Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।9.25।। व्याख्या–[पूर्वश्लोकमें भगवान्ने यह बताया कि मैं ही सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और सम्पूर्ण संसारका मालिक हूँ, परन्तु जो मनुष्य मेरेको भोक्ता और मालिक न मानकर स्वयं भोक्ता और मालिक बन जाते हैं, उनका पतन हो जाता है। अब इस श्लोकमें उनके पतनका विवेचन करते हैं।]
‘यान्ति देवव्रता देवान्’– भगवान्को ठीक तरहसे न जाननेके कारण भोग और ऐश्वर्यको चाहनेवाले पुरुष वेदों और शास्त्रोंमें वर्णित नियमों, व्रतों, मन्त्रों, पूजनविधियों आदिके अनुसार अपनेअपने उपास्य देवताओंका विधिविधानसे साङ्गोपाङ्ग पूजन करते हैं; अनुष्ठान करते हैं और सर्वथा उन देवताओंके परायण हो जाते हैं (गीता 7। 20)। वे उपास्य देवता अपने उन भक्तोंको अधिक-से-अधिक और ऊँचा-से-ऊँचा फल यही देंगे कि उनको अपनेअपने लोकोंमें ले जायँगे, जिन लोकोंको भगवान्ने पुनरावर्ती कहा है (8। 16)।
तेईसवें श्लोकमें भगवान्ने बताया कि देवताओं का पूजन भी मेरा ही पूजन है; परन्तु वह पूजन अविधिपूर्वक है। उस पूजनमें विधिरहितपना यह है कि ‘सब कुछ भगवान् ही हैं इस बातको वे जानते नहीं, मानते नहीं तथा देवता आदिका पूजन करके भोग और ऐश्वर्यको चाहते हैं। इसलिये उनका पतन होता है। अगर वे देवता आदिके रूपमें मेरेको ही मानते और उन भगवत्स्वरूप देवताओंसे कुछ भी नहीं चाहते, तो वे देवता,अथवा स्वयं मैं भी उनको कुछ देना चाहता, तो भी वे ऐसा ही कहते कि हे प्रभो आप हमारे हैं और हम आपके हैं — आपके साथ इस अपनेपनसे भी बढ़कर कुछ और (भोग तथा ऐश्वर्य) होता, तो हम आपसे चाहते भी और माँगते भी। अब आप ही बताइये, इससे बढ़कर क्या है?’ इस तरहके भाववाले वे मेरेको ही आनन्द देनेवाले बन जाते, तो फिर वे तुच्छ और क्षणभंगुर देवलोकोंको प्राप्त नहीं होते।
‘पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः’–जो सकामभावसे पितरोंका पूजन करते हैं, उनको पितरोंसे कई तरहकी सहायता मिलती है। इसलिये लौकिक सिद्धि चाहनेवाले मनुष्य पितरोंके व्रतोंका, नियमोंका, पूजन-विधियोंका साङ्गोपाङ्ग पालन करते हैं और पितरोंको अपना इष्ट मानते हैं। उनको अधिक-से-अधिक और ऊँचा-से-ऊँचा फल यह मिलेगा कि पितर उनको अपने लोकमें ले जायँगे। इसलिये यहाँ कहा गया कि पितरोंका पूजन करनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं।
‘भूतानि यान्ति भूतेज्याः’– तामस स्वभाववाले मनुष्य सकामभावपूर्वक भूतप्रेतोंका पूजन करते हैं और उनके नियमोंको धारण करते हैं। जैसे, मन्त्रजपके लिये गधेकी पूँछके बालोंका धागा बनाकर उसमें ऊँटके दाँतोंकी मणियाँ पिरोना, रात्रिमें श्मशानमें जाकर और मुर्देपर बैठकर भूत-प्रेतोंके मन्त्रोंको जपना, मांस-मदिरा आदि महान् अपवित्र चीजोंसे भूतप्रेतोंका पूजन करना आदि-आदि। इससे अधिक-से-अधिक उनकी सांसारिक कामनाएँ सिद्ध हो सकती हैं। मरनेके बाद तो उनकी दुर्गति ही होगी अर्थात् उनको भूत-प्रेतकी योनि प्राप्त होगी। इसलिये यहाँ कहा गया कि भूतोंका पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं।
‘यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्’– जो अनन्यभावसे किसी भी तरह मेरे भजन, पूजन और चिन्तनमें लग जाते हैं, वे निश्चितरूपसे मेरेको ही प्राप्त होते हैं।
विशेष बात
सांसारिक भोग और ऐश्वर्यकी कामनावाले मनुष्य अपने-अपने इष्टके पूजन आदिमें तत्परतासे लगे रहते हैं और इष्टकी प्रसन्नताके लिये सब काम करते हैं; परन्तु भगवान्के भजन-ध्यानमें लगनेवाले जिस तत्त्वको प्राप्त होते हैं, उसको प्राप्त न होकर वे बार-बार सांसारिक तुच्छ भोगोंको और नरकों तथा चौरासी लाख योनियोंको प्राप्त होते रहते हैं। इस तरह जो मनुष्यजन्म पाकर भगवान्के साथ प्रेमका सम्बन्ध जोड़कर उनको भी आनन्द देनेवाले हो सकते थे, वे सांसारिक तुच्छ कामनाओंमें फँसकर और तुच्छ देवता, पितर आदिके फेरेमें पड़कर कितनी अनर्थ-परम्पराको प्राप्त होते हैं! इसलिये मनुष्यको बड़ी सावधानीसे केवल भगवान्में ही लग जाना चाहिये।
देवता, पितर, ऋषि, मुनि, मनुष्य आदिमें भगवद्बुद्धि हो और निष्कामभावपूर्वक केवल उनकी पुष्टिके लिये, उनके हितके लिये ही उनकी सेवा-पूजा की जाय, तो भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। इन देवता आदिको भगवान्से अलग मानना और अपना सकामभाव रखना ही पतनका कारण है।
भूत, प्रेत, पिशाच आदि योनि ही अशुद्ध है और उनकी पूजा-विधि, सामग्री, आराधना आदि भी अत्यन्त अपवित्र है। इनका पूजन करनेवाले इनमें न तो भगवद्बुद्धि कर सकते हैं (टिप्पणी प0 512)। और न निष्कामभाव ही रख सकते हैं। इसलिये उनका तो सर्वथा पतन ही होता है। इस विषयमें थोड़े वर्ष पहलेकी एक सच्ची घटना है। कोई ‘कर्णपिशाचिनी’ की उपासना करनेवाला था। उसके पास कोई भी कुछ पूछने आता, तो वह उसके बिना पूछे ही बता देता कि यह तुम्हारा प्रश्न है और यह उसका उत्तर है। इससे उसने बहुत रुपये कमाये।अब उस विद्याके चमत्कारको देखकर एक सज्जन उसके पीछे पड़ गये कि ‘मेरेको भी यह विद्या सिखाओ, मैं भी इसको सीखना चाहता हूँ।’ तो उसने सरलतासे कहा कि यह विद्या चमत्कारी तो बहुत है, पर वास्तविक हित, कल्याण करनेवाली नहीं है। उससे यह पूछा गया कि आप दूसरेके बिना कहे ही उसके प्रश्नको और उत्तरको कैसे जान जाते हो?’ तो उसने कहा कि ‘मैं अपने कानमें विष्ठा लगाये रखता हूँ। जब कोई पूछने आता है, तो उस समय कर्णपिशाचिनी आकर मेरे कानमें उसका प्रश्न और प्रश्नका उत्तर सुना देती है और मैं वैसा ही कह देता हूँ।’ फिर उससे पूछा गया कि ‘आपका मरना कैसे होगा– इस विषयमें आपने कुछ पूछा है कि नहीं?’ इसपर उसने कहा कि ‘मेरा मरना तो नर्मदाके किनारे होगा।’ उसका शरीर शान्त होनेके बाद पता लगा कि जब वह (अपना अन्त-समय जानकर) नर्मदामें जाने लगा, तब कर्णपिशाचिनी सूकरी बनकर उसके सामने आ गयी। उसको देखकर वह नर्मदाकी तरफ भागा, तो कर्णपिशाचिनीने उसको नर्मदामें जानेसे पहले ही किनारेपर मार दिया। कारण यह था कि अगर वह नर्मदामें मरता तो उसकी सद्गति हो जाती। परन्तु कर्णपिशाचिनीने उसकी सद्गति नहीं होने दी और उसको नर्मदाके किनारेपर ही मारकर अपने साथ ले गयी।इसका तात्पर्य यह हुआ कि देवता, पितर आदिकी उपासना स्वरूपसे त्याज्य नहीं है परन्तु भूत, प्रेत, पिशाच आदिकी उपासना स्वरूपसे ही त्याज्य है। कारण कि देवताओंमें भगवद्भाव और निष्कामभाव हो, तो उनकी उपासना भी कल्याण करनेवाली है। परन्तु भूत, प्रेत आदिकी उपासना करनेवालोंकी कभी सद्गति होती ही नहीं, दुर्गति ही होती है।
हाँ? पारमार्थिक साधक भूत-प्रेतोंके उद्धारके लिये उनका श्राद्ध-तर्पण कर सकते हैं। कारण कि उन भूत-प्रेतोंको अपना इष्ट मानकर उनकी उपासना करना ही पतनका कारण है। उनके उद्धारके लिये श्राद्धतर्पण करना अर्थात् उनको पिण्ड-जल देना कोई दोषकी बात नहीं है। सन्त-महात्माओंके द्वारा भी अनेक भूत-प्रेतोंका उद्धार हुआ है।
सम्बन्ध–देवताओंके पूजनमें तो बहुत-सी सामग्री, नियमों और विधियोंकी आवश्यकता होती है, फिर आपके पूजनमें तो और भी ज्यादा कठिनता होती होगी? इसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।