Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।6.12।। व्याख्या–[पूर्वश्लोकमें बिछाये जानेवाले आसनकी विधि बतानेके बाद अब भगवान् बारहवें और तेरहवें श्लोकमें बैठनेवाले आसनकी विधि बताते हैं।]
‘तत्र आसने’–जिस आसनपर क्रमशः कुश, मृगछाला और वस्त्र बिछाया हुआ है, ऐसे पूर्वश्लोकमें वर्णितआसनके लिये यहाँ ‘तत्र आसने’ पद आये हैं।
‘उपविश्य’–उस बिछाये हुए आसनपर सिद्धासन, पद्मासन, सुखासन आदि जिस किसी आसनसे सुखपूर्वक बैठ सके, उस आसनसे बैठ, जाना चाहिये। आसनके विषयमें ऐसा आया है कि जिस किसी आसनसे बैठे उसीमें लगातार तीन घंटेतक बैठा रहे। उतने समयतक इधर-उधर हिले-डुले नहीं। ऐसा बैठनेका अभ्यास सिद्ध होनेसे मन और प्राण स्वतःस्वाभाविक शान्त (चञ्चलता-रहित) हो जाते हैं। कारण कि मनकी चञ्चलता शरीरको स्थिर नहीं होने देती और शरीरकी चञ्चलता, क्रिया-प्रवणता मनको स्थिर नहीं होने देती। इसलिये ध्यानके समय शरीरका स्थिर रहना बहुत आवश्यक है।
‘यतचित्तेन्द्रियक्रियः’–आसनपर बैठनेके समय चित्त और इन्द्रियोंकी क्रियाएँ वशमें रहनी चाहिये। व्यवहारके समय भी शरीर, मन, इन्द्रियों आदिकी क्रियाओंपर अपना अधिकार रहना चाहिये। कारण कि व्यवहारकालमें चित्त और इन्द्रियोंकी क्रियाएँ वशमें नहीं होंगी तो ध्यानके समय भी वे क्रियाएँ जल्दी वशमें नहीं हो सकेंगी। अतः व्यवहारकालमें भी चित्त आदिकी क्रियाओँको वशमें रखना आवश्यक है। तात्पर्य है कि अपना जीवन ठीक तरहसे संयत होना चाहिये। आगे सोलहवें-सत्रहवें श्लोकोंमें भी संयत जीवन रखनेके लिये कहा गया है।
‘एकाग्रं मनः कृत्वा’–मनको एकाग्र करे अर्थात् मनमें संसारके चिन्तनको बिलकुल मिटा दे। इसके लिये ऐसा विचार करे कि अब मैं ध्यान करनेके लिये आसनपर बैठा हूँ। यदि इस समय मैं संसारका चिन्तन करूँगा तो अभी संसारका काम तो होगा नहीं और संसारका चिन्तन होनेसे परमात्माका चिन्तन, ध्यान भी नहीं होगा। इस तरह दोनों ओरसे मैं रीता रह जाऊँगा और ध्यानका समय बीत जायगा। इसलिये इस समय मेरेको संसारका चिन्तन नहीं करना है, प्रत्युत मनको केवल परमात्मामें ही लगाना है। ऐसा दृढ़ निश्चय करके बैठ जाय। ऐसा दृढ़ निश्चय करनेपर भी संसारकी कोई बात याद आ जाय तो यही समझे कि यह चिन्तन मेरा किया हुआ नहीं है; किंतु अपने-आप आया हुआ है। जो चिन्तन अपने-आप आता है, उसको हम पकड़ें नहीं अर्थात् न तो उसका अनुमोदन करें और न उसका विरोध ही करें। ऐसा करनेपर वह चिन्तन अपने-आप निर्जीव होकर नष्ट हो जायगा अर्थात् जैसे आया, वैसे चला जायगा; क्योंकि जो उत्पन्न होता है, वह नष्ट होता ही है–यह नियम है। जैसे संसारमें बहुत-से अच्छे-मन्दे कार्य होते रहते हैं, पर उनके साथ हम अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ते तो उनका हमारेपर कोई असर नहीं होता अर्थात् हमें उनका पाप-पुण्य नहीं लगता। ऐसे ही अपने-आप आनेवाले चिन्तनके साथ हम सम्बन्ध नहीं जोड़ेंगे, तो उस चिन्तनका हमारेपर कोई असर नहीं होगा, उसके साथ हमारा मन नहीं चिपकेगा। जब मन नहीं चिपकेगा तो वह स्वतः एकाग्र, शान्त हो जायगा।
‘युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये’–अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये ही ध्यानयोगका अभ्यास करे। सांसारिक पदार्थ, भोग, मान, बड़ाई, आराम, यश-प्रतिष्ठा, सुख-सुविधा आदिका उद्देश्य रखना अर्थात् इनकी कामना रखना ही अन्तःकरणकी अशुद्धि है और सांसारिक पदार्थ आदिकी प्राप्तिका उद्देश्य, कामना न रखकर केवल परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखना ही अन्तःकरणकी शुद्धि है।ऋद्धि, सिद्धि आदिकी प्राप्तिके लिये और दूसरोंको दिखानेके लिये भी योगका अभ्यास किया जा सकता है ,पर उनसे अन्तःकरणकी शुद्धि हो जाय–ऐसी बात नहीं है। ‘योग’ एक शक्ति है, जिसको सांसारिक भोगोंकी प्राप्तिमें लगा दें तो भोग–ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ प्राप्त हो जायँगी और परमात्माकी प्राप्तिमें लगा दें तो परमात्मप्राप्तिमें सहायक बन जायगी।