वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम् ।
ओं । क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ॥ १७ ॥
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् ।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥ १८ ॥
Commentary:
अब मेरा प्राण वायु में विलीन हो जाय और यह शरीर भस्म हो जाय। हे मन! अब तुम अपने किए हुए कर्मों का स्मरण करो, अब तुम अपने किए हुए कर्मों का स्मरण करो।
बड़ी विलक्षण बात यहाँ पर कही गयी कि वह साधक मृत्युशय्या पर पड़ा हुआ है, किन्तु निर्भय है। मृत्युशय्या पर पड़ा एक व्यक्ति डरता रहता है, मृत्यु से भयभीत होता रहता है, कल पता है कि अब मैं मर जाऊँगा, तो हमारा क्या होगा? लेकिन जिसने उस तत्त्व को जान लिया, वह नहीं डरता, वह कहता है- वायुःअनिलं … अर्थात् इस शरीर में जो प्राणवायु संचारित हो रही है, जो अमृतस्वरूप अनिल तत्त्व है, वायु तत्त्व है, मरुत् तत्त्व है, जिसे समष्टि वायु कहते हैं, जो सूत्रात्मा है, उसमें जाकर मिल जाएँ।
जैसे हम पढ़ते हैं न कि जितने भी पंचतत्त्व हैं, वे अपने-अपने तत्त्व में जाकर मिल जाएँ। हम यह भी कहते हैं कि मनुष्य पंचतत्त्व को प्राप्त हो गया। इसका अर्थ यह है कि पाँच तत्त्वों से शरीर बना है, तो जब शरीर की मृत्यु हो जाती है, तो शरीर उन पाँच तत्त्वों में मिल जाता है। शरीर का हर तत्त्व अपने उस विराट तत्त्व में जाकर मिलित हो जाता है।
इसलिये वह साधक कहता है शरीर को चलानेवाली जो प्राणवायु है, अब वह जाए। मानो वह कहता है विदा ! विदा ! विदा प्राण विदा ! तुमने कितना मुझ पर उपकार किया है, तुम यहाँ पर विद्यमान रहे, तभी मेरे जीवन की सार्थकता हुई। तुम्हारे रहते मैंने जीवन के लक्ष्य को पा लिया। अब इसके बाद प्राण तुम्हें विदा देता हूँ। जाओ, तुम उस अमृत अनिल में जाकर के मिल जाओ, जो तुम्हारी समष्टि चेतना का स्थान है, वहाँ तुम चले जाओ। अब यह शरीर भस्म हो जाए, अग्नि में जल जाए। पंचतत्त्व तुम सबको मैं विदा देता हूँ। शरीर विदा, विदा ! अलविदा ! तुमने मेरा कितना उपकार किया है! इस शरीर के माध्यम से मैंने प्रभु के दर्शन किये। अपने स्वरूप के दर्शन करने में मैं समर्थ हुआ। मृत्युशय्या पर लेटा हुआ वह साधक यही चिन्तन कर रहा है।
वह साधक सबके प्रति कृतज्ञता का चिन्तन कर रहा है। वह प्रार्थना कर रहा है। उसके बाद उसने प्राणवायु को, शरीर के पंचतत्त्वों को विदा दे दी, शरीर को विदा दे दी, मन को भी उसने विदा दे दी, सबसे विदा लेकर वह आत्मतत्त्व में स्थित हो गया। इस प्रकार चिन्तन करते-करते वह साधक मृत्यु में लीन हो जाता है। अब शरीर जले चिता पर, उसे क्या करना है? इस शरीर को चाहे गीध नोचकर खायें, या कुत्ते नोचकर खायें, चाहे जल में मछलियाँ नोचें, चाहे और भी कोई नोचे ! चाहे कोई चन्दन काष्ठ की चिता पर उसे लिटा करके जला दे, उसे क्या चिन्ता है? शरीर का काम समाप्त हो गया। उसके बाद उसके भक्त-मित्रगण उसके शरीर को चिता पर रख देते हैं और अग्नि प्रज्वलित कर सभी मानो ये मन्त्र गाते हैं। क्योंकि अगले मन्त्र में क्रिया ‘विधेम’ बहुवचन है। बहुवचन से यही तात्पर्य लगता है कि बहुत से लोग मिलकर प्रार्थना कर रहे हैं, यह उस सिद्ध व्यक्ति की प्रार्थना नहीं है। उपनिषद् तो सतरहवें मन्त्र में समाप्त हो गया। यह अठारहवाँ और अन्तिम मन्त्र क्या है? मानो उसके मृत शरीर को चिता पर लिटा दिया गया, अग्नि प्रज्वलित कर दी गयी और जो लोग आये हैं, वे प्रार्थना के स्वर में कह रहे हैं –
Verse 18 Commentary:
हे अग्ने ! तुम सुपथ में ले चलो। किसके लिए? राये, रई – कर्मफल के भोग के लिए। रई कहते हैं धन, माने हम कर्म के माध्यम से जो फल अर्जित करते हैं अच्छे फल, वह धन ही है। उस कर्मफलरूपी धन का भोग करने के लिए, हे अग्नि, तुम हमें सत्पथ पर, सन्मार्ग पर ले चलो। मानो ये सभी मिलकर प्रार्थना कर रहे हैं। हे देव! तुम तो सब कुछ जानते हो। हमारे कर्मों को जानते हो, कर्मों के पीछे जो भाव होता है, उसको भी तुम जानते हो। मानो अग्नि से कहते हैं – हे अग्ने! तुम तो सब कुछ जानते हो। हम कर्म करते हैं, कर्म के पीछे दिखावे का भाव हो सकता है, छलना हो सकता है, प्रवंचना हो सकती है, भले ही मैं उस प्रवंचना को न समझें, पर हे अग्ने ! तुमसे कुछ छिपा नहीं है, तुम सब कुछ जानते हो। मैं आत्मछल भले कर लूँ, पर तुमको मैं छल नहीं सकता। यह भाव कि तुम सर्वान्तर्यामी हो, तुम मन की बात जाननेवाले हो। क्या कभी मैं अपने आप से छल कर सकता हूँ? जैसे मैं कहा करता हूँ न, हम तीन मित्र हैं। एक की मृत्यु हो जाती है। हम दो मित्र उनके पास जाते हैं और कहते हैं, देखो भाभी ! चिन्ता मत करो, भाई साहब नहीं रहे, पर हम लोग सभी प्रकार से तुम्हारी मदद करेंगे, तुम चिन्ता नहीं करना। मेरा मित्र भी जाकर के मदद करता है, मैं भी जाकर के मदद करता हूँ। मदद की जो क्रिया है, दोनों में समान है, पर भाव में अन्तर हो सकता है। मेरे मित्र का भाव शुद्ध है, बहुत शुचि है, पवित्र है और मेरे मन में वासना हो सकती है। यह जो वासना है, मैं आत्मछल कर सकता हूँ कि मैं तो अपने मित्र की विधवा की सहायता कर रहा हूँ, पर जो भीतर का अन्तर्यामी है, वह जानता है कि तू सहायता कर रहा है अथवा वासना से परिचालित होकर के कर रहा है। इसीलिए यहाँ पर यह कहा है- विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् – हे देव तुम सब कुछ जानते हो, कर्म को जानते हो, कर्म के पीछे की प्रेरणा क्या है, भाव क्या है, इसको भी जानते हो। इसलिए दया करके क्या करो ? अस्मज्जुहुराणमेनो, यह जो हमारी कुटिलता है, जो भीतर में कुण्ठा है, बाहर एक दिखाते हैं, भीतर में हम दूसरे हैं, यह जो जीवन की कुटिलता है, युयोधि, उसको नष्ट कर दो, जला दो, समाप्त कर दो। भूयिष्ठां नम उक्तिं विधेम – हे अग्ने ! हम बारम्बार वाणी के माध्यम से तुम्हारी स्तुति करते हैं। इस प्रकार उस साधक के साथी, उसके शिष्य, उसके भक्त खड़े हैं और उस सिद्ध साधक को सभी मिलकर विदा देते हैं। इसके साथ ही यहाँ उपनिषद् समाप्त हो गयी।
आपने देखा, इस एक छोटी-सी उपनिषद् में, ज्ञान, आत्मा का स्वरूप, आत्मा के स्वरूप को जानने के लिए साधना कैसी-कैसी हो, अत्यन्त सूक्ष्म संकेत के माध्यम से यहाँ पर सभी बातें कह दी गयीं। जब वह मृत्यु को प्राप्त होता है, उस समय उसकी स्थिति कैसी होती है, उसका भी वर्णन यहाँ पर किया गया और ऐसा कहकर शान्ति पाठ के साथ उपनिषद् समाप्त हो जाती है। वही शान्ति प्रार्थना जो प्रारम्भ में थी, पुनः उसी से समाप्त करते हैं –
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते । ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!!