स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरंशुद्धम् अपापविद्धम् ।
कविर्मनीषी परिभूः स्ययम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥ ८ ॥
Commentary:
यहाँ पर भिन्न-भिन्न प्रकार के विशेषण लगाये गये हैं। माने जिसने आत्मतत्त्व को जान लिया, आत्मज्ञानी बन गया, वह इस प्रकार के गुणवाला हो जाता है। ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही बन जाता है। यह जो श्रुतिवाक्य है, उसी श्रुतिवाक्य के अर्थ को ध्वनित करने वाला यह मन्त्र है स पर्यगात् इति।
कल हमने ज्ञानी और विज्ञानी का अर्थ-भेद स्पष्ट किया था। शंकराचार्यजी कहते हैं – स्वानुभव संयुक्त, जो ज्ञान है, वह विज्ञान है। हम गुरु के मुख से सुनते हैं, वह ज्ञान है। शास्त्रों में पढ़कर जो ज्ञान हम प्राप्त करते हैं, वह ज्ञान है। किन्तु जब हम अपनी अनुभूति से उसे संयुक्त कर देते हैं, तो वही विज्ञान बन जाता है, विशेष ज्ञान हो जाता है। यहाँ पर जो विज्ञानी हो गया, उस विज्ञानी के स्वरूप का वर्णन इस आठवें मन्त्र में है। वह कैसा हो जाता है? स माने वह, पर्यगात् – परि माने सब ओर गया हुआ, माने सर्वव्यापी होना। जो आत्मविज्ञानी है, वह मानो सर्वव्यापी बन जाता है।
श्रीरामकृष्णदेव के जीवन की घटनाओं को देखने से यह बात बहुत अच्छी तरह से समझ में आ जाती है। जो विशेषण यहाँ पर लगाये गये हैं, श्रीरामकृष्णदेव के जीवन के आलोक में इन विशेषणों को समझने में सुविधा होती है। हम उनके जीवन में पढ़ते हैं। एकबार वे अपने कमरे से बाहर गंगा की ओर जो अर्धगोलाकार बरामदा है, उस ओर निकले। वे एकटक गंगा की ओर देख रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि दो माँझियों में लड़ाई हो रही है। एक माँझी ने दूसरे की पीठ पर जोरों से तमाचा मारा और श्रीरामकृष्ण कराह उठे। उन्हें ऐसा लगा कि तमाचा उनकी पीठ पर पड़ा है। वे भाव में थे। उनका कराहना सुनकर उनका भाँजा हृदयराम, जो उनकी सेवा करता था, दौड़ा हुआ आया और पूछा- क्या हुआ मामा आपको? आप क्यों इस प्रकार से कराह उठे? श्रीरामकृष्ण तो भावावस्था में थे। उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। अचानक हृदयराम की दृष्टि मामा की पीठ पर पड़ी और वहाँ पर उँगलियों के निशान जैसे कुछ दिखा, मानो किसी ने श्रीरामकृष्ण को ही तमाचा मार दिया हो। आग-बबूला हो गया हृदयराम। उसने कहा मामा! आप उस दुष्ट का नाम बता दीजिये, जिसने यह अपराध किया है। आज उसका सिर धड़ से अलग होकर ही रहेगा। मामा फिर भी कुछ बोल नहीं पा रहे हैं। जब भावावस्था से उनका मन नीचे आया, तो उन्होंने कहा कि नहीं रे बुद्ध ! किसी ने मुझे मारा नहीं है! दो माँझियों में लड़ाई हो रही थी। एक ने दूसरे को पीटा, मुझे ऐसा लगा कि वह मार मुझे ही लगी।
यह बड़ी विलक्षण बात है! यदि स्वामी विवेकानन्द जैसे तार्किक लोग नं होते, श्रीरामकृष्ण यदि सत्यवादी न होते, यदि इसका प्रमाण न मिलता, तो श्रीरामकृष्ण के जीवन में सत्य के प्रति जो आकर्षण था, सत्य के प्रति जो निष्ठा थी, उसे हम जान नहीं पाते और हम इस घटना को भी कहते कि शायद कपोल कल्पित है। क्या कोई मनुष्य यहाँ तक व्यापक बन सकता है? किन्तु आत्मविज्ञानी इतना सर्वव्यापी बन सकता है, यह श्रीरामकृष्ण के जीवन से प्रमाणित होता है।
एक दिन की घटना है। सुन्दर लॉन पर कोई व्यक्ति बूट पहने हुए टहल रहा था। श्रीरामकृष्ण का मन वैसे ही व्यापक हो गया। उनकी छाती लाल हो गयी। उन्हें ऐसा लगने लगा कि कोई उन्हीं की छाती को रौंदते हुए चल रहा है। इतने वे तादात्म्य हो जाते थे। उनकी तादात्म्यता आब्रह्मस्तम्भपर्यन्त थी, ऐसा कहा गया। स्तम्भ माने घास और आब्रह्म अर्थात् ब्रह्मातत्त्व। तृण से लेकर के ब्रह्मा तक जिसको ब्रह्म बोध होता हो, वही अवस्था श्रीरामकृष्ण की हो गयी थी।
इस मन्त्र में कहा गया – स पर्यगात् शुक्रम् अर्थात् वह चैतन्य स्वरूप होता है। अकायम् – वह अशरीरी होता है। अशरीरी का क्या अर्थ है? उसका यह जो लिंग शरीर है, उससे वह परे है। अकायम् से लिंग शरीर, सूक्ष्म शरीर का निषेध किया गया। उस आत्मा को अव्रणम्, अस्नाविरम् कहा गया। व्रण किसमें होता है? व्रण भौतिक शरीर में, स्थूल शरीर में होता है। स्नाविरम् माने शिरायें। शिरायें किसमें होती हैं? शिरायें स्थूल शरीर में होती हैं। वह आत्मतत्त्व अक्षत है, उसमें शिरायें नहीं हैं। यहाँ अव्रणम्, अस्नाविरम् कहकर स्थूल शरीर का निषेध किया। वह आत्मा स्थूल शरीर से ऊपर है। शुद्धम्, वह निर्मल है। शुद्धम् कहकर कारण शरीर का निषेध किया गया। कारण शरीर मूल शरीर कहलाता है। तीन शरीर हैं – स्थूल शरीर, उसके भीतर में सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। उन तीनों शरीरों का निषेध किया गया। यानि वह आत्मा तीनों शरीरों से परे है। माने उसने तीनों शरीरों का छेदन कर लिया या पंचकोशों का भेदन कर लिया। यह वेदान्त की भाषा है। हम वेदान्त में पंचकोश भेदन सुनते हैं। उसको त्रिशरीर छेदन भी कहा जाता है। पंचकोश identically equal to तीन शरीर। अन्नमय कोश identically equal to स्थूल शरीर। सूक्ष्म शरीर के अन्तर्गत तीन कोश आते हैं प्राणमय कोश, मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश। कारण शरीर के अन्तर्गत आनन्दयम कोश आता है। चाहे आप पंचकोश-भेदन कहिए, चाहे त्रिशरीर-छेदन कहिए, यह वेदान्त की भाषा है। जो आत्मविद् हो गया है, आत्मविज्ञानी हो गया है, वह इन तीनों शरीरों को पार करके शरीर-बोध से ऊपर स्थित रहता है। अपापविद्धम्, पापविद्धम कौन होता है? जिसमें द्वैत की भावना होती है। जहाँ पर भी द्वैत है, वहाँ पर पाप है। शंकराचार्य तो बड़े कठोर और कट्टर अद्वैतवादी वेदान्ती थे। वे कहते हैं कि द्वैतबुद्धि ही पापबुद्धि है। जो विज्ञानी हो गया है, वह इस पाप से भी परे चला जाता है। उसको पाप छू नहीं पाता, क्योंकि उसने द्वैतभाव को त्याग दिया है। वह द्वैतभाव से परे चला गया है। कविर्मनीषी, वह कवि हो जाता है। कवि क्रान्तद्रष्टा को कहते हैं। कवि माने जिसने अतीत को देख लिया है। जो अतीत को देख सकता है, वर्तमान को देख ही रहा है, इसलिए वह भविष्य को भी देखने में समर्थ होता है। यदि मैं अपने अतीत को भी देखने में समर्थ हो जाऊँ, वर्तमान मेरे सामने है ही, तो मैं अपने भविष्य को भी देखने में समर्थ हो सकता हूँ। इसलिए तीनों कालों के द्रष्टा को क्रान्तद्रष्टा कहते हैं। मानो वह त्रिकालज्ञ हो जाता है। शास्त्रीय दृष्टि से यह कवि शब्द का अर्थ है। वह आत्मविज्ञानी कवि हो गया, मानो त्रिकालदर्शी हो गया। मनीषी का अर्थ है, जो मन पर शासन करने में समर्थ है। मनसः इष्टे मनीषी जो मन पर शासन कर सकता है, वह मनीषी है, वह अपने मन का राजा होता है। परिभूः – वह सब ओर व्याप्त है। स्वयंभूः – स्वतन्त्र। वह आत्मा व्यापक है, सबके भीतर में स्थित है, परन्तु स्वतन्त्र है। यह जो ज्ञानी है, विज्ञानी है, वह अपने को सबके भीतर में व्याप्त अनुभव करता है, पर किसी के दोष से अपने को दूषित अनुभव नहीं करता है। उसके अतिरिक्त वह कैसा है? याथातथ्यतो अर्थान् इति। यह जो ब्रह्मतत्त्व है, आत्मतत्त्व है, उसने सम्वत्सरों को, वर्षों को अपना-अपना काम नियत करके चिरकाल के लिए बाँट दिया है। ब्रह्मतत्त्व के कारण ही ये सब संचालित होते रहते हैं। जैसे हमने पहले दिन कहा था – भयात् तस्य अग्निस्तपति भयात् तपति सूर्यः – उस ब्रह्मतत्त्व के कारण ही अग्नि और सूर्य तपते हैं।
ब्रह्मज्ञानी पुरुष इतना शक्तिशाली हो जाता है कि वह ये सब करने में भी समर्थ हो जाता है, उसमें ये सारी शक्तियाँ आ जाती हैं। कहा जाता है कि ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति – जो ब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्म के ही समान हो जाता है या ब्रह्म ही बन जाता है। जो ब्रह्मविद् है, ब्रह्मज्ञानी है, वह ब्रह्म ही हो जाता है, तो इसका क्या अर्थ हुआ? अर्थात् ब्रह्म की सारी शक्ति उसमें आ जाती है, ब्रह्म की जितनी शक्ति है, वह उस ब्रह्मज्ञ पुरुष को प्राप्त हो जाती है। अब एक प्रश्न उठता है कि क्या वह इस संसार की सृष्टि करने में, उसका लय करने में और उसका पालन करने में समर्थ हो सकता है? ऐसे कुछ प्रश्न वेदान्त के क्षेत्र में उठाये गये हैं और इन प्रश्नों पर बड़ी मीमांसा की गयी है, बड़ी चर्चा की गयी है। उस प्रश्न में हम नहीं जाना चाहते, वह एक अवान्तर प्रश्न होगा । इससे सम्बन्धित नहीं है, वह समय सापेक्ष है। किन्तु वहाँ इतना ही संकेत के रूप में कहा गया है कि यदि ब्रह्मज्ञ के भीतर इस प्रकार की इच्छा उठे, तो वह करने में समर्थ है, पर वैसी इच्छा उसमें इसलिए नहीं उठती कि उसने अपनी इच्छा नामक कोई चीज नहीं रखी है, उसने उस ब्रह्म की इच्छा में, उस ईश्वर की इच्छा में अपनी इच्छा को सर्वतोभावेन समर्पित कर दिया है, इसलिए उस ब्रह्मज्ञ की स्वतन्त्र इच्छा का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। इस प्रकार का उत्तर दिया गया है।
इसके बाद छः मन्त्र हैं। तीन-तीन मन्त्रों का त्रित्व है। ऐसे दो त्रित्व यहाँ पर हैं। नौ, दस, ग्यारह इनमें अविद्या और विद्या की चर्चा है। बारह, तेरह, चौदह इनमें असम्भूति और सम्भूति की चर्चा है। यह बात यहाँ पर कैसे लाकर रखी गयी? इसको समझने की थोड़ी-सी हम चेष्टा करें, तो ऐसा लगता है कि उपनिषद् का जो मर्म है, उस मर्म को हम कुछ हद तक समझ सकते हैं। जैसे हमने कहा- पहले मन्त्र में सिद्धान्त का प्रतिपादन, दूसरे मन्त्र में उसका व्यवहार, तीसरे मन्त्र में बताया कि यदि तुम ऐसा नहीं करोगे, तो तुम आत्मतत्त्व का हनन करने वाले बनोगे। चौथे और पाँचवे मन्त्रों में आत्मतत्त्व कैसा है, उसका स्वरूप बताया। छठें मन्त्र में कहा गया कि जो आत्मतत्त्व को जानना चाहता है, वह साधना किस प्रकार से करे? कैसे उस साधक की समदर्शी दृष्टि हो जाती है। सातवें मन्त्र में वर्णन किया गया कि जब वह सिद्ध हो गया, ब्रह्मज्ञानी बन गया, विज्ञानी बन गया, तो कैसा हो जाता है? आठवें मन्त्र में आत्मा कैसी है, इसका निरूपण किया गया। ठीक है, वह ब्रह्मज्ञानी हो गया। सिद्धान्त की दृष्टि से देखें, तो हमको ऐसा लगेगा। व्यवहार में इस सिद्धान्त का प्रयोग कहाँ तक किया जा सकता है? इसलिये किस प्रकार से इस ऊँचे सिद्धान्त का प्रयोग अपने जीवन में करना चाहिए, यहाँ दो त्रित्वों में बताते हैं। पहले त्रित्व में अविद्या और विद्या की बात कहते हैं। नौवें मन्त्र में कहते हैं कि इस स्थिति को पाने के लिए क्या उपाय है?