मनुष्यमात्रके उद्धारके लिये उनकी रुचि, योग्यता और श्रद्धाके अनुसार तीन साधन बताये गये हैं-कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग (शरणागति)। इनमेंसे किसी भी एक साधनमें मनुष्य लग जाय तो उसका उद्धार हो जाता है।
जो मनुष्य यज्ञ, तप और दान तथा नियत कर्तव्य कर्मोंको आसक्ति और फलेच्छाका त्याग करके करता है एवं जो कुशल-अकुशल कर्मोंमें राग-द्वेष नहीं करता, वही वास्तवमें त्यागी है। नियत कर्मोंको करते हुए भी उसको पाप नहीं लगता और उसको कहीं भी कर्म-फल प्राप्त नहीं होता। उसके सम्पूर्ण संशय-सन्देह मिट जाते हैं और वह अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है। यह कर्मयोग है।
जो मनुष्य सात्त्विक ज्ञान, कर्म, बुद्धि, धृति और सुखको धारण करके कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे रहित हो जाता है, वह अगर सम्पूर्ण प्राणियोंको मार दे, तो भी उसको पाप नहीं लगता। अपने स्वरूपमें स्थित होनेपर उसको पराभक्तिकी प्राप्ति हो जाती है और उससे वह परमात्म-तत्त्वको यथार्थ जानकर उसमें प्रविष्ट हो जाता है। यह ज्ञानयोग है।
मनुष्य भगवान्का आश्रय लेकर सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मोंको सदा सांगोपांग करता हुआ भी भगवत्कृपासे अविनाशी पदको प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य भगवान्के परायण होकर सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान्के अर्पण करता है, वह भगवत्कृपासे सम्पूर्ण विघ्न बाधाओंसे तर जाता है। जो अपनेसहित शरीर-मन-इन्द्रियोंको भगवान्में ही लगा देता है, वह भगवान्को ही प्राप्त होता है। जो सम्पूर्ण धर्मोंके आश्रयका त्याग करके अनन्यभावसे केवल भगवान्के ही शरण हो जाता है, उसको भगवान् सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर देते हैं। यह भक्तियोग है।