Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।6.31।। व्याख्या–‘एकत्वमास्थितः’ पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया था कि जो मेरेको सबमें और सबको मेरेमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता। अदृश्य क्यों नहीं होता? कारण कि सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित मेरे साथ उसकी अभिन्नता हो गयी है अर्थात् मेरे साथ उसका अत्यधिक प्रेम हो गया है।
अद्वैत-सिद्धान्तमें तो स्वरूपसे एकता होती है, पर यहाँ वैसी एकता नहीं है। यहाँ द्वैत होते हुए भी अभिन्नता है अर्थात् भगवान् और भक्त दीखनेमें तो दो हैं, पर वास्तवमें एक ही हैं (टिप्पणी प0 365)। जैसे पति और पत्नी दो शरीर होते हुए भी अपनेको अभिन्न मानते हैं, दो मित्र अपनेको एक ही मानते हैं; क्योंकि अत्यन्त स्नेह होनेके कारण वहाँ द्वैतपना नहीं रहता। ऐसे ही जो भक्तियोगका साधक भगवान्को प्राप्त हो जाता है, भगवान्में अत्यन्त स्नेह होनेके कारण उसकी भगवान्से अभिन्नता हो जाती है। इसी अभिन्नताको यहाँ ‘एकत्वमास्थितः’ पदसे बताया गया है।
‘सर्वभूतस्थितं यो मां भजति’–सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें भगवान् ही परिपूर्ण हैं अर्थात् सम्पूर्ण चराचर जगत् भगवत्स्वरूप ही है–‘वासुदेवः सर्वम्’ (7। 19)–यही उसका भजन है।
‘सर्वभूतस्थितम्’ पदसे ऐसा असर पड़ता है कि भगवान् केवल प्राणियोंमें ही स्थित हैं। परन्तु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। भगवान् केवल प्राणियोंमें ही स्थित नहीं हैं, प्रत्युत संसारके कण-कणमें परिपूर्णरूपसे स्थित हैं। जैसे, सोनेके आभूषण सोनेसे ही बनते हैं, सोनेमें ही स्थित रहते हैं और सोनेमें ही उनका पर्यवसान होता है अर्थात् सब समय एक सोना-ही-सोना है। परन्तु लोगोंकी दृष्टिमें आभूषणोंकी सत्ता अलग प्रतीत होनेके कारण उनको समझानेके लिये कहा जाता है कि आभूषणोंमें सोना ही है। ऐसे ही सृष्टिके पहले, सृष्टिके समय और सृष्टिके बाद एक परमात्मा-ही-परमात्मा है। परन्तु लोगोंकी दृष्टिमें प्राणियों और पदार्थोंकी सत्ता अलग प्रतीत होनेके कारण उनको समझानेके लिये कहा जाता है कि सब प्राणियोंमें एक परमात्मा ही है, दूसरा कोई नहीं है। इसी वास्तविकताको यहाँ ‘सर्वभूतस्थितं माम्’ पदोंसे कहा गया है।
‘सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते’–वह शास्त्र और वर्ण-आश्रमकी मर्यादाके अनुसार खाते-पीते, सोते-जागते, उठते-बैठते आदि सभी क्रियाएँ करते हुए मेरेमें ही बरतता है, मेरेमें ही रहता है। कारण कि जब उसकी दृष्टिमें मेरे सिवाय दूसरी कोई सत्ता ही नहीं रही, तो फिर वह जो कुछ बर्ताव करेगा, उसको कहाँ करेगा? वह तो मेरेमें ही सब कुछ करेगा।तेरहवें अध्यायमें ज्ञानयोगके प्रकरणमें भगवान्ने यह बताया कि सब कुछ बर्ताव करते हुए भी उसका फिर जन्म नहीं होता–‘सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते’ (13। 23); और यहाँ भगवान्ने बताया है कि सब कुछ बर्ताव करते हुए भी वह मेरेमें ही रहता है। इसका तात्पर्य यह है कि वहाँ संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेकी बात है और यहाँ भगवान्के साथ अभिन्न होनेकी बात है। संसारसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर ज्ञानयोगी मुक्त हो जाता है और भगवान्के साथ अभिन्नता होनेपर भक्त प्रेमके एक विलक्षण रसका आस्वादन करता है, जो अनन्त और प्रतिक्षण वर्धमान है।यहाँ भगवान्ने कहा है कि वह योगी मेरेमें बर्ताव करता है अर्थात् मेरेमें ही रहता है। इसपर शङ्का होती है कि क्या अन्य प्राणी भगवान्में नहीं रहते? इसका समाधान यह है कि वास्तवमें सम्पूर्ण प्राणी भगवान्में ही बरतते हैं, भगवान्में ही रहते हैं; परन्तु उनके अन्तःकरणमें संसारकी सत्ता और महत्ता रहनेसे वे भगवान्में अपनी स्थिति जानते नहीं; मानते नहीं। अतः भगवान्में बरतते हुए भी, भगवान्में रहते हुए भी उनका बर्ताव संसारमें ही हो रहा है अर्थात् उन्होंने जगत्में अहंता-ममता करके जगत्को धारण कर रखा है–‘ययेदं धार्यते जगत्’(गीता 7। 5)। वे जगत्को भगवान्का स्वरूप न समझकर अर्थात् जगत् समझकर बर्ताव करते हैं। वे कहते भी हैं कि हम तो संसारी आदमी हैं, हम तो संसारमें रहनेवाले हैं। परन्तु भगवान्का भक्त इस बातको जानता है कि यह सब संसार वासुदेवरूप है। अतः वह भक्त हरदम भगवान्में ही रहता है और भगवान्में ही बर्ताव करता है।
सम्बन्ध–भगवान्ने पहले उन्तीसवें श्लोकमें स्वरूपके ध्यानयोगीका अनुभव बताया। बीचमें तीसवें-इकतीसवें श्लोकोंमें सिद्ध भक्तियोगीकी स्थिति और लक्षण बताये। अब फिर निर्गुण-निराकारका ध्यान करनेवाले सांख्ययोगीका अनुभव बतानेके लिये आगेका श्लोक कहते हैं।