चोखा मेळा महार जातिके थे। मंगलवेढ़ा नामक स्थानमें रहते थे। बस्तीसे मरे हुए जानवर उठा ले जाना ही इनका धंधा था। बचपनसे ही ये बड़े सरल और धर्मभीरु थे। श्रीविठ्ठलजीके दर्शनोंके लिये बीच-बीचमें ये पण्ढरपुर जाया करते थे। पण्ढरपुरमें इन्होंने नामदेवजीके कीर्तन सुने। यहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। नामदेवजीको इन्होंने अपना गुरु माना। अपने सब काम करते हुए ये भगवन्नाममें रत रहने लगे। इनपर बड़े-बड़े संकट आये, पर भगवन्नामके प्रतापसे ये संकटोंके ऊपर ही उठते गये। पण्ढरपुरके श्रीविठ्ठल-मन्दिरका महाद्वार इन्हें अपना परम आश्रय जान पड़ता था और भगवद्भक्तोंके चरणोंकी धूल अपना महाभाग्य। उस धूलमें ये लोटा करते थे। इनकी अनन्य भक्तिसे भगवान् इनके हो गये। एक बार श्रीविठ्ठल इन्हें मन्दिरके भीतर लिवा लाये और अपने दिव्य दर्शन देकर कृतार्थ किया। अपने गलेका रत्नहार और तुलसी-माला भगवान्ने इनके गलेमें डाल दी। पुजारी जागे, जो अबतक सोये हुए थे। ‘चोखा, एक महार, बेखटके घुसा चला आया मन्दिरके भीतर ! इसकी यह हिम्मत ? और भगवान्के गलेका रत्न-हार इसके गलेमें ? इसने ठाकुरजीको भ्रष्ट कर दिया और रत्नहार चुरा लिया।’ यह कहकर पुजारियोंने उसे बेतरह पीटा, रत्नहार छीन लिया और धक्के देकर बाहर निकाल दिया। इस प्रसंगपर संत जनाबाईने एक अभंगमें कहा है, ‘चोखा मेळाकी ऐसी करनी कि भगवान् भी उसके ऋणी हो गये। जाति तो इसकी हीन है, पर सच्ची भक्तिमें तो यही लीन है। इसने ठाकुरजीको भ्रष्ट किया, यह सुनकर तो यह जनी हँसने और गाने लगती है। चोखा मेळा ही तो एक अनामिक भक्त है, जो भक्तराज कहाने योग्य है। चोखा मेळा वह भक्त है, जिसने भगवान्को मोह लिया। चोखा मेळाके लिये स्वयं जगत्पति मरे हुए जानवर ढोने लगे।’ चोखाजी ज्ञानेश्वर महाराजकी संतमण्डलीमें एक थे। इनकी भक्तिपर सभी मुग्ध थे। निरन्तर भगवन्नाम-चिन्तन करनेवाले चोखाजी भगवन्नामकी महिमा गाते हुए एक जगह कहते हैं कि ‘इस नामके प्रतापसे मेरा संशय नष्ट हो गया। इस देहमें ही भगवान्से भेंट हो गयी।’ इनकी पत्नी सोयराबाई और बहिन निर्मलाबाई भी बड़ी भक्तिमती थीं। सोयराबाईकी प्रसूतिमें सारी सेवा स्वयं भगवान्ने की, ऐसा कहा गया है। इनके बेटेका नाम कर्म मेळा था, वह भी भक्त था। बंका महार नामक भक्त इनके साले थे। चोखाजी भगवान्के बड़े लाडिले भक्त माने जाते हैं। मंगलवेढ़ामें एक बार गाँवकी प्राचीरकी मरम्मत हो रही थी। उस काममें चोखा मेळा भी लगे थे। एकाएक प्राचीर ढह गयी, कई महार दबकर मर गये; उसीमें (सन् १३३८ ई० में) चोखाजीका भी देहान्त हो गया। भक्तोंने चोखाजीकी अस्थियाँ ढूँढ़ीं, नामदेवजी साथ थे। इनकी अस्थियोंकी पहचान यह मानी गयी कि जिस अस्थिमेंसे विट्ठल-ध्वनि निकले, उसीको चोखाजीकी अस्थि जानें। इन अस्थियोंको नामदेवजी पण्ढरपुर ले आये और मन्दिरके महाद्वारपर वे गाड़ी गयीं और उनपर समाधि बनी। जिनकी अस्थियोंमेंसे भी ‘विट्ठल’ नाम निकल रहा था, उन चोखाजीका सब भक्तोंने जय-जयकार किया।