अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्यां रताः ॥ १२ ॥
अन्यदेवाहुः संभवादन्यदाहुरसंभवात् ।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥ १३ ॥
संभूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह ।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा संभूत्यामृतमश्नुते ॥ १४ ॥
Commentary:
यह दूसरा त्रिक् है। इसमें सम्भूति और असम्भूति का फल अलग प्रकार से बताया गया है। यहाँ पर असम्भूति के लिए विनाश शब्द का उपयोग किया गया है। जो सम्भूति और विनाश दोनों को आत्मा के साथ जानता है, अर्थात् इन दोनों के साथ जो आत्मतत्त्व को जानता है, माने सम्भूति को आत्मा से युक्त करके जानता है और असम्भूति को भी आत्मा से युक्त करके जानता है, वह ‘विनाशेन मृत्युं तीर्खा’ – उस विनाश के द्वारा या असम्भूति के द्वारा मृत्यु को पार कर लेता है और सम्भूति के द्वारा अमरत्व का अनुभव करता है।
अब यहाँ पर प्रश्न यह है कि सम्भूति और असम्भूति क्या है? इसके कई अर्थ किये गये हैं। यहाँ पर भगवान् भाष्यकार के द्वारा असम्भूति के लिए अव्याकृत प्रकृति प्रधान अर्थ किया गया है, जहाँ पर प्रकृति अपने मूल स्वरूप में विद्यमान है। सम्भूति के लिए उन्होंने हिरण्यगर्भ कार्यब्रह्म कहा है।
कहते हैं कि जो कार्यब्रह्म की उपासना करते हैं, वे और अधिक अन्धकार में जाते हैं। यह बात भी समझ में नहीं आती कि कोई कार्यब्रह्म की उपासना कैसे करे? कोई कारणब्रह्म की उपासना कैसे करे? पहले ये बहुत ही technical रहे होंगे। न तो यह प्रणाली यहाँ इस भाष्य में प्रदर्शित है और न ही अन्यत्र कहीं देखने को मिलती है। विद्वानों के द्वारा सम्भूति का एक अर्थ और किया गया है सम्भूति माने बहुत से लोग एक साथ मिलकर के रहें, जिसको हम समाज कहते हैं। सम्भूति माने एक साथ रहना और असम्भूति माने अकेले, एकल रहना।
एक व्यक्ति अपने लिए जीता है। एक व्यक्ति समाज के लिए जीता है। ये दो स्थितियाँ हो सकती हैं। पहले तो अविद्या और विद्या की बात कही। वह व्यक्तिगत साधना है। ठीक है, मैं कर्म में लगा हुआ हूँ, कर्म के साथ ईश्वर को जोड़ता हूँ, तो कर्म कर्मयोग बन जाता है। उसी प्रकार यह जो विद्या है, इस विद्या को ईश्वर से जोड़ता हूँ, तो विद्या के भीतर जो अमरत्व प्रदान करने की क्षमता है, वह क्षमता प्रकट हो जाती है। अब यहाँ पर यह कहा जा सकता है असम्भूति माने, एक व्यक्ति केवल अपने लिए साधना कर रहा है और सम्भूति माने, एक व्यक्ति समाज की साधना कर रहा है। यदि हम इसे व्यक्तिगत साधना और सामाजिक साधना, इन दो अर्थों में ले लें, तो मुझे लगता है कि इसका अर्थ स्पष्ट हो सकता है। एक व्यक्ति केवल अपनी साधना में लगा है और दूसरा व्यक्ति है, जो समाज की साधना करता है। पर दोनों के साथ ईश्वर का तत्त्व जुड़ा रहे, यह कहा गया। यदि आत्मतत्त्व व्यक्तिगत साधना के साथ जुड़ा हुआ नहीं है, तो व्यक्तिगत साधना में फिर मनुष्यों को सिद्धियों की कामना हो जाती है, उसका मन सिद्धियों की ओर चला जाता है। यदि मैं साधना कर रहा हूँ और ईश्वर मेरा लक्ष्य न हो, तब मेरा लक्ष्य क्या बनता है? मैं फिर अणिमादि सिद्धियों की ओर चला जाता हूँ। सामान्य रूप से नब्बे क्यों कहें, निन्यानबे प्रतिशत जो साधक हुआ करते हैं या और भी 99.9% जो साधक होते हैं, वे अपनी साधना से च्युत हो जाते हैं, उनका लक्ष्य सिद्धियाँ हो जाती हैं, वे सिद्धियों की ओर चले जाते हैं कि कुछ चमत्कारिक सिद्धियाँ मिल जायें। व्यक्तिगत साधना का लक्ष्य अगर ईश्वर न हो, तो व्यक्तिगत साधना मनुष्य को दूसरी ओर, सिद्धियों की ओर ले जाती है। उसी प्रकार सामाजिक साधना में भी ईश्वर अगर लक्ष्य न हो, तो मनुष्य केवल नाम-यश में सिमट करके रह जाता है।
इसलिये हम देखते हैं कि फिर समाज में तरह-तरह के दोष उत्पन्न होते हैं। कोई सेवा करने के लिए संस्था बनाता है। किन्तु उस संस्था के पीछे आध्यात्मिकता टूटने लगती है। आपने देखा होगा ऐसी कितनी संस्थाओं को, जहाँ पर लोग सेवा भाव से प्रेरित होकर के संस्था शुरू करते हैं, परन्तु व्यक्ति का अहंकार इतना प्रबल हो जाता है कि उसके कारण संस्था टूट जाती है, काम नहीं हो पाता है। किन्तु यहाँ कहा गया कि यह जो संस्था है, उसके माध्यम से भी साधना बलवती हो सकती है, यदि उसे ईश्वर के साथ संयुक्त कर दें तो। व्यक्तिगत साधना को, असम्भूति को ईश्वर के साथ जोड़ दें, तो इसके भीतर मृत्यु से पार कर देने की क्षमता है। किन्तु यदि ईश्वर से हमारी व्यक्तिगत साधना न जुड़े, हम गलत राह पर चले गये, हम सिद्धियों की राह पर चले गये, तो यह हानिकर है। इसीलिए तो जब नरेन्द्रनाथ (जो स्वामी विवेकानन्द बने) ने श्रीरामकृष्ण से समाधि की स्थिति मे रहने का वरदान माँगा, तो उन्होंने धिक्कारते हुए कहा था छिः ! छिः ! यह कैसी ओछी बातें करता है? कैसी ओछी बुद्धि है तुम्हारी ? तू अपनी मुक्ति के लिए मरता है रे? इससे भी ऊँची अवस्था है। ऊँची अवस्था की बात उन्होंने बाद में समझा दी। जो दूसरों की मुक्ति के लिए प्रयत्नशील होता है, उसे मुक्ति पहले मिलती है, बनिस्बत उसके, जो अपनी मुक्ति के लिए प्रयत्नशील होता है। स्वामी विवेकानन्द एक नया सूत्र देते हैं यदि तू अपनी मुक्ति के लिए चेष्टा करेगा, तो तुझे मुक्ति बाद में मिलेगी। यह विपरीत सूत्र मालूम पड़ता है, पर ठीक सूत्र है।
इसके सन्दर्भ में बात ऐसी ही लगती है। असम्भूति की उपासना, केवल अपना व्यक्तिगत कल्याण है। जैसे हम धर्म के क्षेत्र में भी अपने पुण्य के लिए दूसरों से दुर्व्यहार करते हैं! जैसे हम काशी-विश्वनाथ मन्दिर में जायेंगे, तो हम धक्का देकर के पहले मन्दिर में पहुँचकर अभिषेक करना चाहते हैं। एक बूढ़ी माई गिर पड़ी, एक बूढ़े बाबा गिर पड़े, हम रौंदते हुये चले जाते हैं। स्वामीजी पूछते हैं कि क्या यही तुम्हारी साधना है? नहीं, यह तुम गलत काम कर रहे हो। क्या है यह ? तुम रौंदते हुए चले गये! तुम चाहते हो पहले अभिषेक करना! अपना पुण्य बटोरना! तो ये कौन-सी साधना है? यह कोई साधना नहीं है, इससे कोई धर्म नहीं मिलता है, बल्कि धर्म तो तुम्हें ज्यादा तब मिलता, जब बूढ़ी माई गिर पड़ी, तो उसे उठा दो कि चल मैया! तू चलकर के अभिषेक कर ले, मैं मदद कर देता हूँ। वह मैया अभिषेक कर लेती है। मुझे भले ही अभिषेक करने के लिए अवसर नहीं मिला, अवकाश नहीं मिला, पर मैंने एक को अभिषेक करने के लिए अवसर प्रदान कर दिया, यह मेरी मुक्ति के लिए सशक्त साधना बन जाती है।
यहाँ असम्भूति और सम्भूति की बात कही गयी। असम्भूति व्यक्तिगत साधना है और सम्भूति सामाजिक साधना है। असम्भूति में, व्यक्तिगत साधना में ईश्वर न हो, तो हम स्वार्थी हो जाते हैं। मानो हम धर्म के क्षेत्र में स्वार्थी हो गये, हम साधना के क्षेत्र में स्वार्थी हो गये। मैं सम्भूति के क्षेत्र में आगे बढूँ और अगर ईश्वर न हो, तो केवल नाम, यश तक सिमट कर रह जायेंगे और कुछ नहीं। मैं समाज को सुधारने की घोषणा करता हूँ, पर यदि ईश्वर से न जुड़े हों, तो कौन समाज को सुधारेगा? इसलिए कहा गया कि इस सामाजिक साधना में बहुत क्षमता है, पर वह क्षमता कब प्रकट होती है, जब उस सामाजिक साधना को हम ईश्वर के साथ जोड़ दें। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन का सुन्दर आदर्श वाक्य दिया है ‘आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च’ – अपनी मुक्ति और जगत् के कल्याण के लिये। अपनी मुक्ति यह असम्भूति की उपासना है और जगद्धिताय च जगत् के कल्याण के लिए, सामाजिक साधना है। इन दोनों के भीतर में ईश्वर तत्त्व एक केन्द्र के रूप में जुड़े हैं। यहाँ आत्मनो मोक्षार्थम् के साथ जगद्धिताय च जुड़ा हुआ है। किन्तु यदि मैं अपनी मुक्ति के लिए चेष्टा करूँ और वहाँ पर ईश्वर न हो, या मैं केवल अपने व्यक्तिगत स्वार्थ में घिर जाऊँ, मुक्ति-मुक्ति भले कहता रहूँ, पर यह क्या मुक्ति है! मैं भले ईश्वर की बात करता रहूँ, अपनी साधना को ही देखता रहूँ, तो यह कोई ठीक-ठीक ईश्वर को जीवन में उतारना नहीं है। मैं मुँह से भले ही ईश्वर की बात करता रहूँ, पर मुझे ईश्वर की प्रतीति हुई ही नहीं है। ठीक यही बात सामाजिक साधना के क्षेत्र में इन दो त्रिकों के माध्यम से कही गयी।
पहले त्रिक् में विद्या और अविद्या के बारे में कहा गया। अविद्या में मृत्यु को पार करने की भारी क्षमता है। विद्या में भी भारी क्षमता है, किसकी क्षमता है? उसमें अमरत्व को प्रदान करने की क्षमता है! असम्भूति में भारी क्षमता है, किसकी क्षमता है? अरे तुमको वह मृत्यु के पार करा देगी और उसी प्रकार सम्भूति में भारी क्षमता है, वह अमरत्व प्रदान करेगी। सामाजिक साधना तुम्हें कब अमरत्व प्रदान करेगी? जब यह ईश्वर के साथ जुड़ेगी, तब। जो आत्मतत्त्व को इन दोनों के साथ जानता है, इसका मतलब क्या है? जो कर्म और ज्ञान के साथ आत्मतत्त्व को जोड़ देता है। सम्भूति, असम्भूति, व्यक्तिगत साधना और सामाजिक साधना इन दोनों को लेकर के चलें। दोनों हमारे लिये अद्भुत रूप से कल्याणकारी बनते हैं।
यह ईश्वर या आत्मत्तत्त्व हमारे लक्ष्य के रूप में उपस्थित होता है, तो कर्म और ज्ञान, इन दोनों की साधनायें अद्भुत हो जाती हैं। व्यक्तिगत साधना, सामाजिक साधना, ये दोनों के दोनों हमारे लिए मानो अमृतत्व का मार्ग खोलकर रख देती हैं। ईशावास्योपनिषद् का यह मन्त्र समन्वय सेतु है। जैसाकि हमने कहा कि तुम कर्म को हीन क्यों मानते हो? ज्ञानियों से कह दो कि अरे यह कर्म ही तो तुम्हारे काँटे निकालेगा, यही तो तुम्हारे बन्धन को काटेगा। कर्म न करो, तो तुम्हारा कर्म-बन्धन नहीं कटेगा। कर्मवाले से क्या कहा? उनसे कहा कि अरे! यदि तुम ज्ञान को साथ लेकर न चलो, तो अमरत्व कहाँ मिलेगा? तुम हरदम भयभीत होते रहोगे। यह ज्ञान ही तुम्हारे जीवन में ऐसा अद्भुत अमृतत्व लाकर रख देगा कि तुम डरोगे नहीं, तुम्हारे जीवन से भय बिल्कुल निकल जाएगा।
मैंने परीक्षित का उदाहरण देकर बताया था कि महाभारत के परीक्षित और भागवत के परीक्षित में कितना अन्तर है! दोनों में महान् अन्तर है। भागवत के परीक्षित बन गये ज्ञानी, उनके जीवन में भय नहीं है, अमृतत्व उनके जीवन में उतर आया है। मृत्यु तो दोनों की हुई और सातवें दिन हुई, पर भागवत के जो परीक्षित हैं, विलक्षण है! ज्ञान जो सुना, उस ज्ञान के द्वारा उनके जीवन में अमरत्व उतर आया, सारा भय समाप्त हो गया। इसलिये यहाँ पर कहा गया कि कर्म और ज्ञान इन दोनों को जीवन में समन्वित करके हम चलें। व्यक्तिगत साधना और सामाजिक साधना, आत्मनो मोक्षार्थम् – अपनी मुक्ति के लिए और जगद्धिताय च जगत् के कल्याण के लिए, दोनों हमारे जीवन के माध्यम से साथ-साथ चलते रहें। ईश्वर उनका केन्द्र रहे, आत्मतत्त्व केन्द्र रहे, तो यह साधना बलवती होती है।
ठीक है, हमने कर्म और ज्ञान को साथ ले लिया, व्यक्तिगत साधना और सामाजिक साधना भी हमारी चलती रही, ईश्वर और आत्मतत्त्व को ही लक्ष्य बना लिया, जब हम ऐसी साधना करते हैं, तब क्या होता है? जब शिष्य ने उपदेश सुना, तो उसके भीतर में क्या भाव उत्पन्न हुआ, शिष्य पर उसका क्या प्रभाव हुआ, उसको पन्द्रवें मन्त्र में बताया गया है। अन्त के उन चार श्लोकों पर चर्चा कल होगी।
कल हमने कहा था कि कर्म में आत्मा का योग न हो, तो वह कर्मभोग है, विद्या में आत्मा का योग न हो, तो विद्या भी एक भोग है।
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यान-कौशलम् ।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद् भुक्तये न तु मुक्तये ।।
ऐसी विद्या केवल भोग की हो जाती है। पर यदि आत्मतत्त्व को इन दोनों से युक्त करके जानें, तो कर्म कर्मयोग हो जाता है और वह मनुष्य को मृत्यु से पार कराता है। विद्या क्या हो जाती है? विद्या के भीतर में जो अमृतत्व छिपा हुआ है, वह छिपा हुआ अमृतत्व निकल आता है और वह हमारे जीवन को अमृतमय बना देता है। उस पीयूष से हमारे जीवन को भर देती है। विद्या और कर्म के भीतर में निहित इस क्षमता को हमें आत्मा से जोड़कर के प्रकट करना है।
यदि विद्या में आत्मतत्त्व नहीं है, तो वह केवल knowledge (सूचना) है और विद्या में जब आत्मतत्त्व जुड़ जाए, तो वह wisdom (ज्ञान) है। बट्रेंड रसल नास्तिक थे। वे ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे, पर मानवतावादी थे। उन्होंने knowledge और wisdom इन दो शब्दों का बड़ा सुन्दर उपयोग किया है। The Impact of Science and Society उनका एक ग्रन्थ है, उसमें वे एक स्थान पर बड़ी सुन्दर बात लिखते हैं – We are in the middle of a race between human skill as to means and human folly as the ends. Given sufficient folly as to ends every increase in the skill required to achieve them is to the bad. The human race has survived hitherto owing to the ignorance and imcompetent, but given knowledge and competence combined with folly there can be not certainty of survival. Knowledge is power but its power for evil as much as for good. It follows therefore unless man increase in wisdom as much as in knowledge, increase of knowledge will be increase of sorrow.
कैसी अद्भुत बात उन्होंने कही, knowledge और wisdom इन दो शब्दों का उपयोग किया। knowledge क्या है? knowledge वह है, जो हमें विज्ञान से मिलता है, जो इन्द्रियाँ हमें लाकर के देती हैं। इस विज्ञान के युग में हमारा knowledge बहुत बढ़ रहा है। बटैंड रसल कहते हैं – knowledge बढ़ तो रहा है, पर तनाव भी उतने ही बढ़ रहे हैं, दुख भी उतना ही बढ़ रहा है। आज दुनिया एक विस्फोट के कगार पर क्यों है? इसलिए कि knowledge तो बहुत बढ़ गया, पर उस अनुपात में wisdom नहीं बढ़ा। wisdom क्या है? बटैंड रसल से पूछा गया – आपने knowledge की व्याख्या की। जो विज्ञान से जानकारी हमें मिलती है, आपने उसे knowledge कहा। आपकी दृष्टि में wisdom क्या है? बट्रेंड रसल ने wisdom की भी कितनी दार्शनिक व्याख्या की है। वे बड़ी विचित्र बात कहते हैं – “The essence of wisdom consists in emancipation as for as possible from the tyranny of the here and the now.” here = यहाँ, यह देशवाचक है और now = अब, यह कालवाचक है। तो देश और काल का जो अत्याचार मनुष्य पर हो रहा है, उस अत्याचार से यथाशक्ति छुटकारा पाने में wisdom का सार है। यह व्याख्या बटैंड रसल दे रहे हैं। इस दृष्टि से यहाँ पर हम इन दोनों शब्दों को समझ सकते हैं। knowledge माने अपरा विद्या, जिसे अविद्या कहा गया, जो कर्म है, यह knowledge है और उन्होंने जिसे wisdom कहा है, वह परा विद्या है। विद्या आत्मा के साथ युक्त नहीं है, तो वह knowledge है। जब विद्या आत्मा के साथ युक्त है, तो वह wisdom है। जो विद्या आत्मा के साथ युक्त न हो, तो वह मानो और भी गहरे अन्धकार में ले जाती है। कितने गहरे अन्धकार में? इतने गहरे कि समूल नाश हो सकता है। मनुष्य के पास बहुत जानकारी हो और उस पर wisdom का नियन्त्रण न हो, विवेक का नियन्त्रण न हो, तो कितना खतरा वह विद्या पैदा कर सकती है। आज हम देख ही रहे हैं, ये जो बड़े देश हैं, बड़ी शक्तियाँ हैं, जो प्रमुख हैं, उनके मस्तिष्क का एक केन्द्र थोड़ा-सा हटकर के चले, तो दुनिया नष्ट हो सकती है।
ईशावस्योपनिषद् में यही कहा गया कि जो अविद्या की, कर्म की उपासना करते हैं, वे गहरे अन्धकार में जाते हैं और जो विद्या में रत हैं, वे मानो और भी गहरे अन्धकार में जाते हैं। वे तो समूची मानवता का नाश अपने साथ कर देंगे। इसलिए विद्या और अविद्या दोनों का फर्क अलग-अलग बताया गया है। अविद्या से, कर्म करने से कहाँ जाते हैं? पितृलोक जाते हैं। विद्या से कहाँ जाते हैं? देवलोक जाते हैं। चाहे पितृलोक जाओ, चाहे देवलोक जाओ, ये दोनों ही भोग योनियाँ हैं। इसके बाद कहा कि यदि तुम इन योनियों के चक्कर में नहीं पड़ना चाहते हो, आत्मतत्त्व की उपलब्धि करना चाहते हो, तो अविद्या और विद्या के साथ आत्मा को जोड़ो। हम ज्योंहि अविद्या के साथ आत्मतत्त्व को जोड़ते हैं, मानो यह आत्मतत्त्व Catalytic agent के समान हो जाता है। आयुर्वेद शास्त्र में मानो वह अनुपान के समान हो जाता है। अनुपान का मतलब? यदि हम अनुपान के साथ दवा ग्रहण करें, तो जो दवा का गुण है, जो दवा की शक्ति है, वह शक्ति अनुपान से मिलने के बाद प्रकट होती है। वैद्यराज कहते हैं भस्म दे रहा हूँ, इसका अनुपान शहद है या मैं अमुक दे रहा हूँ, इसका अनुपान यह है। इसका मतलब क्या हुआ? अर्थात् दवा के गुण अनुपान के साथ मिलने पर प्रकट हो जाते हैं। वैसे ही कर्म के भीतर कर्म को काटने की क्षमता है। पर यह क्षमता कब प्रकट होगी? जब आत्मतत्त्व रूपी अनुपान के साथ कर्म को मिला दें तब। कर्म को काटने की क्षमता कर्म से ही प्रकट होगी। विद्या के भीतर कौन-सी क्षमता है? विद्या में अमृतत्व देने की क्षमता है, पर आत्मतत्त्व का अनुपान मिलाना पड़ेगा। अनुपान मिलने से Catalytic agent आ जाने से, विद्या के भीतर जो आत्मतत्त्व देने की क्षमता है, वह क्षमता प्रकट हो जाएगी।
हमने पहले कहा था पता ही नहीं चलता है कि यहाँ पर गुरु और शिष्य का वार्तालाप हो रहा है। पर इन मन्त्रों से पता चलता है, जब गुरुजी कहते हैं कि ‘इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचक्षिरे’ – हमने उन धीर पुरुषों से यह बात सुनी, उन्होंने हमारे प्रति यह बात कही और वही हम तुमसे कह रहे हैं, तब मालूम पड़ता है कि अरे, यहाँ पर तो गुरु बैठे हैं और वे शिष्य से कुछ कह रहे हैं। यहाँ पर गुरु और शिष्य के बीच में वार्तालाप हो रही है। अब उपदेश तो समाप्त हो गया। गुरु ने कहा कि बेटे ! मुझको जो कुछ कहना था, मैंने सब कुछ तुम्हें अत्यन्त सूत्र रूप में बता दिया। कर्म और ज्ञान इन दोनों को साथ में समन्वित करके चलना है। देख ! अलग-अलग नहीं, झगड़ा करके नहीं, दोनों में कर्म की आवश्यकता है, ज्ञान की आवश्यकता है। दोनों एक-दूसरे के परिपूरक बनकर के चलें। व्यक्तिगत साधना और सामाजिक साधना, ये दोनों साधनाएँ एक-दूसरे की परिपूरक हैं। केवल व्यक्तिगत कोई साधना करे, वह भी उतना स्पृहणीय नहीं है। इन दोनों को साथ लेकर के चले, व्यक्तिगत साधना भी मेरी चलती रहे और समाज-साधना भी मेरी चलती रहे, ये दोनों के दोनों परस्पर परिपूरक हैं। ऐसा बता दिया। साधना का क्रम बता दिया। आत्मतत्त्व क्या है, उसका स्वरूप बता दिया।
अब वह शिष्य चिन्तन करता है, वह शिष्य एकान्त में साधना करता है और साधना करते हुए कहता है –