Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।9.28।। व्याख्या–शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः–पूर्वोक्त प्रकारसे सब पदार्थ और क्रियाएँ मेरे अर्पण करनेसे अर्थात् तेरे स्वयंके मेरे अर्पित हो जानेसे अनन्त जन्मोंके जो शुभ-अशुभ कर्मोंके फल हैं, उन सबसे तू मुक्त हो जायगा। वे कर्मफल तेरेको जन्म-मरण देनेवाले नहीं होंगे।
यहाँ शुभ और अशुभकर्मोंसे अनन्त जन्मोंके किये हुए संचित शुभ-अशुभकर्म लेने चाहिये। कारण कि भक्त वर्तमानमें भगवदाज्ञाके अनुसार किये हुए कर्म ही भगवान्को अर्पण करता है। भगवदाज्ञाके अनुसार किये हुए कर्म शुभ ही होते हैं, अशुभ होते ही नहीं। हाँ, अगर किसी रीतिसे, किसी परिस्थितिके कारण, किसी पूर्वाभ्यासके प्रवाहके कारण भक्तके द्वारा कदाचित्, किञ्चिन्मात्र भी कोई आनुषङ्गिक अशुभकर्म बन जाय, तो उसके हृदयमें विराजमान भगवान् उस अशुभकर्मको नष्ट कर देते हैं (टिप्पणी प0 517.1)।जितने भी कर्म किये जाते हैं, वे सभी बाह्य होते हैं अर्थात् शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदिके द्वारा ही होते हैं। इसलिये उन शुभ और अशुभकर्मोंका अनुकल-प्रतिकूल परिस्थितिके रूपमें जो फल आता है, वह भी बाह्य ही होता है। मनुष्य भूलसे उन परिस्थितियोंके साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर सुखी-दुःखी होता रहता है। यह सुखी-दुःखी होना ही कर्मबन्धन है और इसीसे वह जन्मता-मरता है। परन्तु भक्तकी दृष्टि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंपर न रहकर भगवान्की कृपापर रहती है अर्थात् भक्त उनको भगवान्का विधान ही मानता है, कर्मोंका फल मानता ही नहीं। इसलिये वह अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिरूप कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है।
‘संन्यासयोगयुक्तात्मा’–सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान्के अर्पण करनेका नाम ‘संन्यासयोग’ है। इस संन्यासयोग अर्थात् समर्पणयोगसे युक्त होनेवालेको यहाँ ‘संन्यासयोगयुक्तात्मा’ कहा गया है। ऐसे तो गीतामें बहुत जगह ‘संन्यास’ शब्द सांख्ययोगका वाचक आता है, पर इसका प्रयोग भक्तिमें भी होता है; जैसे– ‘मयि संन्यस्य’ (18। 57)।
जैसे सांख्ययोगी सम्पूर्ण कर्मोंको मनसे नवद्वारवाले शरीरमें रखकर स्वयं सुखपूर्वक अपने स्वरूपमें स्थित रहता है (गीता 5। 13), ऐसे ही भक्त कर्मोंके साथ अपने माने हुए सम्बन्धको भगवान्में रख देता है। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे कोई सज्जन अपनी धरोहरको कहीं रख देता है, ऐसे ही भक्त अपनेसहित अनन्त जन्मोंके संचित कर्मोंको, उनके फलोंको और उनके सम्बन्धको भगवान्में रख देता है। इसलिये इसको ‘संन्यासयोग’ कहा गया है।
‘विमुक्तो मामुपैष्यसि’– पूर्वश्लोकमें ‘तत्कुरुष्व मदर्पणम्’ कहकर अर्पण करनेकी आज्ञा दी। यहाँ कहते हैं कि ‘इस प्रकार अर्पण करनेसे तू शुभ-अशुभकर्मफलोंसे मुक्त हो जायगा। शुभ-अशुभकर्मफलोंसे मुक्त होनेपर तू मेरेको प्राप्त हो जायगा।’ तात्पर्य यह हुआ कि सम्पूर्ण कर्मफलोंसे मुक्त होना तो प्रेम-प्राप्तिका साधन है और भगवान्की प्राप्ति होना प्रेमकी प्राप्ति है।
विशेष बात
शुभ (टिप्पणी प0 517.2) और अशुभ कर्मोंका बन्धन क्या है? शुभ अथवा अशुभ किसी भी कर्मको किया जाय, उस कर्मका आरम्भ और अन्त होता है। ऐसे ही उन कर्मोंके फलस्वरूपमें जो परिस्थिति आती है, उसका भी संयोग और वियोग होता है। तात्पर्य यह हुआ कि जब कर्म और उनके फल निरन्तर नहीं रहते, तो फिर उनके साथ सम्बन्ध निरन्तर कैसे रह सकता है? परन्तु जब कर्ता (कर्म करनेवाला) कर्मोंके साथ अपनापन कर लेता है, तब उसका फलके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। यद्यपि कर्म और फलके साथ सम्बन्ध कभी रह नहीं सकता, तथापि कर्ता उस सम्बन्धको अपनेमें मान लेता है। कर्ता स्वयं (स्वरूपसे) नित्य है, इसलिये उस सम्बन्धको अपनेमें स्वीकार करनेसे वह सम्बन्ध भी नित्य प्रतीत होने लगता है।
कर्ता शुभकर्मोंका फल चाहता है, जो कि अनुकूल परिस्थितिके रूपमें सामने आता है। उस परिस्थितिमें यह सुख मानता है। जबतक इस सुखकी चाहना रहती है, तबतक वह दुःखसे बच नहीं सकता। कारण कि सुखके आदिमें और अन्तमें दुःख ही रहता है तथा सुखसे भी प्रतिक्षण स्वाभाविक वियोग होता रहता है। जिसके वियोगको यह प्राणी नहीं चाहता, उसका वियोग तो हो ही जाता है, यह नियम है। तात्पर्य यह हुआ कि सुखकी इच्छाको यह नहीं छोड़ता और दुःख इसको नहीं छोड़ता।जीव जब अपने-आपको प्रभुके समर्पित कर देता है, तब (साक्षात् परमात्माका ही अंश होनेसे) इसकी परमात्माके साथ स्वतः अभिन्नता हो जाती है; और शरीरके साथ भूलसे माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है। यह परमात्माके साथ अभिन्न तो पहलेसे ही था। केवल अपने लिये कर्म करनेसे इस अभिन्नताका अनुभव नहीं होता था। अब अपनेसहित कर्मोंको भगवान्के अर्पण करनेसे उसकी अपने लिये कर्म करनेकी मान्यता मिट जाती है, तो उसको स्वाभाविक प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है। इसीको भगवान्ने यहाँ ‘विमुक्तो मामुपैष्यसि’ कहा है।
जब यह जीव अपने-आपको भगवान्के समर्पित कर देता है तो फिर उसके समाने जो कुछ अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है, वह सब दया और कृपाके रूपमें परिणत हो जाती है। तात्पर्य है कि जब उसके सामने अनुकूल परिस्थिति आती है, तब वह उसमें भगवान्की दया को मानता है और जब प्रतिकूल परिस्थिति आती है, तब वह उसमें भगवान्की ‘कृपा’ को मानता है। दया और कृपामें भेद यह है कि कभी भगवान् प्यार, स्नेह करके जीवको कर्मबन्धनसे मुक्त करते हैं — यह ‘दया’ है और कभी शासन करके, ताड़ना करके उसके पापोंका नाश करते हैं — यह ‘कृपा’ है। इस प्रकार दया और कृपा करके भगवान् भक्तको सबल, सहिष्णु बनाते हैं। परन्तु भक्त तो दोनोंमें ही प्रसन्न रहता है। कारण कि उसकी दृष्टि अनुकूलताप्रतिकूलताकी तरफ न रहकर केवल भगवान्की तरफ ही रहती है। अतः उसकी दृष्टिमें भगवान्की दया और कृपा दो रूपसे नहीं होती, प्रत्युत एक ही रूपसे होती है। जैसे कि कहा है —
‘लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथार्भके।’
तद्वदेव महेशस्य नियन्तुर्गुणदोषयोः।।
‘जिस प्रकार बालकका पालन करने और ताड़ना करने– दोनोंमें माँकी कहीं अकृपा नहीं होती, उसी प्रकार जीवोंके गुण-दोषोंका नियन्त्रण करनेवाले परमेश्वरकी कहीं किसीपर अकृपा नहीं होती।’
सम्बन्ध–अब एक शंका होती है कि जो भगवान्के समर्पित होते हैं, उनको तो भगवान् मुक्त कर देते हैं और जो भगवान्के समर्पित नहीं होते, उनको भगवान् मुक्त नहीं करते– इसमें तो भगवान्की दयालुता और समता नहीं हुई, प्रत्युत विषम-दृष्टि और पक्षपात हुआ? इसपर कहते हैं–