Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।6.18।। व्याख्या–[इस अध्यायके दसवेंसे तेरहवें श्लोकतक सभी ध्यानयोगी साधकोंके लिये बिछाने और बैठनेवाले आसनोंकी विधि बतायी। चौदहवें और पंद्रहवें श्लोकमें सगुणसाकारके ध्यानका फलसहितवर्णन किया। फिर सोलहवेंसत्रहवें श्लोकोंमें सभी साधकोंके लिये उपयोगी नियम बताये। अब इस (अठारहवें) श्लोकसे लेकर तेईसवें श्लोकतक स्वरूपके ध्यानका फलसहित वर्णन करते हैं।]
‘यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते’–अच्छी तरहसे वशमें किया हुआ चित्त (टिप्पणी प0 350) अर्थात् संसारके चिन्तनसे रहित चित्त जब अपने स्वतःसिद्ध स्वरूपमें स्थित हो जाता है। तात्पर्य है कि जब यह सब कुछ नहीं था, तब भी जो था और सब कुछ नहीं रहेगा, तब भी जो रहेगा तथा सबके उत्पन्न होनेके पहले भी जो था, सबका लय होनेके बाद भी जो रहेगा और अभी भी जो ज्यों-का-त्यों है, उस अपने स्वरूपमें चित्त स्थित हो जाता है। अपने स्वरूपमें जो रस है, आनन्द है, वह इस मनको कहीं भी और कभी भी नहीं मिला है। अतः वह रस, आनन्द मिलते ही मन उसमें तल्लीन हो जाता है।
‘निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा’–और जब वह प्राप्त-अप्राप्त, दृष्ट-अदृष्ट, ऐहलौकिक-पारलौकिक, श्रुत-अश्रुत सम्पूर्ण पदार्थोंसे, भोगोंसे निःस्पृह हो जाता है अर्थात् उसको किसी भी पदार्थकी भोगकी किञ्चिन्मात्र भी परवाह नहीं रहती, उस समय वह ‘योगी’ कहा जाता है।यहाँ‘यदा’और ‘तदा’ पद देनेका तात्पर्य है कि वह इतने दिनोंमें, इतने महीनोंमें, इतने वर्षोंमें योगी होगा–ऐसी बात नहीं है, प्रत्युत जिस क्षण वशमें किया हुआ चित्त स्वरूपमें स्थित हो जायगा और सम्पूर्ण पदार्थोंसे निःस्पृह हो जायगा, उसी क्षण वह योगी हो जायगा।
विशेष बात
इस श्लोकमें दो खास बातें बतायी हैं–एक तो चित्त स्वरूपमें स्थित हो जाय और दूसरी, सम्पूर्ण पदार्थोंसे निःस्पृह हो जाय। तात्पर्य है कि स्वरूपमें लगते-लगते जब मन स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है, तो फिर मनमें किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिका चिन्तन नहीं होता, प्रत्युत मन स्वरूपमें ही तल्लीन हो जाता है। इस प्रकार स्वरूपमें ही मन लगा रहनेसे ध्यानयोगी वासना, कामना, आशा, तृष्णा आदिसे सर्वथा रहित हो जाता है। इतना ही नहीं, वह जीवन-निर्वाहके लिये उपयोगी पदार्थोंकी आवश्यकतासे भी निःस्पृह हो जाता है। उसके मनमें किसी भी वस्तु आदिकी किञ्चिन्मात्र भी स्पृहा नहीं रहती, तब वह असली योगी होता है।
इसी अवस्थाका संकेत पहले चौथे श्लोकमें कर्मयोगीके लिये किया गया है कि ‘जिस कालमें इन्द्रियोंके अर्थों-(भोगों-) में और क्रियाओंमें आसक्ति नहीं रहती तथा सम्पूर्ण संकल्पोंका त्याग कर देता है, तब वह योगारूढ़ कहा जाता है (6। 4)। वहाँके और यहाँके प्रसङ्गमें अन्तर इतना ही है कि वहाँ कर्मयोगी दूसरोंकी सेवाके लिये ही कर्म करता है तो उसका क्रियाओं और पदार्थोंसे सर्वथा राग हट जाता है, तब वह योगारूढ़ हो जाता है और यहाँ ध्यानयोगी चित्तको स्वरूपमें लगाता है तो उसका चित्त केवल स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है, तब वह क्रियाओं और पदार्थोंसे निःस्पृह हो जाता है। तात्पर्य है कि कर्मयोगीकी कामनाएँ पहले मिटती हैं, तब वह योगारूढ़ होता है और ध्यानयोगीका चित्त पहले अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है, तब उसकी कामनाएँ मिटती हैं। कर्मयोगीका मन संसारकी सेवामें लग जाता है और स्वयं स्वरूपमें स्थित हो जाता है; और ध्यानयोगी स्वयं मनके साथ स्वरूपमें स्थित हो जाता है।
सम्बन्ध–स्वरूपमें स्थिर हुए चित्तकी क्या स्थिति होती है–इसको आगेके श्लोकमें दीपकके दृष्टान्तसे स्पष्ट बताते हैं।