अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते ।
ततो भूय इव ते तमोय उ विद्यायां रताः ॥ ९ ॥
अन्यदेवाहुर्विद्ययाऽन्यदाहुरविद्यया ।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥ १० ॥
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥ ११ ॥
Commentary:
जो अविद्या की उपासना करते हैं, वे अन्धकार में जाते हैं और जो विद्या की उपासना करते हैं, वे उससे भी अधिक अन्धकार में जाते हैं।
कहते हैं कि ठीक है, तुमने आत्मतत्त्व और आत्मविज्ञानी कैसा होता है, इसकी बात सुनी। आत्मविज्ञानी बनने के लिए, इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए तुम्हें साधना करनी पड़ेगी। साधना क्या है? अविद्या और विद्या, इन दोनों की साधना करनी पड़ेगी। अविद्या और विद्या की साधना किस प्रकार से करनी पड़ेगी? वह यहाँ पर वर्णित होता है। जैसे आप मुण्डक उपनिषद् में पढ़ते हैं। एक महागृहस्थ शौनक ऋषि हैं। वे अंगिरा ऋषि के पास जाते हैं और उनसे प्रश्न पूछते हैं – कस्मिन् नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति इति – भगवन्! आप यह बता दीजिए कि किसको जानने से सब कुछ का जानना हो जाता है। शौनक के मन में जिज्ञासा रही होगी कि यह जीवन अल्प है और ज्ञान का क्षेत्र तो बहुत विस्तृत है। इस जीवन में एक क्षेत्र का पूरा-पूरा ज्ञान ही समेटा नहीं जा सकता है, तो फिर आखिर जानना हो, तो क्या किया जाए? कोई ज्ञान का अर्क है क्या? जिस अर्क को मैं जान लूँ, तो जो कुछ जानने का है, वह ज्ञात हो जाय। ऐसी जिज्ञासा लेकर शौनक जाते हैं और पूछते हैं – भगवन्! कुछ ऐसा है क्या जिसको जान लेने से सब कुछ का जानना हो जाय? यथा एकस्मिन् मृत्पिण्डे विज्ञाते सर्वं मृण्मयं विज्ञातम् स्यात जैसे मिट्टी के एक लोंदे को जान लेने से जो कुछ भी मिट्टी का बना है, वह सब जान लिया जाता है। क्या इसी प्रकार ज्ञान के क्षेत्र में ऐसा कुछ है, जिसको मैं जान लूँ, तो सब कुछ का जानना हो जाए? इसके उत्तर में अंगिरा ऋषि कहते हैं- द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च – दो विद्याओं को जानना पड़ता है शौनक ! एक है परा, दूसरी है अपरा।
ठीक यहाँ पर इन्हीं अर्थों में अविद्या और विद्या की बात कही गयी है। यहाँ पर यह कहते हैं कि जैसे शौनक को अंगिरा ने बताया कि ठीक है, दो विद्याओं परा, अपरा को जानो। यहाँ पर कहते हैं – अविद्या को जानो और विद्या को जानो। पर कैसे जानो? यहाँ बताया गया कि अविद्या क्या है और विद्या क्या है? तो यहाँ पर भाष्यकार भगवान् शंकराचार्यजी अविद्या का अर्थ लेते हैं कर्म। जो विद्या के विपरीत हो, विद्या का विरोधी हो। उस युग में कर्मकाण्ड बहुत प्रचलित था। लोग यज्ञादि कर्म करते थे। उस यज्ञादि कर्म का लक्ष्य केवल स्वर्ग पाना था। इसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं। इसे अविद्या कहा गया है। अविद्या क्या है? केवल कर्म करना, केवल कर्म में लगे रहना, केवल कर्म किये ही जा रहे हैं। हम आहुतियाँ प्रदान करते हैं, तो इस कर्म को अविद्या के नाम से यहाँ पर पुकारा गया है। अविद्या माने कर्म। कर्म की पृष्ठभूमि से मानो हम अज्ञानी बने रहे, वह अविद्या का क्षेत्र है। विद्या का क्षेत्र क्या है? उस समय लोग विद्या में रत रहा करते थे। विद्या में रत रहने से हमें देवलोक मिलेगा, ऐसी उनकी धारणा थी। विद्या का क्या अर्थ है? केवल भाँति-भाँति की उपासना पद्धति, कोरा सिद्धान्त, इसको कहा गया है विद्या !
ठीक है, हम अविद्या में लगे हैं, परन्तु विद्या में किसलिये लगे हैं, इस प्रयोजन को हम भूल जाते हैं। यहाँ पर यह कहा गया कि अन्धं तमः …। माने जो अविद्या में रत हैं, जो अविद्या की उपासना करते हैं, वे गहरे अन्धकार में प्रवेश करते हैं। किन्तु जो विद्या की उपासना करते हैं, वे कहाँ जाते हैं? वे लोग ततो भूय … अर्थात् इनकी अपेक्षा अधिक गहरे अन्धकार में जाते हैं।
जो केवल कर्म में लगे हैं, ठीक है, वे गहरे अन्धकार में गये, वे ऐसे लोक में गये, जहाँ आत्मतत्त्व नहीं है, यह बात समझ में आयी, पर जो लोग विद्या में रत हैं, वे लोग इनकी अपेक्षा कहीं अधिक गहरे अन्धकार में जाते हैं, यह तो उलटी बात लगती है कि ये कैसे गहरे अन्धकार में जाते हैं। यहाँ पर एक-दो उदाहरण देने से बात समझ में आ जाएगी। विद्या और अविद्या अन्धे और लंगड़े जैसी हैं। अविद्या के पास चलने के लिये पैर हैं, उसमें कर्तृत्व है, उसके पास क्रिया है, किन्तु देखने की आँखें नहीं है। विद्या के पास देखने की आँखें है, पर चलने के पैर नहीं हैं। इन दो स्थितियों की आप कल्पना कीजिए।
अविद्या उपासक कर्म कर रहा है, लेकिन लक्ष्य स्पष्ट नहीं है। जो विद्या में लगा है, उसको लक्ष्य पता तो है कि जाना यहाँ है, पर वह जा नहीं सकता है, जाने की सम्भावना उसमें नहीं है। क्योंकि उसके पास आगे बढ़ने की क्रिया नहीं है, उसने क्रिया की, पैर की बिल्कुल उपेक्षा कर दी है। यदि केवल सैद्धान्तिक रूप से जान ले कि यह लक्ष्य है और उधर जाने की चेष्टा ही न करे क्योंकि उसके पास जाने की सामर्थ्य नहीं है और इसलिए वह कहे कि बस मैं केवल लक्ष्य का विचार करता रहूँगा, तो यह तो मानो और भी गहरे अन्धकार में जाना हुआ। वह जो अविद्या में है, जिसके पास आँखें नहीं हैं, वह चल तो रहा है। चलते- चलते सम्भव है एक दिन वह लक्ष्य के पास पहुँच भी जाय। परन्तु यह जो दूसरा व्यक्ति है, जो चलता नहीं है, केवल विचार ही करता रहता है, केवल देखता ही रहता है, वह व्यक्ति मानो और भी गहरे अन्धकार में जाएगा। लक्ष्य को जान करके भी जो लक्ष्य के प्रति निष्ठावान नहीं है, वह व्यक्ति मानो और भी गहरे अन्धकार में जाएगा।
श्रीरामकृष्ण का एक बहुत सटीक उदाहरण है। एक गाँव से एक ग्वालिन दूसरे गाँव में दूध देने के लिए आती थी। दोनों गाँवों के बीच में एक नदी थी। वह प्रतिदिन नदी पार कर एक भागवती पण्डितजी के घर में दूध देने आती थी। बरसात के दिन आये तो स्वाभाविक है, ग्वालिन को दूध लाने में देर हो जाए। जब उसको नौका मिलती, तो जल्दी आ जाती और जब नौका नहीं मिलती, तो विलम्ब हो जाता। एक दिन पण्डितजी ने कहा, “तुम देर से दूध देती हो और सुबह-सुबह दूध की आवश्यकता पड़ती है।” ग्वालिन ने कहा, “महाराज! आप तो जानते हैं कि मुझे नदी के तट पर नौका के लिए रुकना पड़ता है।” “मैं ये सब कुछ नहीं जानता! देखो, अगर समय पर तुम दूध न दे सको, तो तुमसे दूध लेना हमें बन्द करना पड़ेगा। हम दूसरी जगह से दूध ले लेंगे।” कुछ दिन बीते। एक दिन ग्वालिन दूध लेकर आयी थी। पण्डितजी भागवत की कोई कथा कह रहे थे। पण्डितजी ने कथा प्रसंग में कहा कि भगवान् के नाम में बड़ी शक्ति है। इतनी शक्ति है कि भगवान् का नाम लेकर के मनुष्य भवसागर को पार कर लेता है। यह कथा ग्वालिन सुन रही थी। उसे प्रसंग बहुत अच्छा लगा। जब प्रसंग समाप्त हो गया, तो ग्वालिन ने पण्डितजी को प्रणाम करके पूछा, “अच्छा पण्डितजी ! आप आज जो कथा कह रहे थे, क्या उसमें का वह प्रसंग सत्य है?”
“कौन-सा?”
“आप कह रहे थे न कि भगवान् के नाम में इतनी शक्ति है कि मनुष्य भगवान् का नाम लेकर भवसागर पार हो जाता है।” पण्डितजी ने कहा, “हाँ! हाँ शास्त्र की बात है! मैं क्या अपनी बात कह रहा था? बिल्कुल सही है, भगवान् का नाम लेने से मनुष्य भवसागर पार हो जाता है।”
ग्वालिन ने कहा, “तो महाराज ! एक प्रश्न पूछें?” “तू और क्या प्रश्न पूछेगी? प्रश्न तो दूसरे लोग पूछते हैं, जो शिक्षित, ज्ञानी, पण्डित हैं, तुझे भला यह प्रश्न कहाँ से आ गया?”
“नहीं, बहुत छोटा-सा प्रश्न है! आपने कहा भवसागर पार कर लेता है। यह भवसागर क्या चीज है?”
पण्डितजी जोर से हँसे, “मूर्ख कहीं की, अब तुझे क्या समझाऊँ कि यह भवसागर क्या है? अच्छा देख, यह गाँव की नदी है न! कितना कठिन है उसको पार करना!”
“अरे बहुत कठिन है महाराज ! उस दिन तो पानी चढ़ गया था नदी में और वो रामू केवट है न, इतना बढ़िया तैराक, परन्तु उस दिन तो वह भी बिल्कुल नदी में बह गया था। किसी प्रकार उसके प्राण बचे। पार करना कठिन है।”.
“हाँ!” पण्डितजी ने कहा, “देख एक नदी को पार करना कितना कठिन है। ऐसी बहुत-सी नदियाँ मिल जायें, तो एक सागर बनता है।” ग्वालिन ने कहा, “सागर, सागर को पार करना कितना कठिन है!”
ग्वालिन ने अपने ढंग से हिसाब लगाया। “एक नदी को पार करना इतना कठिन है, यदि इतनी सारी नदियाँ मिलकर सागर बने, तो वैसे सागर को पार करना असम्भव है महाराज!”
पण्डितजी ने कहा, “बहुत कठिन है, है न! भवसागर पार करना इससे भी कठिन है।” अब वे भवसागर की कुछ दार्शनिक चर्चा करने लगे। ग्वालिन के मत्थे कुछ पड़ा नहीं।
ग्वालिन ने कहा, “महाराज! बस ! बस ! हो गया। मैं यही जानना चाहती थी कि जिस भवसागर की बात आप कह रहे थे, वह हमारे गाँव की नदी से बड़ा है या छोटा है?”
पण्डितजी खूब हँसे, “आखिर गँवार ही ठहरी ! अरे कहाँ तेरे गाँव की नदी और कहाँ भवसागर!”
“ठीक है महाराज! अच्छा यह बता दीजिए, जब भगवान् का नाम लेकर मनुष्य भवसागर को पार कर लेता है, तो भगवान् के नाम से गाँव की नदी को पार नहीं कर सकता?”
पण्डितजी ने सोचा, मूर्ख है, गँवार है। उन्होंने कहा, “अरे क्यों नहीं हो सकता? जरूर हो सकता है। भगवान् का नाम लेकर नदी को क्यों नहीं पार किया जा सकता?
“ठीक है महाराज!” वह प्रणाम करके चली गयी। दूसरे दिन से पण्डितजी को ठीक समय से दूध मिल रहा है। एक दिन पण्डितजी ने कहा, “क्यों री! आजकल तूने अपने लिए नाव खरीद ली क्या? पैसा बहुत हो गया है दिखता है!” “क्यों महाराज!”
“समय पर आकर दूध दे जाती है। आजकल भी तो बरसात है, नदी चढ़ी हुई है।” “अरे महाराज ! नाव तो आपने मुझे दे दी उस दिन !”
“क्या कहना चाहती है?”
“आपने ही कहा न कि भगवान् का नाम लेने से नदी को पार कर लिया जा सकता है। जब भवसागर को आदमी पार कर लेता है, तो नदी को पार करना कौन-सा कठिन है? मैंने भगवान् का नाम लिया और नदी पार हो गई।”
पण्डितजी को विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने कहा, “तू क्या कह रही है?” “हाँ! ठीक ही कह रही हूँ। भगवान् का नाम लेती हूँ और पानी पर चलकर नदी को पार कर लेती हूँ।”
पण्डितजी ने कहा, “असम्भव है! क्या तू ऐसा करती है?”
“हाँ महाराज! आपने ही तो कहा था। आज मैं लौटूंगी, तो आप मेरे साथ चलिए, देख लीजिए कि कहीं मैं कुछ गलती तो नहीं कर रही हूँ या नाम लेने में कहीं पर किसी प्रकार की भूल तो नहीं हो रही है।” पण्डितजी ने कहा, “हाँ! जरूर चलूँगा।” पण्डितजी साथ में आये। नदी ऊफनी हुई थी। ग्वालिन न तो कपड़े उठाती है, न समेटती है, बस भगवान् का नाम लेकर के नदी पर यूँ चलती है, जैसे हम जमीन पर चलते हैं। अब पण्डितजी इधर-उधर करने लगे। ग्वालिन ने कहा, “महाराज! आओ न! देखो तो, मैं ठीक नाम ले रही हूँ न!”
अब पण्डितजी को लगा कि क्या करें? यह ग्वालिन, यह गँवार भगवान् का नाम लेकर के इस प्रकार जा रही है और मैं तो इतना पण्डित हूँ, विद्वान हूँ, तो क्या मैं भगवान् का नाम लेकर के पानी पर नहीं चल सकता? उन्होंने भगवान् का नाम लिया, नदी में उतरे और धम से कमर इतने पानी में गिर पड़े। अब ग्वालिन को लगा, अरे, पण्डितजी क्या कर रहे हैं? “महाराज खेल मत करो। देखो, ऐसा नहीं है! उस दिन तो मैंने कहा था, रामू बह गया था। आप ऐसे नहीं हैं, जैसे आ रही हूँ, वैसे आइये न!”
अब ग्वालिन ने सोचा कि पण्डितजी खेल कर रहे हैं। वे क्यों डूबेंगे? पण्डितजी ने साहस किया। भगवान् का नाम जितना भी उन्हें मालूम था लिया। जितने श्लोक उन्हें याद थे, सब पढ़ने लगे। एक कदम आगे बढ़े और छाती तक पानी में गये और पानी में बह गये। पुकार मच गयी – अरे पण्डितजी डूब रहे हैं, डूब रहे हैं, दौड़ो, दौड़ो। नौका वाले आये, पण्डितजी पानी पीकर मूच्छित हो गये। उन्हें घर ले जाया गया, पेट का पानी निकाला गया। अब ग्वालिन तो हक्का-बक्का खड़ी रही। जब पण्डितजी कुछ स्वस्थ हुए, तो ग्वालिन ने जाकर पूछा, “महाराज! आपने दवा दी, दवा का काम मुझ पर तो हुआ, किन्तु आप पर दवा नहीं लगी। क्या बात है?” श्रीरामकृष्ण कहते हैं कि ग्वालिन अज्ञानी है, लेकिन उसको विश्वास है। पण्डितजी विद्या में रत हैं, कोरा सिद्धान्त जानते हैं, विश्वास नहीं है। ग्वालिन क्या है? वह अविद्यावाली है, पर उसे विश्वास है। ग्वालिन के पास विश्वास के बल पर पार करने की क्षमता है। इसलिये कहा कि अविद्या की उपासना करनेवाले से अधिक विद्या की उपासना करनेवाला घोर अन्धकार में जाता है, क्योंकि उसे विश्वास नहीं है, केवल कोरा सिद्धान्त है ।
अब इस दृष्टान्त की यहाँ समीक्षा करें। क्यों पण्डितजी अपने ज्ञान, विद्वत्ता के बावजूद नदी को नहीं पार कर पा रहे हैं, वे नदी में डूबने लगते हैं? क्योंकि उनको विश्वास नहीं है। उनमें विद्या का अहंकार है। विद्या का जो तत्त्व है, उससे वे संयुक्त नहीं हैं। इसलिये वास्तविक जीवन में विद्या का उन पर प्रभाव नहीं पड़ रहा है। अविद्या और विद्या के उपासकों में यह अन्तर है।
विद्या और अविद्या का क्या फल होता है, इसके सम्बन्ध में गुरु शिष्य से अगले श्लोक में कहते हैं –
Verse 10 Commentary:
गुरु शिष्य से कहते हैं कि विद्या का फल अलग और अविद्या का फल अलग बताया गया है, यह बात हमने उन धीर पुरुषों से सुनी है, जिन्होंने हमारे प्रति उपदेश किया।
यहाँ मालूम पड़ता है कि गुरु और शिष्य में वार्तालाप हो रहा है। नहीं तो जब पहले मन्त्र से शुरू किया, तो पता नहीं चल रहा था कि किसके प्रति कहा गया है। यहाँ अब दसवें मन्त्र में आकर पता चला कि गुरुजी शिष्य को बता रहे हैं कि देखो भाई! मैं जो तुमको बता रहा हूँ, यह मेरी अपनी बात नहीं है। मैंने अपने गुरुजनों से, महापुरुषों से यही सुना है और जो सुना है, वही तुमको मैं बता रहा हूँ। यहाँ पर गुरु और शिष्य दोनों की उपस्थिति का भान होता है।
अब विद्या और अविद्या के फल को कहते हैं –
Verse 11 Commentary:
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥ ११ ॥
जो विद्या और अविद्या दोनों को एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमरत्व को पार कर लेता है।
जो विद्या और अविद्या को एक साथ जानता है, माने विद्या और अविद्या, इन दोनों को आत्मतत्त्व के साथ जानता है। उसके लिए क्या होता है? अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा – वह अविद्या के द्वारा मृत्यु को पार करता है और विद्यया अमृतं अश्नुते – विद्या के द्वारा अमृतत्व की उपलब्धि करता है। यह इसका शब्दार्थ हुआ।
नौवें मन्त्र में कहा गया कि जो अविद्या की उपासना करते हैं, वे गहरे अन्धकार में जाते हैं और जो विद्या में रत हैं, वे मानो और भी अधिक गहरे अन्धकार में जाते हैं। दसवें मन्त्र में ‘विद्या और अविद्या का फल अलग-अलग कहा गया है, ऐसा हमने उन धीर पुरुषों से सुना है, जिन्होंने हमारे प्रति आत्मतत्त्व का उपदेश किया।’ ग्यारहवें मन्त्र में कहते हैं कि जो उस आत्मतत्त्व को विद्या और अविद्या इन दोनों के साथ- जानता है, वह अविद्या के द्वारा मृत्यु को पार करता है और विद्या के सहारे उस अमृतत्व की उपलब्धि करता है। यह तीनों मन्त्रों का शब्दार्थ है। अब हम इसके निहितार्थ को समझने की चेष्टा करें। अविद्या यानी कर्म। विद्या माने कोरा ज्ञान, कोरा सिद्धान्त जो जीवन में उतरा हुआ नहीं है। उसे हम केवल पाण्डित्य के लिए जो पढ़ते हैं। अविद्या में कर्म के भीतर में क्षमता है। क्या क्षमता है? कर्म बन्धन को काटने की क्षमता है। यह क्षमता कर्म में कब आती है? जब कर्म आत्मा के साथ संयुक्त होता है, तो कर्म करते हुए हम कर्म-बन्धन को काट सकते हैं। यदि कर्म के साथ आत्मा संयुक्त न हो, कर्म के साथ यदि ईश्वर संयुक्त न हो, तो उस कर्म से फिर कर्म-बन्धन कटता नहीं है, कर्म बन्धन और भी हम पर लगता जाता है, परन्तु कर्म में कर्म-बन्धन को काटने की क्षमता है। उसी प्रकार यह जो विद्या है, उस विद्या के भीतर अमरत्व देने की क्षमता है। विद्या में अमरत्व है, उससे मनुष्य अमर हो जाता है, यानि वह मृत्यु को जीत लेता है। कैसे जीत लेता है? आपको दो उदाहरण देता हूँ।
आप एक महाभारत के परीक्षित को देखिए और दूसरे भागवत के परीक्षित को देखिए। महाभारत के जो परीक्षित हैं, वे शापग्रस्त हैं और उनसे कहा गया है कि तुम सातवें दिन साँप के काटने से मरोगे। तब महाभारत के परीक्षित क्या करते हैं? अपने भवन को बहुत ऊँचा बनाते हैं और सब ओर से इस प्रकार की व्यवस्था करते हैं कि एक कीड़ा भी उनके भवन में कहीं से घुस न पाये। परन्तु क्या साँप घुसा नहीं? वह साँप घुसता है और सातवें दिन साँप के हँसने के कारण वे मृत्यु को प्राप्त होते हैं। भागवत के परीक्षित क्या करते हैं? भागवत के परीक्षित भी साँप द्वारा हँसे जाने के कारण सातवें दिन मृत्यु को प्राप्त होते हैं, पर महाभारत के परीक्षित ने अपने को बचाने की बहुत चेष्टा की, एक कीड़ा भी न घुसे, ऐसी व्यवस्था उन्होंने अपने भवन में की और भागवत के परीक्षित खुले में बैठे हैं, भगवन्नाम सुन रहे हैं। शुकदेवजी भागवत सुना रहे हैं और भागवत सुनने के फलस्वरूप उनके जीवन में जो ज्ञान आया, उन्होंने मृत्यु को जीत लिया। मौत तो होती ही है, शरीर तो मरता ही है, पर वे उस भागवत के ज्ञान के बल पर मृत्युभय को जीत लेते हैं। सातवें दिन साँप आकर हँस लेता है, पर परीक्षित को भय नहीं सताता है। महाभारत के परीक्षित भय के द्वारा सताये जा रहे हैं, पर भागवत के परीक्षित भय के द्वारा सताये नहीं जाते, उन्होंने मृत्युभय को जीत लिया, माने उन्होंने अमरता प्राप्त कर ली। ज्ञान के भीतर में, विद्या के भीतर में अमरता देने की क्षमता है। परन्तु वह क्षमता कब प्रगट होती है? जब वह विद्या आत्मतत्त्व के साथ जुड़ी हो तब। यदि विद्या से आत्मतत्त्व को निकाल दें, तो फिर विद्या क्या हैं? कहते हैं
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यान-कौशलम्।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद् भुक्तये न तु मुक्तये ।।
अगर आत्मतत्त्व विद्या में न हो, तो विद्या भोग की चीज हो गयी। यदि विद्या का लक्ष्य ईश्वर न हो, तब तो यह विद्या बाँधनेवाली विद्या ही है, संसार-अन्धकार में ले जानेवाली विद्या ही है। यह केवल भोग की ही विद्या है। जैसे अपनी रसना तृप्ति के लिए रसगुल्ले का भोग करते हैं, वैसे ही हम नाम-यश की स्पृहा की तृप्ति के लिए विद्या का उपभोग करते हैं। अविद्या यानि कर्म में कर्म बन्धन को काटने की क्षमता है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से गीता में यही कहते हैं अरे कर्म के द्वारा ही, तुम अपने बन्धन को काटने में समर्थ होगे –
स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर: |
स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु || BG 18.45
यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् |
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव: || BG 18.46
अर्जुन! अपने-अपने कर्म में लगे रहकर मनुष्य संसिद्धि को पा लेता है, कर्म बन्धन को काट लेता है। कैसे कर्म बन्धन में लगे रहकर के कर्म बन्धन को काट लेता है? यह उपाय तू मुझसे सुन। जहाँ से सारा संसार निकला है, विश्व निकला है और जिस विश्व में आकर ईश्वर समाहित हो गया है, उस ईश्वर की पूजा-आराधना, अभ्यर्चना करते हुए मनुष्य सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।
कैसे अभ्यर्चना करें? उन्होंने कहा – स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य – अपने कर्मों के द्वारा उस तत्त्व की पूजा करें। मानो कर्म ईश्वर के साथ युक्त होकर के रह सकता है। इस प्रकार अविद्या, कर्म के भीतर में कर्मबन्धन को काटने की क्षमता है, किन्तु कब ? जब हम कर्म को आत्मा से जोड़ें, तब।
जब कर्म के साथ हम आत्मतत्त्व का योग करते हैं, कर्म के साथ ईश्वर का योग करते हैं, तो वह कर्म कर्मयोग बन जाता है। जो अविद्या ईश्वर के साथ जुड़ जाती है, वह हमें मृत्यु से पार करा देती है। उसमें क्षमता है मृत्यु से पार कराने की और विद्या में क्षमता है हमें अमरता प्रदान करने की। विद्या के ईश्वर से जुड़ने पर उसकी अमरत्व क्षमता प्रकट हो जाती है। मृत्यु से पार करना जैसे नदी पार करना नहीं है कि हम नदी के उस पार चले गये, मानो अमरत्व को पार हो गये। यह आनन्द की वह स्थिति है, जिसमें किसी प्रकार का क्षरण नहीं है, वह ब्रह्मानन्द की स्थिति है। वही अमरता है, जहाँ पर हमें किसी प्रकार का भय नहीं सताता है। ये दोनों स्थितियाँ थोड़ी बारीकी से सोचकर के अलग-अलग करके देखिए। ये दो स्थितियाँ हैं।
दूसरा उदाहरण श्रीरामकृष्णदेव का है। एक मांझी एक पण्डितजी को नदी पार करा रहा है। पण्डितजी अकेले बैठे हैं। अब जो विद्या चंचु वाले होते हैं, वे कहीं-न-कहीं बुद्धि का विलास चाहते हैं। इतनी देर तक नदी पार करेंगे, समय लगेगा, तो उन्होंने बोलना शुरू किया। अच्छा, बोलो जी मांझी, तुमने कुछ अलंकार शास्त्र पढ़ा है क्या? अरे कहाँ महाराज! हमको क्या मालूम अलंकार शास्त्र क्या है? अरे तब तो तुम्हारा एक चौथाई जीवन बेकार चला गया! मांझी तो नदी पार करना चाहता है, वह अपना पतवार चला रहा है। थोड़ी देर बाद पण्डितजी ने फिर पूछा – अच्छा ठीक है, तुमने अलंकार शास्त्र नहीं पढ़ा, किन्तु कम-से-कम तुमने साहित्य तो पढ़ा है न? साहित्य ! ये साहित्य क्या बला है महाराज? मैं जब से जन्मा हूँ, तब से इस नाव-पतवार को लेकर ही रहता हूँ। अरे! तब तो तुम्हारी दो चौथाई जिन्दगी बेकार चली गयी। आधा जीवन तो यूँ ही बेकार चला गया। पण्डितजी अब कितनी देर तक चुप बैठे रहें, उन्होंने फिर पूछा अच्छा, ठीक है, तुमने ये सब नहीं पढ़ा! इतिहास तो तुमने पढ़ा ही होगा। इतिहास किस पक्षी का नाम है महाराज ? मुझे तो कुछ मालूम नहीं। अरे! अब तो तुम्हारी तीन चौथाई जिन्दगी बेकार चली गयी। इतने में काली-काली घटाएँ आयीं, जोरों से हवा चलने लगी। नाव डगमगाने लगी। मांझी ने पूछा – अच्छा पण्डितजी तैरना जानते हैं क्या? पण्डित जी बोले नहीं। मांझी ने कहा – तब तो आपकी पूरी जिन्दगी बेकार चली गयी। उसके बाद वह नदी में कूदकर तैरने लगा। श्रीरामकृष्ण कहते हैं – बाबा! पूरी जिन्दगी बेकार मत करो।
यह है विद्या में रत लोगों की दशा। विद्या में रत हैं, किन्तु जब तैरने की बात आयेगी, वे नहीं जानते हैं। बाकी सब कुछ जानते हो, तो तैरना भी सीखो। कर्म से मनुष्य का कर्म-बन्धन कटता है। केवल विद्या के ज्ञान से कभी कर्म बन्धन नहीं कटता है। ज्ञान से विवेक होता है, वैराग्य होता है। कर्म-बन्धन कर्म के सहारे ही कटता है, किन्तु कब? जब हम कर्म को ईश्वर से संयुक्त कर देते हैं तब। यहाँ पर अविद्या और विद्या के माध्यम से व्यक्तिगत साधना की बात कही गयी।
अब इसके बाद जो दूसरा त्रिक् है, उसका अर्थ अब हमारे लिए सरल हो जाएगा। क्या कहते हैं आगे?