Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।6.41।। व्याख्या–‘प्राप्य पुण्यकृतां लोकान्’–जो लोग शास्त्रीय विधि-विधानसे यज्ञ आदि कर्मोंको साङ्गोपाङ्ग करते हैं, उन लोगोंका स्वर्गादि लोकोंपर अधिकार है, इसलिये उन लोगोंको यहाँ ‘पुण्यकर्म करनेवालोंके लोक’ कहा गया है। तात्पर्य है कि उन लोकोंमें पुण्यकर्म करनेवाले ही जाते हैं, पापकर्म करनेवाले नहीं। परन्तु जिन साधकोंको पुण्य-कर्मोंके फलरूप सुख भोगनेकी इच्छा नहीं है, उनको वे स्वर्गादि लोक विघ्नरूपमें और मुफ्तमें मिलते हैं! तात्पर्य है कि यज्ञादि शुभ कर्म करनेवालोंको परिश्रम करना पड़ता है, उन लोकोंकी याचना–प्रार्थना करनी पड़ती है, यज्ञादि कर्मोंको विधि-विधानसे और साङ्गोपाङ्ग करना पड़ता है, तब कहीं उनको स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति होती है। वहाँ भी उनकी भोगोंकी वासना बनी रहती है; क्योंकि उनका उद्देश्य ही भोग भोगनेका था। परन्तु जो किसी कारणवश अन्तसमयमें साधनसे विचलितमना हो जाते हैं, उनको स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्तिके लिये न तो परिश्रम करना पड़ता है, न उनकी याचना करनी पड़ती है और न उनकी प्राप्तिके लिये यज्ञादि शुभ कर्म ही करने पड़ते हैं। फिर भी उनको स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति हो जाती है। वहाँ रहनेपर भी उनकी वहाँके भोगोंसे अरुचि हो जाती है; क्योंकि उनका उद्देश्य भोग भोगनेका था ही नहीं। वे तो केवल सांसारिक सूक्ष्म वासनाके कारण उन लोकोंमें जाते हैं। परन्तु उनकी वह वासना भोगी पुरुषोंकी वासनाके समान नहीं होती।जो केवल भोग भोगनेके लिये स्वर्गमें जाते हैं, वे जैसे भोगोंमें तल्लीन होते हैं, वैसे योगभ्रष्ट तल्लीन नहीं हो सकता। कारण कि भोगोंकी इच्छावाले पुरुष भोगबुद्धिसे भोगोंको स्वीकार करते हैं और योगभ्रष्टको विघ्नरूपसे भोगोंमें जाना पड़ता है।
‘उषित्वा शाश्वतीः समाः’–स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें यज्ञादि शुभ-कर्म करनेवाले भी (भोग भोगनेके उद्देश्यसे)जाते हैं और योगभ्रष्ट भी जाते हैं। भोग भोगनेके उद्देश्यसे स्वर्गमें जानेवालोंके पुण्य क्षीण होते हैं और पुण्योंके क्षीण होनेपर उन्हें लौटकर मृत्युलोकमें आना पड़ता है। इसलिये वे वहाँ सीमित वर्षोंतक ही रह सकते हैं। परन्तु जिसका उद्देश्य भोग भोगनेका नहीं है, प्रत्युत परमात्मप्राप्तिका है, वह योगभ्रष्ट किसी सूक्ष्म वासनाके कारण स्वर्गमें चला जाय, तो वहाँ उसकी साधन-सम्पत्ति क्षीण नहीं होती। इसलिये वह वहाँ असीम वर्षोंतक रहता है अर्थात् उसके लिये वहाँ रहनेकी कोई सीमा नहीं होती।जो भोग भोगनेके उद्देश्यसे ऊँचे लोकोंमें जाते हैं, उनका उन लोकोंमें जाना कर्मजन्य है। परन्तु योगभ्रष्टका ऊँचे लोकोंमें जाना कर्मजन्य नहीं है; किन्तु यह तो योगका प्रभाव है, उनकी साधन-सम्पत्तिका प्रभाव है, उनके सत्-उद्देश्यका प्रभाव है।
स्वर्ग आदिका सुख भोगनेके उद्देश्यसे जो उन लोकोंमें जाते हैं, उनको न तो वहाँ रहनेसे स्वतन्त्रता है और न वहाँसे आनेमें ही स्वतन्त्रता है। उन्होंने भोग भोगनेके उद्देश्यसे ही यज्ञादि कर्म किये हैं, इसलिये उन शुभ कर्मोंका फल जबतक समाप्त नहीं होता, तबतक वे वहाँसे नीचे नहीं आ सकते और शुभ कर्मोंका फल समाप्त होनेपर वे वहाँ रह भी नहीं सकते। परन्तु जो परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही साधन करनेवाले हैं और केवल अन्त-समयमें योगसे विचलित होनेके कारण स्वर्ग आदिमें गये हैं, उनका वासनाके तारतम्यके कारण वहाँ ज्यादा-कम रहना हो सकता है, पर वे वहाँके भोगोंमें फँस नहीं सकते। कारण कि जब योगका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्मका अतिक्रमण कर जाता है (6। 44), तब वह योगभ्रष्ट वहाँ फँस ही कैसे सकता है?
‘शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते’–स्वर्गादि लोकोंके भोग भोगनेपर जब भोगोंसे अरुचि हो जाती है, तब वह योगभ्रष्ट लौटकर मृत्युलोकमें आता है और शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है। उसके फिर लौटकर आनेमें क्या कारण है? वास्तवमें इसका कारण तो भगवान् ही जानें; किन्तु गीतापर विचार करनेसे ऐसा दीखता है कि वह मनुष्य-जन्ममें साधन करता रहा! वह साधनको छोड़ना नहीं चाहता था, पर अन्त-समयमें साधन छूट गया। अतः उस साधनका जो महत्त्व उसके अन्तःकरणमें अङ्कित है, वह स्वर्गादि लोकोंमें भी उस योगभ्रष्टको अज्ञातरूपसे पुनः साधन करनेके लिये प्रेरित करता रहता है, उकसाता रहता है। इससे उस योगभ्रष्टके मनमें आती है कि मैं साधन करूँ। ऐसी मनमें क्यों आती है–इसका उसको पता नहीं लगता। जब श्रीमानोंके घरमें भोगोंके परवश होनेपर भी पूर्वजन्मका अभ्यास उसको जबर्दस्ती खींच लेता है (6। 44) तब वह साधन उसको स्वर्ग आदिमें साधनके बिना चैनसे कैसे रहने देगा? अतः भगवान् उसको साधन करनेका मौका देनेके लिये शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म देते हैं।जिनका धन शुद्ध कमाईका है, जो कभी पराया हक नहीं लेते, जिनके आचरण तथा भाव शुद्ध हैं, जिनके अन्तःकरणमें भोगोंका और पदार्थोंका महत्त्व, उनकी ममता नहीं है, जो सम्पूर्ण पदार्थ, घर, परिवार आदिको साधन-सामग्री समझते हैं, जो भोगबुद्धिसे किसीपर अपना व्यक्तिगत आधिपत्य नहीं जमाते, वे ‘शुद्ध श्रीमान्’ कहे जाते हैं। जो धन और भोगोंपर अपना आधिपत्य जमाते हैं वे अपनेको तो उन धन और पदार्थोंका मालिक मानते हैं, पर हो जाते हैं उनके गुलाम! इसलिये वे शुद्ध श्रीमान् नहीं हैं।
सम्बन्ध–पूर्वश्लोकमें तो भगवान्ने अर्जुनके प्रश्नके अनुसार योगभ्रष्टकी गति बतायी। अब आगेके श्लोकमें अथवा कहकर अपनी ही तरफसे दूसरे योगभ्रष्टकी बात कहते हैं।