हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥ १५ ॥
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन्समूह ।
तेजः यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि ॥ १६ ॥
Commentary:
इसका अर्थ है, हिरण्यमय पात्र से, हिरण्यमय माने सुनहरा, सोने का, तो सुनहरे चमकीले ढक्कन से सत्य का मुँह छिपा हुआ है, ढँका हुआ है। हे पूषन्! तुम क्या करो? उस ढक्कन को हटा दो। किसके लिए हटा दो? सत्यधर्माय दृष्टये मैं सत्यधर्मा हूँ, मेरी निष्ठा सत्य में है, मैं उस ब्रह्मतत्त्व को देखना चाहता हूँ, इसलिए तुम इस आवरण को हटा दो।
अब यहाँ पूषन् का संकेत है। वैसे सूर्य को भी पूषन् कहा जाता है, जिसका अर्थ है पोषण करनेवाला। परन्तु यहाँ इसका दूसरा अर्थ वह ब्रह्म है, वह ब्रह्म ज्योति है, वह चैतन्यस्वरूप है, जिसकी वह साधना कर रहा है। वह क्या देखता है? वह साधना करते-करते देखता है कि यह जो सत्य है, उसका मुख ढँका हुआ है। किससे? चमकीले पात्र से, चमकीले ढक्कन से ढँका हुआ है। यह एक रूपक है। वह ब्रह्म को जानना चाहता है, अपने स्वरूप को देखना चाहता है, पर देखता है कि यह संसार चमकीला है, अत्यन्त लोभनीय है, यह सोने के समान लोभनीय, उससे मानो वह सत्य ढँका हुआ है। तो क्या करता है? वह साधना तो करता है, पर उसकी साधना में जो आकुलता है, उस क्षण का वर्णन इस मन्त्र में है। वह कहता है हे पूषन् ! मैं सत्यधर्मा हूँ, मैं सत्य में निष्ठित हूँ, मैं सत्य को ही पाना चाहता हूँ, पर सत्य पर यह सुनहरा पर्दा है। सत्य पर यह सुनहरा ढक्कन पड़ा हुआ है। तुम कृपा करो। इस ढक्कन को हटा दो, ताकि मैं सत्य स्वरूप को देख सकूँ, सत्य स्वरूप की अनुभूति कर सकूँ। यह तत्त्व, जिसको हमने भक्ति का तत्त्व कहा है, यह आकुलता है। व्यक्ति आकुल होकर के ईश्वर से प्रार्थना करे, उस सत्य स्वरूप से प्रार्थना करे, तो यह भी साधना का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग है, जिसको हम विकलता कहते हैं।
श्रीरामकृष्णदेव जब ईश्वर की बातें करते, तो उनसे भक्त लोग पूछते “महाराज! क्या हमें भी ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं?” श्रीरामकृष्ण कहते – “क्यों नहीं हो सकते हैं!” तब भक्त लोग पूछते थे- “हमें दर्शन कैसे हो सकते हैं? किस प्रकार से हो सकते हैं?” श्रीरामकृष्णदेव कहते – “क्या तुम लोग ईश्वर को चाहते हो? यदि सचमुच ईश्वर को चाहते हो, तो तुम्हें ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं, पर कहाँ, कौन ईश्वर को चाहता है रे? सब कोई तो ईश्वर से चाहते हैं। ईश्वर को भला कौन चाहता है?” कैसी विलक्षण बात है! हम ईश्वर से चाहते हैं, ईश्वर को तो नहीं चाहते। ईश्वर से नाम, सम्पदा चाहते हैं, धन चाहते हैं, हम उनसे प्रतिष्ठा चाहते हैं, पद चाहते हैं, सम्पत्ति चाहते हैं, पर कौन ईश्वर को चाहता है? वे कहते, “देख, यदि तू ईश्वर को चाहता है, तो ईश्वर मिलेंगे। व्याकुल होकर पुकार तो सही!” कभी-कभी वे कहते – “मैं दावे से कहता हूँ रे, तीन दिन और तीन रात कोई ईश्वर को पुकार सके, ईश्वर के लिए रो सके, तो ईश्वर सामने आकर के खड़े हो जाते हैं।” कैसी विलक्षण बात है! केवल तीन दिन और तीन रात की बात कह रहे हैं। हमारे जीवन में कितने वर्ष बीत जाते हैं? एक वर्ष में ३६५ दिन, ३६५ रातें होती हैं। श्रीरामकृष्ण कहते हैं कि यदि कोई तीन दिन और तीन रात भगवान् के लिए रो सके, तो भगवान् उसके सामने आकर खड़े हो जाते हैं। ऐसा लगता है कि तीन दिन और तीन रात रोना सहज है। पर क्या सहज है? हाँ! संसारी वस्तुओं के लिए रोना सहज है। यदि हमारा कोई प्रियजन काल-कवलित हो जाए, तो महीनों हमारी आँखों के आँसू नहीं सूखते। यदि धन नष्ट हो जाए, तो हम वर्षों बिसूरते रहते हैं, पर कभी हमारी आँखों में यह सोचकर आँसू आता है कि प्रभु तुमने दर्शन नहीं दिये ! प्रभु तुमको मैं देख नहीं पाया और मेरा जीवन विफल हो रहा है! क्या जीवन में ऐसी व्याकुलता आती है? जिसके जीवन में आती है, उसको दर्शन मिलता है।
इस पन्द्रहवें मन्त्र में उस आकुलता का, उस भक्ति का तत्त्व दृष्टिगोचर हो रहा है। मानो वह आकुल होकर के प्रार्थना करता है – मैं सत्य कहता हूँ, मैं सत्यधर्मा हूँ, मुझे सत्य ही चाहिए। मैं दूसरा कुछ नहीं चाहता। मैं दुनिया की यह चमक-दमक नहीं चाहता। मैं इसे पसन्द नहीं करता और इसके प्रति मेरा कोई आकर्षण नहीं है। मैं तो सत्य के प्रति निष्ठित हूँ। हे पूषन्! हे सूर्य ! हे ब्रह्मज्योति ! हे चित्तस्वरूप ! यह जो तुम पर सुनहरा ढक्कन पड़ा है, कृपा करके इसे हटा लो। नहीं तो मेरे बूते की बात नहीं है कि इसको मैं हटा सकूँ।
श्रीरामकृष्ण का दूसरा उदाहरण है- पुलिसमैन अन्धेरे में मेरे चेहरे को देख लेता है, उसके पास चोर-लालटेन है। वह मेरे ऊपर प्रकाश फेंककर मुझे देखता है। मैं तो उसे देख नहीं पाता, पर यदि मैं पुलिसमैन को देखना चाहता हूँ, तो मैं क्या कहूँगा? कहूँगा – भाई! जो रोशनी तुम मुझ पर फेंक रहे हो, कृपा करके वह अपने मुख पर तो फेंको, जिससे मैं तुम्हें देख सकूँ कि तुम कौन हो? यदि मेरा अनुरोध मानकर वह चोर-लालटेन की रोशनी अपने मुख पर फेंकता है, तो मैं उसे देखने में समर्थ होता हूँ। वह अनुरोध और कृपा का पक्ष है।
यहाँ पर भी ठीक उसी प्रकार साधक अनुरोध कर रहा है। यह प्रार्थना चली। उसके बाद सोलहवें मन्त्र में वही प्रार्थना, आकुलता और बलवती हो रही है। वह कह रहा है –
Verse 16 Commentary:
यहाँ साधक प्रार्थना के स्वर में कह रहा है यहाँ पोषण करनेवाला सूर्य. एक प्रतीक है, सूर्य ब्रह्म का प्रतीक है। तो मानो यहाँ पर सम्बोधित करते हुए कहता हे पूषन्! तुम जगत् के पोषणकर्ता हो। जैसे हम विपत्ति में होते हैं, तो भगवान् को कितने नामों से पुकारते हैं! हे कृष्ण! है मुरारि! हे दयानिधे! हे मुरलीधर ! हे श्यामसुन्दर ! हे नन्दनन्दन ! जब आकुलता बढ़ती है, तो हम भगवान् के जितने नाम मानसपटल पर आते हैं, उन सभी नामों को लेकर पुकारते हैं। साधक भिन्न-भिन्न नाम लेकर के जो पुकार रहा है, यह मानो उसकी व्याकुलता का परिचायक है। उस प्रभु का एक गुण जैसे हम कहते हैं हे मुरारि! इसका मतलब क्या है? तुमने उस शत्रु का वध किया, इसलिए तुम मेरे भी शत्रु का वध करने में समर्थ हो! यही तो भाव रहता है। जब हम भगवान् को इस प्रकार से पुकारते हैं, तो मानो उसके पीछे का तत्त्व यही है। तुमने उस गज को मोक्ष दिलाया, गज की रक्षा की, मैं भी इसी प्रकार विपत्ति में पड़ा हूँ प्रभो! तुम मेरी भी रक्षा करो।
इस प्रकार भिन्न-भिन्न नामों से, प्रभु के भिन्न-भिन्न गुणों का स्मरण और चिन्तन के द्वारा मानो हम ईश्वर को स्मरण दिलाते हैं किं प्रभो तुमने इसकी रक्षा की, तुमने उसका उद्धार किया। यहाँ पर भी वही बात है। वह साधक सत्य को जानना चाहता है। वह कहता है हे पूषण ! हे एकर्षे! तुम्हीं तो जगत् में अकेले चलते हो, तुम्हें तो किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं है, पर मैं तो तुम्हारी अपेक्षा रखता हूँ। मुझे तो तुम्हारा साथ चाहिए। मैं तो तुम्हारे साथ के बिना बिलकुल अकेला हो जाऊँगा। हे यम ! तुम संसार का नियमन करते हो प्रभो! मैं तो केवल यही चाहता हूँ कि जो चमक-दमक दुनिया की दिखाई दे रही है, इसका तुम मेरे प्रति नियमन कर दो, इस चमकीले सुनहरे पर्दे को हटा दो। हे प्राजापत्य ! तुम प्रजापति के नन्दन हो, प्रजापति के पुत्र हो। हे व्यूह-रश्मिन्! तुम अपनी रश्मियों को समेट लो। सूरज कितना चमकीला है! और इस चमकीले सूरज के पीछे जो तत्त्व है, जो ब्रह्मतत्व दिखाई नहीं देता है, वह कितना चमकीला होगा! सूरज के पीछे क्या हो सकता है? यह जो सूरज चमक रहा है, किसकी ज्योति से चमक रहा है? हमने उस दिन वह श्लोक कहा था न! भयादस्य अग्निस्तपति भयात् तपति सूर्यः उसी के भय से यह सूर्य तप रहा है। न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकः नेमाविद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।। पर उस तत्त्व को सूरज प्रकाशित नहीं कर पाता, बल्कि यह सूरज ही उसकी रोशनी से प्रकाशित होता है। तमेव भान्तम् अनुभाति सर्वं तस्यभासा सर्वमिदं विभाति। उस ब्रह्मतत्त्व के प्रकाशित रहने के कारण ही सूरज प्रकाशित होता है, चन्द्रमा प्रकाशित होता है, तारे प्रकाशित होते हैं, फिर इस अग्नि की क्या बात है? अतः हे पूषन् ! मैं उस तत्त्व को देखना चाहता हूँ, जिसके कारण तुम चमक रहे हो। तुम्हारी ज्योति कहाँ है? तुम्हारी ज्योति का उत्स कहाँ है? तुम्हारे प्रकाश का उत्स कहाँ है? तुम जो इतना प्रकाश देते हो, यह तुम्हारा नहीं है। तुम भी किसी के द्वारा प्रकाशित हो रहे हो, मैं उस प्रकाश को देखना चाहता हूँ। पर तुम्हारी तेज किरणों के कारण मैं देखने में समर्थ नहीं हूँ, तो तुम क्या करो ? व्यूहरश्मि – अपनी किरणों को समेट लो। समूहतेजः – इस तेज को जरा मन्द तो करो, इस तेज को समेटो, किरणों को समेटो। मैं तुम्हारे उत्स को देखना चाहता हूँ।
बड़ी विलक्षण बात है! इस प्रकार यह सत्यधर्मा भिन्न-भिन्न नाम लेकर पुकारता, प्रार्थना करता है कि हे पूषन् ! तुम्हारे पीछे ब्रह्म का, आत्मतत्त्व का प्रकाश है, तुम पोषण करनेवाले, अकेले जाते हो, तुम सब कुछ का नियमन करते हो, तुम सूर्य हो, माने प्राणों को खींचते हो, रस को तुम खींचते हो। सूर्य का शाब्दिक अर्थ है, जो प्राण और रस का शोषण करता है। सूर्य शोषण करता है, प्राण का शोषण करता है, रस का शोषण करता है, तुम प्रजापतिनन्दन हो। मैं जानना चाहता हूँ, तुम किस तत्त्व के द्वारा इतने प्रकाशित हो। कृपा करके अपनी किरणों को, अपने तेज को समेट लो।
जब व्याकुल होकर के उसने प्रार्थना की, तो उसका क्या फल हुआ? धीरे-धीरे वह उस तत्त्व को देखने में समर्थ होता है। उसे दर्शन होता है। क्या दर्शन होता है? यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि वह साधक कहता है – ओ! तुम्हारा जो अत्यन्त कल्याणमय रूप है, उसको मैं देख रहा हूँ। यहाँ उस दर्शन की बात कही गयी।
उसके बाद क्या प्रतीति होती है? योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि । यह विलक्षण अनुभूति है! विलक्षण यह प्रतीति है! वह कहता है कि तुम्हारे पीछे जो तत्त्व प्रकाशित है, जिसके प्रकाश से तुम प्रकाशवान हो रहे हो, अरे वह तो मैं ही हूँ। मैं जानता ही नहीं था कि मैं ही था, उस प्रकाश के रूप में जो तुम्हें प्रकाशित कर रहा था। यह विलक्षण अनुभूति का क्रम है। मानो पहले सविकल्प समाधि और उसके बाद निर्विकल्प समाधि है! सविकल्प समाधि में मैं कल्याणमय रूप को देखता हूँ, जो संसार को प्रकाशित करता है, सूर्य को प्रकाशित करता है, चन्द्र को प्रकाशित करता है, तारों को प्रकाशित करता है, उसके पश्चात् जब मैं गहरे ध्यान में डूबा, तो मैं देखता हूँ कि मैं ही तो हूँ, जो सबको प्रकाशित कर रहा है। सूरज के पीछे जो तत्त्व है, वह मैं ही हूँ।
क्या विलक्षण है इसमें? एक छोटे से मन्त्र में साधना का भी क्रम है और उसके बाद दर्शन का भी क्रम है, अनुभूति का भी क्रम है कि उर्सने साधना की। उसके जीवन में व्याकुलता आयी, उसके बाद वह दर्शन कर रहा है कि संसार में जो कुछ भी ज्योति है, प्रकाशमान है, सबके पीछे वह ब्रह्म ज्योति है, चित्रशक्ति है। फिर उसने देखा कि वह चित्रशक्ति तो मैं ही हूँ, वह ब्रह्म ज्योति तो मैं ही हूँ, मेरे ही प्रकाश से सब कुछ प्रकाशित है। यह अद्भुत अनुभूति है और ऐसी जब अद्भुत अनुभूति हो गई, तो वह जीवन्मुक्त होकर अपने दिन बिता रहा है।
यह जीवन्मुक्त की अवस्था है। उसने तत्त्व को जान लिया है। एक दिन मृत्यु तो सब पर आक्रमण करती है, शरीर पर मृत्यु का आक्रमण होता है। तत्त्व को जाननेवाला वह साधक आज मृत्युशय्या पर पड़ा हुआ है। वह क्या कर रहा है? वह कितने आनन्द में है! वह पूरा सजग है। कितनी सुन्दर उसकी वृत्ति है! उसके विचारने का ढंग, चिन्तन, सब कुछ विलक्षण है! क्या कह रहा है वह ? इसे सतरहवें मन्त्र में बताया गया है –