नरहरि सुनार रहनेवाले थे पण्ढरपुरके ही, पर थे शिवजीके भक्त-ऐसे भक्त जो कभी श्रीविठ्ठलजीके दर्शन ही नहीं करते थे। पण्ढरपुरमें रहकर भी कभी इन्होंने पण्ढरीनाथ श्रीपाण्डुरंगके दर्शन नहीं किये। शिवभक्तिका ऐसा विलक्षण गौरव इन्हें प्राप्त था। एक बार ऐसा संयोग हुआ कि एक सज्जनने इन्हें श्रीविठ्ठलके कमरकी करधनी बनानेको सोना ला दिया और कमरका नाप भी बता दिया। इन्होंने करधनी तैयार की, पर वह कमरसे चार अंगुल बड़ी हो गयी। उसे छोटी करनेको कहा गया तो वह कमरसे चार अंगुल छोटी हो गयी। फिर वह बड़ी की गयी तो चार अंगुल बढ़ गयी; फिर छोटी की गयी तो चार अंगुल घट गयी। इस प्रकार चार बार हुआ। लाचार नरहरि सुनारने स्वयं चलकर नाप लेनेका निश्चय किया। पर कहीं श्रीविट्ठल भगवान्के दर्शन न हो जायँ, इसलिये इन्होंने अपनी आँखोंपर पट्टी बाँध ली और हाथ आगे बढ़ाकर जो टटोलने लगे तो उनके हाथोंको पाँच मुख, दस हाथ, सर्पालंकार, मस्तकपर जटा और जटामें गंगा- ऐसी शंकरमूर्तिका स्पर्श हुआ। उन्हें निश्चय हो गया कि ये तो श्रीशंकर ही हैं। इसलिये उन्होंने आँखोंकी पट्टी खोल दी और देखा तो श्रीविठ्ठलके दर्शन हो गये। फिर आँखें बंद करके टटोलने लगे तो फिर उन्हीं पंचवक्त्र चन्द्रशेखर श्रीशंकरका आलिंगन हुआ। आँखें खोलनेपर विट्ठल और आँखें बंद करनेपर शंकर ! तीन बार ऐसा ही हुआ। तब नरहरि सुनारको यह बोध हो गया कि जो शंकर हैं, वे ही विट्ठल (विष्णु) हैं और जो विट्ठल हैं, वे ही शंकर हैं; दोनों एक ही हरि-हर हैं। तब उनकी उपासना, जो एकदेशीय थी, अति उदार, व्यापक हो गयी और वे श्रीविठ्ठलभक्तोंके वारकरी-मण्डलमें सम्मिलित हो गये। सुनारी इनकी वृत्ति थी। इसी वृत्तिमें रहकर ‘स्वकर्मणा’ भगवान्का अर्चन करनेका बोध इन्हें किस प्रकार हुआ, इसका निदर्शक इनका एक अभंग है, जिसमें नरहरि सुनार कहते हैं- ‘भगवन्! मैं आपका सुनार हूँ, आपके नामका व्यवहार करता हूँ। यह देह गलेका हार है, इसका अन्तरात्मा सोना है। त्रिगुणका साँचा बनाकर उसमें ब्रह्मरस भर दिया। विवेकका हथौड़ा लेकर उससे काम-क्रोधको चूर किया और मन-बुद्धिकी कैंचीसे राम-नाम बराबर चुराता रहा। ज्ञानके कॉंटेसे दोनों अक्षरोंको तौला और थैलीमें रखकर थैली कंधेपर उठाये रास्ता पार कर गया। यह नरहरि सुनार, हे हरि ! आपका दास है, रात-दिन आपका ही भजन करता है।’