किसी भी साधनसे अन्तःकरणमें समता आनी चाहिये; क्योंकि समताके बिना मनुष्य अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंमें, मान-अपमानमें सम (निर्विकार) नहीं रह सकता और अगर वह परमात्माका ध्यान करना चाहे तो ध्यान भी नहीं कर सकता। तात्पर्य है कि अन्तःकरणमें समता आये बिना सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंका असर नहीं मिटेगा और मन भी ध्यानमें नहीं लगेगा।
जो मनुष्य प्रारब्धके अनुसार प्राप्त अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंमें, वर्तमानमें किये जानेवाले कर्मोंकी पूर्ति-अपूर्तिमें, सिद्धि-असिद्धिमें, दूसरोंके द्वारा किये गये मान-अपमानमें, धन-सम्पत्ति आदिमें, अच्छे-बुरे मनुष्योंमें सम रहता है, वह श्रेष्ठ है। जो साध्यरूप समताका उद्देश्य रखकर मन-इन्द्रियोंके संयमपूर्वक परमात्माका ध्यान करता है, उसकी सम्पूर्ण प्राणियोंमें और उनके सुख-दुःखमें समबुद्धि हो जाती है। समता प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रमण कर जाता है। समतावाला मनुष्य सकामभाववाले तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी मनुष्योंसे श्रेष्ठ है।