प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है।
बाह्य एवं अन्तःप्रकृति को वशीभूत करके अपने इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है।
कर्म, उपासना, मनःसंयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ।
बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठानपद्धतियाँ, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया-कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं।
– स्वामी विवेकानन्द
ऐतिहासिक जगत् के प्रारम्भ से लेकर वर्तमान काल तक मानव-समाज में अनेक अलौकिक घटनाओं के उल्लेख देखने को मिलते हैं। आज भी, जो समाज आधुनिक विज्ञान के भरपूर आलोक में रह रहे हैं, उनमें भी ऐसी घटनाओं की गवाही देनेवाले लोगों की कमी नहीं है। पर हाँ, ऐसे प्रमाणों में अधिकांश विश्वास योग्य नहीं; क्योंकि जिन व्यक्तियों से ऐसे प्रमाण मिलते हैं, उनमें से बहुतेरे अज्ञ हैं, अन्धविश्वासी हैं अथवा धूर्त हैं। बहुधा यह भी देखा जाता है कि लोग जिन घटनाओं को अलौकिक कहते हैं, वे वास्तव में नकल हैं। पर प्रश्न उठता है, किसकी नकल? यथार्थ अनुसन्धान किये बिना कोई बात बिलकुल उड़ा देना सत्यप्रिय वैज्ञानिक-मन का परिचय नहीं देता। जो वैज्ञानिक सूक्ष्मदर्शी नहीं, वे मनोराज्य की नाना प्रकार की अलौकिक घटनाओं की व्याख्या करने में असमर्थ हो उन सब का अस्तित्व ही उड़ा देने का प्रयत्न करते हैं। अतएव वे तो उन व्यक्तियों से अधिक दोषी हैं, जो सोचते हैं कि बादलों के ऊपर अवस्थित कोई पुरुषविशेष या बहुत-से पुरुषगण उनकी प्रार्थनाओं को सुनते हैं और उनके उत्तर देते हैं – अथवा उन लोगों से, जिनका विश्वास है कि ये पुरुष उनकी प्रार्थनाओं के कारण संसार का नियम ही बदल देंगे। क्योंकि इन बाद के व्यक्तियों के सम्बन्ध में यह दुहाई दी जा सकती है कि वे अज्ञानी हैं, अथवा कम से कम यह कि उनकी शिक्षाप्रणाली दूषित रही है, जिसने उन्हें ऐसे अप्राकृतिक पुरुषों का सहारा लेने की सीख दी और जो निर्भरता अब उनके अवनत स्वभाव का एक अंग ही बन गयी है। पर पूर्वोक्त शिक्षित व्यक्तियों के लिए तो ऐसी किसी दुहाई की गुंजाइश नहीं।
हजारों वर्षों से लोगों ने ऐसी अलौकिक घटनाओं का पर्यवेक्षण किया है, उनके सम्बन्ध में विशेष रूप से चिन्तन किया है और फिर उनमें से कुछ साधारण तत्त्व निकाले हैं; यहाँ तक कि, मनुष्य की धर्मप्रवृत्ति की आधारभूमि पर भी विशेष रूप से, अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ, विचार किया गया है। इन समस्त चिन्तन और विचारों का फल यह राजयोग-विद्या है। यह राजयोग आजकल के अधिकांश वैज्ञानिकों की अक्षम्य धारा का अवलम्बन नहीं करता – वह उनकी भाँति उन घटनाओं के अस्तित्व को एकदम उड़ा नहीं देता, जिनकी व्याख्या दुरूह हो; प्रत्युत वह तो धीर भाव से, पर स्पष्ट शब्दों में, अन्धविश्वास से भरे व्यक्ति को बता देता है कि यद्यपि अलौकिक घटनाएँ, प्रार्थनाओं की पूर्ति और विश्वास की शक्ति, ये सब सत्य हैं, तथापि इनका स्पष्टीकरण ऐसी अन्धविश्वासपूर्ण व्याख्या द्वारा नहीं हो सकता कि ये सब व्यापार बादलों के ऊपर अवस्थित किसी व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों द्वारा सम्पन्न होते हैं। वह घोषणा करता है कि प्रत्येक मनुष्य, सारी मानवजाति के पीछे वर्तमान ज्ञान और शक्ति के अनन्त सागर की एक क्षुद्र प्रणाली मात्र है। वह शिक्षा देता है कि जिस प्रकार वासनाएँ और अभाव मानव के अन्तर में हैं, उसी प्रकार उसके भीतर ही मन के अभावों के मोचन की शक्ति भी है; और जहाँ कहीं और जब कभी किसी वासना, अभाव या प्रार्थना की पूर्ति होती है, तो समझना होगा कि वह इस अनन्त भण्डार से ही पूर्ण होती है, किसी अप्राकृतिक पुरुष से नहीं। अप्राकृतिक पुरुषों की भावना मानव में कार्य की शक्ति को भले ही कुछ परिणाम में उद्दीप्त कर देती हो, पर उससे आध्यात्मिक अवनति भी आती है। उससे स्वाधीनता चली जाती है, भय और अन्धविश्वास हृदय पर अधिकार जमा लेते हैं तथा ‘मनुष्य स्वभाव से ही दुर्बलप्रकृति है’, ऐसा भयंकर विश्वास हममें घर कर लेता है। योगी कहते हैं कि अप्राकृतिक नाम की कोई चीज नहीं है, पर हाँ, प्रकृति में दो प्रकार की अभिव्यक्तियाँ हैं – एक है स्थूल और दूसरी, सूक्ष्म। सूक्ष्म कारण है और स्थूल कार्य है। स्थूल सहज ही इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध किया जा सकता है, पर सूक्ष्म नहीं। राजयोग के अभ्यास से सूक्ष्मतर अनुभूति अर्जित होती रहती है।
भारतवर्ष में जितने वेदमतानुयायी दर्शनशास्त्र हैं, उन सबका एक ही लक्ष्य है, और वह है – पूर्णता प्राप्त करके आत्मा को मुक्त कर लेना। इसका उपाय है योग। ‘योग’ शब्द बहुभावव्यापी है। सांख्य और वेदान्त उभय मत किसी न किसी प्रकार से योग का समर्थन करते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक का विषय है – राजयोग। पातंजलसूत्र राजयोग का शास्त्र है और राजयोग पर सर्वोच्च प्रामाणिक ग्रन्थ है। अन्यान्य दार्शनिकों का किसी किसी दार्शनिक विषय में पतंजलि से मतभेद होने पर भी, वे सभी, निश्चित रूप से, उनकी साधनाप्रणाली का अनुमोदन करते हैं। लेखक ने न्यूयार्क में कुछ छात्रों को इस योग की शिक्षा देने के लिए जो व्याख्यान दिये थे, वे ही इस पुस्तक के प्रथम अंश में निबद्ध हैं। और इसके दूसरे अंश में पतंजलि के सूत्र, उन सूत्रों के अर्थ और उन पर संक्षिप्त टीका भी सन्निविष्ट कर दी गयी है। जहाँ तक सम्भव हो सका, पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग न करने और वार्तालाप को सहज और सरल भाषा में लिखने का यत्न किया गया है। इसके प्रथमांश में साधनार्थियों के लिए कुछ सरल और विशेष उपदेश दिये गये हैं, ‘पर उन सभी को यहाँ विशेष रूप से सावधान कर दिया जाता है कि योग के कुछ साधारण अंगों को छोड़कर, निरापद योगशिक्षा के लिए गुरु का सदा सान्निध्य रहना आवश्यक है।’ वार्तालाप के रूप में प्रदत्त ये सब उपदेश यदि लोगों के हृदय में इस विषय पर और भी अधिक जानने की पिपासा जगा दें, तो फिर गुरु का अभाव न रहेगा।
पातंजल दर्शन सांख्य मत पर स्थापित है। इन दोनों मतों में अन्तर बहुत ही थोड़ा है। इनके दो प्रधान भेद ये हैं – पहला तो, पतंजलि आदिगुरु के रूप में एक सगुण ईश्वर की सत्ता स्वीकार करते हैं, जब कि सांख्य का ईश्वर लगभग पूर्णताप्राप्त एक व्यक्ति मात्र है, जो कुछ समय तक एक सृष्टिकल्प का शासन करता है। और दूसरा, योगीगण आत्मा या पुरुष के समान मन को भी सर्वव्यापी मानते हैं, पर सांख्यमतवाले नहीं।
– ग्रन्थकर्ता