि) से क्लेश और कर्मों का सर्वथा नाश हो जाता है।
व्याख्या – जब यह धर्ममेघ समाधि होती है, तब पतन की आशंका फिर नहीं रह जाती, तब योगी को कुछ भी नीचे नहीं खींच सकता। तब उनके लिए न कोई बुराई रह जाती है, न कोई कष्ट।
तदा सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्यानन्त्याज्ज्ञेयमल्पम्॥३०॥
सूत्रार्थ – उस समय ज्ञान, सब प्रकार के आवरण और अशुद्धि से रहित होने के कारण, अनन्त हो जाता है, अतः ज्ञेय अल्प हो जाता है।
व्याख्या – ज्ञान तो भीतर में ही है, केवल उसका आवरण चला जाता है। किसी बौद्ध शास्त्र ने ‘बुद्ध’ (यह एक अवस्था का सूचक है) शब्द की परिभाषा दी है – अनन्त आकाश के समान अनन्त ज्ञान। ईसा इस अवस्था की प्राप्ति कर क्राइस्ट हो गये थे। तुम सभी उस अवस्था की प्राप्ति करोगे। तब ज्ञान अनन्त हो जाएगा, अतः ज्ञेय अल्प हो जाएगा। तब यह सारा जगत्, अपनी सब प्रकार की ज्ञेय वस्तुओं के साथ, पुरुष के समक्ष शून्य रूप से प्रतिभासित होगा। साधारण मनुष्य अपने को अत्यन्त क्षुद्र समझता है, क्योंकि उसको ज्ञेय वस्तु अनन्त प्रतीत होती है।
ततः कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्तिर्गुणानाम्॥३१॥
सूत्रार्थ – जब गुणों का काम समाप्त हो जाता है, तब गुणों के जो विभिन्न परिणाम हैं, वे भी समाप्त हो जाते हैं।
व्याख्या – तब गुणों के ये सब विभिन्न परिणाम (एक जाति से उनकी दूसरी जाति में परिणत होना) बिलकुल समाप्त हो जाते हैं।
क्षणप्रतियोगी परिणामापरान्तनिर्ग्राह्यः क्रमः॥३२॥
सूत्रार्थ – जो परिणाम प्रत्येक क्षण से सम्बन्धित हैं, और जो दूसरे छोर में (अर्थात् एक परिणाम-परम्परा के अन्त में) समझ में आते हैं, वे क्रम हैं।
व्याख्या – पतंजलि ने यहाँ ‘क्रम’ शब्द की परिभाषा दी है। क्रम शब्द से उन परिणामों का बोध होता है, जो प्रत्येक क्षण से सम्बन्धित हैं। मैं सोच रहा हूँ, इसमें कितने क्षण चले गये! इस प्रत्येक क्षण के साथ भाव का परिवर्तन होता है, पर मैं उन सब परिणामों को एक श्रेणी के अन्त में ही अर्थात् एक परिणाम-परम्परा के बाद ही समझ सकता हूँ। इसे क्रम कहते हैं। किन्तु जो मन सर्वव्यापी हो गया है, उसके लिए फिर क्रम नहीं रह जाता। उसके लिए सब कुछ वर्तमान हो गया है। उसके लिए केवल वर्तमान ही रहता है, भूत और भविष्य उसके ज्ञान से बिलकुल चले जाते हैं। तब वह मन काल पर विजय प्राप्त कर लेता है और उसके पास समस्त ज्ञान एक क्षण में आकर उपस्थित हो जाता है। उसके पास सब कुछ विद्युत् की झलक के समान झट से प्रकाशित हो जाता है।
पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशत्तेरिति॥३३॥
सूत्रार्थ – गुणों से जब पुरुष का कोई प्रयोजन नहीं रहता, तब प्रतिलोमक्रम से गुणों के लय होने को कैवल्य कहते हैं, अथवा यों कहिए कि द्रष्टा (चित्-शक्ति) का अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाना कैवल्य है।
व्याख्या – प्रकृति का काम समाप्त हो गया। हमारी परम कल्याणमयी धात्री प्रकृति ने इच्छापूर्वक जिस निःस्वार्थ कार्य का भार अपने कन्धों पर लिया था, वह समाप्त हो गया। उसने मानो आत्मविस्मृत जीवात्मा का हाथ पकड़कर उसे धीरे धीरे संसार के समस्त भोगों का अनुभव कराया, अपनी समस्त अभिव्यक्ति दिखायी, सारे विकार दिखाये, और इस प्रकार वह उसे विभिन्न शरीरों में से ले जाते हुए क्रमशः उच्च से उच्चतर अवस्था में उठाती गयी। अन्त में आत्मा ने अपनी खोयी हुई महिमा फिर से प्राप्त कर ली, अपना स्वरूप फिर से उसके मानस में उदित हो गया। तब वह करुणामयी जननी जिस रास्ते से आयी थी, उसी रास्ते से वापस चली गयी और उन लोगों को रास्ता दिखाने में प्रवृत्त हो गयी, जो इस जीवन के पथचिह्नविहीन मरुभूमि में अपना पथ खो बैठे हैं। वह अनादि, अनन्त काल से इस प्रकार काम करती चली आ रही है। बस, इसी प्रकार सुख और दुःख, भले और बुरे के माध्यम से होते हुए जीवात्माओं की अनन्त नदी सिद्धि और आत्मसाक्षात्काररूप समुद्र की ओर प्रवाहित हो रही है।
जिन्होंने अपने स्वरूप का अनुभव कर लिया है, उनकी जय हो। वे हम सब को आशीर्वाद दें!
[१] आलकेमी – ताँबा आदि कम कीमतवाली धातुओं से सोना-चाँदी आदि बनाने की विद्या। पहले यूरोप में गुप्त रूप से इस विद्या का बहुत प्रचार था। – सं.
[२] ‘संजीवनी अमृत’ – एक प्रकार का काल्पनिक रस, जिसे पीकर मनुष्य अमर हो सकता है। – सं.
[३] डार्विन का मत है कि जगत् का क्रमविकास कुछ निर्दिष्ट नियमों के अनुसार होता है; उनमें यौन-निर्वाचन और बलिष्ठ-अतिजीविता ही प्रधान हैं। प्रत्येक जीव अपना उपयुक्त्त जोड़ीदार निर्वाचित कर लेता है; और जो सब से योग्य है, वही अन्त तक जीवित रहता है – यही इन दो बातों का अर्थ है। – सं.
[४] क्लेश (साधनपाद, ३) और कर्म (कैवल्यपाद, ७) कारण हैं, और जाति, आयु तथा भोग (साधनपाद, १३) कार्य है। – सं.
[५] किसी किसी संस्करण में यहाँ एक और सूत्र है:-
न चैकचित्ततन्त्रं वस्तु तदप्रमाणकं तदा किं स्यात्॥
सूत्रार्थ – फिर, दृश्य वस्तु किसी एक चित्त के अधीन नहीं है, (क्योंकि) वैसा होने से जब वह (उस चित्त के) प्रत्यक्षादि प्रमाण का अविषय हो जाएगी, उस समय उस वस्तु का क्या होगा?
व्याख्या – यदि बाह्य वस्तु की प्रत्यक्ष-अनुभूति ही उसके अस्तित्व की कारण हो, तो जब मन किसी विषय में तन्मय हो जाता है अथवा समाधिस्थ हो जाता है, तब दूसरे किसी से उस वस्तु का प्रत्यक्ष नहीं होगा, और तब यह भी कहना पड़ेगा कि उस वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है। लेकिन यह निष्कर्ष गलत है।
– सं.
[६] पाठान्तर – कैवल्यप्राग्भारं। तब अर्थ होगा : उस समय चित्त गम्भीर रूप से विवेकवान होता है और कैवल्य की ओर उन्मुख हो जाता है। – सं.