Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।6.16।। व्याख्या–‘नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति’–अधिक खानेवालेका योग सिद्ध नहीं होता (टिप्पणी प0 347)। कारण कि अन्न अधिक खानेसे अर्थात् भूखके बिना खानेसे अथवा भूखसे अधिक खानेसे प्यास ज्यादा लगती है, जिससे पानी ज्यादा पीना पड़ता है। ज्यादा अन्न खाने और पानी पीनेसे पेट भारी हो जाता है। पेट भारी होनेसे शरीर भी बोझिल मालूम देता है। शरीरमें आलस्य छा जाता है। बार-बार पेट याद आताहै। कुछ भी काम करनेका अथवा साधन, भजन, जप, ध्यान आदि करनेका मन नहीं करता। न तो सुखपूर्वक बैठा जाता है और न सुखपूर्वक लेटा ही जाता है तथा न चलने-फिरनेका ही मन करता है। अजीर्ण आदि होनेसे शरीरमें रोग पैदा हो जाते हैं। इसलिये अधिक खानेवाले पुरुषका योग कैसे सिद्ध हो सकता है? नहीं हो सकता।
‘न चैकान्तमनश्नतः’– ऐसे ही बिलकुल न खानेसे भी योग सिद्ध नहीं होता। कारण कि भोजन न करनेसे मनमें बार-बार भोजनका चिन्तन होता है। शरीरमें शक्ति कम हो जाती है। मांस-मज्जा आदि भी सूखते जाते हैं। शरीर शिथिल हो जाता है। चलना-फिरना कठिन हो जाता है। लेटे रहनेका मन करता है। जीना भारी हो जाता है। बैठ करके अभ्यास करना कठिन हो जाता है। चित्त परमात्मामें लगता ही नहीं। अतः ऐसे पुरुषका योग कैसे सिद्ध होगा?
‘न चाति स्वप्नशीलस्य’–जिसका ज्यादा सोनेका स्वभाव होता है, उसका भी योग सिद्ध नहीं होता। कारण कि ज्यादा सोनेसे स्वभाव बिगड़ जाता है अर्थात् बार-बार नींद सताती है। पड़े रहनेसे सुख और बैठे रहनेसे परिश्रम मालूम देता है। ज्यादा लेटे रहनेसे गाढ़ नींद भी नहीं आती। गाढ़ नींद न आनेसे स्वप्न आते रहते हैं ,संकल्पविकल्प होते रहते हैं। शरीरमें आलस्य भरा रहता है। आलस्यके कारण बैठनेमें कठिनाई होती है। अतः वह योगका अभ्यास भी नहीं कर सकता, फिर योगकी सिद्धि कैसे होगी?
‘जाग्रतो नैव चार्जुन’–हे अर्जुन! जब अधिक सोनेसे भी योगकी सिद्धि नहीं होती, तो फिर बिलकुल न सोनेसे योगकी सिद्धि हो ही कैसे सकती है? क्योंकि आवश्यक नींद न लेकर जगनेसे बैठनेपर नींद सतायेगी, जिससे वह योगका अभ्यास नहीं कर सकेगा।सात्त्विक मनुष्योंमें भी कभी सत्सङ्गका, सात्त्विक गहरी बातोंका, भगवान्की कथाका अथवा भक्तोंके चरित्रोंका प्रसङ्ग छिड़ जाता है, तो कथा आदि कहते हुए, सुनते हुए जब रस आनन्द आता है, तब उनको भी नींद नहीं आती। परन्तु उनका जगना और तरहका होता है अर्थात् राजसीतामसी वृत्तिवालोंका जैसा जगना होता है, वैसा जगना सात्त्विक वृत्तिवालोंका नहीं होता। उस जगनेमें सात्त्विक मनुष्योंको जो आनन्द मिलता है, उसमें उनको निद्राके विश्रामकी खुराक मिलती है। अतः रातों जगनेपर भी उनको और समयमें निद्रा नहीं सताती। इतना ही नहीं ,उनका वह जगना भी गुणातीत होनेमें सहायता करता है। परन्तु राजसी और तामसी वृत्तिवाले जगते हैं तो उनको और समयमें निद्रा तंग करती है और रोग पैदा करती है।ऐसे ही भक्तलोग भगवान्के नाम-जपमें, कीर्तनमें, भगवान्के विरहमें भोजन करना भूल जाते हैं उनको भूख नहीं लगती, तो वे ‘अनश्नतः’ नहीं हैं। कारण कि भगवान्की तरफ लग जानेसे उनके द्वारा जो कुछ होता है, वह ‘सत्’ हो जाता है।