ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥24॥ brahmārpaṇaṃ brahma havirbrahmāgnau brahmaṇā hutambrahmaiva tena gantavyaṃ …
Continue Reading about Bhagavad Gita 4.24 – Brahmarpanam Brahma Havir →
Voice of Vivekananda
posted on
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥24॥ brahmārpaṇaṃ brahma havirbrahmāgnau brahmaṇā hutambrahmaiva tena gantavyaṃ …
Continue Reading about Bhagavad Gita 4.24 – Brahmarpanam Brahma Havir →
posted on
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥8॥ paritrāṇāya sādhūnāṃ vināśāya ca duṣkṛtāmdharmasaṃsthāpanārthāya sambhavāmi yuge yuge paritrāṇāya = for …
Continue Reading about Bhagavad Gita 4.8 – Paritrāṇāya Sādhūnāṃ →
posted on
Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas ।।17.21।। व्याख्या -- यत्तु प्रत्युपकारार्थम् -- राजस दान प्रत्युपकारके लिये दिया जाता है जैसे -- राजस पुरुष किसी विशेष अवसरपर दानकी …
posted on
Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas ।।17.20।। व्याख्या -- इस श्लोकमें दानके दो विभाग हैं --,(1) दातव्यमिति यद्दानं दीयते अनुपकारिणे और (2) देशे काले च पात्रे …
posted on
Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas ।।17.19।। व्याख्या -- मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः -- तामस तपमें मूढ़तापूर्वक आग्रह होनेसे अपनेआपको पीड़ा देकर तप किया जाता …
posted on
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ॥20॥ tyaktvā karmaphalāsaṅgaṃ nityatṛpto nirāśrayaḥkarmaṇyabhipravṛtto’pi naiva kiñcitkaroti …
Continue Reading about Bhagavad Gita 4.20 – Tyaktvā Karmaphalāsaṅgaṃ →
posted on
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥15॥ evaṃ jñātvā kṛtaṃ karma pūrvairapi mumukṣubhiḥkuru karmaiva tasmāttvaṃ pūrvaiḥ pūrvataraṃ …
posted on
Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas ।।17.18।। व्याख्या -- सत्कारमानपूजार्थं तपः क्रियते -- राजस मनुष्य सत्कार? मान और पूजाके लिये ही तप किया करते हैं जैसे -- हम जहाँकहीं …
posted on
Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas ।।17.17।। व्याख्या -- श्रद्धया परया तप्तम् -- शरीर? वाणी और मनके द्वारा जो तप किया जाता है? वह तप ही मनुष्योंका सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य …
posted on
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥23॥ gatasaṅgasya muktasya jñānāvasthitacetasaḥyajñāyācarataḥ karma samagraṃ pravilīyate gatasaṅgasya = of one …
Continue Reading about Bhagavad Gita 4.23 – Gatasaṅgasya Muktasya →
posted on
Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas ।।17.16।। व्याख्या -- मनःप्रसादः -- मनकी प्रसन्नताको मनःप्रसाद कहते हैं। वस्तु? व्यक्ति? देश? काल? परिस्थिति? घटना आदिके संयोगसे पैदा …
posted on
Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas ।।17.15।। व्याख्या -- अनुद्वेगकरं वाक्यम् -- जो वाक्य वर्तमानमें और भविष्यमें कभी किसीमें भी उद्वेग? विक्षेप और हलचल पैदा करनेवाला न …
posted on
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥13॥ cāturvarṇyaṃ mayā sṛṣṭaṃ guṇakarmavibhāgaśaḥtasya kartāramapi māṃ …
Continue Reading about Bhagavad Gita 4.13 – Cāturvarṇyaṃ Mayā →
posted on
Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas ।।17.14।। व्याख्या -- देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम् -- यहाँ देव शब्द मुख्यरूपसे विष्णु? शङ्कर? गणेश? शक्ति और सूर्य -- इन पाँच …
posted on
Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas ।।17.13।। व्याख्या -- विधिहीनम् -- अलगअलग यज्ञोंकी अलगअलग विधियाँ होती हैं और उसके अनुसार यज्ञकुण्ड? स्रुवा आदि पात्र? बैठनेकी दिशा? …