Chapter 1: Arjuna Viṣhāda Yoga
- ‘धृतराष्ट्र ने कहा’ : ‘हे सञ्जय! मुझे बताओ कि धार्मिक गतिविधि के केन्द्र कुरुक्षेत्र में एकत्रित हुए और युद्ध के इच्छुक मेरे पक्ष के लोगों और पाण्डवों ने वहाँ वस्तुतः क्या किया?’ (1.1)
- ‘संजय ने कहा’ : ‘तब राजा दुर्योधन, पाण्डवों की सेना को युद्ध के लिए तैनात देखकर, अपने गुरु द्रोण के पास गया, और उसने उन्हें ये शब्द कहे’: (1.2)
- ‘हे आचार्य पाण्डु के पुत्रों की इस शक्तिशाली सेना को देखिये जिसे द्रुपद के पुत्र एवं आपके प्रतिभावान शिष्य ने व्यवस्थित किया हैं’। (1.3)
- ‘यहाँ शक्तिशाली धनुर्विद् तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान नायक उपस्थित हैं – तथा महान् योद्धा युयुधान, विराट, द्रुपद; वीर धृष्टकेतु, चेकितान, बलवान काशिराज; पुरुषश्रेष्ठ पुरुजित, कुन्तिभोज और शैब्य; शक्तिशाली युधामन्यु और वीर उत्तमौजस, सुभद्रा और द्रौपदी के महारथी पुत्र भी हैं।’ (1.4, 1.5 & 1.6)
- ‘हे द्विजों (दो बार जन्म लेने वालों में) में सर्वश्रेष्ठ, अब मुझे स्वयं अपनी सेना के बारे में बताने दीजिये। मैं अपने पक्ष के कुछ विशिष्ट योद्धाओं के नाम लूँगा’। (1.7)
- ‘सर्वप्रथम आप स्वयं, फिर भीष्म, कर्ण, तत्पश्चात् युद्ध में विजयी कृप, अश्वत्थामा, विकर्ण, जयद्रथ और सोमदत्त का पुत्र।’ (1.8)
- ‘और युद्ध में निपुण, अनेक शस्त्रों से युक्त अन्य कई योद्धा भी मेरे लिये अपना जीवन अर्पित करने को कृत संकल्प हैं।’ (1.9)
- ‘भीष्म द्वारा रक्षित हमारी यह सेना अगणित है, लेकिन भीम द्वारा रक्षित उनकी वह सेना गणनीय है, अर्थात् बहुत कम है।’ (1.10)
- ‘और अब सेना के विभिन्न विभागों में अपने अपने स्थानों पर स्थित होकर हम भीष्म की सहायता व उनकी रक्षा करें’। (1.11)
- ‘दुर्योधन का उत्साह बढ़ाने के लिये कुरुओं में ज्येष्ठतम पितामह भीष्म ने सिंहनाद के समान अपना शंख बजाया।’ (1.12)
- ‘जैसे ही भीष्म ने अपना शंख बजाया वैसे ही शेष सभी ने प्रारंभ किया : अनेक प्रकार के वाद्य-यंत्र बजाए गए। सेना को उत्साहित करने का वातावरण बनाने के लिये शंख, नगाड़े, ढोल, मृदंग और नरसिंघे कौरव पक्ष की ओर से अचानक जोरों से बजने लगे, जिनकी ध्वनि भयंकर थी।’ (1.13)
- ‘तत्पश्चात् माधव, अर्थात् श्रीकृष्ण, और पाण्डव, अर्थात् अर्जुन ने सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए अपने अलौकिक शंख बजाये।’ (1.14)
- ‘हृषीकेश, अर्थात्, श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य नामक शंख बजाया; धनंजय, अर्थात् अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाया और भयानक कर्म वाले वृकोदर अर्थात् भीम ने पौण्ड्र नामक बड़ा शंख बजाया।’ (1.15)
- ‘कुन्तिपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक शंख बजाया; और नकुल तथा सहदेव ने अपने सुघोष और मणिपुष्पक शंख बजाए।’ (1.16)
- ‘निपुण धनुर्धर, काशी के राजा, और महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न और विराट और अजेय सात्यकि।’ (1.17)
- ‘हे पृथ्वी के स्वामी (अर्थात् धृतराष्ट्र)! द्रुपद और द्रौपदी के पुत्र तथा शक्तिशाली भुजावाले सुभद्रापुत्र ने अपने-अपने शंख बजाए।’ (1.18)
- ‘पृथ्वी और आकाश में गूँजती हुई उस भयंकर ध्वनि ने धृतराष्ट्र के पक्ष के हृदय विदीर्ण कर दिये।’ (1.19)
- ‘तब हे पृथ्वी के स्वामी! जब युद्ध आरंभ होने को था उस समय धृतराष्ट्र के पक्ष को मोर्चे पर खड़े हुए देख कर उस पाण्डव (अर्जुन) ने जिसका प्रतीक चिन्ह वानर था, अर्थात् उसके ध्वज पर हनुमान अंकित थे, अपना धनुष उठाते हुए कृष्ण को ये शब्द कहे।’ (1.20, 1.21A)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘हे अच्युत, अर्थात् श्रीकृष्ण, कृपया मेरे रथ को दोनो सेनाओं के मध्य खड़ा कीजिये जिससे कि मैं उन सब को देख सकूँ जो यहाँ युद्ध के लिये तत्पर हैं। युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व मुझे देखने दीजिये कि मुझे किन से युद्ध करना है।’ (1.21B, 1.22)
- ‘क्योंकि मैं उन्हें देखना चाहता हूं जो दुर्बुद्धि दुर्योधन को इस रणक्षेत्र में उसका पक्ष लेकर उसे प्रसन्न करने के लिये यहाँ युद्ध के लिये उपस्थित हुए हैं’। (1.23)
- ‘संजय ने कहा’ : ‘हे भारत, अर्थात् धृतराष्ट्र, गुडाकेश (अर्जुन) द्वारा ऐसा कहे जाने पर हृषीकेश, अर्थात् श्रीकृष्ण ने उस सर्वोत्तम रथ को चला कर दोनों सेनाओं के बीच भीष्म, द्रोण तथा पृथ्वी के सभी राजाओं के समक्ष खड़ा कर अर्जुन से कहा, “अर्जुन! सभी एकत्रित कौरवों को देखो”।’ (1.24 & 1.25)
- ‘तब अर्जुन ने दोनों सेनाओं में अपने समक्ष स्थित अपने सम्बन्धियों, पितामह, श्वसुरगण, चाचा-ताउओं, भ्राताओं, चचेरे और ममेरे भाइयों और अपने और उनके पुत्रों, पौत्रों, सुहृदों व आचार्यगणों तथा अन्य मित्रों को देखा।’ (1.26)
- ‘तब उस कुन्तिपुत्र, अर्थात् अर्जुन ने उन सभी सम्बन्धियों को अपनी पंक्ति में अवस्थित देख कर, दुःखपूर्वक और तीव्र करुणा से भरकर यह कहा।’ (1.27)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘हे कृष्ण, यह देखकर कि ये मेरे सम्बन्धीगण युद्ध के प्रयोजन से यहाँ एकत्रित हुए हैं, मेरे हाथ-पैर, मेरा साथ नहीं दे रहे; मेरा मुँह सूखा जा रहा है; मेरे पूरे शरीर में कम्पन हो रहा है; मेरे रोम तन्तु खड़े हो रहे हैं; गाण्डीव धनुष हाथ से छूट रहा है, और मेरी त्वचा जल रही है।’ (1.28 & 1.29)
- ‘हे केशव, (श्रीकृष्ण का एक और नाम) मैं सीधा खड़ा नही हो सकता। मेरा सिर चकरा रहा है। और मुझे शकुन भी प्रतिकूल दिखाई दे रहे हैं।’ (1.30)
- ‘हे कृष्ण,युद्ध में इन स्वजनों को मारने में न ही मुझे कुछ भला प्रतीत होता है, न मुझे विजय प्राप्ति की इच्छा है, न राज्य की, और न ही सुख प्राप्ति की इच्छा है।’ (1.31)
- ‘हे गोविन्द! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है, और क्या लाभ है ऐसे भोगों और जीवन से भी यदि ये लोग, जिनके लिये यह राज्य और सुख हमारे होने चाहिये, वे ही युद्ध में जीवन और धन-सम्पत्ति का त्याग करके खड़े हैं। आचार्य, चाचाताऊ, पुत्र, पितामह, मामा, श्वसुरगण, पौत्र, साले व अन्य सम्बन्धी ये सभी मेरे अपने हैं।’ (1.32, 1.33 & 1.34)
- ‘हे मधुसूदन, (श्रीकृष्ण) मुझे मारने पर भी मैं उन्हें नहीं मारना चाहता, न ही तीनों लोकों की प्राप्ति के लिये उन्हें मारना चाहता हूं, तब इस पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या!’ (1.35)
- ‘हे कृष्ण, धृतराष्ट्र के इन पुत्रों को मारकर हमें क्या सुख मिलेगा? इन आततायियों की हत्या से तो हमें पाप ही लगेगा।’ (1.36)
- ‘इसलिये, हम अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के योग्य नहीं हैं। हे कृष्ण, अपने ही स्वजनों को मार कर हम कैसे सुख प्राप्त कर सकते हैं?’ (1.37)
- ‘यद्यपि मेरे समक्ष एकत्रित हुए ये कौरव अपने अभिभूत करनेवाले लोभ के कारण भ्रष्टचित्त होकर इस सत्य को नहीं समझ रहे हैं, फिर भी स्वजनों के प्रति वैरभाव पाप है। हे जनार्दन, क्यों न हमें, जो कि स्पष्ट रूप से कुल और समाज के पतन का कारण इस दोष को देखते हैं, इस पाप से नहीं हट जाना चाहिये?’ (1.38 & 1.39)
- ‘परिवार के पतित होने पर परिवार के स्मृति स्वरूप श्राद्धकर्मादि क्रिया-कलाप नष्ट हो जाते हैं। पारिवारिक संस्कृति नष्ट हो जाती है। सामाजिक मूल्यों का ह्रास होने पर पाप पूरे परिवार को पाप आच्छादित कर लेता है।’ (1.40)
- ‘जब भी कोई बड़ा युद्ध होता है, कितनी ही स्त्रियाँ विधवाएँ और बच्चे अनाथ हो जाते हैं! जब पाप बढ़ जाने पर सामाजिक मूल्य नष्ट हो जाते हैं तो परिवार की स्त्रियाँ इस संकटपूर्ण स्थिति के कारण भ्रष्ट हो जाती हैं। जब हमारी स्त्रियों के लिए कुछ भी प्रतिकूल होता है तो सारा समाज व्यथित हो जाता है। तब समाज में बहुत भ्रष्टाचार व्याप्त हो जायगा। (1.41)
- ‘सामाजिक पतन परिवार को नष्ट करने वालों को नरक में ले जाएगा। उनके पूर्वज पिण्ड और जल की भेंट वाले क्रिया-कर्मों से वंचित हो जाएँगे।’ (1.42)
- ‘समाज, वर्ण और जाति में भ्रम उत्पन्न करने वाले एवं परिवारों को नष्ट करनेवाले इन कुकर्मों से वर्ण और परिवार के स्मृतिस्वरूप क्रिया-कर्म नष्ट हो जाते है।’ (1.43)
- ‘हे कृष्ण, हमने सुना है कि उन स्त्री-पुरुषों का नरक में जाना निश्चित है, जिनके परिवारों में धार्मिक संस्कार नष्ट हो गए हैं।’ (1.44)
- ‘ओह, हम एक महापाप करने को उद्यत हो रहे हैं, जिसमें एक राज्य के सुखभोग के लोभ के कारण हम अपने ही सम्बन्धियों को मारने को तैयार हैं।’ (1.45)
- ‘धृतराष्ट्र के पुत्र, अर्थात् कौरव, मेरे द्वारा सामना न करते हुए हाथ में शस्त्र लेकर भी मुझ शस्त्रहीन को मारें तो वह भी मेरे लिये अच्छा होगा।’ (1.46)
- ‘संजय ने कहा’ : ‘रणक्षेत्र के बीच में इस प्रकार से कहते हुए शोक से उद्विग्न मन के साथ, अपने धनुष-बाणों को त्यागते हुए अर्जुन रथ में अपने आसन पर त्रस्त होकर बैठ गया।’ (1.47)
Chapter 2: Sankhya Yoga
- ‘संजय ने कहा’ : (2.1)
- -(2.2)
- -(2.3)
- -(2.4)
- ‘मेरे लिये इस संसार में भिक्षान्न पर जीवित रह कर मेरे सम्माननीय बड़ों की हत्या से बचना श्रेष्ठतर होता; जो लोग अपने उद्देश्यों की पूर्ति में लगे हुए हैं उन्हें मारकर मैं रुधिर से सने हुए सुखों का भोग कैसे कर सकता हूँ।’ (2.5)
- – (2.6)
- ‘मेरा मूल स्वभाव दुर्बलहृदयता के दोष से आच्छादित हो गया है और मैं अपने धर्म व कर्तव्य को लेकर भ्रमित हूँ; इसलिये मैं आपसे पूछता हूँ कि मुझे निश्चयपूर्वक बताएँ मेरे लिये क्या लाभप्रद होगा। मैं आपका शिष्य हूँ; मुझे शिक्षा दीजिये, मैं आपकी शरण में हूँ।’ (2.7)
- ‘मैं पृथ्वी पर किसी प्रकार का समृद्ध राज्य, या स्वर्ग के निवासियों पर कोई आधिपत्य नहीं जानता जो उस शोक को हटा सके जिसने मेरी इन्द्रियों को सुखा दिया है’। (2.8)
- ‘संजय ने कहा’ : ‘श्रीकृष्ण को यह कह कर, अर्जुन ने कहा, मैं युद्ध नहीं करूँगा। और वह रथ में चुप बैठा रहा।’ (2.9)
- –
- –
- ‘उसे जानो जो अखिल जगत् में अविनाशी रूप में व्याप्त है; उस अव्यय सत्य को कोई नष्ट नहीं कर सकता’। (2.17)
- ‘जो अनन्त रूप से शरीरधारी है, जो कि अविनाशी और अनवधार्य है, ऐसा कहा जाता है; उसके इन शरीरों का अन्त होता है, अतः हे अर्जुन, लड़ो’। (2.18)
- ‘जो इस आत्मा को वध करने वाला समझता है, और जो इस आत्मा को मरा हुआ समझता है, वे दोनो नहीं जानते कि न तो आत्मा मार सकती है और न मरती है’। (2.19)
- ‘यह ‘आत्मा’ कभी पैदा नहीं होती और न यह कभी मरती है; यह कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो जन्म लेकर पुनः अस्तित्व विहीन हो जाती है; यह अजन्मा, शाश्वत और चिरस्थायी है, जब शरीर मारा जाता है, तब यह पुरातन नहीं मारा जाता’। (2.20)
- ‘इसे अनाशवान्, नित्य, अजन्मा और अक्षय के रूप में जानो; हे अर्जुन, कैसे कोई व्यक्ति (जो इस सत्य को जानता हो), किसी को मारने का कारण हो सकता है, और किसे वह मार सकता है’? (2.21)
- ‘जैसे कि शरीरधारी व्यक्ति फटे हुए वस्त्र फेंक देता है और नये वस्त्र धारण कर लेता है, इसी प्रकार शरीरधारी जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग देता है और दूसरे नये शरीर को धारण करता है’। (2.22)
- ‘कोई शस्त्र इस आत्मा को नहीं काट सकता, कोई अग्नि इसे जला नहीं सकती, कोई जल इसे गीला नहीं कर सकता और कोई हवा इसे सुखा नहीं सकती’। (2.23)
- ‘इस ‘आत्मा’ को काटा नहीं जा सकता, न इसे जलाया जा सकता है, न भिगोया और न सुखाया जा सकता है। परिवर्तन रहित, सर्व-व्यापी, अचल, स्थिर, यह ‘आत्मा’ नित्य है’। (2.24)
- ‘आत्मा अव्यक्त कही जाती है, चिन्तन से परे, परिवर्तन से परे; इसे इस प्रकार का जान कर, तुम्हारे लिये शोक करना उचित नहीं है’। (2.25)
- ‘फिर भी, यदि तुम सोचते हो कि इस स्व का निरंतर जन्म और निरंतर मृत्यु होती रहती है, तब भी, हे बलिष्ठ भुजावाले, तुम्हारे लिये शोक करना उचित नहीं’। (2.26)
- ‘जो भी पैदा हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है; मरने वाले के लिये जन्म भी निश्चित है; अतः इस अपरिहार्य सत्य के कारण तुम्हारे लिये यह शोक करना उपयुक्त नहीं है’। (2.27)
- ‘प्राणी अदृश्य से आते हैं, बीच में वे दृश्य हो जाते हैं, और अदृश्य में ही वे लौट भी जाते हैं; इसमें चिन्ता की क्या बात है’? (2.28)
- ‘कुछ इस (सत्य) को एक आश्चर्य के रूप में देखते हैं; कुछ अन्य इसी प्रकार आश्चर्य से इसके बारे में बोलते हैं; कुछ और इसे आश्चर्य से सुनते है; कुछ अन्य इसके बारे में सुनकर भी इसे बिल्कुल भी नहीं समझते’। (2.29)
- ‘वह, जिसे सभी शरीर बद्ध करते हैं, वह मारे जाने से नित्य मुक्त है; इसलिये, तुम्हें (अर्जुन को) सभी प्राणियों के लिये शोक करना उचित नहीं’। (2.30)
- ‘तुम्हारे स्वयं के धर्म के दृष्टिकोण से, तुम्हारे लिये विचलित होना उचित नहीं है; एक क्षत्रिय के लिये केवल एक युद्ध से अधिक शुभ कुछ भी नहीं है’। (2.31)
- ‘जब उसे इस प्रकार का युद्ध मिलता है तब ‘ क्षत्रिय प्रसन्न होता है जो युद्ध बिना तलाश किये हुए आता है और जो (नायक के लिये) स्वर्ग के द्वार खोल देता है’। (2.32)
- ‘यदि यह धर्म-युद्ध तुम नहीं लड़ते हो तो अपने धर्म और कीर्ति से विमुख होकर, तुम पाप के भागीदार बनोगे’। (2.33)
- ‘लोग तुम्हारी अपकीर्ति के बारे में बहुत दिनों तक चर्चा करेंगे; और एक सम्माननीय व्यक्ति के लिये, अपकीर्ति मृत्यु से भी बढ़कर है’। (2.34)
- ‘महान् योद्धा समझेंगे कि तुम युद्ध से डर कर भाग गये हो’; येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्, ‘वे जिन्होंने तुम्हें अब तक सम्मान दिया, अब तुम्हें तुच्छ समझेंगे या तुम्हारा अनादर करेंगे’। (2.35)
- ‘तुम्हारे शत्रु तुम्हारे विरुद्ध सभी प्रकार के शब्द बोलेंगे जो बोलने योग्य नहीं हैं; वे तुम्हारी क्षमताओं और प्रतिभाओं का उपहास करेंगे’। (2.36)
- – (2.37)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘सुख और दुःख, लाभ और हानि, विजय और पराजय को, एक मानकर, युद्ध में भाग लो। इस प्रकार तुम कोई पाप नहीं करोगे।’ (2.38)
- ‘आत्म-बोध का ज्ञान तुम्हें बताया गया है। अब तुम योग का ज्ञान सुनो, जिसे प्राप्त करके, हे पृथापुत्र, तुम कर्म के बन्धनों को तोड़ सकोगे’। (2.39)
- ‘इसमें, अधूरा प्रयास व्यर्थ नहीं जाता, न ही यह विपरीत परिणाम देने वाला है। इस धर्म का थोड़ा सा पालन भी महान् भय से मुक्ति देने वाला होता है’। (2.40)
- ‘हे कुरु के वंशज, इस क्रम में केवल एक ही बुद्धि है जिसका एक ही दिशा में लक्ष्य होता है। लक्ष्यविहीनों के उद्देश्य अनेक और बहुत सी शाखाओं वाले होते है’। (2.41)
- ‘हे अर्जुन, वे मूर्ख हैं जो पुष्पित, अर्थात् अलंकृत दिखाऊ। बातें बोलते हैं। वे वेदों के अक्षरों का आनन्द उठाकर तर्क करते हैं कि इसके अतिरिक्त्त कुछ और है ही नहीं’। (2.42)
- ‘वे वासनाओं से भरे हुए हैं, स्वर्ग को सर्वोच्च समझते हैं, जो कि पुनर्जन्म और कर्म के फल प्रदान करता है, और वे उन विशेष कर्म-काण्डों से भरे हुए हैं जो सुख और शक्ति प्रदान करते हैं’। (2.43)
- ‘वे जो कि सुख प्राप्ति और शक्ति के प्रति आसक्त्त हैं, जिनका मन इनका दास बन चुका है, उनके लिए कोई संभावना नहीं है कि वे अपनी बुद्धि का विकास कर पाएँ अथवा ऐसा संकल्प कर सकें जो समाधि की उपलब्धि कर सके’। (2.44)
- ‘वेद तीनों गुणों पर विचार करता है। हे अर्जुन तुम गुणों की तिकड़ी से, परस्पर विरोधी युग्मों से स्वतंत्र हो जाओ, सदैव संतुलित, प्राप्ति और संचय के विचार से मुक्त, और अपने ‘स्व’ में स्थित’। (2.45)
- ‘उस आध्यात्मिक व्यक्ति के लिये, जिसने ‘स्व’ को जान लिया है, सभी वेद उतने ही उपयोगी हैं जितना कि सब तरफ बाढ़ आने पर किसी तालाब का उपयोग’। (2.46)
- ‘तुम्हारा अधिकार केवल कर्म पर है; लेकिन उसके फलों पर कभी नहीं। कर्म के फलों से, तुम कभी प्रेरित न रहो, न ही तुम कर्म न करने के प्रति आसक्ति रखो (2.47)
- ‘योग में स्थित होकर, हे अर्जुन, आसक्ति छोड़कर, सफलता या विफलता के प्रति तटस्थ होकर कार्यों को करो। मन की यह स्थिरता योग जानी जाती है’। (2.48)
- ‘(कामना के साथ) कार्य निश्चित ही अत्यन्त हीन है उसकी अपेक्षा जो मन को बुद्धि-योग में रख कर किया जाता है। हे धनञ्जय, इस बुद्धि की शरण में जाओ, मन के समत्व में, दुखी हैं वे जो (स्वार्थी) परिणामों के लिये कार्य करते है’। (2.49)
- ‘बुद्धि के इस समत्व को प्राप्त करके, व्यक्ति इसी जीवन में अच्छाई और बुराई को एक मानते हुए; मुक्त हो जाता है, अतः स्वयं को इस योग से जोड़ो। योग, कार्य में दक्षता का नाम है’। (2.50)
- ‘इस प्रकार से मन के समत्व को प्राप्त करके, बुद्धिमान व्यक्ति, अपने कर्मो के समस्त फलों का त्याग करके, सदा के लिए जन्म के बन्धनों से मुक्त होकर उस स्थिति को प्राप्त करते हैं जो सभी दोषों से परे है। (2.51)
- ‘जब तुम्हारी सोच माया के दूषण को पार कर लेती है, तब तुम्हें सुनी हुई और अब सुनी जाने वाली बातों के बारे में उदासीनता का भाव प्राप्त होगा’। (2.52)
- ‘तुम्हारी सोच बुद्धि, जो मतों के द्वन्द्व द्वारा इधर से उधर उछलती रहती है, जब वह ‘स्व’ में स्थिर और पूर्ण स्थित हो जाती है, तब तुम्हें आत्मबोध होगा’। (2.53)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘हे केशव, उस व्यक्ति का क्या विवरण है जो स्थित प्रज्ञ है, समाधि में विलीन? स्थित प्रज्ञ पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है, कैसे चलता है?’ (2.54)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘हे पार्थ, जब कोई पूर्णतः, मन की समस्त कामनाएँ छोड़ देता है, और स्व से स्व में ही संतुष्ट हो जाता है, तब वह स्थिर बुद्धि युक्त कहा जाता है’। (2.55)
- ‘वह, जिसका मन विपरीत परिस्थिति में भी विचलित नहीं होता है, जो सुख के पीछे नहीं दौड़ता है जो अन्धे राग, भय और क्रोध से मुक्त है, यथार्थ में स्थिरबुद्धि युक्त मुनि या ऋषि है। (2.56)
- ‘वह जो प्रत्येक स्थान पर अनासक्त्त है, न शुभ की प्राप्ति पर प्रसन्न होता है, न अशुभ में दुखी होता है, उसकी बुद्धि स्थिर है’। (2.57)
- ‘तब भी, जब जैसे कछुआ अपने हाथ पैर समेट लेता है, यदि कोई अपनी इन्द्रियों को पूर्णतः इन्द्रियों के विषयों से हटा लेता है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है’। (2.58)
- ‘संयमी व्यक्ति से इन्द्रियों के विषय छूट जाते हैं, किन्तु लालसाएँ पीछे रह जाती हैं। लेकिन वह लालसा भी छूट जाती है, जब कोई सर्वोच्च को जान लेता है’। (2.59)
- ‘हे कुन्तिपुत्र, अशान्त, उपद्रवी इन्द्रियाँ पूर्णता के लिए प्रयत्नशील एक बुद्धिमान व्यक्ति का भी मन बलपूर्वक हर लेती हैं। (2.60)
- ‘संयमी व्यक्ति, उन सब को नियंत्रण में करके, सर्वोच्च के रूप में मुझ पर ध्यान लगाते हुए बैठता है; जिसकी इन्द्रियाँ नियंत्रण में हैं’ उसकी बुद्धि स्थिर है,। (2.61)
- ‘इन्द्रिय विषयों के चिन्तन से, उनके प्रति (मनुष्य में) आसक्ति हो जाती है; आसक्ति से उन्हें प्राप्त करने की इच्छा जागृत होती है; और इच्छा जागृत होने पर क्रोध उत्पन्न होता है’। (2.62)
- ‘क्रोध से बुद्धि-भ्रम होता है, बुद्धि-भ्रम से स्मृति भंग हो जाती है। स्मृति भंग होने से विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है और विवेक नष्ट होने से, व्यक्ति नष्ट हो जाता है’। (2.63)
- ‘किन्तु, इन्द्रिय विषयों के बीच रहता हुआ, अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हुए, और आकर्षण-विकर्षणों से मुक्त होकर आत्म नियंत्रित व्यक्ति शान्ति को प्राप्त होता है’। (2.64)
- ‘प्रशान्ति में सभी दुख नष्ट हो जाते हैं। जो प्रशान्त मन का व्यक्ति है उसकी बुद्धि शीघ्र ही निश्चलता को प्राप्त हो जाती है’। (2.65)
- ‘अस्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति को ‘स्व’ का कोई ज्ञान नहीं हो सकता। न ही वह ध्यान कर सकता है; ध्यान न करने वाले को कोई शान्ति नहीं हो सकती, और जिसे शान्ति नहीं है वह कैसे सुखी हो सकता है। (2.66)
- ‘क्योंकि वह मन, जो भटकती हुई इन्द्रियों के पीछे-पीछे दौड़ता फिरता है, वह उसका विवेक हर लेता है, जैसे कि पवन समुद्र में जलयान को अपनी दिशा से भटका देती है’। (2.67)
- ‘इसलिये, हे शक्तिशाली भुजाओं वाले, उसका ज्ञान स्थिर है, जिसकी इन्द्रियाँ विषयों के प्रति नियंत्रित हैं’। (2.68)
- ‘जो सभी प्राणियों के लिये रात्रि है, उसमें आत्मसंयमी जाग्रत रहता है। उसमें, जिसमें सभी प्राणी जाग्रत रहते हैं, वह आत्म-द्रष्टा मुनि के लिये रात्रि है’। (2.69)
- ‘जैसे समुद्र में, जो कि पूर्ण व स्थिर है, (अनेक नदियों की बाढ़ का) जल (बिना समुद्र को आन्दोलित किये) बहता है उसी प्रकार मुनि है, जिसमें सभी इच्छाएँ प्रवेश करती हैं; फिर भी वह शान्त रहता है या रहती है, न कि इच्छाओं की कामना करने वाला’। (2.70)
- ‘वह व्यक्ति जो ऐन्द्रिक लालसाओं और इच्छाओं के बिना रहता है, ‘मैं’ और ‘मेरे’ के भाव के बिना, वह शान्ति प्राप्त करता या करती है’। (2.71)
- ‘यह ( स्थितप्रज्ञ स्थिति) ब्रह्म में स्थिति से होती है, ब्राह्मी स्थितिः, हे पृथापुत्र कोई भी, इसे प्राप्त करके भ्रमित नहीं होता। अपने जीवनकाल के अन्त में भी, इसमें स्थित होकर, वह ब्रह्म से एकाकार हो जाता है’। (2.72)
Chapter 3: Karma Yoga
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘हे जनार्दन (कृष्ण), यदि आपके अनुसार ज्ञान कर्म से श्रेष्ठ है, तो फिर हे केशव, आप मुझे इस भयंकर कर्म में क्यों नियोजित करते हैं?’ (3.1)
- ‘इन परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले शब्दों से, आप मेरी समझ को भ्रमित कर रहे हैं; मुझे वह एक बात निश्चयपूर्वक बताइये, जिससे कि मैं उच्चतम को प्राप्त कर सकूँ’। (3.2)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘(सृष्टि के) प्रारंभ में, हे पाप रहित, इस संसार को मैंने दो प्रकार के मार्ग बताये थे – सांख्यों के लिये ज्ञान का मार्ग, और योगियों के लिये कर्म का’। (3.3)
- ‘कार्य न करने से किसी को अकर्म प्राप्त नहीं होता; केवल कर्म का त्याग करने से कोई पूर्णता प्राप्त नहीं करता’। (3.4)
- ‘अवश्य ही, कोई भी, बिना कर्म किये एक क्षण भी रह नहीं कर सकता; क्योंकि सभी को असहाय होकर, प्रकृति के गुणों के वशीभूत होकर कर्म करना होता है’। (3.5)
- ‘वह जो कि इन्द्रियों को विषयों से पृथक कर लेता है, किन्तु जो अपने मन में उन विषयों का विचार करता रहता है, वह भ्रमित समझ वाला पुरुष अथवा स्त्री मिथ्याचारी कहलाता या कहलाती है’। (3.6)
- ‘लेकिन, हे अर्जुन, वह जो, इन्द्रियों को मन से नियंत्रित करता है, और अनासक्त्त रह कर कर्मेन्द्रियों को कर्म के योग में लगाता है वह श्रेष्ठत्व को प्राप्त करता है’। (3.7)
- ‘क्या तुम नियत कर्म करते हो; क्योंकि कर्म अकर्म से श्रेष्ठतर है; और यदि तुम अकर्मण्य होते हो तो शरीर तक को बनाए रखना भी संभव नहीं होगा। (3.8)
- ‘उन कर्मों के सिवाय जो यज्ञ के लिये बताए जाते हैं विश्व कर्म द्वारा बंधा हुआ है; इसलिये, हे कुन्तीपुत्र, क्या तुम आसक्ति से मुक्त केवल यज्ञ के लिये कर्म करते हो।’ (3.9)
- ‘प्रजापति (जीवों के स्वामी) ने प्रारंभ में यज्ञ के साथ (स्वयं से) मानवजाति का प्रक्षेपण करके कहा, “इससे तुम संख्या में विस्तार पाओगे; यह तुम्हारी इच्छाओं की दुधारू गाय होगी”।’ (3.10)
- ‘इससे देवताओं को प्रसन्न करो, और वे देवता तुम्हें प्रसन्न करें; इस प्रकार एक दूसरे को प्रसन्न करते हुए, तुम्हें परम कल्याण की प्राप्ति होगी।’ (3.11)
- ‘यज्ञ से प्रसन्न होकर देवगण तुम्हें इच्छित वस्तुएँ प्रदान करेंगे, वह जो देवताआएं द्वारा प्रदत्त वस्तुओं का भोग उन्हें पुनः समर्पित किये बिना करता है (जो कि ऋण है) निश्चित ही चोर है’। (3.12)
- ‘भले लोग, जो यज्ञ के अवशिष्ट भाग पर जीवित हैं, सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं; लेकिन दूसरी ओर वे, जो केवल अपने लिये ही भोजन पकाते हैं, केवल पाप खाते हैं’। (3.13)
- ‘भोजन से प्राणियों का उद्भव है; वर्षा से, भोजन का उत्पादन होता है : यज्ञ से वर्षा होती है; यज्ञ कर्म अथवा कार्य से होता है’। (3.14 & 3.15)
- ‘वह जो इस संसार में पापपूर्ण जीवन व्यतीत करने में और इन्द्रियों में सुख प्राप्त करने में इस प्रकार निर्धारित की गई चक्रीय गति का निर्वाह नहीं करता है, हे पृथापुत्र – वह व्यर्थ ही जीता या जीती है’। (3.16)
- ‘लेकिन वह जो आत्मा में आनन्दित है, आत्मा में संतुष्ट है, और आत्मा में ही प्रसन्नता का अनुभव करता है, उसके लिये कर्तव्य कर्म नहीं रह जाता’। (3.17)
- उसको किसी कर्म (कार्य) द्वारा इस संसार की किसी वस्तु (को प्राप्त करना) नहीं होता, न ही कर्म न करके (उसे कोई हानि होती है) – न ही उसे किसी इच्छित वस्तु को प्राप्त करने के लिये किसी पर निर्भर करने की आवश्यकता होती है। (3.18)
- ‘इसलिये, अपने नियत कर्मों को बिना आसक्ति के सदैव करते रहो, अनासक्त्त होकर कार्य करने पर, मनुष्य उच्चतम को प्राप्त करता है’। (3.19)
- ‘अवश्य ही, केवल कर्म द्वारा जनक तथा अन्य लोगों ने पूर्णता प्राप्त की थी; लोकसंग्रह को सुनिश्चित करने की दृष्टि से भी, मानव समाज के स्थायित्व के लिए, तुम्हें कर्म करने चाहिये’। (3.20)
- ‘श्रेष्ठ व्यक्ति जो भी करता है, उसका दूसरों द्वारा भी अनुकरण होता है; कर्म द्वारा वह जो भी स्तर प्रदर्शित करता है लोग उसका अनुकरण करते हैं’। (3.21)
- ‘हे पार्थ, मेरा कोई कर्तव्य नहीं है, ऐसा कुछ भी नहीं है जो मुझे प्राप्त नहीं है, और ऐसा भी कुछ नहीं है जिसे मुझे इन तीनों लोकों में प्राप्त करना है; फिर भी मैं निरंतर कर्म करता हूँ’। (3.22)
- ‘यदि मैं बिना अवकाश के निरंतर काम न करूँ तो हे पार्थ, स्त्री और पुरुष, हर प्रकार से मेरा ही अनुकरण करेंगे’। (3.23)
- ‘यदि मैं कार्य नहीं करूँ तो ये संसार नष्ट हो जाएँगे, मैं सामाजिक विघटन का कारण बन जाऊँगा, और मैं इन लोगों को नष्ट करने वाला भी हो जाऊँगा’। (3.24)
- ‘जैसे कि अज्ञानी कार्य के प्रति आसक्त्त होकर कार्य करते हैं, उसी प्रकार प्रबुद्ध व्यक्ति भी हे भरत के वंशज, कार्य करते हैं, लेकिन बिना आसक्ति के, संसार के कल्याण की इच्छा से’। (3.25)
- ‘किसी को कर्म में आसक्त्त अज्ञानी लोगों की बुद्धि को विचलित नहीं करना चाहिये; प्रबुद्ध व्यक्ति, जो स्वयं योग के भाव से कर्म में युक्त है; उसे चाहिये कि वह अज्ञानी को भी सभी कर्मों में लगाये रखे’। (3.26)
- ‘प्रकृति के गुण ही समस्त कार्य करते है; अहंकार द्वारा भ्रमित समझ के कारण, मनुष्य सोचता है, “मैं कर्ता हूँ”।’ (3.27)
- ‘लेकिन वह जिसके पास गुण व कर्म की अन्तर्दृष्टि है, यह जान कर कि गुणों के रूप में इन्द्रियाँ केवल गुणों के रूप में इन्द्रिय विषयों पर निर्भर करती है, आसक्त्त नहीं होता’। (3.28)
- ‘पूर्ण ज्ञानसंपन्न व्यक्तियों को चाहिये कि वे दुर्बल चित्त और अल्प ज्ञान युक्त व्यक्तियों की समझ को विचलित न करें जो कि प्रकृति के गुणों द्वारा भ्रमित होकर गुणाएं के कार्यों में आसक्त्त हैं’। (3.29)
- ‘सभी कर्मों को मुझे समर्पित करते हुए, मन ‘स्व’ पर स्थिर करते हुए, आशा और स्वार्थपरता का त्याग करते हुए, मानसिक ज्वर से मुक्त होकर युद्ध करो’। (3.30)
- ‘वे लोग जो मेरी इस शिक्षा का निरंतर अभ्यास करते हैं, श्रद्धा, विश्वास और दृढ़ विचारपूर्वक, और बिना छिद्रान्वेषण के, वे भी सभी कर्मों (के बुरे प्रभावों) से मुक्त हो जाते हैं।’ (3.31)
- ‘लेकिन वे, जो मेरी इस शिक्षा की विगर्हणा करते हुए, सभी ज्ञान और विवेक से शून्य होकर, इसे अभ्यास में नहीं लाते हैं, उन्हें हीनबुद्धि और नष्ट समझो।’ (3.32)
- ‘एक बुद्धिमान व्यक्ति भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करताँकरती है; प्राणी प्रकृति का पालन करते हैं; निग्रह क्या कर सकता है?’ (3.33)
- ‘इन्द्रियों का अपने विषयों के प्रति राग और द्वेष स्वाभाविक हैंऐ; कोई उनके प्रवाह में न आए; वे हमारे लिये राज पथ के लुटेरे हैं’। (3.34)
- ‘दूसरे के धर्म के भली प्रकार पालन की अपेक्षा, अपने स्वयं का धर्म श्रेयस्कर है, चाहे वह श्रेष्ठ न भी हो; अपने ही धर्म में मरना अच्छा है; दूसरे व्यक्ति का धमर भयानक है’। (3.35)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘तो किस से प्रेरित होकर कोई व्यक्ति, अपनी इच्छा के विरुद्ध भी पाप या अपराध करता है, हे कृष्ण, मानो बलपूर्वक उसे ऐसा करना पड़ रहा है’। (3.36)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : — (3.37)
- जिस प्रकार अग्नि धुएँँ से ढकी रहती है, शीशा धूल से ढका रहता है और गर्भस्थ शिशु झिल्ली से ढका रहता है, उसी प्रकार यह (सत्य) उससे ( रजस से) ढका रहता है’। (3.38)
- ‘बुद्धिमानों के इस नित्य शत्रु से, हे कुन्तिपुत्र, ज्ञान ढका रहता है,अतृप्त रहने वाली अग्नि, अर्थात् अनियंत्रित ऐन्द्रिक इच्छा जिसका रूप है’। (3.39)
- ‘इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इसके स्थान है; इनके माध्यम से ये शरीरधारी आत्मा को, इसकी बुद्धि को, आच्छादित करके मोहित करते हैं’। (3.40)
- ‘इसलिये, हे भरत जाति के बली, पहले कदम के रूप में इन्द्रियों का नियंत्रण करके, इस पाप के कारण का वध कर दो, जो कि ज्ञान और बोध को नष्ट करने वाला है।’ (3.41)
- ‘इन्द्रियाँ (शरीर से) उच्चतर कही जाती हैं ; मन इन्द्रियों से उच्चतर है; बुद्धि मन से उच्चतर है; और जो बुद्धि से भी उच्चतर है वह है नित्य मुक्त आत्मा’। (3.42)
- ‘इस प्रकार सत्य को जान कर जो कि बुद्धि से परे है, तथा स्व को ‘स्व’ से प्रतिबन्धित करते हुए, हे शक्तिशाली भुजावाले, उस कठिनाई से पकड़े जानेवाले शत्रु का नाश कर दो जो काम रूप में या अनियंत्रित ऐन्द्रिय वासना के रूप में है।’ (3.43)
Chapter 4: Jnana Yoga
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘मैंने विवस्वान् को यह अविनाशी योग बताया था; विवस्वान् ने इसे मनु को बताया; (और) मनु ने इसे इक्क्ष्वाकु को बताया:’ (4.1)
- ‘हे परंतप अर्जुन! इस प्रकार उत्तरोत्तर क्रम के अन्तर्गत, राजर्षियों ने इस योग को जाना; यह योग दीर्घकाल के बीत जाने के कारण इस संसार में शिथिल हो गया। (4.2)
- ‘आज मैंने वही सर्वोच्च प्राचीन योग तुम्हें मेरा भक्त और मित्र समझ कर बताया है’। (4.3)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘आपका जन्म बाद में हुआ, और विवस्वत का पहले; तब मैं कैसे समझूँ कि आपने इसके बारे में पहले कभी कहा था?’ (4.4)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘हे अर्जुन; मेरे और तुम्हारे अनेक बार जन्म हो चुके हैं, मैं उन सब को जानता हूँ, जबकि हे शत्रुओं को कष्टप्रद तुम नहीं जानते हो’। (4.5)
- ‘यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, परिवर्तन विहीन, सभी जीवों का स्वामी, फिर भी मेरी प्रकृति को अधीन करके अथवा दिव्य प्रकृति को, मैं मेरी ही माया से जन्म लेता हूँ’। (4.6)
- ‘जब भी, हे भरत वंशी, धर्म का ह्रास होता है, और अधर्म में वृद्धि होती है, तब मैं शरीर धारण करता हूँ’। (4.7)
- ‘सदाचारियों की रक्षा के लिये, दुष्टों के विनाश के लिये, तथा धर्म की स्थापना के लिये, मैं प्रत्येक युग में आता हूँ’। (4.8)
- ‘वह जो इस प्रकार, सही रूप में मेरे दिव्य जन्म तथा कार्य को जानता है, शरीर त्यागने के बाद, फिर जन्म नहीं लेता; एवं वह मुझे प्राप्त कर लेता या लेती है, हे अर्जुन।’ (4.9)
- ‘आसक्ति, भय, और क्रोध से मुक्त होकर, मुझ में तल्लीन होकर, मुझमें शरण लेकर, ज्ञानाग्नि से शुद्ध होकर, अनेक लोगों ने मुझे प्राप्त किया है।’ (4.10)
- ‘स्त्री और पुरुष जिस किसी प्रकार से मेरी पूजा करते हैं, उसी प्रकार से मैं उनकी इच्छाएँ पूरी करता हूँ; (यह) मेरा मार्ग है, (जिस पर), हे पृथा के पुत्र सभी प्रकारों से लोग चलते हैं। (4.11)
- ‘कर्म की सफलता की आकांक्षा करते हुए, इस संसार में (लोग) देवताओं को पूजते हैं; क्योंकि कर्म से प्राप्त सफलता मानव जगत् में शीघ्र प्राप्त की जाती है’। (4.12)
- ‘गुण और कर्म की विभिन्नताओं के आधार पर ‘चतुर्वर्ण व्यवस्था मेरे द्वारा बनाई गई थी।’ यद्यपि मैं इस व्यवस्था का कर्ता हूँ, तथापि मुझे अकर्ता और अपरिवर्तनशील समझो’। (4.13)
- ‘कर्मों का मुझ पर दोष नहीं होता, न ही मुझे कर्म के फल की पिपासा है। जो मुझे इस प्रकार जानता है वह कर्मों से नहीं बँधता’। (4.14)
- ‘इस प्रकार जान कर आध्यात्मिक मुक्ति के प्राचीन साधकों ने कर्म किये। इसलिये तुम भी केवल इस प्रकार कर्म करो जैसे प्राचीन साधकों ने पुरातन काल में किया था’। (4.15)
- ‘ऋषिगण भी किंकर्तव्यविमूढ हैं कि कर्म क्या है और अ-कर्म क्या है। अतः मैं तुम्हें बताऊँगा कि कर्म क्या है, जिसे जानकर तुम दोष मुक्त हो जाओगे।’ (4.16)
- ‘अवश्य ही, कर्म की भी वास्तविक प्रकृति को जानना चाहिये, और उसी प्रकार विकर्म या प्रतिबन्धित कर्म की, तथा अकर्म की भी : कर्म की प्रकृति गहन और अभेद्य है’। (4.17)
- ‘वह जो अकर्म में कर्म देखता है और कर्म में अकर्म देखता है मनुष्यों में बुद्धिमान् है, वह स्त्री या पुरुष एक योगी है और सभी कर्मों का कर्ता है।’ (4.18)
- ‘जिसकी कार्य-योजनाएँ काम, अर्थात् ऐन्द्रिक इच्छाओं से सर्वथा वंचित हैं और संकल्प, अर्थात् फल की इच्छाओं से, और जिसके कर्म ज्ञान की अग्नि से जल चुके हैं, उस स्त्री या पुरुष को ऋषिगण बुद्धिमान कहते हैं’। (4.19)
- ‘कर्म के फलों की आसक्ति का त्याग करते हुए, सदा संतुष्ट, किसी पर निर्भर न रहते हुए, यद्यपि वह कर्म में युक्त है, वह स्त्री या पुरुष वास्तव में कुछ नहीं करता’। (4.20)
- ‘बहुत सारी आकांक्षाओं को न रखते हुए, नियंत्रित शरीर और मन के साथ और समस्त व्यक्तिगत प्राप्ति की इच्छाओं का त्याग करते हुए, वह स्त्री या पुरुष केवल शारीरिक रूप से कर्म करते हुए कोई बुरे परिणाम का कष्ट नहीं भोगता।’ (4.21)
- ‘व्यक्तिगत रूप से उसीसे सन्तुष्ट, जो बिना प्रयास के आता है, विरोधी युग्मों से अप्रभावित, ईर्ष्या से मुक्त, सफलता और विफलता में सम बुद्धि धारण करके, यद्यपि वह कार्य करता है, वह (स्त्री या पुरुष) बन्धन में नहीं है।’ (4.22)
- ‘आसक्ति से मुक्त, स्वतंत्र, आध्यात्मिक ज्ञान में केन्द्रित मन के साथ, केवल यज्ञ के लिए कार्य करते हुए, उसका (स्त्री या पुरुष का) समस्त कर्म विलीन हो जाते हैं।’ (4.23)
- ‘अर्पण की प्रक्रिया ब्रह्म है, अर्पित किया गया घृत ब्रह्म है, ब्रह्म द्वारा ही, ब्रह्म की अग्नि में अर्पित किया गया है; इसके द्वारा, जो ब्रह्म कर्म की समाधि में है, उसे केवल ब्रह्म तक ही पहुँचना है’। (4.24)
- ‘कुछ योगी केवल देवताओं के लिये हवन करते हैं, जबकि दूसरे हवन रूप में केवल ब्रह्म की अग्नि में ब्रह्म रूप में स्व की आहुति देते हैं’। (4.25)
- ‘अन्य कुछ लोग श्रवण एवं अन्य इन्द्रियों को हवन के रूप में आत्म-संयम की अग्नि में अर्पित करते हैं, जब कि अन्य कुछ ध्वनि व अन्य ऐन्द्रिक विषय हवन रूप में इन्द्रियों की अग्नि में अर्पित करते हैं’। (4.26)
- ‘कुछ अन्य, इन्द्रियों के समस्त कर्मों और जीवनाधार प्राण-शक्ति की क्रियाओं को, आत्म संयम की योगाग्नि में अर्पित करते हैं, जो आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा प्रज्वलित की गई है।’ (4.27)
- ‘दूसरे लोग फिर भौतिक वस्तुएँ, कठोर अभ्यास और योग का यज्ञ रूप में अर्पण करते हैं, जब कि कुछ अन्य, जिनमें आत्म संयम और कठोर व्रत की क्षमता है वे धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन और ज्ञान के अर्पण का यज्ञ करते हैं।’ (4.28)
- ‘कुछ श्वास अन्दर लेते हुए निर्गामी की आहुति देते हैं ; और कुछ अन्य, बाहर जाती श्वास के समय, आवक को हवन करते हैं; श्वास-प्रश्वास को रोक कर, निरंतर प्राण रूपी उस जीवनी ऊर्जा का नियमन करते हैं’। (4.29)
- ‘अन्य, लोग अनुशासित भोजन द्वारा, प्राणों को प्राणों में हवन करते हैं। ये सब यज्ञ के ज्ञाता हैं, उनके सब पाप यज्ञ से नष्ट हो गए हैं। वे जो यज्ञ के बाद बचे हुए को खाते हैं, असीम ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करने वालों के लिए यह लोक तक भी नहीं है, फिर कैसे परलोक उनके लिये हो सकता है, हे कुरुओं में श्रेष्ठ?’ (4.30 & 4.31)
- ‘इस प्रकार, ऊपर दिये गये जैसे अनेक यज्ञ, वेदों के भण्डार में बिखरे हुए हैं। इन सब को कर्म द्वारा उत्पन्न हुआ जानो; और इस प्रकार जान कर, तुम मुक्त हो जाओगे’। (4.32)
- ‘हे शत्रुओं को झुलसाने वाले उस यज्ञ से ज्ञान-यज्ञ, उच्चतर है जो (भौतिक) वस्तुओं से किया गया है; सभी कर्म, अपनी संपूर्णता में, हे पार्थ, ज्ञान में अपनी परितृप्ति पाते हैं’। (4.33)
- ‘ज्ञानियों को दण्डवत प्रणाम करते हुए, बार-बार प्रश्न करते हुए, और उनकी सेवा करते हुए उस (सर्वोच्च ब्रह्म को) जानो, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, वे तुम्हें इस ज्ञान का उपदेश देंगे’। (4.34)
- ‘जिसे जान कर, हे पाण्डव, तुम इस प्रकार फिर मोहित नहीं होगे और जिसके द्वारा तुम समस्त सृष्टि को (तुम्हारे) स्व में और मुझमें देखोगे’। (4.35)
- ‘चाहे तुम पापियों में सबसे अधिक पापी हो, फिर भी ज्ञान की एक ही किरण से, तुम पाप के पार चले जाओगे’। (4.36)
- ‘जिस प्रकार धधकती अग्नि समस्त ईंधन को राख बना डालती है, उसी प्रकार, हे अर्जुन, आध्यात्मिक ज्ञान की अग्नि सभी कर्मों को राख बना डालती है’। (4.37)
- ‘अवश्य ही, इस संसार में इतना पवित्रता प्रदान करने वाला कुछ नहीं है जितना ज्ञान या आध्यात्मिक ज्ञान है। कुछ समय में, योग में पूर्णता प्राप्त करने के बाद, कोई भी इसे अपने में देख सकता है।’ (4.38)
- ‘वह व्यक्ति जिसमें श्रद्धा और भक्ति है, जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह (इस) ज्ञान को प्राप्त करता है। ज्ञान प्राप्त करने के बाद, वह तुरंत परम शान्ति प्राप्त करता है’। (4.39)
- ‘अज्ञानी व्यक्ति जिसमें श्रद्धा नहीं है, जो संशय युक्त है, नष्ट हो जाता है। संशयी व्यक्ति के लिये न यह संसार है, न ही आगे आने वाला संसार है, न प्रसन्नता है’। (4.40)
- ‘जिसने योग द्वारा कर्मों का त्याग कर दिया है और जिसके संशय आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा जीत लिये गये है, हे धनंजय, ऐसे व्यक्ति को, जो स्व में स्थित है, कर्म नहीं बाँधते।’ (4.41)
- ‘इसलिये ज्ञान की तलवार से स्व के बारे में यह संदेह काटते हुए, जो तुम्हारे हृदय में स्थित अज्ञान के कारण उत्पन्न हुआ है, योग का आश्रय लो, और उठो, हे भारत!’ (4.42)
Chapter 5: Karma Sanyāsa Yoga
- अर्जुन ने कहा : ‘हे कृष्ण, आपने कर्म के संन्यास की प्रशंसा की, और फिर कर्म करने की प्रशंसा भी की; मुझे निश्चयपूर्वक बताइये कि इन दोनों में से कौनसा श्रेष्ठतर है’। (5.1)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘संन्यासऔर कर्म-योग, दोनों ही स्वतंत्रता की ओर ले जाते हैं; इनमें से कर्म के संन्यास की अपेक्षा कर्म का योग श्रेष्ठतर है’ (5.2)
- ‘उस स्री या पुरुष को सतत् संन्यासी माना जाना चाहिये जिसकी कोई व्यक्तिगत रुचि या अरुचि नहीं है; क्योंकि हे बलिष्ठ भुजाधारी, परस्पर विरोधी युग्मों से मुक्त होकर ऐसा व्यक्ति सहज ही बन्धनों से मुक्त हो जाता है’। (5.3)
- ‘बालक बुद्धि व अपरिपक्व बुद्धि के लोग, न कि बुद्धिमान लोग, आत्मज्ञान तथा कर्म के योग को भिन्न मानते हैं; जो वास्तव में किसी एक में स्थित है, वह दोनों के फल प्राप्त करता है’। (5.4)
- ‘वह ध्येय जो ज्ञानियों द्वारा प्राप्त किया जाता है, कर्म-योगियोंद्वारा भी प्राप्त किया जाता है। केवल वही यथार्थ देखता है जो ज्ञान और योग को एक देखता है’। (5.5)
- ‘हे महाबाहो, उसके लिये कर्म का त्याग कठिन है जो कर्म के योगसे होकर नहीं गुज़रा है; वह ध्यान करने वाला व्यक्ति जो कर्म-योग के द्वारा शुद्ध हो चुका है, शीघ्र ब्रह्म को प्राप्त करता है’। (5.6)
- ‘वह जो योगकी भावना से किये गये कार्यों के प्रति समर्पित विशुद्ध मन और जीते हुए शरीर से इन्द्रियों को वशीभूत करके अपने स्व को उस एक ‘स्व’ के रूप में जान लेता है जो सभी प्राणियों में विद्यमान है, कार्य करते हुए भी उस कार्य से लिपायमान नहीं होता’। (5.7)
- ‘सत्य को जानने वाले को ‘स्व’ में केन्द्रित होकर सोचना चाहिये “मैं कदापि कुछ भी नहीं करता” – यद्यपि वह देखना, सुनना, छूना, गंध लेना, खाना, जाना, श्वास लेना, बोलना, छोड़ना, पकड़ना, आँखें खोलना और मूँदना, सब कुछ करता है; लेकिन उसे विश्वास होता है कि इन्द्रियाँ ही इन्द्रिय विषयों में विचरण कर रही हैं’। (5.8 & 5.9)
- ‘वह जो ब्रह्म पर छोड़ते हुए अनासक्त होकर कर्म करता है, दोष से लिपायमान नहीं होता जैसे कि जल से कमल का पत्ता लिपायमान नहीं होता’। (5.10)
- ‘कर्म-योग का पालन करते हुए योगी हृदय की शुद्धि के लिये आसक्ति का त्याग करते हुए केवल शरीर, मन, इन्द्रियों और बुद्धि की सहायता से काम करते हैं’। (5.11)
- ‘कर्मफल का त्याग करके एक सु-संतुलित व्यक्ति स्थिरता से उत्पन्न शान्ति प्राप्त करता है; एक असंतुलित व्यक्ति इच्छा के वशीभूत होकर, कर्म फलों से आसक्त होकर बद्ध हो जाता है’। (5.12)
- ‘इन्द्रियों को वशीभूत करने वाला, विवेक द्वारा सभी कर्मों का त्याग करके, न कर्म करता हुआ, न दूसरों के कर्म करने का कारण बनता हुआ, नौ द्वारों के नगर में आनन्दपूर्वक निवास करता है’। (5.13)
- “ईश्वर इस जगत् के लिये न तो कर्तृत्व और न कर्म की रचना करते हैं, न ही वे कर्मफल का विधान रचते हैं। यह प्रकृति ही है जो सब कुछ करती है’। (5.14)
- ‘वह सर्वव्यापी दिव्य किसी की अच्छाइयाँ एवं बुराइयाँ नहीं ग्रहण करता । ज्ञान, अज्ञान द्वारा आच्छादित है, इसीलिये प्राणी मोहित होते हैं’। (5.15)
- ‘लेकिन जिनका आध्यात्मिक अंधापन या अज्ञान (स्व के) ज्ञान द्वारा नष्ट हो गया है – उनके उस ज्ञान द्वारा, सूर्य की भाँति, सर्वोच्च (ब्रह्म) व्यक्त होता है’। (5.16)
- ‘वे जिनकी बुद्धि उसी में समाहित है, जिनका स्व वही है, जिनकी निष्ठा उसी में है और जो उसी के प्रति तत्पर है, चूँकि उनकी बुद्धि ज्ञान के द्वारा निर्मल हो गई है वे पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते’। (5.17)
- ‘पण्डित गण अथवा ‘स्व’ के ज्ञाता, एक ब्राह्मण, जिसमें विद्वता और विनयशीलता है, तथा एक गाय, एक हाथी, एक कुत्ते और कुत्तों को खाने वाले (निम्नवर्गीय) को समान रूप से देखते हैं’। (5.18)
- ‘इस संसार में रहते हुए भी उनके द्वारा सापेक्षता (Relative Existence) जीत ली गई है, जिनका मन एकत्व में स्थित है, क्योंकि सभी में वही ब्रह्म है और वह अपूर्ण नहीं हैं, इसलिये निश्चित रूप से वे ब्रह्म में स्थित हैं’। (5.19)
- ‘ब्रह्म में स्थित होकर, बुद्धि को स्थिर रखते हुए, मोह रहित होकर, ब्रह्म का ज्ञाता, न तो प्रिय को प्राप्त करके सुख का अनुभव करता है, और न अप्रिय को प्राप्त होने पर दुख का अनुभव करता है’। (5.20)
- ‘हृदय को बाहरी संम्पर्कों से अनासक्त करके वह ‘स्व’ का अनुभव करता है; उसका हृदय ब्रह्म के चिन्तन के प्रति समर्पित होता है, ऐसा स्त्री या पुरुष कभी क्षय न होने वाले आनन्द को प्राप्त करता है’। (5.21)
- ‘चूँकि त्वचा-स्पर्श जनित सुख, दुख के ही कारण बन जाते हैं, और उनका एक आरम्भ तथा एक अन्त होता है, हे कुन्तीपुत्र, एक बुद्धिमान व्यक्ति उनमें सुख नहीं खोजता’। (5.22)
- ‘जो कोई इस जीवन में शरीर से मुक्त होने से पूर्व काम और क्रोध के वेग को जीत सकता है, वह स्त्री या पुरुष एक योगी है, वह एक सुखी व्यक्ति है’। (5.23)
- ‘जिसकी प्रसन्नता अन्तर में है, जिसकी विश्रान्ति अन्तर में है, जिसकी ज्योति अन्तर में है, केवल वही योगी ब्रह्म बन कर, ब्रह्म में पूर्णस्वतंत्रता को प्राप्त करता है।’ (5.24)
- ‘वे जिनकी अपूर्णताएँ समाप्त हो गई हैं, संदेह भंग हो गये हैं, इन्द्रियाँ जीत ली गई हैं, और जो सभी प्राणियों के हित साधन में लगे हुए हैं, ऐसे ऋषि ब्रह्म में पूर्ण स्वतंत्रता को प्राप्त करते हैं’। (5.25)
- ‘काम और क्रोध से मुक्त हो कर, पूर्ण अनुशासित हृदय के द्वारा ‘स्व’ को उपलब्ध करके, आध्यात्मिक रूप से पूर्ण अनुशासित लोगों के लिये पूर्ण स्वतंत्रता यहाँ भी होती है, और इसके बाद भी’। (5.26)
- ‘बाह्य वस्तुओं से संपर्क को रोक कर; दृष्टि को भृकृटियों के बीच स्थित करके, प्राण व अपान वायु के समान प्रवाह को नासारंघ्रों के बीच रोकते हुए; इन्द्रियों, मन और बुद्धि को नियंत्रित करते हुए; मोक्ष अथवा आध्यात्मिक स्वतंत्रता को सर्वोच्च ध्येय बना कर; ऐन्द्रिय इच्छाओं से मुक्त हो कर, इच्छा, भय व क्रोध से मुक्त हुआ व्यक्ति अवश्य ही सदा के लिये मुक्त है’। (5.27 & 5.28)
- ‘समस्त संसारों के स्वामी के रूप में, और सभी प्राणियों के मित्र के रूप में, मुझे आहतियों और आध्यात्मिक क्रियाओं (के फलों का) प्राप्त कर्ता और प्रदान कर्ता जान कर कोई भी शान्ति को प्राप्त होता है’। (5.29)
Chapter 6: Dhyāna Yoga
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘वह स्त्री या पुरुष जो कर्म के फल पर आश्रित हुए बिना अपने कर्तव्य का पालन करता है वह कर्म का त्यागी और स्थिर मन वाला होता है, न कि वह जो अग्नि को नहीं छूता और जो कर्म नहीं करता’। (6.1)
- ‘हे पाण्डव, इसे कर्म योग के प्रति समर्पण मानो जिसे त्याग कहा जाता है; क्योंकि कोई भी बिना संकल्पों के त्याग के कर्म योगी नहीं बन जाता’। (6.2)
- ‘ध्यान करने वाले व्यक्ति के लिये जो कि हृदय को शुद्ध करके एकाग्रता प्राप्त करना चाहता है, कर्म का मार्ग बताया जाता है। ऐसे व्यक्ति के लिये जिसने एकाग्रता प्राप्त कर ली है, अकर्म का मार्ग बताया जाता है’। (6.3)
- ‘निश्चय ही, इन्द्रिय विषयों अथवा कर्म के प्रति सभी संकल्पों का त्याग करके जब कोई आसक्ति उसमें नहीं है, तब वह व्यक्ति योग की स्थिति पर उठ जाता है’। (6.4)
- ‘स्वयं को स्वयं द्वारा ऊपर उठाओ; अपने पर अवसाद मत आने दो; क्योंकि केवल तुम ही तुम्हारे मित्र हो और केवल तुम्हीं तुम्हारे शत्रु’। (6.5)
- ‘जब किसी ने स्वयं को जीत लिया है तो वह अपना मित्र होता है; लेकिन जिसने अपने को नहीं जीता है, उस स्त्री या पुरुष के लिये वह स्वयं अपना शत्रु होता है’। (6.6)
- ‘आत्म नियंत्रित तथा सौम्य व्यक्ति के लिये सर्वोच्च ‘स्व’, गर्मी और सर्दी में, दुख और सुख में, और इसी प्रकार अपमान और सम्मान में निरंतर बोध की वस्तु होनी चाहिये।’ (6.7)
- ‘जिसका हृदय ज्ञान और बुद्धि के द्वारा परितृप्त और स्थिर है, जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है, और जिसके लिये मिट्टी का ढेला, पत्थर और सोना एक जैसे हैं, उस योगी को स्थिर बुद्धि कहा जाता है’। (6.8)
- ‘वह, जो शुभेच्छुओं, मित्रों, शत्रुओं, तटस्थों, मध्यस्थों, घृणास्पदों, सम्बन्धियों तथा सुकर्मियों और दुष्कर्मियों को समान दृष्टि से देखता है, श्रेष्ठता प्राप्त करता है’। (6.9)
- ‘योगी को मन की एकाग्रता का निरन्तर अभ्यास करना चाहिये, एकान्त में, एकाकी हो कर, मन और शरीर को वशीभूत करके, और आशा तथा स्वामित्व (की आकुलता) से मुक्त हो कर’। (6.10)
- ‘अपने आसन को एक शुद्ध स्थान पर दृढ़ स्थापित करके, जो न बहुत ऊँचा हो, न बहुत नीचा, कपड़े, चमड़े, और कुशा घास से बना हुआ, एवं इसी क्रम में व्यवस्थित किया हुआ’। (6.11)
- ‘वहाँ, उस आसन पर बैठ कर, मन को एक दिशा में लगाते हुए और मन तथा इन्द्रियों के कार्यों को अधीन करके, उस स्त्री या पुरुष को हृदय की शुद्धि के लिये योग का अभ्यास करना चाहिये’। (6.12)
- ‘उसे अपना शरीर स्थिर करके, सिर और गर्दन को खड़ा और स्थिर रखते हुए (मानो आँखों के गोले स्थिर होकर) अपनी नाक के अग्रभाग को देखते हुए, न कि चारों ओर देखते हुए, बैठना होगा’। (6.13)
- ‘हृदय को शान्त और भयमुक्त करके, ब्रह्मचर्य के व्रत में दृढ़ हो कर, मन को नियंत्रित करते हुए, सदा मेरा विचार करते हुए, उस स्त्री या पुरुष को मुझे उच्चतम ध्येय बनाते हुए (योग में) बैठना चाहिये’। (6.14)
- ‘इस प्रकार मन को स्थिर करके, अपने अधीन किये गये मन वाला योगी मुझ में रह कर शान्ति प्राप्त करता है – वह शान्ति जिसकी चरम परिणिति निर्वाण(मोक्ष) में है’। (6.15)
- ‘योग (में सफलता) उस व्यक्ति के लिये नहीं है जो दीर्घकाल तक बहुत अधिक खाता है या बिल्कुल नहीं खाता; न ही, हे अर्जुन उसके लिये जो बहुत अधिक सोता है, या अधिक समय जागता है’। (6.16)
- ‘जो भोजन तथा मनोरंजन में संयमी है, कार्य के प्रयास, सोने और जागने में भी संयमी है, उसके लिये योग दुखों का नष्ट करनेवाला होता है’। (6.17)
- ‘जब सभी कामनाओं की आकांक्षाओं से मुक्त होकर पूर्णतः नियंत्रित मन सौम्यतापूर्वक केवल ‘स्व’ में स्थित होता है तब उसे (‘स्व’ में) पूर्णतः प्रतिष्ठित कहा जाता है’। (6.18)
- “जैसे कोई दीपक ऐसे स्थान पर रखा हुआ हो जहाँ हवा नहीं चलती, तो उसकी दीपशिखा कम्पायमान नहीं होती – इसी प्रकार की उपमा उस योगी के लिये दी जाती है जिसने मन को ‘स्व’ में एकाग्रता के अभ्यास द्वारा वश में कर लिया है”। (6.19)
- ‘जब ध्यान के अभ्यास द्वारा मन पूर्णतः नियंत्रित कर लिया जाता है वह शान्ति प्राप्त करता है, और जब कोई स्व के द्वारा ‘स्व’ को देख लेता है, वह ‘स्व’ में संतुष्ट हो जाता है’। (6.20)
- ‘जब कोई (शुद्धीकृत) बुद्धि द्वारा असीम आनन्द का अनुभव करता है, जो इन्द्रियों से अतीत या परे है, उसमें प्रतिष्ठित होकर वह अपनी वास्तविक स्थिति से कभी पृथक नहीं होता है’। (6.21)
- ‘जिसे प्राप्त करके, कोई किसी भी अन्य उपलब्धि को उससे उच्चतर नहीं मानता है, और जिसमें प्रतिष्ठित होकर, कोई भारी दुःख द्वारा भी विचलित नहीं होता है’। (6.22)
- ‘इस स्थिति को योग के नाम से जाना जाना चाहिये – दुख के साथ संपर्क विहीन स्थिति। इस योग का हृदय के अवसाद द्वारा विचलित हुए बिना लगन के साथ अभ्यास करना चाहिये’। (6.23)
- ‘संकल्प से उत्पन्न हुई सभी इच्छाओं का सर्वथा परित्याग करके, और समूचे इन्द्रिय समूह को केवल मन से उनके विषयों से सभी दिशाओं में पूर्णतः रोकते हुए’। (6.24)
- ‘तर्क-युक्ति अथवा विचार बुद्धि को इच्छा के साथ जोड़ कर, मन को दृढ़तापूर्वक ‘स्व’ के साथ संयुक्त करके, कदम-दर-कदम शान्ति को प्राप्त करना चाहिये : उस स्त्री या पुरुष को और कुछ नहीं सोचना चाहिये’। (6.25)
- ‘जिस कारण से मन अशान्त व अस्थिर होकर भटकता है, उसे उस कारण से हटा कर केवल अपने ‘स्व’ के अधीन करो’। (6.26)
- ‘निश्चय ही उस योगी को सर्वोच्च आनन्द प्राप्त होता है जो शान्त मन का है, जिसकी वासनाएँ शान्त हो गई हैं, जो ब्रह्म बन गया है और कलुष से मुक्त हो गया है’। (6.27)
- ‘एक योगी जो समस्त कलुषों से मुक्त है, मन को इस प्रकार निरंतर युक्त करते हुए सरलता से ब्रह्म के साथ संपर्क के असीम आनन्द को प्राप्त करता है।’ (6.28)
- ‘हृदय को योग में एकाग्र करके, सभी वस्तुओं के लिये समदृष्टित्व रखते हुए, वह स्त्री या पुरुष सभी प्राणियों में ‘स्व’ को देखता है, और ‘स्व’ में सभी प्राणियों को देखता है’। (6.29)
- ‘वह जो मुझे सभी जीवों में देखता है और सभी जीवों को मुझमें देखता है, ऐसा व्यक्ति मुझसे कभी पृथक नहीं होता है, और न मैं उससे पृथक होता हूँ’। (6.30)
- ‘वह जो एकत्व में स्थित हो कर सभी जीवों में विद्यमान मुझ को पूजता है, उस स्त्री या पुरुष का चाहे जीवन का कोई भी प्रकार हो, वह योगी मुझमें रहता है’। (6.31)
- ‘वह जो सभी जगह दुःख और सुख उसी प्रकार देखता है जैसे वह उसका सुख-दुख हो, हे अर्जुन, वह योगी उच्चतम माना जाता है’। (6.32)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘यह योग जो, हे मधु का वध करनेवाले, आपके द्वारा सिखाया गया है, जिसमें समदृष्टि का भाव है, मैं नहीं देखता कि अधिक समय तक (मन की ) चंचलता के कारण, यह संभव है’। (6.33)
- ‘हे कृष्ण, निश्चय ही यह मन चंचल है, उपद्रवी है, बलशाली और न मानने वाला है; मैं इसके नियंत्रण को उतना ही कठिन समझता हूँ जितना हवा को नियंत्रण में करना’। (6.34)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘हे शक्तिशाली भुजाओं वाले, निस्सन्देह मन चंचल और नियंत्रण में कठिन है; लेकिन हे कुन्तीपुत्र, अभ्यास और वैराग्य के द्वारा यह प्राप्त किया जा सकता है’। (6.35)
- ‘अनियंत्रित स्व के द्वारा योग प्राप्त करना दुष्कर है; ऐसा मेरा विश्वास है; लेकिन आत्मनियंत्रित व्यक्ति, सही उपायों द्वारा प्रयास करता हुआ, इसे प्राप्त कर सकता है’। (6.36)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘यद्यपि किसी में श्रद्धा है, लेकिन स्वयं को नियंत्रित न कर पाने के कारण, क्योंकि उसका मन योग से हट जाता है, ऐसे व्यक्ति का क्या होता है, हे कृष्ण, जब वह योग में पूर्णत्व प्राप्त नहीं कर पाता?’ (6.37)
- ‘हे महाबाहो, क्या ऐसा व्यक्ति दोनों ओर से गिरा हुआ, और ब्रह्म के मार्ग पर भ्रमित होकर बिना किसी सहारे के एक छिन्न-भिन्न बादल के समान नष्ट हो जाता है?’ (6.38)
- ‘हे कृष्ण, आप पूरी तरह मेरा यह संशय दूर करें; क्योंकि आपके अतिरिक्त्त अन्य किसी के द्वारा इस संशय को छेदना संभव नहीं है’। (6.39)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘हे पृथापुत्र, निश्चय ही ऐसे व्यक्ति का न तो यहाँ और न इसके बाद ही कोई नाश होता है, क्योंकि हे मेरे शिष्य, शुभ कार्यों को करनेवाला कभी कष्ट में नहीं पड़ता’। (6.40)
- ‘पुण्य कार्य करने वालों के लोकों को प्राप्त करके, और वहाँ दीर्घ अवधि तक रहने के बाद, वह जो योग से भ्रष्ट होकर गिर गया है, शुद्ध एवं समृद्ध लोगों के घरों में पुनर्जन्म लेता है’। (6.41)
- ‘अन्यथा, वह केवल प्रज्ञावान योगियों के परिवार में जन्म लेता है; निश्चय ही, इस प्रकार का जन्म संसार में दुर्लभ है’। (6.42)
- ‘वहाँ वह पूर्व जन्म में संचित बुद्धि के साथ संयुक्त हो जाता है, और पूर्णता के लिये, हे कुरुपुत्र, वह पहले से भी अधिक प्रयास करता है’। (6.43)
- ‘केवल उस पूर्व के अभ्यास के कारण स्वयं की चाहत के बिना भी उसे जन्म लेना पड़ता है। योग का जिज्ञासु भी वेदिक कर्म काण्ड करने वाले से ऊपर उठता है’। (6.44)
- ‘अध्यवसायपूर्वक प्रयास करता हुआ योगी, कलुष से मुक्त होकर, धीरे-धीरे अनेक जन्मों में पूर्णता को प्राप्त करता हुआ फिर अन्तिम ध्येय तक पहुँच जाता है’। (6.45)
- ‘जो तपस्या करते है’ उनसे, तथा जिन्होंने (धर्म ग्रन्थों से) ज्ञान प्राप्त किया है उनसे, योगी श्रेष्ठतर माना जाता है; योगी (धर्म ग्रन्थों में बताए गए) कर्म काण्ड करने वालों से भी श्रेष्ठतर है। इसलिये, हे अर्जुन तुम योगी बन जाओ’। (6.46)
- ‘और सभी योगियों में, वह जो श्रद्धायुक्त होकर अपना अन्तरतम स्व मुझमें विलीन कर देता है, स्वयं को मेरे प्रति समर्पित कर देता है, वह मुझे दृढ़ रूप में सर्वाधिक मान्य है’। (6.47)
Chapter 7: Vijnana Yoga
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘मुझसे मन को संयुक्त करके, मुझ में शरण लेकर, और योग का अभ्यास करते हुए, हे पृथापुत्र, तुम कैसे मुझे निस्सन्देह पूर्णतः जानोगे, वह मुझसे सुनो’। (7.1)
- ‘मैं तुम्हें पूरी तरह, सैद्धान्तिक ज्ञान के बारे में अनुभव के साथ बताऊँगा, जिसे जानकर यहाँ जानने को और कुछ नहीं रहेगा’। (7.2)
- ‘हजारों स्त्री-पुरुषों में, कुछ ही लोग पूर्णता का प्रयास करते हैं; और इस प्रकार प्रयास करने वालों में कुछ ही संयोगवश मुझे वास्तविकता में जानते हैं’। (7.3)
- ‘भूमिः (धरती), आपः (जल), अनलः (अग्नि), वायुः (हवा), खं(अंतरिक्ष), मनः (मन), बुद्धि (मस्तिष्क), और अहंकारः (अहम्कार): इस प्रकार मेरी प्रकृति आठ रूपों में विभक्त है’। (7.4)
- ‘यह मेरी निम्नतर प्रकृति है। लेकिन हे महाबाहो, इससे भिन्न मेरी उच्चतर प्रकृति को जानो – बुद्धिमत्ता का सिद्धान्त या चेतना, जिसके द्वारा यह व्यक्त ब्रह्माण्ड धारण किया हुआ है’। (7.5)
- ‘जानो कि (ये दो प्रकृतियाँ) सभी प्राणियों का गर्भाशय है; मैं समस्त संसार का मूल और विलय हूँ’। (7.6)
- ‘हे धनञ्जय, (अर्जुन) मुझ से परे कुछ भी उच्चतर नहीं है। ये सब मुझमें एक धागे के द्वारा मोतियों की पंक्ति के समान बिंधे हुए हैं’। (7.7)
- हे कुन्तीपुत्र, ‘मैं जल में उसका स्वाद हूँ; मैं सूर्य और चन्द्रमा में उनका प्रकाश हूँ; मैं समस्त वेदों में ॐ हूँ, आकाश में ध्वनि हूँ, और पुरुषों (मानवों) में पौरुष हूँ’। (7.8)
- ‘मैं भूमि में मधुर गंध हूँ, अग्नि का तेज हूँ; सभी जीवों में जीवन हूँ, और तपस्वियों में तप हूँ’। (7.9)
- ‘हे पृथा पुत्र, मुझे सभी जीवों का शाश्वत बीज जानो। मैं बुद्धिमान की बुद्धिमत्ता हूँ, और तेजस्वियों का तेज हूँ’। (7.10)
- ‘बलशालियों में मैं कामेच्छा रहित और आसक्तिरहित बल हूँ। हे भरतों के वृषभ, मैं जीवों में वह कामेच्छा हूँ जो धर्म विरुद्ध नहीं है’। (7.11)
- ‘और जो भी स्थितियाँ सत्व, रजस् तथा तमस् के बारे में हैं, जानो कि वे केवल मुझसे आती हैं; फिर भी मैं उनमें नहीं हूँ, अपितु, वे मुझ में हैं’। (7.12)
- ‘इन स्थितियों से मोहित होकर (जो कि) (प्रकृति के) इन तीनगुणोंके रूपान्तर हैं, यह समस्त जगत् मुझे, जो कि इन गुणों के परे और अपरिवर्तनशील है, नहीं जानता’। (7.13)
- ‘निश्चय ही इन तीन गुणों द्वारा निर्मित मेरी यह माया पार करने में कठिन है; वे जो केवल मेरे प्रति समर्पित हैं, इस भ्रम को पार कर जाते हैं’। (7.14)
- ‘ये लोग मेरी भक्त्ति नहीं करते-दुष्कर्म करने वाले, मोहित व्यक्ति, निम्न प्रकृति के लोग, माया के कारण विवेक हीन लोग, और असुरों या दुष्कर्म करने वालों का अनुगमन करने वाले लोग’। (7.15)
- ‘हे अर्जुन, चार प्रकार के सद्गुणी व्यक्ति मेरी पूजा करते हैं – जो कष्ट में हैं, जो ज्ञान की खोज में हैं, जो धन संपत्ति को चाहते हैं, और वे जो आध्यात्मिक रूप से बुद्धिमान् व्यक्ति हैं, हे भरतों के (महानतम) वृषभ’। (7.16)
- ‘उनमें से ज्ञानी, बुद्धिमान् व्यक्ति, सदा दृढ़ (और अत्यंत प्रेरित होकर) एकान्तिक भक्त्ति रखते हुए, श्रेष्ठता को प्राप्त होता है; क्योंकि उस ज्ञानी को मैं सर्वाधिक प्रिय हूँ, और वह भी मुझे अत्यंत प्रिय है’। (7.17)
- ‘ये सभी उदार हैं, लेकिन ज्ञानी या बुद्धिमान् व्यक्ति को मैं मेरा ही ‘स्व’ मानता हूँ; क्योंकि मन की दृढ़ता के साथ, वह स्त्री या पुरुष केवल मुझे ही सर्वोच्च ध्येय मान कर स्थित है’। (7.18)
- ‘अनेक जन्मों के अन्त में, ज्ञानी या बुद्धिमान लोग मुझ में यह जानकर शरण लेते हैं कि सब कुछ वासुदेव (श्रीकृष्ण, अथवा सब का एक अन्तरतम ‘स्व’) ही है; ऐसा व्यक्ति विरला ही होता है’। (7.19)
- ‘अन्य लोग इस या उस ऐन्द्रिय इच्छा के कारण विवेकहीन होकर, इस या उस अनुष्ठान या क्रिया पद्धति को अपना कर मिथक के देवताओं को अपनी प्रकृति के वशीभूत होकर भजते हैं’। (7.20)
- ‘जिस रूप को भी कोई भक्त्त श्रद्धापूर्वक भजता है – उसकी उस श्रद्धा को मैं दृढ़ करता हूँ’। (7.21)
- ‘उस श्रद्धा से युक्त होकर, कोई व्यक्ति देवता की पूजा में रत होता है, और इससे अपनी इच्छाओं की पूर्ति करता है – ये निश्चित रूप से मुझ द्वारा ही पूर्ण की जाती हैं।’ (7.22)
- ‘लेकिन इन कम समझ वालों को (मिलने वाले) फल सीमित हैं। देवताओं को पूजने वाले देवताओं को जाते हैं, और मेरे भक्त्त मुझे प्राप्त होते हैं’। (7.23)
- ‘मूर्ख व्यक्ति मुझ अव्यक्त को मेरी सर्वोच्च स्थिति से अनभिज्ञ होने के कारण, जो कि नित्य और भावातीत है, व्यक्ति के रूप में मानते है’। (7.24)
- ‘दिव्य भ्रम, योगमायाद्वारा आच्छादित होने के कारण मैं सब के लिये प्रकट नहीं हूँ। मोहित संसार मुझे अजन्मा और नित्य रूप में नहीं जानता’। (7.25)
- ‘हे अर्जुन, मैं समस्त भूतकाल, वर्तमान, और भविष्य के प्राणियों को जानता हूँ, लेकिन मुझे कोई नहीं जानता’। (7.26)
- ‘हे भरत के वंशज, परस्पर विरोधी युग्मों के द्वारा मोहित होते हुए जो कि इच्छा और द्वेष से उत्पन्न होते हैं, सभी प्राणी जन्म के समय मोह में पड़ जाते हैं, हे शत्रुओं को कष्टप्रद’। (7.27)
- ‘वे सद्गुणी स्त्री और पुरुष जिनके पाप समाप्त हो गये हैं, वे दोनों मोहों से मुक्त होकर मुझे दृढ़ भक्त्ति के साथ भजते हैं’। (7.28)
- ‘वे जो मुझ में शरण लेकर वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्ति के प्रयास में हैं, ब्रह्म को और समस्त अध्यात्म तथा कर्म को इसकी संपूर्णता में जानते हैं।’ (7.29)
- ‘जो मुझे अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के साथ जानते हैं, वे मृत्यु के समय भी एक निश्चित व दृढ़ मन से मुझे जानना (जारी रखेंगे)’। (7.30)
Chapter 8: Akṣhara Parabrahma Yoga
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘ हे पुरुष श्रेष्ठ वह ब्रह्म क्या है, अध्यात्म क्या है, कर्मक्या है? अधिभूत किसे कहते हैं और अधिदैव क्या है?’ (8.1)
- ‘हे मधु का वध करने वाले श्रीकृष्ण, कौन और किस रूप में इस शरीर में अधियज्ञ है? और मृत्यु के समय आत्मनियंत्रित व्यक्तियों के द्वारा आप कैसे जाने जाते हैं?’ (8.2)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘सर्वोच्च ब्रह्म अनश्वर है। इसका प्रत्येक शरीर में निवास करना अध्यात्मकहलाता है; यज्ञों में दी जाने वाली आहति जिससे जीवों की उत्पत्ति और पालन होता है, कर्म कहलाता है’। (8.3)
- हे देहधारियों में श्रेष्ठ, ‘वस्तुओं का नश्वर पहलू अधिभूत है, अन्दर विराजमान ‘स्व’ अधिदेवता है; केवल मैं ही यहाँ इस शरीर में अधियज्ञ हूँ।’ (8.4)
- ‘वह जो मृत्यु के समय केवल मुझ पर ध्यान स्थित रखते हुए शरीर त्याग कर जाता है मुझे प्राप्त करता हैः इस विषय में कोई सन्देह नहीं है’। (8.5)
- ‘हे कुन्तीपुत्र जीवन के अन्त में जिस किसी भी (दिव्य रूप) को याद करते हुए कोई शरीर का त्याग करता है, वही (अन्तिम वास्तविकता) उसके उस रूप के निरन्तर चिन्तन के कारण उस स्त्री या पुरुष द्वारा प्राप्त की जाती है’। (8.6)
- ‘इसलिये सभी समय निरन्तर मुझे याद करो और युद्ध करो। मन और बुद्धि का मुझमें लय करके तुम निस्सन्देह मुझे प्राप्त होगे’। (8.7)
- ‘किसी ओर न जाते हुए, सर्वोच्च देदीप्यमान् पुरुष पर अभ्यास की विधि से दृढ़ किया हुआ मन होने पर, वह व्यक्ति उसी को प्राप्त होता है’। (8.8)
- ‘वह त्रिकालदर्शी, पुरातन, महान् शासक, एक परमाणु से भी सूक्ष्म, सब का पालनकर्ता, जिसका रूप अग्राह्य है, जो सूर्य की भाँति स्व प्रकाशित है, और जो माया के अन्धकार से परे है, वह, जो इस प्रकार से उस पर मृत्यु के समय, भक्तिपूर्वक, मन को स्थिर रखते हुए, और योग की शक्ति के द्वारा, भूमध्य में समस्त प्राणों को स्थिर रखते हुए ध्यान करता है, ऐसा व्यक्ति सर्वोच्च देदीप्यमान पुरुषको प्राप्त होता है’। (8.9 & 8.10)
- ‘वेदों के ज्ञाता जिसे अक्षर कहते हैं, जिसमें आत्मनियंत्रित (संन्यासी) आसक्ति से मुक्त हो कर प्रविष्ट होते हैं, और जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये वे एक ब्रह्मचारीका जीवन व्यतीत करते हैं, वह मैं तुम्हें संक्षेप में बताता हूँ’। (8.11)
- ‘समस्त इन्द्रियों को वश में करके, मन को हृदय में स्थापित करके, प्राणाएं को अपने सिर में ले जाकर, एकाग्रता के अभ्यास में रत होकर, एक अक्षर के ‘ॐ’, जो कि ब्रह्म है, उसका उच्चारण करते हुए और मुझ पर ध्यान लगा कर – वह जो इस प्रकार देह त्याग करता है, वह सर्वोच्च ध्येय को प्राप्त करता है’। (8.12 & 8.13)
- ‘हे पार्थ, मैं उस सतत् दृढ़ योगी के द्वारा सरलतापूर्वक प्राप्य हूँ जो मेरा निरन्तर और प्रतिदिन एक आयामी मन के साथ स्मरण करता है’। (8.14)
- ‘उच्चतम पूर्णत्व तक पहुँच कर और मुझे प्राप्त करके महान् आत्माएँ इस जगत् में और अधिक पुनर्जन्म के अधीन नहीं होती – यह जगत् जो कि दुख का निवासस्थान और क्षणिक है’। (8.15)
- ‘हे अर्जुन, सभी लोक, जिसमें ब्रह्मलोक भी सम्मिलित है, वापस लौटते हैं, लेकिन हे कुन्तीपुत्र, मुझे प्राप्त करने के बाद कोई पुनर्जन्म नहीं होता’। (8.16)
- ‘वे जो दिन और रात के (सही माप) को जानते हैं, वे जानते हैं कि ब्रह्मा का एक दिन हजारों युगों में समाप्त होता है, और एक रात्रि (भी) हजारों युगों में समाप्त होती है’। (8.17)
- ‘जब (ब्रह्मा का) दिन प्रारंभ होता है, सभी अभिव्यक्तियाँ अव्यक्त स्थिति से उत्पन्न होती हैं; रात्रि आने पर, वे निश्चय ही केवल उसी में लुप्त हो जाती हैं, जिसे अव्यक्त कहा जाता है’। (8.18)
- ‘हे पृथा पुत्र, प्राणियों का वही विशाल समूह (जो ब्रह्मा के पहले वाले दिन में था) रात्रि के प्रारंभ होने पर अपनी अनिच्छा के उपरांत भी विलीन हो जाता है, और फिर दिन के प्रारंभ होने पर बाहर आ जाता है’। (8.19)
- ‘लेकिन इस अव्यक्तके पीछे एक अन्य अव्यक्त भी है, नित्य विद्यमान – वह जो कि सभी प्राणियों के विनाश के समय नष्ट नहीं होता’। (8.20)
- ‘जिसे अव्यक्त और अनश्वर कहा गया है, वह सर्वोच्च ध्येय के रूप में बताया गया है। वह मेरी उच्चतम स्थिति है जिसे प्राप्त कर लेने पर वापस आना नहीं होता है’। (8.21)
- ‘और हे पृथापुत्र, वह परम् पुरुष, जिसमें सभी जीव स्थित हैं और जिसके द्वारा यह सब व्याप्त है केवल उसके प्रति हृदयपूर्वक भक्त्ति के द्वारा’ उसे प्राप्त किया जा सकता है। (8.22)
- ‘हे भरतों में महान्, अब मैं तुम्हें समय (मार्ग) के बारे में बताऊँगा जिसमें यात्रा करके योगी वापस नहीं लौटते हैं, (और वह भी, जिसपर जाकर) वे लौटते हैं’। (8.23)
- ‘अग्नि, अग्निशिखा, दिन का समय, शुक्ल पक्ष, सूर्य का छह मास का उत्तरी मार्ग – इस मार्ग पर जाकर, ब्रह्म के ज्ञाता ब्रह्म को प्राप्त करते हैं’। (8.24)
- ‘धूँआ, रात्रिकाल, कृष्ण पक्ष, सूर्य के दक्षिणी मार्ग के छह माह – इस मार्ग को लेकर योगीचन्द्रमा के प्रकाश को प्राप्त करके लौटता है’। (8.25)
- ‘निश्चय ही विश्व के ये प्रकाशमान और अंधकारयुक्त मार्ग हैं जिन्हें सनातन माना जाता है; एक में कोई लौटना नहीं है, दूसरे के द्वारा वापस लौटा जाता है’। (8.26)
- ‘हे पृथापुत्र कोई भी योगी इन मार्गों को जान लेने के बाद भ्रमित नहीं होता है। इसलिये, हे अर्जुन, तुम सभी समय योग में प्रतिष्ठित हो जाओ’। (8.27)
- ‘वेदों (के अध्ययन से), यज्ञों (के करने से), तपस्याओं और भोगार्पणों से मिलने वाला (धर्म ग्रन्थों में) जो भी लाभप्रद प्रभाव बताया गया है – योगी इसे जान कर इन सब से ऊपर उठ जाता है, और मूल अवस्था के सर्वोच्च धाम को (यहीं और अभी) प्राप्त करता है’। (8.28)
Chapter 9: Rāja Vidyā Yoga
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘तुम्हें, जो कि दोषदृष्टि पूर्ण बुद्धि के नहीं हो, अब मैं यह गहन ज्ञान अनुभव और उपलब्धि के साथ घोषित करता हूँ जिसे जानकर तुम जो भी दोषपूर्ण है उससे, अर्थात् सांसारिकता से मुक्त हो जाओगे’। (9.1)
- ‘यह विज्ञानों में उच्चतम; रहस्यों में गहनतम; शुद्धिकरण में सर्वोच्च है; यह प्रत्यक्ष बोधगम्य है, नीतिगत और नैतिक मूल्यों से युक्त, करने में अत्यंत सरल, और अव्यय प्रकृति का है।’ (9.2)
- ‘हे शत्रुओं के लिये कष्टप्रद, वे व्यक्ति जिनमें इस धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं है वे मुझे प्राप्त किये बिना पुनर्जन्म के मार्ग पर लौट कर आते हैं जिसमें मृत्युभय है’। (9.3)
- ‘यह समस्त जगत् मेरी अव्यक्त स्थिति द्वारा व्याप्त है; सभी प्राणी मुझमें जीते हैं, लेकिन मैं उनमें से किसी में (पृथक रूप से) स्थित नहीं हूँ’। (9.4)
- ‘न ही (वास्तविकता में) जीव मुझमें अवस्थित हैं, मेरे दिव्य योग को देखो! सृष्टि करते हुए और उन्हें अवस्थित रखते हुए, मेरा ‘स्व’ उनमें नहीं रहता है।’ (9.5)
- ‘जिस प्रकार बलशाली पवन सदैव सभी ओर प्रवाहित होते हुए सदैव आकाशमें रहता है, उसी प्रकार समझना चाहिये कि सभी जीव मुझ में रहते हैं’। (9.6)
- ‘हे कुन्तीपुत्र, कल्प के अन्त में सब जीव मेरी प्रकृतिमें वापस चले जाते हैं; दूसरे कल्प के आरंभ में, मैं उन्हें फिर से भेज देता हूँ’। (9.7)
- ‘अपनी प्रकृति को जाग्रत करके, मैं बार बार इस प्राणी समूह को प्रलम्बित करता हूँ, जो कि प्रकृति के प्रभाव के अधीन असहाय हैं’। (9.8)
- ‘ये कार्य मेरे बन्धन नहीं बनते क्योंकि हे धनञ्जय, मैं तटस्थ हूँ, उनसे अनासक्त हूँ’। (9.9)
- ‘मेरी सर्व व्याप्त शक्ति के द्वारा प्रकृति इन सब, गतिमान और अगतिमान (चराचर) को रचती है, हे कुन्तीपुत्र, इसके कारण विश्व-चक्र चलता रहता है’। (9.10)
- ‘जीवों के महान् स्वामी के रूप में मेरी उच्च स्थिति से अनाभिज्ञ मूर्ख लोग जब मैं मानवीय रूप में होता हूँ, मुझे नहीं मानते’। (9.11)
- ‘व्यर्थ आशा करने वाले, व्यर्थ कर्म तथा व्यर्थ का ज्ञान रखने वाले नासमझ लोग निश्चय ही राक्षसों और असुरों को मोहित करने वाली प्रकृति के प्रभाव में होते हैं’। (9.12)
- ‘लेकिन हे पृथापुत्र, महान आत्माएँ दिव्य प्रकृति के अधीन होकर मुझे जीवों व जड़ वस्तुओं का उद्गम जान कर एकाग्र मन से भजते हैं’। (9.13)
- ‘सदैव मेरी कीर्ति का गुणगान करते हुए और दृढ़ निश्चय के साथ प्रयत्न करते हुए, भक्तिपूर्वक मेरे समक्ष झुकते हुए वे सदैव निश्चयी, मुझे भजते हैं’। (9.14)
- ‘दूसरे भी ज्ञानयज्ञ द्वारा (अर्थात् सभी में स्व का दर्शन करते हुए), मुझ सर्वरूपी को, एक मानकर, पृथक रूप में, व अनेक रूपों में पूजते हैं।’ (9.15)
- ‘मैं क्रतु हूँ, मैं यज्ञहूँ, मैं स्वधा हूँ, मैं औषध हूँ, मैं मन्त्र हूँ, मैं आज्य हूँ, मैं अग्नि हूँ और मैं हवन हूँ’। (9.16)
- ‘मैं इस जगत् का पिता हूँ – माता, धाता, पितामह, वह (एक) जानने योग्य वस्तु, पवित्रता प्रदानकर्ता (अक्षर) ॐ तथा ऋक्, साम तथा यजुस्’। (9.17)
- ‘ध्येय, पालनहार, स्वामी, साक्षी, धाम, शरण, मित्र, उद्गम, विलय, आधार, भण्डार, अक्षयबीज’। (9.18)
- ‘मैं (सूर्य रूप में) ताप देता हूँ; मैं वर्षा करता और उसे रोकता हूँ; मैं अमरत्व और मृत्यु भी हूँ; हे अर्जुन, होना और न होना मैं हूँ’। (9.19)
- ‘तीनों वेदों के ज्ञाता मुझे यज्ञ द्वारा पूजते हुए, सोमरस पीते हुए, और (इस प्रकार) पापों से शुद्ध होते हुए, स्वर्ग जाने की प्रार्थना करते हैं; देवोंके स्वामी के पुण्य लोक में पहुँच कर वे स्वर्ग में देवों के दिव्य सुखों का भोग करते हैं’। (9.20)
- ‘विशाल स्वर्ग का सुख भोग करके अपने पुण्यों का क्षय होने पर वे मृत्युलोक में आते हैं; इस प्रकार तीनों (वेदों) का पालन करते हुए, इच्छाओं की कामना करते हुए वे (निरन्तर) आते और जाते हैं’। (9.21)
- ‘वे लोग जो मुझे अभिन्न मान कर मेरा ध्यान करते हैं, वे जो भी करते हैं मेरी पूजा मान कर करते हैं, जो इस प्रकार उत्साहपूर्वक योग में स्थित हैं, उन्हें जो अभाव होता है वह मैं प्रदान करता हूँ, और जो उनके पास है, मैं उसकी रक्षा करता हूँ’। (9.22)
- ‘वे भक्त्त भी जो श्रद्धा से युक्त होकर दूसरे देवताओं को पूजते हैं, हे कुन्तीपुत्र, वे भी मेरी पूजा करते हैं, (लेकिन) अविधिपूर्वक’। (9.23)
- ‘क्योंकि केवल मैं ही भोक्त्ता हूँ, सभी यज्ञों का स्वामी; लेकिन चूँकि वे मुझे वास्तविक रूप में नहीं जानते हैं, वे (मृत्युलोक) को लौटते हैं’। (9.24)
- ‘देवों के पक्षधर देवताओं के पास जाते हैं; पित्रोंके पक्षधर पित्रोंको जाते हैं, भूतों की पूजा करने वाले भूतों को जाते हैं, और मेरे भक्त्त भी मुझे प्राप्त होते हैं’। (9.25)
- ‘जो भी मुझे भक्तिपूर्वक पत्ता, फल, या जल अर्पित करता है, मैं वह स्वीकार करता हूँ – यह शुद्ध मन के व्यक्ति की श्रद्धापूर्ण भेंट’ है। (9.26)
- ‘हे कुन्तीपुत्र, जो भी तुम करते हो, जो भी तुम खाते हो, यज्ञ में जो भी आहति देते हो, जो भी दान करते हो, जो भी तपस्या करते हो, वह मुझे समर्पण के भाव से करो’। (9.27)
- ‘इस प्रकार अच्छे बुरे फल वाले कर्म के बन्धनों से मुक्त होकर हृदय को त्याग के योग में दृढ़ प्रतिष्ठित करके मुक्त होकर तुम मुझे प्राप्त होगे’। (9.28)
- ‘मैं सभी जीवों में समान रूप से हूँ; मेरे लिये कोई घृणा का पात्र या प्रिय नहीं है। लेकिन जो मुझे भक्तिपूर्वक पूजते हैं वे मुझ में हैं, और मैं भी उनमें हूँ’। (9.29)
- ‘यदि कोई अत्यधिक दुष्ट व्यक्ति भी एकाग्र होकर भक्तिपूर्वक मुझे पूजता है तो उस स्त्री या पुरुष को अच्छा माना जाना चाहिये, क्योंकि उस स्त्री या पुरुष ने उचित निर्णय लिया है’। (9.30)
- ‘शीघ्र ही वह स्त्री या पुरुष सदाचारी बन जाता है और सदा शान्ति का अनुभव करता है, हे कुन्तीपुत्र, तुम निर्भयतापूर्वक घोषणा कर सकते हो कि मेरा भक्त्त कभी नष्ट नहीं होता’। (9.31)
- ‘मुझ में शरण लेकर, हे पृथा पुत्र, वे भी, जो हीनतर जन्म लिये हुए हैं, तथा स्त्रियाँ, वैश्यतथा शूद्र भी – सर्वोच्च ध्येय को प्राप्त करते हैं’। (9.32)
- ‘पुनीत ब्राह्मणों और समर्पित राजर्षियों के प्रसंग की आवश्यकता ही क्या है! इस अस्थाई, आनन्दरहित संसार को प्राप्त करके, तुम मेरी पूजा करो’। (9.33)
- ‘अपना मन पूर्णतः मुझ में लगा कर मेरे भक्त्त बनो, मुझे अर्पण करो, मेरे प्रति नमन करो; इस प्रकार अपना हृदय मुझ में दृढ़ करके, मुझे सर्वोच्च ध्येय मानते हुए, तुम मुझे प्राप्त होगे’। (9.34)
Chapter 10: Vibhūti Yoga
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘फिर हे बलशाली भुजाओं वाले, मेरे सर्वोच्च वचनों को सुनो जिसे मैं तुम्हारा कल्याण चाहते हुए तुम्हें बताऊँगा क्योंकि तुम (मुझे सुन कर) प्रसन्न होते हो’। (10.1)
- ‘न तो देवतागण न ही ऋषिगण मेरा उद्गम जानते हैं, क्योंकि हर प्रकार से मैं सभी देवताओं और ऋषियोंका स्रोत हूँ’। (10.2)
- ‘वह जो कि मुझ अजन्मे और अनादि, ब्रह्माण्ड के स्वामी के रुप में जानता है – मरणशीलों में ऐसा व्यक्ति मोहित नहीं होता है, और वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है’। (10.3)
- ‘बुद्धि, ज्ञान, असंमूढता, क्षमा, सत्य, बाह्य इन्द्रियों का नियंत्रण, हृदय की शान्ति, दुख, सुख, जन्म, मृत्यु, भय और अभय’, (10.4)
- ‘दुख न पहँचाना, समानता, संतुष्टि, तप, दान, ख्याति (और) कुख्याति – (ये) भिन्न प्रकार के गुण जो जीवों में हैं, मुझसे ही आते हैं’। (10.5)
- ‘सात महान् ऋषि, और पहले के चार ऐसे ही मनुगण, जिनके विचार मुझ पर स्थित थे, वे मेरे मन से उत्पन्न हुए और उनसे जगत् के ये प्राणी आए’। (10.6)
- ‘वह जो वास्तविकता में मेरी इन अनेक अभिव्यक्तियों को तथा मेरी (इस) योगशक्ति को जानता है; वह अविचलित रूप से योगमें स्थापित हो जाता है; इसमें कोई संदेह नहीं है।’ (10.7)
- ‘मैं सब का उद्गम हूँ; प्रत्येक वस्तु मुझसे विकसित होती है – इस प्रकार सोच कर बुद्धिमान लोग प्रेमपूर्ण बोध से मुझे पूजते हैं’। (10.8)
- ‘मुझ में अपना सम्पूर्ण मन रख कर, अपनी इन्द्रियाँ मुझ में लीन करके, एक दूसरे को आलोकित करते हुए, और सदैव मेरे विषय में वार्तालाप करते हुए वे सन्तुष्ट और आनन्दित होते हैं’। (10.9)
- ‘वे जो दृढ़तापूर्वक सदा प्रीति के साथ मेरी सेवा करते हैं, उन्हें मैं बुद्धियोगदेता हूँ जिसके द्वारा वे मुझ तक पहँचते हैं’। (10.10)
- ‘उनके प्रति केवल करुणावश, उनके हृदय में निवास करता हुआ, उनके अज्ञान से उत्पन्न अन्धकार को मैं ज्ञान का दीप जला कर नष्ट करता हूँ’। (10.11)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘आप परं ब्रह्म हैं, सर्वोच्च धाम, परम शुद्धिकर्ता। शाश्वत, स्व-आलोकित पुरुष, आदि देव, अजन्मे और सभी में व्याप्त’। (10.12)
- ‘ऐसा सभी ऋषिगण कहते हैं, देवर्षिनारद और इसी प्रकार असित, देवल और व्यास; आप भी मुझे यही कहते हैं’। (10.13)
- ‘हे केशव, आप जो भी कह रहे हैं उसे मैं सत्य मानता हूँ, निश्चय ही हे भगवान्, न तो देवतागण और न ही दानव आपका व्यक्तित्व जानते हैं’। (10.14)
- हे परम पुरुष, हे जीवों के उद्गम, हे जीवों के स्वामी, हे देवों के देव, हे संसार के शासक’ ‘निश्चय ही, आप स्वयं ही स्वयं से स्वयं को जानते हैं। (10.15)
- ‘निस्सन्देह, आपको अपनी विभूतियाँ बताना शोभा देता है जिनके द्वारा आप इस जगत् को परिपूरित करते हुए विद्यमान हैं’। (10.16)
- ‘हे योगी, मैं कैसे आप पर ध्यान करते हुए आपको निरन्तर जान सकता हूँ? हे भगवान्, आप मेरे द्वारा किन वस्तुओं में जाने जाएँ?’ (10.17)
- ‘हे जनार्दन, मुझे अपनी योग शक्तियों और कीर्तियों को फिर से विस्तारपूर्वक बताइये, क्योंकि मैं इस अमृतमय आपकी वाणी सुनने से कभी नहीं थकता हूँ और तृप्त होता हूँ’। (10.18)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘हाँ, अब मैं तुम्हें, हे कुरुओं में श्रेष्ठ, मेरी दिव्य कीर्तियों के बारे में उनकी प्रधानता के अनुसार बताऊँगा; मेरी अभिव्यक्तियों के विस्तार का कोई अन्त नहीं है’। (10.19)
- ‘हे गुडाकेश, सभी जीवों के हृदय में रहने वाला मैं ‘स्व’ हूँ; मैं आरम्भ हूँ, मध्य हूँ, और सभी जीवों का अन्त भी मैं हूँ’। (10.20)
- ‘आदित्यों में मैं विष्णु हूँ; प्रकाशमान वस्तुओं में मैंए ज्वलंत सूर्य हूँ, हवाओं में मैं मरीचि हूँ; नक्षत्रों में मैं चन्द्रमा हूँ’। (10.21)
- ‘मैं वेदों में सामवेद हूँ, और देवताओं का वासव (इन्द्र) हूँ; इन्द्रियों में मैं मन हूँ; और जीवित प्राणियों में चेतना हूँ’। (10.22)
- ‘रूद्रों में मैं शंकर हूँ; यक्षों और राक्षसों में मैं धन सम्पत्ति का स्वामी अर्थात् कुबेर हूँ; वसुओं में मैं पावक हूँ; और पर्वतों में मैं मेरु पर्वत हूँ’। (10.23)
- ‘हे पृथापुत्र, मुझे पुरोहितों का प्रधान बृहस्पति जानो; सेनानियों में मैं स्कन्द हूँ; जलाशयों में समुद्र हूँ’। (10.24)
- ‘महान् ऋषियों में मैं भृगु हूँ; शब्दों में मैं एक अक्षर का ॐ हूँ; यज्ञों में मैं जपयज्ञ (मौन पुनरावृत्ति) हूँ; अचल वस्तुओं में मैं हिमालय हूँ’। (10.25)
- ‘सभी वृक्षों में मैं अश्वत्थ हूँ, देवर्षियोंमें मैं नारद हूँ; गन्धर्वो में चित्ररथ हूँ; और सिद्धों में कपिल मुनि हूँ’। (10.26)
- ‘घोड़ों में मुझे उच्चैःश्रवस जानो, अमृतसे उत्पन्न; श्रेष्ठ हाथियों में मैं ऐरावत हूँ; और मनुष्यों में राजा’। (10.27)
- ‘अस्त्र शस्त्रों में मैं आकाशीय बिजली हूँ; गायों में मैं कामधुक हूँ; प्रजनन में मैं कन्दर्प हूँ; सर्पों में मैं वासुकि सर्प हूँ’। (10.28)
- ‘नागों में मैं अनन्त नाग हूँ; जलचरों में वरुण हूँ; पितरों में मैं अर्यमा हूँ; और नियंत्रण करने वालों में मैं यम हूँ’। (10.29)
- ‘दिति के वंशजों में मैं प्रह्लाद हूँ; नाप तोल में मैं समय हूँ; पशुओं में मैं उनका राजा सिंह हूँ; और पक्षियों में गरुड़ हूँ’। (10.30)
- ‘शुद्धिकारकों में मैं पवन हूँ; योद्धाओं में राम हूँ; मछलियों में घड़ियाल हूँ; नदी नालों में मैं जान्हवी (गंगा) हूँ’। (10.31)
- ‘अभिव्यक्तियों में मैं प्रारंम्भ, मध्य और अन्त हूँ; सभी विद्याओं में मैं ‘स्व’ का ज्ञान हूँ; और विवादों में मैं वाद हूँ’। (10.32)
- ‘अक्षरों में मैं “अ” अक्षर हूँ; सभी समासों में द्वन्द्व हूँ; केवल मैं ही अक्षय समय हूँ; मैं (कर्मों के फल प्रदान करने वाला) पालनकर्ता हूँ, और सर्वरूप हूँ’। (10.33)
- ‘मैं सब कुछ हरने वाली मृत्यु हूँ; और समृद्ध होने वालों की समृद्धि हूँ; नारियों में मैं प्रसिद्धि, समृद्धि, वाणी, स्मृति, बुद्धिमत्ता, सहनशीलता और धैर्य हूँ’। (10.34)
- ‘सामों में भी मैं बृहत् साम हूँ; छन्दों में मैं गायत्री हूँ; मासों मैं मार्गशीर्ष हूँ; और ऋतुओं में फूल देने वाला वसन्त हूँ’। (10.35)
- ‘छल करने वाले का मैं जूआ हूँ, शक्तिमान् की शक्ति हूँ; मैं विजय हूँ; प्रयास हूँ; सात्विक का सत्व हूँ’। (10.36)
- ‘वृष्णियों में मैं वासुदेव हूँ, पाण्डवों में धनञ्जय; मुनियों में मैं व्यास हूँ और कवियों में उशना ऋषि’। (10.37)
- ‘दण्ड देने वालों में मैं राज-दण्ड हूँ; विजय चाहने वालों में मैं राजनेतृत्व हूँ; गोपनीय वस्तुओं में मौन हूँ; और ज्ञानियों का मैं ज्ञान हूँ’। (10.38)
- ‘और हे अर्जुन, जो भी सभी जीवों का बीज है, वह भी मैं हूँ। कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है, गतिमान या स्थिर, जो मेरे बिना अस्तित्व में रह सके’। (10.39)
- ‘हे शत्रुओं के कष्टप्रद, मेरी शक्तियों का कोई अन्त नहीं है; लेकिन यह मेरी दिव्य शक्तियों और विभूतियों का संक्षिप्त कथन है’। (10.40)
- ‘जो भी महान्, सम्पन्न या शक्तिशाली हो, जानो कि वह मेरे वैभव के एक अंश से हुआ है’। (10.41)
- ‘हे अर्जुन, इन सब विभिन्नताओं को जानने का क्या लाभ है? मैं अपने एक अंश से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण किये हुए विद्यमान हूँ’। (10.42)
Chapter 11: Viśhwarūpa Sandarśhana Yoga
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘अध्यात्म के विषय पर सर्वाधिक गहन शब्दों के द्वारा, जो कि आपने मेरे प्रति करुणावश बोले हैं, मेरा यह मोह भंग हो गया है’। (11.1)
- ‘हे कमलनयन, मैने स्वयं आप से जीवों की उत्पत्ति और विलय के बारे में विस्तारपूर्वक सुना है तथा साथ ही साथ आपकी कभी समाप्त न होने वाली महानता के बारे में’ भी सुना है। (11.2)
- ‘यह आपने बताया वैसा ही है, हे परम स्वामी! आपने स्वयं को घोषित किया है। (फिर भी) मैं आपके ईश्वर रूप को देखना चाहता हूँ, हे परम पुरुष’। (11.3)
- ‘हे प्रभु, यदि आप मुझे इसे देखने के योग्य समझते हैं, तब हे योगियों के प्रभु, मुझे अपना अविनाशी स्वरूप दिखाइये’। (11.4)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘हे पृथा के पुत्र मेरे सैंकड़ो-हजारों अलौकिक रूपों को भिन्न भिन्न रंगों और आकृतियों में देखो’। (11.5)
- ‘आदित्यों को, वसुआएं को, रुद्रों को, दोनों अश्विनों को और मारुतों को देखो; और हे भरत के वंशज, उन आश्चर्यों को भी, जो पहले कभी नहीं देखे गये’। (11.6)
- ‘अब हे गुडाकेश, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को मेरे इस एक शरीर में केन्द्रित देखो – चर और अचर सहित – तथा अन्य सब जो तुम देखना चाहते हो’। (11.7)
- ‘लेकिन तुम अपनी इन आँखों के द्वारा मुझे नहीं देख सकते हो; मै तुम्हें दिव्य दृष्टि या अति संवेदनशील दृष्टि प्रदान करता हूँ; मेरी सर्वोच्च योग शक्ति को देखो’। (11.8)
- ‘संजय ने कहा’ : ‘इस प्रकार बोल कर हे राजन, हरि, जो कि योग के महान् स्वामी हैं, उन्होंने पृथा के पुत्र को अपना सर्वोच्च ईश्वर रूप दिखाया’। (11.9)
- ‘अनेक मुखों तथा नेत्रों के साथ, अनेक आश्चर्यजनक दृश्यों के साथ, अनेक अलौकिक आभूषणों के साथ, अगणित अलौकिक ऊपर उठाए हुए अस्त्र-शस्त्रों के साथ’। (11.10)
- ‘दिव्य मालाओं और वस्त्रों को धारण किये हुए, अलौकिक गन्धों के लेप से भूषित, सर्वाधिक आश्चर्यमय देव, ज्योतिर्मय, अनन्त, तथा अनेक रूपों में व्यक्त’। (11.11)
- ‘यदि एक हजार सूर्यों का प्रकाश एक साथ आकाश में उठे तो वह उस शक्तिमान व्यक्तित्व की दीप्ति जैसा होगा’। (11.12)
- ‘उस देवों के देव के शरीर में, वहाँ पाण्डु के पुत्र ने एक ही स्थान पर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड, अपने अनेक विभिन्न खण्डों के साथ स्थित देखा’। (11.13)
- ‘फिर धनञ्जय ने आश्चर्यपूरित होकर अपने रोमांचित हुए खड़े केशों के साथ, अपना शीश देव के प्रति झुका कर, स्तुतिपूर्वक दोनों हाथों को जोड़कर कहा’। (11.14)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘हे देव, मैं सभी देवताओंको आपके शरीर में देखता हूँ, तथा बहुत से अनेक प्रकार के प्राणी भी; कमल पर विराजमान भगवान् ब्रह्मा, सभी ऋषिगणतथा अलौकिक सर्प’। (11.15)
- ‘मैं आपको सभी ओर असीमित रूप का, अनेक भुजाओं, उदरों, मुखों तथा नेत्रों के साथ देखता हूँ, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे जगत् रूप, मैं आपका न तो अन्त, न मध्य और न आरम्भ ही देख पाता हूँ’। (11.16)
- ‘मैं आपको एक मुकुट, गदा व चक्र के साथ सभी ओर प्रकाशमान छटा बिखेरते हुए देखता हूँ, सूर्य की भाँति सभी ओर ज्वलंत, प्रज्वलित अग्नि व असीम रूप में, जो देखने में कठिन है’। (11.17)
- ‘आप अनश्वर हैं, जानने योग्य एक ही वस्तु, परम पुरुष। आप इस जगत् की महान शरणस्थली हैं; आप इस शाश्वत धर्म के अनश्वर संरक्षक हैं, मेरे मत में आप ही पुरातन पुरुष हैं’। (11.18)
- ‘मैं आपको बिना आरम्भ, मध्य या अन्त के देखता हूँ, शक्ति में असीम, अनेक भुजाओं से युक्त; सूर्य और चन्द्र आपके नेत्र हैं, समस्त जगत् को अपने ताप से दग्ध करते हुए प्रज्वलित अग्नि आपका मुख है’। (11.19)
- ‘स्वर्ग तथा पृथ्वी के बीच का आकाश तथा सभी दिशाएँ केवल आप के द्वारा ही भरली गई हैं; आपका अद्भुत तथा उग्र रूप देख कर तीनों लोक, हे महात्मन्, भय से काँप रहे हैं’। (11.20)
- ‘निश्चित रूप से ये सब देवता आप में प्रवेश करते हैं; कुछ भय के कारण हाथ जोड़कर ऐसा कहते हुए आपसे याचना करते हैं, “कल्याण हो”! ऐसा कह कर ऋषिगण तथा सिद्धगण अति सुन्दर स्तुतियों द्वारा आपकी आराधना करते हैं’। (11.21)
- ‘रुद्रगण, आदित्यगण, वसुगण, साध्यगण, विश्वेदेव, दोनों अश्विन, मरुद्गण, उष्मपागण तथा अनेक गंधर्व, यक्ष, असुर व सिद्धगण ये सब विस्मित हो कर आपकी ओर देख रहे हैं’। (11.22)
- ‘हे शक्तिशाली भुजाओं वाले, आपका विराट् रूप देख कर जिसमें अनेक मुख और नेत्र हैं, अनेक भुजाओं, जंघाओं व पैरों, अनेक उदर, और भयानक दाढ़ों के साथ देख कर समस्त लोक भयभीत हो रहे हैं, और उसी प्रकार मैं भी’। (11.23)
- ‘अनेक रंगों में दैदीप्यमान्, खुले हुए विशाल मुखों और विशाल अग्निदीप्त नेत्रों के साथ, आपको आकाश को छूते हुए देखकर मैं हृदय में भयभीत हूँ, और हे विष्णु, स्वयं में कोई साहस और शान्ति नहीं पाता हूँ’। (11.24)
- ‘आपके मुखों को देख कर तथा प्रलयकाल की अग्नि के समान (प्रज्वलित) दाढ़ों से भयभीत होकर मैं चारों दिशाओं को भूल गया हूँ, और न ही मुझे कोई शान्ति मिल रही है; दया कीजिये, हे देवों के स्वामी, हे जगत् के धाम’। (11.25)
- ‘अनेक राजाओं के साथ धृतराष्ट्र के ये सभी पुत्र, भीष्म, द्रोण और सूतपुत्र, हमारे प्रधान योद्धा . . . ’ (11.26)
- ‘तीव्रतापूर्वक आपके मुख में प्रविष्ट हो रहे हैं जो कि दाढ़ों के कारण भयानक दिखाई दे रहे हैं। इनमें से कुछ आपके दाँतों के बीच चिपके हुए हैं, जिनके सिर चूर्ण हुए दिखाई दे रहे हैं’। (11.27)
- ‘जैसे नदी की अनेक धाराएँ समुद्र की ओर प्रवाहित होती हैं, उसी प्रकार मानव जगत् के ये नायक आपके भयंकर रूप से प्रज्वलित मुखों में प्रविष्ट होते हैं’। (11.28)
- ‘जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि में पतंगे केवल नष्ट होने के लिये तीव्रतापूर्वक चले आते हैं, उसी प्रकार ये प्राणी भी आपके मुख में केवल नष्ट होने के लिये दौड़े चले आते हैं’। (11.29)
- ‘अपने प्रज्वलित मुखों से सभी ओर से सभी लोकों को निगलते हुए आप अपने ओठ चाट रहे हैं। हे विष्णु, आपकी प्रज्वलित रश्मियाँ सम्पूर्ण जगत् को अपने ताप से भरते हुए जला रही हैं’। (11.30)
- ‘आप उग्र रूप में कौन हैं मुझे बताइये। आपको प्रणाम है। हे सर्वोच्च देव, दया कीजिये। हे अनादि, मैं आपको जानना चाहता हूँ। मैं वास्तव में आपका उद्देश्य नहीं जानता हूँ’। (11.31)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘मैं संसार का विनाशकर्ता महाकाल हूँ, यहाँ जगत् को निगलने के लिये व्यक्त हुआ हूँ। तुम्हारे बिना भी प्रतिद्वन्द्वी सेनाओं में सुसज्जित इन योद्धाओं में से कोई भी जीवित नहीं रहेगा’। (11.32)
- ‘इसलिये तुम उठो और ख्याति को प्राप्त करो। शत्रुओं को जीतो और अप्रतिद्वन्द्वित प्रभुत्व का आनन्द उठाओ। हे अर्जुन, निश्चय ही वे पहले ही मुझ द्वारा मारे जा चुके हैं, तुम केवल निमित्त बन जाओ’। (11.33)
- ‘द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा अन्य साहसी योद्धा – ये सब पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं, तुम इन्हें मारो । भय से व्याकुल हुए बिना युद्ध करो, और अपने शत्रुओं को तुम युद्ध में जीतोगे’। (11.34)
- ‘संजय ने कहा’ : ‘केशव (श्रीकृष्ण) के इस संभाषण को सुनकर गदाधारी (अर्जुन) हथेलियों को जोड़कर, काँपते हुए, दण्डायमान हो गया और फिर से गद्गद वाणी में, झुककर भयातुर हो कर बोला’। (11.35)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘हे हृषीकेश, यह पूर्णतः उचित ही है कि संसार आनन्दित और हर्षित होकर आपकी स्तुति करता है, भय के कारण राक्षसगण सभी दिशाओं में भाग जाते हैं, और सिद्धगण आपको झुक कर प्रणाम करते हैं’। (11.36)
- ‘और क्यों नहीं, हे महात्मन्, उन्हें आपके समक्ष झुकना चाहिये, आदिकारण के रूप में आप ब्रह्मा से भी महान् हैं, हे असीम, हे देवों के स्वामी, हे जगत् के निवास? आप अनश्वर हैं, सत् और असत् हैं, तथा उसके भी परे हैं’। (11.37)
- ‘आप आदि देवहैं, पुरातन पुरुष। आप इस जगत् के सर्वोच्च शरणस्थल हैं, आप ज्ञाता हैं, और (जानने योग्य एक ही वस्तु) ज्ञात हैं। आप सर्वोच्च ध्येय हैं। हे असीम रूपधारी आप द्वारा जगत् व्याप्त है’। (11.38)
- ‘आप वायु, यम, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, प्रजापति और पितामह हैं। प्रणाम, आपको प्रणाम है, एक हज़ार बार तथा बारम्बार प्रणाम, आपको प्रणाम है’। (11.39)
- ‘हे सर्वस्व आपको आगे और पीछे प्रणाम है, सभी ओर प्रणाम है। आप शक्ति में असीम हैं, पराक्रम में असीम हैं, आप सभी में व्याप्त हैं; जो कुछ भी है, आप ही हैं’। (11.40)
- ‘आपको “हे कृष्ण, हे यादव, हे मित्र” कहते हुए जो कुछ मैने अज्ञानवश, असावधानीपूर्वक या प्रेमवश कहा, आपको केवल एक मित्र मानते हुए, आपकी इस महानता से अनाभिज्ञ होकर’। (11.41)
- ‘हे अच्युत, किसी भी रूप में यदि मैने आपके साथ असम्मानजनक व्यवहार किया हो, विनोदपूर्वक, चलते हुए, लेटे हुए, बैठे हुए, भोजन करते हुए, (आपके साथ) एकान्त में अथवा सब की उपस्थिति में – हे असीम, इन सब को क्षमा करने के लिये मैं विनती करता हूँ’। (11.42)
- ‘आप चर और अचर जगत् के पिता हैं, इसकी पूजा के ध्येय हैं, महान् से भी महानतर। हे अतुलनीय शक्तिमान्, इन तीनों लोकों में आपके समकक्ष कोई नहीं है, फिर आपसे श्रेष्ठ कौन हो सकता है!’ (11.43)
- ‘अतः आपके समक्ष स्तुतिपूर्वक दण्डवत् होते हुए मैं आपसे क्षमायाचना करता हूँ, हे आराधनीय प्रभु! जिस प्रकार एक पिता अपने पुत्र को क्षमा करता है, एक मित्र अपने प्रिय मित्र को, एक प्रेमी अपने प्रेम पात्र को क्षमा करता है, हे देव, उसी प्रकार आप मुझे क्षमा करें’। (11.44)
- ‘जो मैने पहले कभी नहीं देखा उसे देख कर मैं अत्यंत रोमांचित हूँ; फिर भी, मेरा मन भय से आतुर है। हे देव, मुझे केवल वह (पूर्वपरिचित) रूप दिखाइये। दया कीजिये, हे देवों के स्वामी, हे जगत् के धाम’। (11.45)
- ‘किरीट धारण किये हुए, गदा और चक्र के साथ, मैं आपको पहले की भाँति देखना चाहता हूँ। हे सहस्र भुजाधारी तथा ब्रह्माण्डीय रूप धारक, फिर से वही चतुर्भुज रूप धारण कीजिये’। (11.46)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘हे अर्जुन, मैने कृपा करके तुम्हें यह सर्वोच्च रूप मेरी स्वयं की योग शक्ति के द्वारा दिखाया है। यह तेजोमय, मौलिक, असीम, वैश्विक रूप, किसी के भी द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया’। (11.47)
- ‘हे कुरुओं के महान् नायक, न तो वेदों (के अध्ययन) और यज्ञ द्वारा, न दान द्वारा, न ही शास्त्रोक्त्त विधि द्वारा, न तपस्या द्वारा, मैं मनुष्यों के जगत् में तुम्हारे अतिरिक्त्त इस रूप में अन्य किसी के द्वारा देखा जा सकता हूँ’। (11.48)
- ‘मेरे इस रूप को देख कर भयभीत और व्याकुल मत होओ जो इतना भयंकर है। अपने भय को त्यागकर तथा प्रसन्नचित्त होकर फिर से मेरा वही पहले का रूप देखो’। (11.49)
- ‘संजय ने कहा’ : ‘अतः वासुदेव, अर्थात् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार अर्जुन से कह कर फिर से अपना वही पहले का रूप दिखाया; और महान् आत्मा ने अपना सौम्य रूप दिखा कर भयभीत अर्जुन को शान्त किया’। (11.50)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘आपका यह सौम्य मानव रूप देख कर, हे जनार्दन, अब मैं शान्त चित्त हो गया हूँ, और मैं फिर से अपनी स्वाभाविक अवस्था में आ गया हूँ’। (11.51)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘मेरा यह रूप जो तुमने देखा देखने में अत्यंत कठिन है। देवता लोग भी इस रूप को देखने के लिये आतुर रहते हैं’। (11.52)
- ‘न वेदों के द्वारा, न तपस्या द्वारा, न दान और यज्ञ के द्वारा मैं, जैसा तुमने देखा है, देखा जा सकता हूँ’। (11.53)
- ‘लेकिन अनन्य भक्त्ति के द्वारा मैं इस रूप में, जानने, देखने और (मुझ में) प्रविष्ट होने के लिये, हे अर्जुन, हे शत्रुओं के संहारक, जाना जा सकता हूँ।’ (11.54)
- ‘वह जो मेरे लिये ही कार्य करता है, मुझे अपना ध्येय समझता है, मेरे प्रति समर्पित है, ऐन्द्रिय आसक्तियों से मुक्त है, और किसी के भी प्रति वैर भाव नहीं रखता है – हे पाण्डव, वह स्त्री या पुरुष मुझे प्राप्त होता है’। (11.55)
Chapter 12: Bhakti Yoga
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘वे भक्त जो सदा दृढ़तापूर्वक पूर्वोक्त प्रकार से आपको भजते हैं, तथा वे भी, जो अविनाशी अव्यक्त निर्गुण ब्रह्म को भजते हैं, – उनमें से कौन सा भक्त श्रेष्ठतर रूप से योग में निष्णात है?’ (12.1)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘वे जो कि अपना मन मुझ पर स्थित रखते हुए मुझे सदा दृढ़तापूर्वक भजते हैं, और जिनमें सर्वोच्च श्रद्धा है, वे मेरे विचार से योग में श्रेष्ठतम रूप से निष्णात या दक्ष है’। (12.2)
- ‘लेकिन वे जो अनश्वर, अपरिभाष्य, अव्यक्त, सर्वव्यापी, अचिन्त्य, अपरिवर्तनीय, अचल, अनन्त को भजते हैं’। (12.3)
- ‘सब इन्द्रियों को वश में करके, सभी स्थितियों में समबुद्धि रखते हुए, सभी जीवों के कल्याण में युक्त होकर – निश्चय ही वे मुझे प्राप्त होते है’। (12.4)
- ‘जो अपना मन अव्यक्त निर्गुण ब्रह्म पर स्थित करते हैं उन्हें कष्ट अधिक है; क्योंकि शरीरधारियों के द्वारा निर्गुण इष्ट को प्राप्त करना अत्यंत कठिन है’। (12.5)
- ‘लेकिन वे जो मुझे सभी कार्यों को समर्पित करते हुए, मुझे परम इष्ट, मानते हुए, मुझ पर ध्यान करते हुए, एकाग्रमनो योग द्वारा मुझे भजते हैं’। (12.6)
- ‘. . . हे पृथा पुत्र, जो मुझ पर अपना मन लगाते हैं, निश्चयपूर्वक शीघ्र ही मैं उनका नश्वर संसार के समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ’। (12.7)
- ‘केवल मुझ पर अपना मन केन्द्रित करो; मुझ में अपनी बुद्धि स्थित करो; फिर तुम अब से आगे निस्सन्देह मुझ में ही वास करोगे’। (12.8)
- ‘हे धनञ्जय, (अर्जुन) यदि तुम स्थिरतापूर्वक अपना मन मुझ पर केन्द्रित नहीं कर पाते हो तो अभ्यास योग के द्वारा मुझ तक आने का प्रयास करो’। (12.9)
- ‘यदि तुम अभ्यास करने में भी असमर्थ हो तो समस्त कर्मों को मेरे लिये करने का दृढ़ संकल्प। मेरे लिये कर्म करने पर भी तुम पूर्णता को प्राप्त कर लोगे’। (12.10)
- ‘यदि तुम यह करने में भी असमर्थ हो तो मेरी शरण में आकर,आत्म नियंत्रित हो कर, समस्त कर्मों के फल त्याग दो’। (12.11)
- ‘(अन्ध) अभ्यास से ज्ञान श्रेयस्कर है; केवल ज्ञान से (ज्ञानसहित) ध्यान श्रेयस्कर है, कर्मों के फल का त्याग ध्यान से श्रेयस्कर है; त्याग द्वारा तुरन्त शान्ति प्राप्त होती है’। (12.12)
- ‘वह स्त्री या पुरुष जो किसी प्राणी से घृणा नहीं करता, और सभी के प्रति करुणावान् और मित्रवत् है, जो “मैं और मेरे” के भाव से मुक्त है, तथा दुःख और सुख में समबुद्धि और क्षमावान् है’। (12.13)
- ‘सदैव सन्तुष्ट, ध्यान में स्थिर, आत्म नियंत्रित, तथा दृढ़ निश्चय के साथ मन और बुद्धि को मुझ पर स्थिर रखते हुए – जो इस प्रकार मुझे समर्पित है, वह मुझे प्रिय है। (12.14)
- ‘वह जिसके द्वारा जगत् अशान्त या उद्विग्न नहीं होता, और जो स्वयं भी जगत् के द्वारा अशान्य या उद्विग्न नहीं होता, जो हर्षातिरेक, असहिष्णुता, भय व उद्वेग से मुक्त हो चुका है – ऐसा व्यक्ति मुझे प्रिय है’। (12.15)
- ‘वह जो निर्भरता से मुक्त है, जो शुद्ध, उद्यत, उदासीन और दुखों से मुक्त है, तथा जो सभी कार्यारंभों का त्याग करता है – वह जो मेरे प्रति इस प्रकार समर्पित है, मुझे प्रिय है’। (12.16)
- ‘वह जो न हर्षित होता है, न घृणा करता है, न शोक करता है, न आकांक्षा रखता है, शुभ व अशुभ का परित्याग करता है, और भक्तिमान् है,ऐसा व्यक्ति मुझे प्रिय है’। (12.17)
- ‘वह जो शत्रुओं और मित्रों के लिये समान है, तथा मान अपमान में भी समान ही बना रहता है, सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख में समान दृष्टि रखता है, और जो आसक्ति से मुक्त है’। (12.18)
- ‘जिसके लिये निन्दा तथा प्रशंसा समान है, जो मौन है, प्रत्येक वस्तु से सन्तुष्ट है, निराश्रय है, स्थिर मन युक्त है, भक्ति से परिपूर्ण है, ऐसा व्यक्ति मुझे प्रिय है’। (12.19)
- ‘और वे जो इस (सामाजिक स्थिरता प्रदायक और आत्मबोधक) अविनाशी धर्म का पालन, जैसा कि ऊपर बताया गया है, श्रद्धा से युक्त, मुझे सर्वोच्च ध्येय समझते हुए और भक्तिपूर्ण करते हैं, – वे मुझे अत्याधिक प्रिय हैं’। (12.20)
Chapter 13: Kṣhetra Kṣhetrajña Vibhāga Yoga
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘प्रकृति और पुरुष , तथा क्षेत्र और क्षेत्र का ज्ञाता, तथा ज्ञान और ज्ञेय भी – हे केशव मैं इन्हें जानना चाहता हूँ’। (13.1)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘हे कुन्तीपुत्र, यह शरीर क्षेत्र कहलाता है, और वह जो इसे जानता है, ज्ञाताओं के द्वारा क्षेत्रज्ञ कहलाता है’। (13.2)
- ‘हे भरत के वंशज इन सब क्षेत्रों में मुझे क्षेत्रज्ञ के रूप में जानो। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान मेरे द्वारा ‘ज्ञान ’ माना जाता है’। (13.3)
- ‘वह क्षेत्र क्या है, इसके गुणधर्म या विशेषताएँ क्या हैं, इसके रूपान्तरण क्या हैं, कौन से प्रभाव किन कारणों से होते हैं, और वह कौन है और उसकी शक्तियाँ क्या हैं, यह मुझसे अब संक्षेप में सुनो’। (13.4)
- ‘(यह सत्य) ऋषियों द्वारा अनेक प्रकार से, वेदों की अनेक घोषणाओं में, और अत्यंत तर्क युक्ति पूर्ण तथा स्वीकार्य ब्रह्म की व्याख्याओं के अंशों में गाया गया है’। (13.5)
- ‘महान् आदि मूल तत्त्व, अहंभाव, बुद्धि और इसी प्रकार सामान्य अव्यक्त प्रकृति (मूल प्रकृति ), दस इन्द्रियाँ, और एक (मन), तथा इन्द्रियों के पाँच विषय’; (13.6)
- ‘इच्छा, घृणा, सुख, दुःख, स्थूल देह का पिण्ड, बुद्धिमत्ता, शौर्य, धृति – संक्षेप में इसके रूपान्तरों के साथ क्षेत्र का विवरण इसी प्रकार दिया गया है।’ (13.7)
- ‘विनम्रता, दम्भहीनता, अहिंसा, सहनशीलता, सरलता, गुरुसेवा, शुद्धि, स्थिरता और आत्मनियंत्रण’; (13.8)
- ‘इन्द्रियों के विषयों के प्रति (अत्यधिक आसक्ति का) त्याग, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था, रोग और शोक के दोषों पर विचार’; (13.9)
- ‘अनासक्ति, पुत्र, पत्नी, घर व अन्य के साथ स्वयं की पहचान न करना, और प्रिय तथा अप्रिय घटित होने पर निरन्तर सम बुद्धि रखना’। (13.10)
- ‘अपृथकत्व केयोग द्वारा मेरे प्रति अनन्य भक्ति, एकान्त स्थानों के प्रति झुकाव, स्त्री पुरुषों के समाज से (निरन्तर) जुड़े रहने के प्रति अरुचि’; (13.11)
- ‘आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति निरन्तर मनोनियोग, वास्तविक ज्ञान का प्रयोजन समझना, इसे ज्ञान रूप में घोषित किया गया है, और जो इसके विपरीत है, वह अज्ञान है’। (13.12)
- ‘जिसे जान कर कोई अमरत्व को प्राप्त करता है, और जिसे जाना जाता है अर्थात्, अविनाशी परम ब्रह्म, मैं उसका विवरण दूँगा। इसे न तो होना कहते हैं और न ही न होना कहते हैं’। (13.13)
- ‘विश्व में सभी स्थानों पर हाथ और पैर, आँखें, सिर और मुख तथा कान रखते हुए सभी में व्याप्त उसका अस्तित्व है’। (13.14)
- ‘सभी इन्द्रियों की क्रियाओं द्वारा देदीप्यमान फिर भी बिना इन्द्रियों के; सभी का धारण-पोषण करने वाला फिर भी अनासक्त; निर्गुण , फिर भी गुणों का अनुभवकर्ता’। (13.15)
- ‘सभी जीवों के अन्दर तथा बाहर; गतिमान व स्थिर; अपनी सूक्ष्मता के कारण यह अग्राह्य है; यह निकट भी है और दूर भी’। (13.16)
- ‘स्वयं में अविभक्त, इसका अस्तित्व ऐसा है, मानो यह जीव में विभक्त हो; इसे जीवों के पालनकर्ता के रूप में, उनके भक्षण कर्ता के रूप में, तथा उनके उत्पत्तिकर्ता के रूप में जानना चाहिये।’ (13.17)
- ‘वह ज्योति सभी ज्योतियों की ज्योति है; यह अन्धकार के परे कही जाती है; (यह) सभी के हृदयों में स्थित ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञान का ध्येय है’। (13.18)
- ‘इस प्रकार क्षेत्र , ज्ञान तथा ज्ञेय, वह जिसे जाना जाता है,यहाँ संक्षिप्त रूप से बताए गये हैं। इन्हें जान कर मेरा भक्त मेरी स्थिति के उपयुक्त हो जाता है’। (13.19)
- ‘जानो कि दोनों प्रकृति व पुरुष अनादि हैं, और यह भी जानो कि समस्त रूपान्तरण और गुण प्रकृति से ही उत्पन्न हुए हैं’। (13.20)
- ‘शरीर और इन्द्रियों की उत्पत्ति में प्रकृति कारण है; सुख व दुःख के अनुभव में पुरुष कारण बताया जाता है’। (13.21)
- ‘पुरुष जो प्रकृति में स्थित है प्रकृति के गुणों का अनुभव करता है; शुभ व अशुभ गर्भाशयों में उसके जन्म का कारण उसकी गुणों के प्रति आसक्ति है’। (13.22)
- ‘और इसी शरीर में परम पुरुष भी है जिसे द्रष्टा, स्वीकृति प्रदान करने वाला, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता, महान् प्रभु और परमात्मा कहा जाता है’। (13.23)
- ‘वह स्त्री या पुरुष जो इस प्रकार पुरुष और प्रकृति को गुणों के साथ जानता है, उसका जीवन कैसा भी हो, वह फिर जन्म नहीं लेता’। (13.24)
- ‘कुछ लोग अपने स्वयं के हृदय में शुद्धीकृत आन्तरिक अंगों की सहायता से ध्यान के द्वारा ‘स्व’ का अवलोकन करते हैं, दूसरे लोग ज्ञान मार्ग से और अन्य कर्म-योग के द्वारा इसे देखते हैं’। (13.25)
- ‘फिर, दूसरे यह न जानते हुए, जैसा उन्होंने दूसरों से सुना है, वैसा भजते हैं। जो उन्होंने सुना है, उसे सर्वोच्च शरण मान कर, वे भी मृत्यु के परे चले जाते है’। (13.26)
- ‘जो भी गतिमान या स्थिर जीव जन्म लेता है, हे भारतों के बलिष्ठ, जानो कि वह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से हुआ है’। (13.27)
- ‘वह स्त्री या पुरुष ही वास्तव में देखता है जो परमेश्वर को सभी जीवों में समान रूप से स्थित देखता है, नश्वर में उस अनश्वर को’। (13.28)
- ‘ईश्वर को समान रूप से सभी में स्थित देख कर वह स्त्री या पुरुष ‘स्व’ को स्व द्वारा आघात नहीं पहुँचाता और इस प्रकार उच्चतम ध्येय तक पहुँचता है’। (13.29)
- ‘वह स्त्री या पुरुष देखता है कि समस्त क्रियाएँ केवल प्रकृति के द्वारा की जा रही हैं, और ‘स्व’ क्रिया-विहीन है’। (13.30)
- ‘जब कोई सब जीवों के पृथक् अस्तित्वों को एक ही में अन्तर्निहित देखता है, और उनके विस्तार को (एकमात्र) उसी से, तब वह स्त्री या पुरुष ब्रह्म बन जाता है’। (13.31)
- ‘हे कुन्ती पुत्र, अनादि और निर्गुण होने के कारण यह अव्यय सर्वोच्च ‘स्व’ यद्यपि शरीर में रहता है, यह न तो कोई कार्य करता है, और न प्रभावित होता है’। (13.32)
- ‘जैसे कि सर्व व्यापी आकाश या अंतरिक्ष अपनी सूक्ष्मता के कारण लिपायमान नहीं होता है उसी प्रकार ‘स्व’ जो शरीर में सर्वत्र व्याप्त है, लिप्यायमान नहीं होता’। (13.33)
- ‘जिस प्रकार एक सूर्य इस समस्त जगत् को प्रकाशमान करता है, वैसे ही हे भरत के वंशज वह जो क्षेत्र में रहता हैं, समस्त क्षेत्र को प्रकाशित करता है।’ (13.34)
- ‘वे जो कि, इस प्रकार, ज्ञान के चक्षुओं द्वारा, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का अन्तर समझते है, और प्रकृति से जीवों की मुक्ति को भी, वे परम तत्त्व को प्राप्त होते हैं’। (13.35)
Chapter 14: Guṇa Traya Vibhāga Yoga
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘अब मैं तुम्हें फिर से वह परम श्रेष्ठ ज्ञान बताऊँगा जो समस्त ज्ञान के ऊपर है, जिसे जान कर मुनियों ने इस जीवन के बाद परम पूर्णता प्राप्त की’। (14.1)
- ‘वे जिन्होंने स्वयं को इस ज्ञान के प्रति अर्पित किया है, मुझे प्राप्त हुये हैं, और सृष्टि के समय वे न तो जन्म लेते हैं और न ही प्रलय के समय व्यथित होते हैं’। (14.2)
- ‘मेरा गर्भाशय विराट प्रकृति है; उसमें मैं बीजारोपण करता हूँ; उससे, हे भरत के वंशज, सभी जीवों का जन्म होता है’। (14.3)
- ‘सभी गर्भाशयों में जो भी आकार या रूप उत्पन्न होते हैं, हे कुन्तीपुत्र, महान् प्रकृति उनका गर्भाशय है, और मैं बीज प्रदान करने वाला पिता हूँ’। (14.4)
- ‘हे महाबाहो, प्रकृति से उत्पन्न गुण – सत्त्व, रजस् और तमस् – अविनाशी जीवात्मा को शरीर से बाँधते हैं’। (14.5)
- ‘हे निष्पाप, इनमें से शुद्ध होने के कारण सत्त्व आलोकित करने वाला और निर्दोष है; यह प्रसन्नता के प्रति और ज्ञान के प्रति आसक्ति से बाँधने वाला होता है’। (14.6)
- ‘रजस् की प्रकृति वासनामय जानो, तृष्णा और आसक्ति को बढ़ावा देने वाला; हे कुन्तीपुत्र, यह देहधारी को कर्म के प्रति आसक्ति से तुरंत बाँधता है’। (14.7)
- ‘और तमस् को सभी देहधारियों को संमोहित करते हुए अज्ञान द्वारा उत्पन्न हुआ जानो। हे भरत वंशज यह प्रमाद, जड़त्व व निद्रा द्वारा शीघ्र बन्धनकारी है’। (14.8)
- ‘सत्त्व प्रसन्नता के प्रति आसक्त रहता है, रजस् कर्म के प्रति, हे भरतपुत्र; जबकितमस् निश्चय ही विवेक को आच्छादित करके कु-बोध के प्रति आसक्त करता है’। (14.9)
- ‘हे भरतवंशज, रजस् और तमस् को अधीन करके सत्त्व उदित होता है; इसी प्रकार सत्त्व और तमस् को अधीन करके रजस् प्रधान बनता है; और इसी प्रकार सत्त्व और रजस् को अधीन करके तमस् ऊपर उठता है’। (14.10)
- ‘जब इस शरीर की प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय के द्वारा बुद्धि का प्रकाश चमकता है, तब यह समझना चाहिये कि सत्त्व की प्रधानता है’। (14.11)
- ‘हे अर्जुन, जब रजस् प्रधान होता है तब लोभ, गतिविधि, कर्म करने का निश्चय, अस्थिरता व अभिलाषा उदित होते हैं’। (14.12)
- ‘हे भरतवंशज, अन्धकार, निष्क्रियता, कु-समझ या प्रमाद और मोह – जब तमस् प्रधान होता है तब ये सब उत्पन्न होते हैं’। (14.13)
- ‘यदि जब सत्त्व प्रधान है तब देहधारी की मृत्यु होती है, तो वह स्त्री या पुरुष उच्चतम को पूजने वालों के निर्मल क्षेत्रों में जाता है’। (14.14)
- ‘जब कोई रजस् प्रधान स्थिति में मरता है, वह स्त्री या पुरुष ऐसे लोगों में जन्म लेता है जो कर्म के प्रति आसक्त हैं; इसी प्रकार, तमस् में मर कर स्त्री या पुरुष मूढ लोगों के गर्भाशयों में जन्म लेता है’। (14.15)
- ‘ज्ञानीजन कहते हैं, अच्छे कर्मों का फल सात्त्विक और शुद्ध होता है; निश्चय ही, रजस् का फल दुख और तमस् का फल अज्ञान है’। (14.16)
- ‘सत्त्व से बुद्धि का उदय होता है, रजस् से लोभ; तथा कुसमझ, मोह तथा अज्ञान तमस् से उत्पन्न होते हैं’। (14.17)
- ‘सत्त्व का पालन करने वाले ऊपर या ऊर्ध्व की ओर जाते हैं; राजसिक मध्य में रहते हैं; और तामसिक , निम्नतम गुण के कार्यों को करते हुए नीचे की ओर जाते हैं’। (14.18)
- ‘जब द्रष्टा गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कारण नहीं समझता और उस निर्गुण को जानता है जो गुणों से उच्चतर है, वह स्त्री या पुरुष मुझे प्राप्त होता है’। (14.19)
- ‘इन तीनों गुणों से परे जाकर जिनसे यह देह विकसित हुई है, शरीरधारी जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा दुख से मुक्त हो जाता है और अमरत्व को प्राप्त करता है’। (14.20)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘हे प्रभु, जो तीनों गुणों के परे चला गया है वह किन लक्षणों से जाना जाता है? उस स्त्री या पुरुष का कैसा व्यवहार होता है, और कैसे वह स्त्री या पुरुष तीनों गुणों के परे जाता है?’ (14.21)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘वह स्त्री या पुरुष न तो प्रकाश (सत्त्व का प्रभाव) न गतिविधि (रजस् का प्रभाव), और न मोह (तमस् का प्रभाव) को प्रवृत्त होने पर अपने मन से घृणा करता है। और हे पाण्डव, न ही जब ये नहीं होते, तो उनकी आकांक्षा करता है’। (14.22)
- ‘वह स्त्री या पुरुष जो उदासीन की भाँति है गुणों द्वारा प्रभावित नहीं होता, वह जो जानता है कि गुण कार्य करते हैं, आत्मस्थ होता है और उनसे चलायमान नहीं होता’। (14.23)
- ‘वह स्त्री या पुरुष जो दुख और सुख में समान है, आत्मभाव में स्थित है, जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और स्वर्ण को समान समझता है; जो प्रिय और अप्रिय घटनाओं के प्रति समान है, जो बुद्धिमान है, तथा निन्दा व प्रशंसा में एक जैसा है’। (14.24)
- ‘वह स्त्री या पुरुष गुणों से परे माना जाता है जो सम्मान व अपमान में एक जैसा है; मित्र तथा शत्रु के लिये समान है, और जिसने सभी संकल्पों का त्याग कर दिया है’। (14.25)
- ‘और वह व्यक्ति जो अव्यभिचारिणी भक्ति के द्वारा मेरी सेवा करता है वह गुणों से परे जा कर ब्रह्म के साथ एकाकार होने के योग्य है’। (14.26)
- ‘क्योंकि अनश्वर तथा अपरिवर्तनशील ब्रह्म के धाम के रूप में मैं सुपरिचित हूँ – तथा शाश्वत धर्म और पूर्ण आनन्द के रूप में भी’। (14.27)
Chapter 15: Puruṣhottama Yoga
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘ज्ञानीजन एक सनातन अश्वत्थ के बारे में बताते हैं जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं और जिसकी शाखाएँ नीचे की ओर हैं, जिसके पत्ते वेद हैं; जो इसे जानता है, वह वेदों का ज्ञाता है’। (15.1)
- ‘नीचे तथा ऊपर बिखरी हुई इसकी शाखाएँ गुणों द्वारा पोषित हैं और इसकी कलिकाएँ ऐन्द्रिय विषय हैं; तथा नीचे, मानव जगत् में, जड़ें, कर्म के उद्भव रूप में फैली हुई हैं’। (15.2)
- ‘इसका रूप जैसा है वैसा यहाँ नहीं दिखाई देता, न इसका अन्त, न इसका उद्भव, न इसका अस्तित्व। इस दृढ़ मूल के अश्वत्थ को बलशाली अनासक्ति की कुल्हाड़ी से काट कर . . . . (15.3)
- ‘तब उसी ध्येय को प्राप्त करना है, जहाँ जाकर वे (बुद्धिमान लोग) वापस नहीं आते। मैं उस आदि पुरुष में शरण लेता हूँ जिनसे शाश्वत गतिविधि, ब्रह्माण्डीय प्रक्रियाएँ निकल कर आई हैं’। (15.4)
- ‘अहंकार व मोह से मुक्त होकर, आसक्ति के दोष को जीत कर, सदा स्व में स्थित, ऐन्द्रिय इच्छाओं को पूर्णतः क्षीण करके, दुःख और सुख के परस्पर विरोधी युग्मों से स्वतंत्र रह कर, वह मोह रहित व्यक्ति उस शाश्वत ध्येय को प्राप्त करता है’। (15.5)
- ‘जिसे सूर्य प्रकाशित नहीं करता, न ही चन्द्रमा, न अग्नि; वह मेरा परम धाम है जहाँ पहुँच कर कोई वापस नहीं आता’। (15.6)
- ‘जीवों के इस जगत् में मेरा एक शाश्वत अंश जीवात्मा बन कर, बाह्य प्रकृति से (अपने लिये पाँच) इन्द्रियों को प्राप्त करता है, तथा छठी इन्द्रिय के रूप में मन को’। (15.7)
- ‘जब प्रभु एक जीवात्मा के रूप में मानव शरीर धारण करता है और जब वह उसे छोड़ता है तब वह इन इन्द्रियों तथा मन को इस प्रकार साथ लेकर जाता है जैसे कि वायु अपने स्थान के पुष्पों की गंध लेकर जाती है’। (15.8)
- ‘कान, आँख,स्पर्श, स्वाद तथा गंध की इन्द्रियों और मन का अधीक्षक होने के नाते वह इन्द्रिय विषयों का अनुभव करता है’। (15.9)
- ‘(एक शरीर से दूसरे शरीर में) जाते हुए, अथवा (उसी शरीर में) रह कर गुणों से युक्त होकर इन्द्रिय विषयों का भोग करते हुए वह मोहित व्यक्ति उसे नहीं देख पाता; लेकिन वे जिनके पास ज्ञान-चक्षु हैं, उसे देख पाते हैं’ | (15.10)
- ‘वे योगी जो (पूर्णता का) प्रयास करते हैं, उसे अपने में स्थित देख पाते हैं; लेकिन अपरिष्कृत व मूढ़जन यद्यपि प्रयास करते हैं, उसे देख नहीं पाते’। (15.11)
- ‘वह प्रकाश जो सूर्य में है, जो समस्त जगत् को प्रकाशित करता है, तथा चन्द्रमा व अग्नि का प्रकाश भी मेरा प्रकाश जानो’। (15.12)
- ‘अपनी शक्ति के साथ पृथ्वी में प्रविष्ट होकर, मैं सब जीवों को धारण करता हूँ, तथा जलीय चन्द्रमा बन कर सब औषधियों का पोषण करता हूँ’। (15.13)
- ‘जीवित प्राणियों के शरीर में (अग्नि) रूप में रहते हुए मैं वैश्वानर, प्राण और अपान के साथ युक्त होकर, चार प्रकार का भोजन पचाता हूँ’। (15.14)
- ‘मैं सबके हृदयों में केन्द्रित हूँ; स्मृति और बोध, और इसकी हानि भी मुझसे ही होती है। मैं निश्चय ही वह हूँ जो समस्त वेदों द्वारा ज्ञात है; मैं ही वेदान्त का प्रवर्तक हूँ, तथा वेदों का ज्ञाता भी मैं हूँ’। (15.15)
- ‘जगत् में दो पुरुष या प्राणी हैं – नश्वर और अनश्वर। सभी प्राणी नश्वर हैं, और कूटस्थ को अनश्वर कहा जाता है’। (15.16)
- ‘लेकिन एक और है, परम पुरुष , ‘जिसे उच्चतर ‘स्व’ कहा जाता है, वह नित्य प्रभु, जो तीनों लोकों में व्याप्त होकर उन्हें धारण करता है’। (15.17)
- ‘चूँकि मैं नश्वर के अतीत हूँ, और अनश्वर से भी ऊपर हूँ, इसलिये मैं, जगत् में तथा वेदों में पुरुषोत्तम के रूप में पूजा जाता हूँ – परम पुरुष के रूप में’। (15.18)
- ‘वह जो, मोह से मुक्त होकर, मुझे इस प्रकार परम पुरुष के रूप में जानता है, वह स्त्री या पुरुष, सब कुछ जान कर, अपने पूरे हृदय से मुझे पूजता है, हे भरतवंशज’। (15.19)
- ‘इस प्रकार, हे निष्पाप, यह अत्यंत परम ज्ञान मेरे द्वारा बताया गया है; जिसे जान कर, कोई उच्चतम बुद्धिमत्ता को प्राप्त करता है और अपने समस्त कर्तव्यों को पूरा कर लेता है, हे भरतवंशज’। (15.20)
Chapter 16: Daivāsura Sampad Vibhāga Yoga
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘निडरता, हृदय की शुद्धि, ज्ञान तथा योग में अवस्थिति, दान देना, इन्द्रियों का नियंत्रण, यज्ञ, शास्त्रों का अध्ययन, तपश्चर्या, सरलता’। (16.1)
- ‘अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शान्ति, निन्दा का अभाव, जीवों के प्रति करुणा, अ-लोलुपता, मृदुता, नम्रता, तथा चपलता का अभाव’। (16.2)
- ‘ऊर्जास्विता, क्षमा, सहनशीलता, शुद्धता, घृणा का अभाव, घमण्ड का अभाव – ये सब दैवी स्थिति के लिये जन्मे व्यक्ति के गुण हैं, हे भरतवंशज’। (16.3)
- ‘आडम्बर, अक्खड़पन, अभिमान, क्रोध, कठोरता तथा अज्ञान, हे पार्थ, उसके गुण हैं जो आसुरी (राक्षसी) स्थिति के लिये जन्मा है।’ (16.4)
- ‘दैवी स्थिति मोक्ष-प्राप्ति के लिये है, राक्षसी स्थिति बन्धन के लिये; हे पाण्डव, (अर्जुन) तुम शोक मत करो, तुम दैवी स्थिति के लिये जन्मे हो’। (16.5)
- ‘इस जगत् में दो प्रकार के जीव हैं, दैवी और आसुरी। दैवी विस्तारपूर्वक वर्णित हैं; हे पार्थ, अब आसुरी गुणों के बारे में मुझसे सुनो’। (16.6)
- ‘आसुरी प्रकृति के लोग नहीं जानते कि क्या किया जाय और किससे बचा जाय; न ही उनमें शुद्धता मिलती है, न सद्व्यवहार, और न ही सत्य’। (16.7)
- ‘वे कहते हैं, “यह जगत् बिना किसी (नैतिक) आधार के तथा असत्य है, ईश्वरविहीन है, कामवासना के कारण स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है और क्या?” (16.8)
- ‘इस प्रकार का दृष्टिकोण रख कर, ये नष्टप्राय मानवात्माएँ जिनकी बुद्धि तुच्छ और कर्म भयानक हैं, जगत् के शत्रु के रूप में उसके विनाश के लिये उठती हैं’। (16.9)
- ‘कभी तृप्त न होने वाली ऐन्द्रिय इच्छाओं से भरे होकर, मिथ्याचारिता, दम्भ व घमण्ड से परिपूर्ण, मोह के कारण दोषपूर्ण विचारों को ग्रहण करते हुए वे भ्रष्ट संकल्पों के साथ कार्य करते हैं’। (16.10)
- ‘केवल मृत्यु के साथ समाप्त होने वाली अत्यधिक चिन्ताओं को पालते हुए, वासनाओं की तृप्ति को सर्वोच्च ध्येय मानते हुए, और इसी को सब कुछ मानने के निश्चय के साथ’; (16.11)
- ‘इच्छाओं की सैंकड़ों ग्रन्थियों से बँध कर, वासना तथा क्रोध के वशीभूत होकर, वे ऐन्द्रिय सुखोपभोग के लिये अनुपयुक्त रीतियों से सम्पत्ति का ढेर लगाना चाहते हैं’। (16.12)
- ‘मैंने आज यह प्राप्त कर लिया; यह इच्छा मैं पूरी करूँगा; यह मेरा है, और फिर, भविष्य में वह संपत्ति भी मेरी होगी’। (16.13)
- ‘वह शत्रु मेरे द्वारा मार दिया गया है, तथा दूसरों को भी मैं मार डालूँगा। मैं स्वामी हूँ, मैं सुख भोगता हूँ, मैं सफल हूँ, मैं शक्तिशाली और प्रसन्न हूँ’। (16.14)
- ‘ “मैं धनाढ्य और अभिजात हूँ। मेरे समकक्ष और कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, मैं दान करूँगा, मैं आनन्द मनाऊँगा”। वे इस प्रकार के अज्ञान से मोहित हैं’। (16.15)
- ‘अनेक प्रकार की कल्पनाओं द्वारा चित्त में भ्रान्त होते हुए, मोहजाल द्वारा आच्छादित होकर, कामवासना की तृप्ति के आदी होकर, वे गन्दे नरक में गिर जाते हैं’। (16.16)
- ‘आत्माभिमान से युक्त होकर, घमण्ड व धन के मद में चूर, वे शास्त्रविधि विहीन रीति से केवल दिखावे के लिये नाममात्र का यज्ञ करते हैं’। (16.17)
- ‘अहंकार, बल, धृष्टता , वासना और क्रोध के वशीभूत होकर ये द्रोही व्यक्ति अपने व दूसरों के शरीर में मुझ (अन्तरात्मा) को घृणा करते हैं’। (16.18)
- ‘इन द्रोही तथा क्रूर अशुभ कर्म करने वालों को, जो कि मानव जाति में सर्वाधिक गिरे हुए लोग हैं, मैं बार बार आसुरी गर्भाशयों में फेंकता हूँ’। (16.19)
- ‘आसुरी गर्भाशयों को प्राप्त करके, तथा जन्मों के बाद जन्मों में मोहित होते हुए, मुझे न प्राप्त करके, हे कुन्तीपुत्र, वे और भी पतितावस्था में गिर जाते हैं’। (16.20)
- ‘ ‘स्व’ का नाश करने वाला नरक का द्वार तीन प्रकारों का है, अर्थात्, वासना, क्रोध तथा लोभ; इसलिये हमें इन तीनों से बचना चाहिये’। (16.21)
- ‘वह जो कि अन्धकार के इन तीन द्वारों से मुक्त हो चुका है, हे कुन्तीपुत्र, स्वयं के प्रति शुभ आचरण करता है, और इस प्रकार परम लक्ष्य पर पहुँचता है’। (16.22)
- ‘वह जो शास्त्र विधि को न मान कर स्वेच्छानुरूप कार्य करता है, पूर्णता को प्राप्त नहीं होता, न ही प्रसन्नता को, तथा न ही सर्वोच्च ध्येय को’। (16.23)
- ‘अतः यह निर्धारित करने के लिये कि क्या किया जाना चाहिये और क्या नहीं किया जाना चाहिये शास्त्रों को आधिकारिक मानो। शास्त्रों के आदेशों में क्या कहा गया है यह जानकर तुम्हें संसार में काम करना चाहिये’। (16.24)
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāga Yoga
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘हे कृष्ण, वे जो शास्त्रों के आदेशों का पालन न करते हुए श्रद्धापूर्वक पूजा- यज्ञ करते हैं उनकी क्या स्थिति है? (क्या यह) सत्त्व, रजस् या तमस् है’? (17.1)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘देहधारियों की त्रिविध श्रद्धा है जो उनके स्वभाव में अन्तर्निहित है – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक। इस विषय में (मुझसे) सुनो’। (17.2)
- ‘हे भरतवंशज, प्रत्येक स्त्री या पुरुष की श्रद्धा उसकी स्वाभाविक अभिरुचि के अनुसार होती है। कोई भी व्यक्ति अपनी श्रद्धा के अनुरूप ही होता है। वह वही है जो उसकी श्रद्धा है’। (17.3)
- ‘सात्त्विक लोग देवताओं को पूजते हैं, राजसिक व्यक्ति यक्षों और राक्षसों को पूजते हैं; तथा अन्य – तामसिक लोग – प्रेतों तथा भूतगणों को पूजते हैं’। (17.4)
- ‘वे व्यक्ति जो शास्त्रों द्वारा उपदेशित न की गई कठोर तपस्या, दम्भ और अहंकार के कारण वासना तथा आसक्ति की शक्ति द्वारा परिचालित होकर करते हैं. . . . . ’। (17.5)
- ‘वे मूर्ख हैं, जो शरीर के सभी अंगों को कष्ट देते हैं, और मुझे भी जो कि शरीर में विद्यमान है; उन्हें तुम आसुरी निश्चय का जानो’। (17.6)
- ‘वह आहार भी जो उनमें से प्रत्येक को रुचिकर होता है त्रिविध है, इसी प्रकार यज्ञ , तपस्या और दान भी। इस अन्तर को सुनो’। (17.7)
- ‘वह भोजन जो प्राणशक्ति, ऊर्जा, बल, स्वास्थ, प्रसन्नता तथा भूख बढ़ाता है, जो सदा स्वादिष्ट तथा स्निग्ध, पौष्टिक तथा सुपाच्य है, सात्त्विक व्यक्ति को प्रिय है।’ (17.8)
- ‘वे आहार जो कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, अत्यधिक गरम, तीक्ष्ण, सूखे और दाहकारक होते हैं राजसिक लोगों को प्रिय हैं, और दुःख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले होते हैं’। (17.9)
- ‘वह भोजन जो बासी है, बेस्वाद है, बदबूदार, कल का पकाया हुआ, जूठा व अशुद्ध है, वह तामसिक लोगों को प्रिय है’। (17.10)
- ‘वह यज्ञ सात्त्विक है जो किसी फल को चाहने वालों के द्वारा न किया जाता हो, वह शास्त्र विधि के अनुसार होता है, तथा उनका मन केवल यज्ञ के लिये यज्ञ पर ही स्थिर रहता है’। (17.11)
- ‘हे भरतश्रेष्ठ, वह यज्ञ जो फल प्राप्ति की आकांक्षा व दिखाने के लिये किया जाता है उसे राजसिक यज्ञ मानो’। (17.12)
- ‘वह यज्ञ जो शास्त्र विधि पर ध्यान दिये बिना किया जाता है, जिसमें भोजन का वितरण नहीं किया जाता, जो मंत्र विहीन होता है, जिसमें दान आदि नहीं दिये जाते और जो श्रद्धाविहीन है, वह यज्ञ तामसिक कहा जाता है’। (17.13)
- ‘देवताओं, द्विजों,गुरुओं तथा बुद्धिमानों का पूजन; शुद्धता, सरलता, ब्रह्मचर्य, और अहिंसा, शरीर के तप कहे जाते हैं’। (17.14)
- ‘वाणी, जो कोई क्लेष उत्पन्न नहीं करती, और जो सत्य है, तथा स्वीकार्य और लाभप्रद है, तथा वेदों का नियमित अध्ययन – ये सब वाणी का तपस् कहलाता है’। (17.15)
- ‘मन की शान्ति, सौम्यता, मौन, आत्म-नियंत्रण, उद्देश्य की निष्कपटता – यह मानसिक तपस् कहा जाता है।’ (17.16)
- ‘यह त्रिविध तपस् यदि स्थिर चित्त लोगों द्वारा अत्यंत श्रद्धा के साथ, बिना फल की आकांक्षा के किया जाय, तो यह सात्त्विक कहलाता है’। (17.17)
- ‘वह तपस् जो सत्कार, प्रतिष्ठा, और पूजा के लिये और आडम्बर प्रदर्शन के साथ किया जाता है, उसे यहाँ राजसिक , अस्थायी और क्षणिक कहा गया है’। (17.18)
- ‘वह तप जो किसी मूर्खतापूर्ण विचार के कारण किया जाता है, जिसमें आत्मपीड़न है, या जो किसी को नष्ट करने के उद्देश्य से किया जाता है, वह तामसिक बताया जाता है’। (17.19)
- ‘इस विचार के साथ कि “दान देना उचित है”, एक उचित स्थान तथा समय पर, उसे दिया गया दान, जो प्रतिकार में हमारी कोई सेवा नहीं कर सकता, तथा किसी उचित पात्र को किया गया, सात्त्विक कहलाता है’। (17.20)
- ‘और जो दान बदले में प्राप्ति की इच्छा से, अथवा फल को ध्यान में रख कर, अथवा अनिच्छापूर्वक किया जाता है, वह दान राजसिक होता है’। (17.21)
- ‘वह दान जो अनुचित स्थान या समय पर दिया जाता है, अपात्रों को दिया जाता है, बिना सम्मान के और तिरस्कारपूर्वक, उसे तामसिक बताया गया है’। (17.22)
- ‘ “ॐ तत् सत् ”, यह ब्रह्म की त्रिविध पदसंज्ञा घोषित की गई है। इसके द्वारा ब्राह्मण , वेद, तथा आदि काल के यज्ञ बने हैं’। (17.23)
- इसलिये “ॐ ” का उच्चारण करके, शास्त्रों के आदेशानुसार यज्ञ, दान और तप की क्रियाएँ, वेदों के अनुयायियों द्वारा सदा आरंभ की जाती है’। (17.24)
- ‘ “तत् ” बोलते हुए, तथा बिना फल प्राप्ति को लक्ष्य बनाये, मोक्ष को चाहने वाले यज्ञ , तपस् तथा दान की विभिन्न क्रियाओं को करते हैं।’ (17.25)
- ‘ “सत् ” शब्द का प्रयोग वास्तविकता तथा अच्छाई के अर्थ में किया जाता है, और इसी प्रकार, हे पार्थ, “सत् ” शब्द किसी शुभकार्य के अर्थ में प्रयुक्त होता है।’ (17.26)
- ‘ ‘यज्ञ ’ तपस्, और दान में स्थिरता भी ‘सत्’ कहलाती है; इनसे सम्बन्धित क्रियाओं में (अथवा, ईश्वर के लिये कार्य) भी ‘सत्’ कहलाता है।’ (17.27)
- ‘हे पार्थ, बिना श्रद्धा के जो कुछ भी यज्ञ किया जाता है, दिया जाता है, या क्रिया की जाती है, और जो भी तपस् बिना श्रद्धा के किया जाता है, वह असत् कहलाता है, वह यहाँ, और यहाँ के बाद भी, कुछ भी नहीं हैं’। (17.28)
Chapter 18: Mokṣha Sanyāsa Yoga
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘हे शक्तिशाली भुजाओं वाले हृषीकेश, हे केशि का वध करने वाले (अर्थात् श्रीकृष्ण), मैं संन्यास और त्याग का तत्त्व अनेक प्रकार से जानना चाहता हूँ’। (18.1)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘काम्य कर्मों के त्याग को ऋषिगण संन्यास मानते हैं’, बुद्धिमान लोग सभी कार्यों के फल के त्याग को त्याग बताते हैं’। (18.2)
- ‘कुछ दार्शनिक कहते हैं कि सभी कर्मो को अशुभ मानकर त्याग देना चाहिये, जबकि दूसरे (कहते हैं) कि यज्ञ, दान और तपस् के कर्म का त्याग नहीं किया जाना चाहिये’। (18.3)
- ‘हे भरतों में श्रेष्ठ, त्याग के बारे में मुझसे अन्तिम सत्य सुनो। क्योंकि त्याग तीन प्रकार का घोषित किया गया है, हे पुरुषों में व्याघ्र’। (18.4)
- ‘यज्ञ दान और तपस् के कर्म नहीं त्यागे जाने चाहिये, अपितु ये अवश्य किये जाने चाहिये, (क्योंकि) बुद्धिमान लोगों के अनुसार यज्ञ दान और तपस् शुद्धिकारक साधन हैं’। (18.5)
- ‘लेकिन ये तीन कर्म भी, हे पार्थ, आसक्ति और फल का त्याग करके किये जाने चाहिये, यही मेरा श्रेष्ठ और निश्चित मत है’। (18.6)
- ‘लेकिन कर्तव्य कर्मो का त्याग उचित नहीं है। मोह के वशीभूत होकर उनका त्याग तामसिक घोषित किया गया है’। (18.7)
- ‘वह जो शारीरिक कष्ट के भय के कारण कर्म का त्याग करता है, क्योंकि वह कष्टप्रद है, इस प्रकार का एक राजसिक त्याग करके वह उसके फल प्राप्त नहीं करता’। (18.8)
- ‘हे अर्जुन, जब कर्तव्य भाव से आसक्ति और फल को छोड़ कर, कार्य किया जाता है, केवल इसलिये कि यह किया जाना चाहिये, ऐसा त्याग सात्त्विक माना जाता है।’ (18.9)
- ‘सत्त्व युक्त त्यागी, जो बुद्धिमान है, और जिसके संशय छिन्न हो चुके हैं वह किसी अप्रिय कार्य से घृणा नहीं करता और न ही किसी प्रिय कार्य के प्रति आसक्ति रखता है’। (18.10)
- ‘एक देहधारी के द्वारा कर्मों का पूर्णतः त्याग नहीं किया जा सकता, लेकिन वह जो कर्मफल का त्याग करता है, वह त्यागी कहलाता है’। (18.11)
- मृत्यु के पश्चात् त्याग न करने वालों को ‘कर्मों के तीन प्रकार के फल – प्रिय, अप्रिय और मिश्रित – प्राप्त होते हैं, लेकिन त्यागियों को कभी नहीं’। (18.12)
- ‘हे शक्तिशाली भुजाओं वाले, समस्त कर्मों को करने के मुझसे पाँच कारण जानो जिन्हें कि बुद्धि बताती है और जो समस्त कर्मों का अन्त है’। (18.13)
- ‘शरीर व उसका कर्ता, विभिन्न इन्द्रियाँ, कार्य करने के विभिन्न रूप व उसकी प्रक्रियाएँ और अधिष्ठात्री दिव्यता, यह इनमें पाँचवी है’। (18.14)
- ‘जो भी कर्म कोई अपने शरीर, वाणी और मन के द्वारा करता है – चाहे उचित या उसके विपरीत – उसके ये पाँच कारण हैं’। (18.15)
- ‘जब ऐसा है तो वह, जिसकी समझ शुद्ध नहीं है, स्वयं के शुद्ध ‘स्व’ को कर्ता मानता है, इस प्रकार के दूषित मन के स्त्री-पुरुष यथार्थ नहीं देखते है’। (18.16)
- ‘वह जो अहम्कार के भाव से मुक्त है, जिसकी बुद्धि अच्छे और बुरे से प्रभावित नहीं है, यद्यपि वह स्त्री या पुरुष इन लोगों को मारता है, वह स्त्री या पुरुष मारता नहीं है, न ही वह कर्म द्वारा बद्ध है। (18.17)
- ‘ज्ञान, ज्ञान की वस्तु और ज्ञाता, कार्य के त्रिविध कारण हैं। साधन, वस्तु और कर्ता, कार्य के त्रिविध आधार हैं’। (18.18)
- ‘सांख्य दर्शन में ज्ञान, कर्म और कर्ता केवल तीन प्रकार के गुणों के अन्तर से बताए गये हैं; उन्हें समुचित रूप से सुनो’। (18.19)
- ‘वह ज्ञान जिसके द्वारा एक अविनाशी सत्ता पृथक् में अपृथक् रूप से, सभी जीवों में देखी जाती है, उस ज्ञान को सात्त्विक जानो’। (18.20)
- ‘लेकिन वह ज्ञान जो सभी जीवों में अलग-अलग प्रकार की एक दूसरे से पृथक सत्ताएँ देखता है, उस ज्ञान को राजसिक जानो’। (18.21)
- ‘जब कि वह ज्ञान जो एक ही प्रभाव में सीमित है मानो वही सब कुछ है, जो बिना तर्क-युक्ति का, सत्य में प्रतिष्ठित हुए बिना, और तुच्छ है – वह तामसिक बताया गया है’। (18.22)
- ‘बिना आसक्ति, राग या द्वेष के एक नियत कर्म, उसके द्वारा किया गया, जो उसके फल का इच्छुक नहीं है, सात्त्विक बताया गया है’। (18.23)
- ‘लेकिन वह कार्य जो स्वयं के लिये फल प्राप्ति की इच्छा से किया जाता है, अथवा अहंकारपूर्वक, तथा थकाने वाले प्रयास द्वारा, राजसिक बताया जाता है’। (18.24)
- ‘वह कर्म तामसिक कहा जाता है जो मोहवश, बिना परिणामों पर विचार किये हुए, (शक्ति और संपत्ति) की हानि पर विचार किये बिना, (दूसरों को) चोट पहुँचाने के लिये, तथा (अपनी) क्षमता से परे प्रारंभ किया जाता है’। (18.25)
- ‘वह कर्ता जो आसक्ति से मुक्त है, अहंकार रहित है, जिसमें धैर्य तथा उत्साह है, और जो सफलता और विफलता के प्रति तटस्थ है, सात्त्विक कहलाता है’। (18.26)
- ‘वह जो वासनामय है, कर्मफल प्राप्ति का इच्छुक है, लोभी, दुराशयी, अशुद्ध, सरलतापूर्वक उत्तेजित व हतोत्साहित होता है, ऐसा कर्ता राजसिक है’। (18.27)
- ‘अस्थिर, अशिष्ट या अभद्र, घमण्डी, कपटपूर्ण, द्रोही, आलसी, निराश तथा कार्य को बार बार स्थगित करने वाला कर्ता तामसिक है’। (18.28)
- ‘बुद्धि और धृति के गुणों के अनुसार त्रिविध अन्तर को सुनो, जिन्हें मैं विस्तारपूर्वक तथा अनेक प्रकार से बताता हूँ हे, धनंजय (अर्जुन)।’ (18.29)
- ‘वह बुद्धि जो बाह्य कार्य तथा आन्तरिक ध्यान का, उचित व अनुचित कार्य का, भय और अभय का, बन्धन और मोक्ष का मार्ग जानती है, हे पार्थ, वह सात्त्विक है’। (18.30)
- ‘वह बुद्धि जो धर्म और अधर्म को तथा उचित व अनुचित कार्य को विकृत रूप में समझती है, हे पार्थ, राजसिक है’। (18.31)
- ‘वह बुद्धि जो अंधकार में डूबी हुई अधर्म को धर्म समझती है, और सभी बातों को भ्रष्ट रूप में ग्रहण करती है, हे पार्थ, तामसिक है’। (18.32)
- ‘हे पार्थ, वह धारणा जिसके द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों के कार्य नियमित होते हैं, वह धारणा योग द्वारा स्थिर होकर सात्त्विक होती है’। (18.33)
- ‘लेकिन वह धृति, जिसके द्वारा कोई अपने मन से आसक्त होकर प्रत्येक से फल की कामना करते हुए उसे धर्म या मूल्यों के विज्ञान के प्रति,व ऐन्द्रिय इच्छाओं, तथा सम्पत्ति के प्रति नियमित करता है, हे पार्थ, राजसिक है’। (18.34)
- ‘वह धृति जिसके कारण एक मूर्ख व्यक्ति निद्रा, भय, विषाद, उदासी, तथा अत्यधिक अहंकार का त्याग नहीं करता, हे पार्थ, तामसिक है’। (18.35)
- ‘और अब, हे भारतों के वृषभ, त्रिविध सुखों के बारे में मुझसे सुनो, जिन्हें कोई अभ्यास द्वारा आनन् प्राप्त करने के लिए सीखता है, और जिनके द्वारा वह दुःख के अन्त को प्राप्त करता है’। (18.36)
- ‘वह जो प्रारंभ में विष समान लगता है, लेकिन अन्त में अमृत के समान है; वह सुख सात्त्विक है, जो कि ‘आत्म’ तथा बुद्धि की प्रशांति से आता है’। (18.37)
- ‘वह सुख जो इन्द्रियों के साथ इन्द्रिय विषयों के संपर्क से प्राप्त होता है, और जो प्रारंभ में अमृत सदृश लगता है, लेकिन अन्त में विष समान होता है, वह सुख राजसिक है’। (18.38)
- ‘वह सुख जिसका आरम्भ व अन्त आत्म मोहन में है वह निद्रा, आलस्य तथा त्रुटिपूर्ण समझ के कारण होता है तथा तामसिक बताया जाता है। (18.39)
- ‘पृथ्वी पर कोई हस्ती ऐसी नहीं है, न ही स्वर्गस्थ देवताओं में जो कि प्रकृति से उत्पन्न इन तीन गुणों से रहित हो’। (18.40)
- ‘हे शत्रुओं के लिये कष्टप्रद, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों के बीच उनके प्रकृति से उत्पन्न गुणों के अनुसार कर्तव्य निर्धारित किये गये हैं’। (18.41)
- ‘मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, तपश्चर्या, शुद्धता, धैर्य, सरलता, ज्ञान, बोध, तथा वर्तमान के बाद के अस्तित्व में विश्वास, ये उनकी प्रकृति से उत्पन्न ब्राह्मणों के गुण हैं’। (18.42)
- ‘शौर्य, तेज, धृति, दक्षता, युद्ध में पीठ न दिखाना, दान, तथा संप्रभुत्व अपनी प्रकृति से उत्पन्न क्षत्रिय प्रकार के गुण हैं। (18.43)
- ‘कृषि, पशु-पालन तथा व्यापार वैश्यों का, उनके स्वभाव से उत्पन्न कर्तव्य है; तथा सेवा के कार्य, स्वभाव से उत्पन्न शूद्रों का कर्तव्य है’। (18.44)
- ‘अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित प्रत्येक स्त्री या पुरुष उच्चतम पूर्णता को प्राप्त करता है; अपने कार्य में लगे हुए कोई कैसे पूर्णता को प्राप्त करता है, यह मुझसे सुनो’। (18.45)
- ‘जिससे सब जीवों का क्रम विकास हुआ है, जिसके द्वारा यह सब व्याप्त है, उसकी अपने कार्य के द्वारा पूजा से कोई व्यक्ति पूर्णता को प्राप्त करता है’। (18.46)
- ‘स्वयं का धर्म चाहे अपूर्णतापूर्वक किया जाय, दूसरे के पूर्णतापूर्वक किये गये धर्म से श्रेयस्कर है। जो भी प्रकृति द्वारा निर्धारित अपना कर्तव्य कर्म करता है वह किसी भी दोष का भागीदार नहीं होता’। (18.47)
- ‘हे कुन्तीपुत्र, किसी को अपना वह कर्म नहीं छोड़ना चाहिये जिसमें वह पैदा हुआ है चाहे वह दोषपूर्ण कार्य ही क्यों न हो; क्योंकि सभी कर्म दोष से घिरे हुए होते हैं जैसे अग्नि धूएँ से ढकी होती है। (18.48)
- ‘वह जिसकी बुद्धि सभी ओर से अनासक्त है, जिसने अपनी ‘आत्म’ को अधीन कर लिया है, जिसकी इच्छाएँ चली गई हैं, वह स्त्री या पुरुष त्याग द्वारा परम पूर्णता को प्राप्त करके कार्य से मुक्त हो जाता है’। (18.49)
- ‘हे कुन्ती पुत्र, मुझसे सुनो कि किस प्रकार इस पूर्णता को प्राप्त व्यक्ति ब्रह्म को प्राप्त होता है, ज्ञान की उस सर्वोच्च निष्पत्ति को’। (18.50)
- ‘शुद्ध बुद्धि से युक्त होकर, और शरीर तथा इन्द्रियों को इच्छा शक्ति द्वारा अधीन करके; ध्वनि तथा अन्य इस प्रकार के इन्द्रिय विषयों को त्यागते हुए तथा आकर्षण और घृणा का त्याग करके’; (18.51)
- ‘जो किसी एकान्त स्थान में रहते हुए; अल्प भोजन ग्रहण करते हुए; जिसकी वाणी, शरीर तथा मन नियंत्रित है; जो ध्यान के योग में रत है, और जिसमें उदासीनता है’; (18.52)
- ‘वह जिसने अहंकार, बल, घमण्ड, काम, क्रोध तथा संपत्ति का त्याग कर दिया है, जो “मेरे” के विचार से मुक्त हो गया है; और जो शान्त है, वह ब्रह्म बनने के उपयुक्त हो जाता है’। (18.53)
- ‘वह जिसने ब्रह्म की उपलब्धि कर ली है, और जो शान्त मन का है, जो न दुःख अनुभव करता है और न इच्छा करता है; जो सबके लिये एक जैसा है, वह मेरी परम् भक्ति प्राप्त करता है’। (18.54)
- ‘भक्ति के द्वारा वह वास्तव में मुझे जानता है कि मैं क्या व कौन हूँ; तब यथार्थ में मुझे जानकर वह मुझमें प्रविष्ट हो जाता है’। (18.55)
- ‘सभी काम करते हुए भी सदा मुझमें शरण लेते हुए – मेरी कृपा से वह असीम तथा निर्विकार स्थिति में आ जाता है’। (18.56)
- ‘सभी कार्यों को मुझे समर्पित करते हुए, मुझे अपना परम ध्येय मान कर, बुद्धि योग से काम लेते हुए, सदा अपना मन मुझ पर स्थिर करो’। (18.57)
- ‘अपना मन मुझ पर स्थिर करके, मेरी कृपा से तुम सभी बाधाओं को पार कर लोगे ; लेकिन यदि अहंकारवश तुम मुझे नहीं सुनोगे, तुम नष्ट हो सकते हो’। (18.58)
- ‘यदि मिथ्या अहंकार के कारण तुम सोचते हो, “मैं युद्ध नहीं करूँगा”, तुम्हारा यह निश्चय व्यर्थ है; तुम्हारी प्रकृति तुम्हें बाध्य करेगी’। (18.59)
- ‘हे कुन्तीपुत्र, तुम्हारी प्रकृति से उत्पन्न अपने कर्मों से बँधे होने के कारण, तुम्हें न चाहते हुए भी वह करना होगा जो तुम मोहवश नहीं करना चाहते हो।’ (18.60)
- ‘हे अर्जुन, प्रभु सभी प्राणियों के हृदय में हैं, अपनी माया से इस प्रकार उन्हें घुमाते हुए मानो वे किसी मशीन पर चढ़े हुए हैं’। (18.61)
- ‘हे भारत, अपने पूर्ण हृदय से केवल उसी में शरण लो; उसकी कृपा से तुम परम शान्ति तथा नित्य धाम को प्राप्त करोगे’। (18.62)
- ‘इस प्रकार मैंने समस्त गहन से भी गहनतर बुद्धिमत्ता की तुम्हारे लिये घोषणा की है; इस पर पूर्ण विचार करके तुम जैसा चाहो वैसा करो’। (18.63)
- ‘फिर से मेरा परम् सन्देश सुनो जो सबसे अधिक गहन है; क्योंकि तुम मेरे घनिष्ठ मित्र हो इसलिये मैं तुम्हें वही कहूँगा जो शुभ हो’। (18.64)
- ‘अपने मन में मुझे धारण करो, मेरे प्रति समर्पित हो जाओ, मेरे लिये त्याग करो, मेरे समक्ष झुको। तब तुम केवल मुझे प्राप्त होगे; मैं तुम्हें सत्य वचन देता हूँ (क्योंकि) तुम मुझे प्रिय हो’। (18.65)
- ‘सभी धर्मों का त्याग करके केवल मुझ में शरण लो; मैं तुम्हें सब पापों से मुक्त कर दूँगा; शोक मत करो’। (18.66)
- ‘तुम यह उसे नहीं बताओगे जिसने कोई तपस्या नहीं की है अथवा जिसे भक्ति नहीं है, न ही उसे जो सेवा नहीं करता, और जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है’। (18.67)
- ‘वह जो मेरे प्रति पूर्ण भक्ति के साथ, इस परम गहन शिक्षा को मेरे भक्तों को बताएगा, निस्सन्देह मेरे पास ही आएगा।’ (18.68)
- ‘इसलिये मनुष्यों में कोई भी मेरी उससे प्रियतर सेवा नहीं करता है, न ही पृथ्वी पर इस व्यक्ति से अधिक और कोई मुझे प्रियतर है।’ (18.69)
- ‘और वह जो हमारे इस संवाद का अध्ययन करेगा, जो कि सामाजिक स्थिरता व समृद्धि प्रदान करने वाला है, उस स्त्री या पुरुष के द्वारा मैं ज्ञान-यज्ञ द्वारा पूजा जाऊँगा; यह मेरा विश्वास है’। (18.70)
- ‘और वह व्यक्ति भी जो इसे श्रद्धा से युक्त होकर तथा दुर्भावना से मुक्त होकर सुनता है, वह स्त्री या पुरुष भी मुक्त होकर सत्कार्य करने वालों के सुखद लोकों को प्राप्त होता है’। (18.71)
- ‘हे पार्थ, क्या तुमने यह ध्यानपूर्वक सुना? हे धनंजय, क्या अज्ञान से उत्पन्न तुम्हारा मोह दूर हुआ?’ (18.72)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘हे अच्युत, मेरा मोह भंग हो गया है, और आप की कृपा से मुझे स्मृतिलाभ हुआ है। मैं दृढ़ हूँ; मेरे सन्देह चले गये हैं। मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा’। (18.73)
- ‘संजय ने कहा’ : ‘इस प्रकार मैंने वासुदेव (कृष्ण) तथा महात्मा पार्थ (अर्जुन) के बीच हुए अद्भुत संवाद को सुना था, जिससे मैं रोमहर्षित हो गया हूँ’। (18.74)
- ‘व्यासजी की कृपा से मैंने यह सर्वोच्च तथा अत्यंत गहन योग, सीधे कृष्ण से जो कि योग के प्रभु हैं, स्वयं घोषित करते हुए सुना है’। (18.75)
- ‘हे राजन्, मैं बार बार यह अद्भुत तथा पवित्र संवाद जो केशव (कृष्ण) तथा अर्जुन के बीच हुआ था याद करता हूँ और मुझे बार बार आनन्द का अनुभव हो रहा है’। (18.76)
- ‘जैसे जैसे मैं हरि के अद्भुत रूप को बार बार याद करता हूँ, हे राजन्, मुझे महान् आश्चर्य होता है; और मैं बार बार हर्षित होता हूँ’। (18.77)
- ‘जहाँ भी योग के स्वामी कृष्ण हैं, जहाँ भी धनुर्धारी पार्थ है, वहाँ समृद्धि, विजय, कल्याण तथा सतत न्याय है; यह मेरा विश्वास है’। (18.78)