Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।6.37।। व्याख्या–‘अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः’–जिसकी साधनमें अर्थात् जप, ध्यान, सत्सङ्ग, स्वाध्याय आदिमें रुचि है, श्रद्धा है और उनको करता भी है, पर अन्तःकरण और बहिःकरण वशमें न होनेसे साधनमें शिथिलता है, तत्परता नहीं है। ऐसा साधक अन्तसमयमें संसारेमें राग रहनेसे, विषयोंका चिन्तन होनेसे अपने साधनसे विचलित हो जाय, अपने ध्येयपर स्थिर न रहे तो फिर उसकी क्या गति होती है?
‘अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति’–विषयासक्ति, असावधानीके कारण अन्तकालमें जिसका मन विचलित हो गया अर्थात् साधनासे हट गया और इस कारण उसको योगकी संसिद्धि–परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई तो फिर वह किस गतिको प्राप्त होता है? तात्पर्य है कि उसने पाप करना तो सर्वथा छोड़ दिया था; अतः वह नरकोंमें तो जा सकता नहीं और स्वर्गकी कामना न होनेसे स्वर्गमें भी जा सकता नहीं तथा श्रद्धापूर्वक साधनमें लगा हुआ होनेसे उसका पुनर्जन्म भी हो सकता नहीं। परन्तु अन्तसमयमें परमात्माकी स्मृति न रहनेसे, दूसरा चिन्तन होनेसे उसको परमात्माकी प्राप्ति भी नहीं हुई, तो फिर उसकी क्या गति होगी? वह कहाँ जायगा?
‘कृष्ण’ सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि आप सम्पूर्ण प्राणियोंको खींचनेवाले हैं और उन प्राणियोंकी गति-आगतिको जाननेवाले हैं तथा इन गतियोंके विधायक हैं। अतः मैं आपसे पूछता हूँ कि योगसे विचलित हुए साधकको आप किधर खींचेंगे? उसको आप कौन-सी गति देंगे?