यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥ ६ ॥
यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः ।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥ ७ ॥
Commentary:
यह है साधना का क्रम ! चौथे और पाँचवें में आत्मतत्त्व के स्वरूप के सम्बन्ध का उद्घाटन है और छठवें में साधना की बात है। इसका अर्थ यह है, जो व्यक्ति, सर्वाणि भूतानि सब भूतों को, आत्मनि एव – आत्मा में ही, अनुपश्यति – हमेशा देखता है। एक प्रातीभ दर्शन होता है और एक कहते हैं अनु दर्शन। प्रातीभ दर्शन माने जैसे एक झलक मिल गयी। जैसे बिजली चमकती है, तो हमको बिजली की एक झलक मिलती है, उसको कहते हैं प्रातीभ दर्शन। अनु दर्शन कहते हैं, जहाँ पर हरदम दर्शन होता रहे। यहाँ पर कहा गया अनुपश्यति अर्थात् हरदम देखता है। कैसे देखता है? जो व्यक्ति सभी भूतों को हरदम आत्मा में ही देखता है और सब भूतों में आत्मा को देखता है। ऐसा देखने के फलस्वरूप ततो न विजुगुप्सते – विजुगुप्सा माने मानसिक ग्रन्थि, अर्थात् उसके भीतर विजुगुप्सा नहीं होती, उसमें कुण्ठा नहीं होती, उसके भीतर में किसी के प्रति घृणा या भेद-बुद्धि का भाव नहीं रहता। इसका क्या मतलब है? इसको और थोड़ा-सा समझने का प्रयास करें कि जो व्यक्ति सभी भूतों को हरदम आत्मा के भीतर देखता है और सभी भूतों में आत्मा को देखता है। ऐसा व्यक्ति फिर विजुगुप्सा नहीं करता। उसके मन में किसी प्रकार की कुण्ठा नहीं होती, वह किसी से घृणा नहीं करता, उसके मन में भेदभाव नहीं रहता। ऐसा क्यों होता है? यह साधना का क्रम है। साधना का क्रम माने कि हम मानो नैवेद्य दें और प्रसाद के रूप में ग्रहण करें। आप देखिए कि नैवेद्य देते हैं और प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं, तो उसकी प्रक्रिया क्या है? जैसे ठाकुरजी को हम नैवेद्य देते हैं, तो क्या अनुभव करते हैं? नैवेद्य को ठाकुरजी ने ग्रहण कर लिया, माने नैवेद्य को हमने ठाकुरजी में अर्पित कर दिया, माने नैवेद्य ठाकुरजी के अन्दर चला गया। नैवेद्य को हमने ठाकुरजी के अन्दर देखा, उसके बाद क्या करते हैं? हम उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। हम प्रसाद को इतना पवित्र क्यों मानते हैं? इसलिए मानते हैं कि इस प्रसाद में हमें ठाकुरजी की अवस्थिति का भान होता है। हमें ऐसा लगता है कि इस प्रसाद में प्रभु हैं, ठाकुरजी हैं। उन्होंने ग्रहण करके मानो इसे पवित्र बना दिया है। जब हम प्रसाद लेते हैं, तो हमारे भीतर ठाकुरजी की अवस्थिति का भाव रहता है। यदि प्रसाद का एक टुकड़ा जमीन में गिर जाए, तो हम क्या करते हैं? उसे अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उठाकर के माथे से लगा कर हम ग्रहण करते हैं। मान लीजिए, बहुत बढ़िया मिठाई जमीन पर गिर जाए, तो हम उसे देखते तक नहीं हैं, उसे उठाते तक नहीं हैं। बच्चा भी उठाने जाता है, तो हम कहते हैं नहीं, नहीं, उसे मत उठाना, वह जमीन पर गिर गई है, खराब हो गई है, पर यदि उसी स्थान पर ठाकुरजी के प्रसाद का एक छोटा-सा टुकड़ा भी गिर जाए, तो उसे हम बड़ी श्रद्धा से उठाकर ग्रहण करते हैं, इसमें कोई संकोच नहीं होता है। क्योंकि वह कोई मिठाई नहीं है, हमारे लिए कोई ऐसी वस्तु नहीं है, हमारे लिए वह प्रसाद है, उसे ठाकुरजी ने ग्रहण किया है, उस प्रसाद के टुकड़े में ठाकुरजी की उपस्थिति का भान होता है। यहाँ पर इसी साधना-क्रम को बताया गया है?
ईशावास्योपनिषद् में अन्त में मालूम पड़ता है कि ये गुरु उपदेश दे रहे हैं, पर शिष्य कहाँ है? इसका पता नहीं चल रहा है। हम जब अगले मन्त्रों की ओर जायेंगे, तो एक स्थान पर देखेंगे, अरे! यह तो शिष्य है? इस शिष्य के प्रति गुरु ने यह उपदेश दिया है। गुरु उपदेश दे रहे हैं और शिष्य बैठा हुआ है। शिष्य ने पूछा होगा – गुरुजी ! आपने आत्मतत्त्व के सम्बन्ध में तो बताया, परन्तु अब आप यह बताइये कि हम साधना किस प्रकार से करें? तो गुरुजी ने साधना का यह क्रम बताया कि ठीक है, जो कुछ भी दिखाई देता है, उसे नैवेद्य के रूप में अर्पित कर, उसे प्रभु के भीतर में दो। जब व्यवहार करो, तो ऐसी भावना करो कि मानो प्रभु के स्पर्श से ये सभी सुवासित हैं, तब उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करे।
यदि ऐसा ही हमारा साधना-क्रम चलता रहा, इन्द्रियों से जो दिखाई देता है, उसे हमने प्रभु को समर्पित कर दिया, मानो प्रभु ही अवस्थित हैं, उन्हीं का रूप दिखाई देता है, हमने ऐसा भाव बनाने की चेष्टा की, तो अन्त में क्या होता है? उसके बाद सिद्धि की अवस्था कैसी होती है? यही अगले मन्त्र में कह रहे हैं –
Commentary on Verse 7:
कहा गया कि जिस समय सर्वभूत आत्मा ही बन जाते हैं, तब विज्ञानी को मोह-शोक नहीं होता। प्रसाद में मुझे प्रभु की, ठाकुरजी की उपस्थिति का अनुभव होता है। एक स्थिति ऐसी आती है, जब प्रसाद ही प्रभु-रूप हो जाता है। जो कुछ दिखाई देता है, वह प्रभु रूप ही हो जाता है। एक स्थिति है साधना की, जहाँ प्रभु की अवस्थिति मालूम पड़ती है। वह सिद्धि की अवस्था है, जहाँ दूसरा कुछ नहीं, प्रभु की अवस्थिति नहीं, प्रभु ही मालूम पड़ते हैं। सब-के-सब प्राणी आत्मा ही बन जाते हैं। ऐसा विज्ञानी, जो एक ही आत्मतत्त्व को देखता है, उसके लिए मोह कहाँ है? उसके लिए शोक कहाँ है? वह क्यों किसी से घृणा करेगा? किससे भेद-बुद्धि रखेगा? यह बात विज्ञानी के लिए कही गयी है। श्रीरामकृष्णदेव अज्ञान, ज्ञान और विज्ञान की बात हरदम कहा करते थे। गीता में भी कहा गया है –
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि एक ज्ञान है और एक विज्ञान है। ज्ञान के साथ-साथ मैं तुझे विज्ञान दूँगा। श्रीरामकृष्ण अधिक आगे चलकर कहते हैं – देखो रे! किसी ने दूध के सम्बन्ध में पढ़ा है या सुना है, किसी ने दूध को देखा है और किसी ने दूध को चखा है। जिसने दूध के बारे में पढ़ा या सुना है, वह अज्ञान है और कभी-कभी वह विपरीत ज्ञान का कारण बनता है। जिसने दूध को देखा है, वह कभी-कभी दूध के बारे में भ्रम में पड़ जाता है, पर जिसने दूध को चखा है, वह विज्ञानी है। वह कभी भ्रम में नहीं पड़ता है। सुनकर, पढ़कर जो ज्ञान होता है, वह अज्ञान है और कभी-कभी विपरीत ज्ञान का कारण बनता है। वह प्रसिद्ध कहावत है – एक जन्मान्ध व्यक्ति था। वह भीख माँगता था। एक दिन वह कहीं जा रहा था। उसे एक मित्र मिला, जिसकी आँखें थीं। उसने पूछा – कहो सूरदास ! आज तुम वहाँ पर आये नहीं? सेठजी ने बढ़िया, बहुत सुन्दर सबको भोजन कराया! सूरदास ने कहा- पता नहीं था भाई! अरे कितनी चीजें बनी थीं? क्या-क्या बनी थीं? अरे, बहुत-सी चीजें बनी थीं, पर खीर बहुत लाजवाब थी।
सूरदास ने पूछा- खीर ! खीर क्या होती है ?
तूने खीर नहीं खायी?
नहीं तो!
अरे खीर, चावल और दूध दोनों को मिलाकर बनाते हैं।
चावल तो पता है। दूध क्या है?
दूध, तुम्हें नहीं मालूम सूरदास ?
अरे दूध, पानी के समान तरल, पर उसका रंग सफेद होता है।
पानी तो मालूम है, पर ये सफेद क्या है?
सफेद होता है, अब ये कैसे समझाये? अरे सूरदास ! बगुले के समान सफेद !
बगुला ? ये बगुला क्या बला है?
तब मित्र ने अपना हाथ बगुला के समान बनाकर कहा – यह टटोल के देखो, ऐसा होता है? सूरदास ने टटोलकर कहा – भैया ! ये तो बहुत टेढ़ी चीज है, ऐसी टेढ़ी खीर तुमने कैसे खायी होगी?
तो, जो पढ़-सुनकर के ज्ञान होता है, वह अज्ञान है। जिसने दूध को देखा है, वह ज्ञानी है, पर वह निर्मूल ज्ञानी नहीं है, उसके ज्ञान में भ्रम रह सकता है। जिसने दूध को देखा है, उसके सामने तीन कटोरियाँ रख दें। एक में खड़िये का घोल, दूसरे में मट्ठा और तीसरे में दूध और कहा जाए कि देख करके बताइये कि किस कटोरी में दूध है। वह नहीं बता सकता। क्योंकि तीनों एक समान दिखाई दे रहे हैं। किन्तु जिसने दूध को चखा है वह एक कटोरी को उठाकर चखेगा और कहेगा, यह दूध नहीं है। दूसरी को उठाएगा, चखेगा, कहेगा, यह दूध नहीं है। तीसरी कटोरी को उठाएगा, चखेगा और कहेगा कि यह दूध है। दूध को चखनेवाला विज्ञानी कभी भूल नहीं कर सकता। विज्ञानी के लिये सब कुछ आत्मा ही बन जाते हैं। केवल आत्मा की अनुभूति या आत्मा की उपस्थिति का भान नहीं, बल्कि ये सब आत्मतत्त्व ही बन जाते हैं। जो इस प्रकार सबमें एकत्व ही देख रहा है, ऐसे विज्ञानी को फिर कहाँ मोह? कहाँ शोक? वह कथा आप पढ़ते हैं न! कुछ लोग नाव से नदी पार कर रहे थे। उसमें एक साधु बाबा भी थे। उसमें कुछ दुष्ट जन भी थे। वे कहने लगे – वाह! वाह ! कैसी चिकनी मुण्डी है? बहुत बढ़िया, इस पर तो बढ़िया तबला बजाया जा सकता है! एक ने तबला बजाना शुरू किया। अब साधु बाबा चुप हैं। दूसरे ने कहा, अरे तबला क्या, नगाड़ा पीटो। एक उनके सिर पर नगाड़ा जैसा बजाने लगा। अब साधु बाबा ने तो कुछ कहा नहीं। किन्तु भगवान् से सहा नहीं गया। उन्होंने साधु से कहा- अरे! ये लोग तेरा अपमान कर रहे हैं। यह तो मेरा अपमान है। अगर तुम कहो, तो इस नौका को मैं उलट दूँ? इनको अपने किए का सब फल मिल जाएगा। साधु बाबा बोले हे भगवान्! अगर उलटना ही है, तो नौका को क्यों उलटते हो? इनका दिमाग उलट दो न! इससे ये ठीक हो जायेंगे। ऐसे सहिष्णु और एकत्वदर्शी सन्त होते हैं, जो किसी से द्वेष नहीं करते।
अब हम आठवाँ मन्त्र और उसके बाद के जो छह मन्त्र हैं, जहाँ विद्या, सम्भूति, असम्भूति है, इस पर कल विचार करेंगे। आज यहीं पर समाप्त करते हैं। हरि ॐ तत् सत्।
ईशावास्योपनिषद् पर विगत दो दिनों से चिन्तन चल रहा है। पहले मन्त्र में गुरु ने शिष्य को सिद्धान्त का उपदेश दिया। दूसरे मन्त्र में कहा कि इस सिद्धान्त का व्यवहार जीवन में तुम्हें कार्य से निर्लिप्त बनाकर रखेगा। कर्म नहीं चिपकता है, इसलिए कर्म से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। आसक्ति कर्म को मनुष्य से चिपकाती है। उन्होंने उस आसक्ति को दूर करने के लिए उपदेश दिया कि जो कुछ दिखाई देता है, उन सबमें भगवान् बसे हुए हैं। सब कुछ ईश्वर से आवृत देखना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया गया, तो महान् हानि है। मरने के उपरान्त भिन्न-भिन्न योनियों में मनुष्य को जाना पड़ता है। स्वर्ग भी ज्ञान की दृष्टि से एक घोर अन्धकार से भरा हुआ लोक है। स्वर्ग में जानेवाला व्यक्ति भी वस्तुतः जो सदा विद्यमान आत्मतत्त्व है, उसका घात करनेवाला ही बनता है। यह तीसरे मन्त्र में कहा। शिष्य ने प्रश्न पूछा होगा – जिस आत्मतत्त्व का मनुष्य घात कर बैठता है, उसका स्वरूप क्या है गुरुदेव ?
गुरु ने चौथे और पाँचवें मन्त्र में विरोधी गुणों के माध्यम से, वैतर्किक प्रणाली का अनुसरण करते हुए उस आत्मतत्त्व के स्वरूप का उपदेश दिया। क्योंकि आत्मतत्त्व अति गहन है। उसे वाणी से समझाना बहुत कठिन है। उसे अवाङ्गमनसगोचर कहा गया है, फिर भी भिन्न- भित्र, विपरीत गुणों के माध्यम से उस तत्त्व के सम्बन्ध में कम-से-कम एक चित्र आँकने की चेष्टा की गयी है। आत्मतत्त्व सब जगह है। जैसे hypothetical ईथर की कल्पना विज्ञान के क्षेत्र में पहले थी, for transmission of heat energy, magnetic energy, light energy, बीच के कुछ वर्षों में hypothetical ईथर को काट दिया गया, परन्तु आज फिर से hypothetical ether की बात विज्ञान के क्षेत्र में सम्मत है। कल्पना कीजिए कि आत्मतत्त्व सर्वव्यापी है। किसी भी क्रिया के सम्पन्न होने के लिए आत्मतत्त्व की उपस्थिति अनिवार्य है। उसी की उपस्थिति और अवस्थिति के कारण कोई भी क्रिया सम्भव हो पाती है। आँखें जहाँ भी जाती हैं, तो देखती हैं कि आत्मतत्त्व तो पहले से पहुँच गया है। यदि आत्मतत्त्व न होता, तो देखने की प्रक्रिया सम्भव न होती। आत्मतत्त्व स्थिर रहकर के भी भागती हुई चीजों को पार कर जाता है। कल हमने आपके समक्ष परदे का उदाहरण दिया था। फिल्म और स्क्रीन के उदाहरण के माध्यम से इसे हम समझ सकते हैं।
छठे मन्त्र में साधना की स्थिति का वर्णन किया। जो कुछ दिखाई देता है, नैवेद्य के रूप में अर्पित कर प्रसाद के रूप में ग्रहण करो। हनुमानजी अशोक वाटिका में माँ सीताजी के सामने प्रकट हुए। उन्होंने जानकीजी को प्रभु श्रीराम का सन्देश सुनाया। उसके बाद उन्होंने कहा माँ! मुझे बहुत भूख लगी है। यहाँ पर फल है, क्या उसे खाऊँ? तब माँ ने क्या कहा? माँ ने कहा कि तुम श्रीराम को हृदय में धारण कर यथेष्ट फल खा लो। प्रवृत्ति नगरी के फल को यदि हमने नैवेद्य के रूप में अर्पित न कर उसे ग्रहण किया, तो वह, भोग हमारे भीतर विपरीत प्रकार की विकृति उत्पन्न कर सकता है। परन्तु यदि प्रभु को समर्पित कर दिया, तो उससे फिर किसी प्रकार की विपरीत विकृति या कोई विकार सम्भव नहीं है। जब हम भोगों को प्रभु के चरणों में अर्पित कर प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं, तो उन वस्तुओं के ग्रहण के समय भी ईश्वर की स्मृति बनी रहती है। जैसे हम प्रसाद लें, तो प्रसाद में ईश्वर की अवस्थिति का भान होता है। इसी प्रकार साधना को आगे बढ़ाते-बढ़ाते साधक सिद्ध बन जाता है, विज्ञानी बन जाता है। विज्ञानी बनने पर स्थिति कैसी होती है? तब सारे प्राणी, जितने भी स्थावर जंगम पदार्थ दिखाई देते हैं, ये सभी उसके लिए आत्मतत्त्व ही बन जाते हैं।
अब आठवें मन्त्र में कह सकते हैं कि उसी आत्मतत्त्वविद् की स्थिति का वर्णन किया गया है –