Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।6.7।। व्याख्या–[छठे श्लोकमें‘अनात्मनः’ पद और यहाँ ‘जितात्मनः’ पद आया है। इसका तात्पर्य है कि जो ‘अनात्मा’ होता है, वह शरीरादि प्राकृत पदार्थोंके साथ ‘मैं ‘और ‘मेरा’-पन करके अपने साथ शत्रुताका बर्ताव करता है और जो ‘जितात्मा’ होता है, वह शरीरादि प्राकृत पदार्थोंसे अपना सम्बन्ध न मानकर अपने साथ मित्रताका बर्ताव करता है। इस तरह अनात्मा मनुष्य अपना पतन करता है और जितात्मा मनुष्य अपना उद्धार करता है।]‘जितात्मनः’ जो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि किसी भी प्राकृत पदार्थकी अपने लिये सहायता नहीं मानता और उन प्राकृत पदार्थोंके साथ किञ्चिन्मात्र भी अपनेपनका सम्बन्ध नहीं जोड़ता, उसका नाम ‘जितात्मा’ है। जितात्मा मनुष्य अपनी तो हित करता ही है, उसके द्वारा दुनियाका भी बड़ा भारी हित होता है।
‘शीतोष्णसुखदुःखेषु प्रशान्तस्य’–यहाँ ‘शीत’ और ‘उष्ण’–इन दोनों पदोंपर गहरा विचार करें तो ये सरदी और गरमीके वाचक सिद्ध नहीं होते; क्योंकि सरदी और गरमी–ये दोनों केवल त्वगिन्द्रियके विषय हैं। अगर जितात्मा पुरुष केवल एक त्वगिन्द्रियके विषयमें ही शान्त रहेगा तो श्रवण, नेत्र, रसना और घ्राण–इन इन्द्रियोंके विषय बाकी रह जायँगे, अर्थात् इनमें उसका प्रशान्त रहना बाकी रह जायगा तो उसमें पूर्णता नहीं आयेगी। अतः यहाँ ‘शीत’ और ‘उष्ण’ पद अनुकूलता और प्रतिकूलताके वाचक हैं।शीत अर्थात् अनुकूलताकी प्राप्ति होनेपर भीतरमें एक तरहकी शीतलता मालूम देती है और उष्ण अर्थात् प्रतिकूलताकी प्राप्ति होनेपर भीतरमें एक तरहका सन्ताप मालूम देता है। तात्पर्य है कि भीतरमें न शीतलता हो और न सन्ताप हो, प्रत्युत एक समान शान्ति बनी रहे अर्थात् इन्द्रियोंके अनुकूल-प्रतिकूल विषय, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिकी प्राप्ति होनेपर भीतरकी शान्ति भङ्ग न हो। कारण कि भीतरमें जो स्वतःसिद्ध शान्ति है, वह अनुकूलतामें राजी होनेसे और प्रतिकूलतामें नाराज होनेसे भङ्ग हो जाती है। अतः शीत-उष्णमें प्रशान्त रहनेका अर्थ हुआ कि बाहरसे होनेवाले संयोग-वियोगका भीतर असर न पड़े।अब यह विचार करना चाहिये कि ‘सुख’ और ‘दुःख’ पदसे क्या अर्थ लें। सुख और दुःख दो-दो तरहके होते हैं–
(1) साधारण लौकिक दृष्टिसे जिसके पास धन-सम्पत्ति-वैभव, स्त्री-पुत्र आदि अनुकूल सामग्रीकी बहुलता हो, उसको लोग ‘सुखी’ कहते हैं। जिसके पास धन-सम्पत्ति-वैभव, स्त्री-पुत्र आदि अनुकूल सामग्रीका अभाव हो, उसको लोग ‘दुःखी’ कहते हैं।
(2) जिसके पास बाहरकी सुखदायी सामग्री नहीं है वह भोजन कहाँ करेगा–इसका पता नहीं है, पासमें पहननेके लिये पूरे कपड़े नहीं हैं, रहनेके लिये स्थान नहीं है, साथमें कोई सेवा करनेवाला नहीं है–ऐसी अवस्था होनेपर भी जिसके मनमें दुःख-सन्ताप नहीं होता और जो किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिकी आवश्यकताका अनुभव भी नहीं करता, प्रत्युत हर हालतमें बड़ा प्रसन्न रहता है, वह ‘सुखी’ कहलाता है। परन्तु जिसके पास बाहरकी सुखदायी सामग्री पूरी है, भोजनके लिये बढ़ियासेबढ़िया पदार्थ हैं पहननेके लिये बढ़िया-से-बढ़िया कपड़े हैं, रहनेके लिये बहुत बढ़िया मकान है, सेवाके लिये कई नौकर हैं–ऐसी अवस्था होनेपर भी भीतरमें रात-दिन चिन्ता रहती है कि मेरी यह सामग्री कहीं नष्ट न हो जाय यह सामग्री कायम कैसे रहे, बढ़े कैसे? आदि। इस तरह बाहरकी सामग्री रहनेपर भी जो भीतरसे दुःखी रहता है, वह ‘दुःखी’ कहलाता है।
उपर्युक्त दो प्रकारसे सुख-दुःख कहनेका तात्पर्य है–बाहरकी सामग्रीको लेकर सुखी-दुःखी होना और भीतरकी प्रसन्नता-खिन्नताको लेकर सुखी-दुःखी होना। गीतामें जहाँ सुख-दुःखमें ‘सम’ होनेकी बात आयी है, वहाँ बाहरकी सामग्रीमें सम रहनेके लिये कहा गया है; जैसे–‘समदुःखसुखः’(12। 13 14। 24) ‘शीतोष्णसुखदुःखेषु समः’ (12। 18) आदि। जहाँ सुख-दुःखसे ‘रहित’ होनेकी बात आयी है, वहाँ भीतरकी प्रसन्नता और खिन्नतासे रहित होनेके लिये कहा गया है; जैसे–‘द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैः’ (15। 5) आदि। जहाँ सुख-दुःखमें सम होनेकी बात है, वहाँ सुख-दुःखकी सत्ता तो है पर उसका असर नहीं पड़ता और जहाँ सुखदुःखसे रहित होनेकी बात है वहाँ सुखदुःखकी सत्ता ही नहीं है। इस तरह चाहे बाहरकी सुखदायी-दुःखदायी सामग्री प्राप्त होनेपर भीतरसे सम होना कहें, चाहे भीतरसे सुख-दुःखसे रहित होना कहें–दोनोंका तात्पर्य एक ही है; क्योंकि सम भी भीतरसे है और रहित भी भीतरसे है।
यहाँ शीत-उष्ण और सुख-दुःखमें प्रशान्त (सम) रहनेकी बात कही गयी है। अनुकूलतासे सुख होता है–‘अनुकूलवेदनीयं सुखम्’ और प्रतिकूलतासे दुःख होता है–‘प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्।’ इसलिये अगर शीत-उष्णका अर्थ अनुकूलता-प्रतिकूलता लिया जाय तो सुख-दुःख कहना व्यर्थ हो जायगा और सुख-दुःख कहनेसे शीत-उष्ण कहना व्यर्थ हो जायगा; क्योंकि सुख-दुःख पद शीत-उष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता) के ही वाचक हैं। फिर यहाँ शीत-उष्ण और सुख-दुःख पदोंकी सार्थकता कैसे सिद्ध होगी? इसके लिये ‘शीत-उष्ण’ पदसे प्रारब्धके अनुसार आनेवाली अनुकूलता-प्रतिकूलताको लिया जाय और ‘सुख-दुःख’ पदसे वर्तमानमें किये जानेवाले क्रियमाण कर्मोंकी पूर्ति-अपूर्ति तथा उनके तात्कालिक फलकी सिद्धि-असिद्धिको लिया जाय तो इन पदोंकी सार्थकता सिद्ध हो जाती है। तात्पर्य यह निकला कि चाहे प्रारब्धकी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति हो, चाहे क्रियमाणकी तात्कालिक सिद्धि-असिद्धि हो–इन दोनोंमें ही प्रशान्त (निर्विकार) रहे।इस प्रकरणके अनुसार भी उपर्युक्त अर्थ ठीक दीखता है। कारण कि इसी अध्यायके चौथे श्लोकमें आये ‘नेन्द्रियार्थेषु (अनुषज्जते)’ पदको यहाँ ‘शीत-उष्ण’ पदसे कहा गया है और ‘न कर्मसु अनुषज्जते’ पदोंको यहाँ सुख-दुःख पदसे कहा गया है अर्थात् वहाँ प्रारब्धके अनुसार आयी हुई अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिमें और क्रियमाण कर्मोंकी पूर्ति-अपूर्ति तथा तात्कालिक फलकी सिद्धि-असिद्धिमें आसक्ति-रहित होनेकी बातआयी है और यहाँ उन दोनोंमें प्रशान्त होनेकी बात आयी है।
‘तथा मानापमानयोः’–ऐसे ही जो मान-अपमानमें भी प्रशान्त है। अब यहाँ कोई शङ्का करे कि मान-अपमान भी तो प्रारब्धका फल है; अतः यह शीत-उष्ण (अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति) के ही अन्तर्गत आ गया। फिर इसको अलगसे क्यों लिया गया मानअपमानको अलगसे इसलिये लिया गया है कि शीतउष्ण तो दैवेच्छा(अनिच्छा) कृत प्रारब्धका फल है, पर मान-अपमान परेच्छाकृत प्रारब्धका फल है। यह परेच्छाकृत प्रारब्ध मान-बड़ाईमें भी होता है और निन्दा-स्तुति आदिमें भी होता है। इसलिये ‘मान-अपमान’ पदमें निन्दा-स्तुति लेना चाहें, तो ले सकते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मयोगी दूसरोंके द्वारा किये गये मान-अपमानमें भी प्रशान्त रहता है अर्थात् उसकी शान्तिमें किञ्चिन्मात्र भी फरक नहीं पड़ता।मान-अपमानमें प्रशान्त रहनेका उपाय–साधकका कोई मान-आदर करे, तो साधक यह न माने कि यह मेरे कर्मोंका, मेरे गुणोंका, मेरी अच्छाईका फल है, प्रत्युत यही माने कि यह तो मान-आदर करनेवालेकी सज्जनता है, उदारता है। उसकी सज्जनताको अपना गुण मानना ईमानदारी नहीं है। अगर कोई अपमान कर दे, तो ऐसा माने कि यह मेरे कर्मोंका ही फल है। इसमें अपमान करनेवालेका कोई दोष नहीं है, प्रत्युत वह तो दयाका पात्र है; क्योंकि उस बेचारेने मेरे पापोंका फल भुगतानेमें निमित्त बनकर मेरेको शुद्ध कर दिया है। इस तरह माननेसे साधक मान-अपमानमें प्रशान्त, निर्विकार हो जायगा। अगर वह मानको अपना गुण और अपमानको दूसरोंका दोष मानेगा, तो वह मान-अपमानमें प्रशान्त नहीं हो सकेगा।
‘परमात्मा समाहितः’–शीत-उष्ण, सुख-दुःख और मान-अपमान–इन छहोंमें प्रशान्त, निर्विकार रहनेसे सिद्ध होता है कि उसको परमात्मा प्राप्त हैं। कारण कि भीतरसे विलक्षण आनन्द मिले बिना बाहरकी अनुकूलता-प्रतिकूलता, सिद्धि-असिद्धि और मान-अपमानमें वह प्रशान्त नहीं रह सकता। वह प्रशान्त रहता है, तो उसको एकरस रहनेवाला विलक्षण आनन्द मिल गया है। इसलिये गीताने जगह-जगह कहा है कि ‘जिन पुरुषोंका मन साम्यावस्थामें स्थित है, उन पुरुषोंने इस जीवित-अवस्थामें ही संसारको जीत लिया है’ (5। 19); जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक लाभका होना मान ही नहीं सकता और जिसमें स्थित होनेपर बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं हो सकता (6। 22) आदि-आदि।