Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।9.31।। व्याख्या –‘क्षिप्रं भवति धर्मात्मा’– वह तत्काल धर्मात्मा हो जाता है अर्थात् महान् पवित्र हो जाता है। कारण कि यह जीव स्वयं परमात्माका अंश है और जब इसका उद्देश्य भी परमात्माकी प्राप्ति करना हो गया तो अब उसके धर्मात्मा होनेमें क्या देरी लगेगी? अब वह पापात्मा कैसे रहेगा? क्योंकि वह धर्मात्मा तो स्वतः था ही, केवल संसारके सम्बन्धके कारण उसमें पापात्मापन आया था, जो कि आगन्तुक था। अब जब अहंता बदलनेसे संसारका सम्बन्ध नहीं रहा, तो वह ज्यों-का-त्यों (धर्मात्मा) रह गया।यह जीव जब पापात्मा नहीं बना था, तब भी पवित्र था और जब पापात्मा बन गया, तब भी वैसा ही पवित्र था। कारण कि परमात्माका अंश होनेसे जीव सदा ही पवित्र है। केवल संसारके सम्बन्धसे वह पापात्मा बना था। संसारका सम्बन्ध छूटते ही वह ज्योंकात्यों पवित्र रह गया।
पाप करनेकी भावना रहते हुए मनुष्य ‘मेरेको केवल भगवान्की तरफ ही चलना है’ — ऐसा निश्चय नहीं कर सकता, यह बात ठीक है। परन्तु पापी मनुष्य ऐसा निश्चय नहीं कर सकता– यह नियम नहीं है। कारण कि जीवमात्र परमात्माका अंश होनेसे तत्त्वतः निर्दोष है। संसारकी आसक्तिके कारण ही उसमें आगन्तुक दोष आ जाते हैं। यदि उसके मनमें पापोंसे घृणा हो जाय और ऐसा निश्चय हो जाय कि अब भगवान्का ही भजन करना है, तो वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है। कारण कि जहाँ संसारकी कामना है, वहीं भगवान्की तरफ चलनेकी रुचि भी है। अगर भगवान्की तरफ चलनेकी रुचि जम जाय, तो कामना, आसक्ति नष्ट हो जाती है। फिर भगवत्प्राप्तिमें देरी नहीं लग सकती।वह बहुत जल्दी धर्मात्मा हो जाता है — इसका तात्पर्य यह हुआ कि उसमें जो यत्किञ्चित् दुराचार दीखते हैं, वे भी टिकेंगे नहीं। कारण कि सबकेसब दुराचार टिके हुए हैं — संसारको महत्त्व देनेपर। परन्तु जब वह संसारकी कामनासे रहित होकर केवल भगवान्को ही चाहता है, तब उसके भीतर संसारका महत्त्व न रहकर केवल भगवान्का महत्त्व हो जाता है। भगवान्का महत्त्व होनेसे वह धर्मात्मा हो जाता है।
मार्मिक बात
यह एक सिद्धान्त है कि कर्ताके बदलनेपर क्रियाएँ अपने-आप बदल जाती हैं, जैसे कोई धर्मरूपी क्रिया करके धर्मात्मा होना चाहता है, तो उसे धर्मात्मा होनेमें देरी लगेगी। परन्तु अगर वह कर्ताको ही बदल ले अर्थात् ‘मैं धर्मात्मा हूँ’ ऐसे अपनी अहंताको ही बदल ले, तो वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जायगा। ऐसे ही दुराचारी-से-दुराचारी भी ‘मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं ऐसे अपनी अहंताको बदल देता है, तो वह बुहत जल्दी धर्मात्मा हो जाता है, साधु हो जाता है, भक्त हो जाता है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य जब संसार-शरीरके साथ ‘मैं’ और ‘मेरा’-पन करके संयोगजन्य सुख चाहने लगता है, तब वह ‘कामात्मा’ (गीता 2। 43) बन जाता है और जब संसारसे सर्वथा विमुख होकर भगवान्के साथ अनन्य सम्बन्ध जोड़ लेता है, जो कि वास्तवमें है, तब वह ‘धर्मात्मा’ बन जाता है।
साधारण दृष्टिसे लोग यही समझते हैं कि मनुष्य सत्य बोलनेसे सत्यवादी होता है और चोरी करनेसे चोर होता है। परन्तु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। जब स्वयं सत्यवादी होता है अर्थात् ‘मैं सत्य बोलनेवाला हूँ’ ऐसी अहंताको अपनेमें पकड़ लेता है, तब वह सत्य बोलता है और सत्य बोलनेसे उसकी सत्यवादिता दृढ़ हो जाती है। ऐसे ही चोर होता है, वह ‘मैं चोर हूँ’ ऐसी अहंताको पकड़कर ही चोरी करता है और चोरी करनेसे उसका चोरपना दृढ़ हो जाता है। परन्तु जिसकी अहंतामें ‘मैं चोर हूँ ही नहीं’ ऐसा दृढ़ भाव है, वह चोरी नहीं कर सकता। तात्पर्य यह हुआ कि अहंताके परिवर्तनसे क्रियाओंका परिवर्तन हो जाता है।
इन दोनों दृष्टान्तोंसे यह सिद्ध हुआ कि कर्ता जैसा होता है, उसके द्वारा वैसे ही कर्म होते हैं और जैसे कर्म होते हैं, वैसा ही कर्तापन दृढ़ हो जाता है। ऐसे ही यहाँ दुराचारी भी ‘अनन्यभाक्’ होकर अर्थात् ‘मैं केवल,भगवान्का हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं’ ऐसे अनन्यभावसे भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है, तो उसकी अहंतामें मैं भगवान्का हूँ, संसारका नहीं हूँ यह भाव दृढ़ हो जाता है, जो कि वास्तवमें सत्य है। इस प्रकार अहंताके बदल जानेपर क्रियाओंमें किञ्चिन्मात्र कमी रहनेपर भी वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है। यहाँ शङ्का हो सकती है कि पूर्वश्लोकमें भगवान् ‘सुदुराचारः’ कहकर आये हैं, तो फिर यहाँ भगवान्ने उसको धर्मात्मा क्यों कहा है इसका समाधान है कि दुराचारीके दुराचार मिट जायँ, तो वह सदाचारी अर्थात् धर्मात्मा ही होगा। अतः सदाचारी कहो या धर्मात्मा कहो — एक ही बात है।’शश्वच्छान्तिं निगच्छति’ — केवल धार्मिक क्रियाओंसे जो धर्मात्मा बनता है, उसके भीतर भोग और ऐश्वर्यकी कामना होनेसे उसको भोग और ऐश्वर्य तो मिल सकते हैं, पर शाश्वती शान्ति नहीं मिल सकती। दुराचारीकी अहंता बदलनेपर जब वह भगवान्के साथ भीतरसे एक हो जाता है, तब उसके भीतर कामना नहीं रह सकती, असत्का महत्त्व नहीं रह सकता। इसलिये उसको निरन्तर रहनेवाली शान्ति मिल जाती है।
दूसरा भाव यह है कि स्वयं परमात्माका अंश होनेसे ‘चेतन अमल सहज सुखरासी’ है। अतः उसमें अपने स्वरूपकी जो अनादि अनन्त स्वतःसिद्ध शान्ति है, धर्मात्मा होनेसे अर्थात् भगवान्के साथ अनन्यभावसे सम्बन्ध होनेसे वह शाश्वती शान्ति प्राप्त हो जाती है। केवल संसारके साथ सम्बन्ध माननेसे ही उसका अनुभव नहीं हो रहा था।
‘कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति’ — यहाँ ‘मेरे भक्तका पतन नहीं होता’ ऐसी प्रतिज्ञा भगवान् अर्जुनसे करवाते हैं, स्वयं नहीं करते। इसका आशय यह है कि अभी युद्धका आरम्भ होनेवाला है और भगवान्ने पहले ही हाथमें शस्त्र न लेनेकी प्रतिज्ञा कर ली है; परन्तु जब आगे भीष्मजी यह प्रतिज्ञा कर लेंगे कि ‘आजु जौ हरिहिं न सस्त्र गहाऊँ। तौ लाजौं गङ्गाजननीकों शान्तनु सुत न कहाऊँ।।’ तो उस समय भगवान्की प्रतिज्ञा तो टूट जायगी, पर भक्त(भीष्मजी) की प्रतिज्ञा नहीं टूटेगी। भगवान्ने चौथे अध्यायके तीसरे श्लोकमें ‘भक्तोऽसि मे सखा चेति’ कहकर अर्जुनको अपना भक्त स्वीकार किया है। अतः भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि भैया !तू प्रतिज्ञा कर ले। कारण कि तेरे द्वारा प्रतिज्ञा करनेपर अगर मैं खुद भी तेरी प्रतिज्ञा तोड़ना चाहूँगा, तो भी तो़ड़ नहीं सकूँगा, फिर और तोड़ेगा ही कौन तात्पर्य हुआ कि अगर भक्त प्रतिज्ञा करे, तो उस प्रतिज्ञाके विरुद्ध मेरी प्रतिज्ञा भी नहीं चलेगी।
मेरे भक्तका विनाश अर्थात् पतन नहीं होता –यह कहनेका तात्पर्य है कि जब वह सर्वथा मेरे सम्मुख हो गया है? तो अब उसके पतनकी किञ्चिन्मात्र भी सम्भावना नहीं रही। पतनका कारण तो शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मान लेना ही था। उस माने हुए सम्बन्धसे सर्वथा विमुख होकर जब वह अनन्यभावसे मेरे ही सम्मुख हो गया? तो अब उसके पतनकी सम्भावना हो ही कैसे सकती है?
दुराचारी भी जब भक्त हो सकता है, तो फिर भक्त होनेके बाद वह पुनः दुराचारी भी हो सकता है– ऐसा न्याय कहता है। इस न्यायको दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं कि यह न्याय यहाँ नहीं लगता। मेरे यहाँ तो दुराचारी-से-दुराचारी भी भक्त बन सकते हैं, पर भक्त होनेके बाद उनका फिर पतन नहीं हो सकता अर्थात् वे फिर दुराचारी नहीं बन सकते। इस प्रकार भगवान्के न्यायमें भी दया भरी हुई है। अतः भगवान् न्यायकारी और दयालु– दोनों ही सिद्ध होते हैं।
सम्बन्ध–इस प्रकरणमें भगवान्ने अपनी भक्तिके सात अधिकारी बताये हैं। उनमेंसे दुराचारीका वर्णन दो श्लोकोंमें किया। अब आगेके श्लोकमें भक्तिके चार अधिकारियोंका वर्णन करते हैं।