- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘वह स्त्री या पुरुष जो कर्म के फल पर आश्रित हुए बिना अपने कर्तव्य का पालन करता है वह कर्म का त्यागी और स्थिर मन वाला होता है, न कि वह जो अग्नि को नहीं छूता और जो कर्म नहीं करता’। (6.1)
- ‘हे पाण्डव, इसे कर्म योग के प्रति समर्पण मानो जिसे त्याग कहा जाता है; क्योंकि कोई भी बिना संकल्पों के त्याग के कर्म योगी नहीं बन जाता’। (6.2)
- ‘ध्यान करने वाले व्यक्ति के लिये जो कि हृदय को शुद्ध करके एकाग्रता प्राप्त करना चाहता है, कर्म का मार्ग बताया जाता है। ऐसे व्यक्ति के लिये जिसने एकाग्रता प्राप्त कर ली है, अकर्म का मार्ग बताया जाता है’। (6.3)
- ‘निश्चय ही, इन्द्रिय विषयों अथवा कर्म के प्रति सभी संकल्पों का त्याग करके जब कोई आसक्ति उसमें नहीं है, तब वह व्यक्ति योग की स्थिति पर उठ जाता है’। (6.4)
- ‘स्वयं को स्वयं द्वारा ऊपर उठाओ; अपने पर अवसाद मत आने दो; क्योंकि केवल तुम ही तुम्हारे मित्र हो और केवल तुम्हीं तुम्हारे शत्रु’। (6.5)
- ‘जब किसी ने स्वयं को जीत लिया है तो वह अपना मित्र होता है; लेकिन जिसने अपने को नहीं जीता है, उस स्त्री या पुरुष के लिये वह स्वयं अपना शत्रु होता है’। (6.6)
- ‘आत्म नियंत्रित तथा सौम्य व्यक्ति के लिये सर्वोच्च ‘स्व’, गर्मी और सर्दी में, दुख और सुख में, और इसी प्रकार अपमान और सम्मान में निरंतर बोध की वस्तु होनी चाहिये।’ (6.7)
- ‘जिसका हृदय ज्ञान और बुद्धि के द्वारा परितृप्त और स्थिर है, जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है, और जिसके लिये मिट्टी का ढेला, पत्थर और सोना एक जैसे हैं, उस योगी को स्थिर बुद्धि कहा जाता है’। (6.8)
- ‘वह, जो शुभेच्छुओं, मित्रों, शत्रुओं, तटस्थों, मध्यस्थों, घृणास्पदों, सम्बन्धियों तथा सुकर्मियों और दुष्कर्मियों को समान दृष्टि से देखता है, श्रेष्ठता प्राप्त करता है’। (6.9)
- ‘योगी को मन की एकाग्रता का निरन्तर अभ्यास करना चाहिये, एकान्त में, एकाकी हो कर, मन और शरीर को वशीभूत करके, और आशा तथा स्वामित्व (की आकुलता) से मुक्त हो कर’। (6.10)
- ‘अपने आसन को एक शुद्ध स्थान पर दृढ़ स्थापित करके, जो न बहुत ऊँचा हो, न बहुत नीचा, कपड़े, चमड़े, और कुशा घास से बना हुआ, एवं इसी क्रम में व्यवस्थित किया हुआ’। (6.11)
- ‘वहाँ, उस आसन पर बैठ कर, मन को एक दिशा में लगाते हुए और मन तथा इन्द्रियों के कार्यों को अधीन करके, उस स्त्री या पुरुष को हृदय की शुद्धि के लिये योग का अभ्यास करना चाहिये’। (6.12)
- ‘उसे अपना शरीर स्थिर करके, सिर और गर्दन को खड़ा और स्थिर रखते हुए (मानो आँखों के गोले स्थिर होकर) अपनी नाक के अग्रभाग को देखते हुए, न कि चारों ओर देखते हुए, बैठना होगा’। (6.13)
- ‘हृदय को शान्त और भयमुक्त करके, ब्रह्मचर्य के व्रत में दृढ़ हो कर, मन को नियंत्रित करते हुए, सदा मेरा विचार करते हुए, उस स्त्री या पुरुष को मुझे उच्चतम ध्येय बनाते हुए (योग में) बैठना चाहिये’। (6.14)
- ‘इस प्रकार मन को स्थिर करके, अपने अधीन किये गये मन वाला योगी मुझ में रह कर शान्ति प्राप्त करता है – वह शान्ति जिसकी चरम परिणिति निर्वाण(मोक्ष) में है’। (6.15)
- ‘योग (में सफलता) उस व्यक्ति के लिये नहीं है जो दीर्घकाल तक बहुत अधिक खाता है या बिल्कुल नहीं खाता; न ही, हे अर्जुन उसके लिये जो बहुत अधिक सोता है, या अधिक समय जागता है’। (6.16)
- ‘जो भोजन तथा मनोरंजन में संयमी है, कार्य के प्रयास, सोने और जागने में भी संयमी है, उसके लिये योग दुखों का नष्ट करनेवाला होता है’। (6.17)
- ‘जब सभी कामनाओं की आकांक्षाओं से मुक्त होकर पूर्णतः नियंत्रित मन सौम्यतापूर्वक केवल ‘स्व’ में स्थित होता है तब उसे (‘स्व’ में) पूर्णतः प्रतिष्ठित कहा जाता है’। (6.18)
- “जैसे कोई दीपक ऐसे स्थान पर रखा हुआ हो जहाँ हवा नहीं चलती, तो उसकी दीपशिखा कम्पायमान नहीं होती – इसी प्रकार की उपमा उस योगी के लिये दी जाती है जिसने मन को ‘स्व’ में एकाग्रता के अभ्यास द्वारा वश में कर लिया है”। (6.19)
- ‘जब ध्यान के अभ्यास द्वारा मन पूर्णतः नियंत्रित कर लिया जाता है वह शान्ति प्राप्त करता है, और जब कोई स्व के द्वारा ‘स्व’ को देख लेता है, वह ‘स्व’ में संतुष्ट हो जाता है’। (6.20)
- ‘जब कोई (शुद्धीकृत) बुद्धि द्वारा असीम आनन्द का अनुभव करता है, जो इन्द्रियों से अतीत या परे है, उसमें प्रतिष्ठित होकर वह अपनी वास्तविक स्थिति से कभी पृथक नहीं होता है’। (6.21)
- ‘जिसे प्राप्त करके, कोई किसी भी अन्य उपलब्धि को उससे उच्चतर नहीं मानता है, और जिसमें प्रतिष्ठित होकर, कोई भारी दुःख द्वारा भी विचलित नहीं होता है’। (6.22)
- ‘इस स्थिति को योग के नाम से जाना जाना चाहिये – दुख के साथ संपर्क विहीन स्थिति। इस योग का हृदय के अवसाद द्वारा विचलित हुए बिना लगन के साथ अभ्यास करना चाहिये’। (6.23)
- ‘संकल्प से उत्पन्न हुई सभी इच्छाओं का सर्वथा परित्याग करके, और समूचे इन्द्रिय समूह को केवल मन से उनके विषयों से सभी दिशाओं में पूर्णतः रोकते हुए’। (6.24)
- ‘तर्क-युक्ति अथवा विचार बुद्धि को इच्छा के साथ जोड़ कर, मन को दृढ़तापूर्वक ‘स्व’ के साथ संयुक्त करके, कदम-दर-कदम शान्ति को प्राप्त करना चाहिये : उस स्त्री या पुरुष को और कुछ नहीं सोचना चाहिये’। (6.25)
- ‘जिस कारण से मन अशान्त व अस्थिर होकर भटकता है, उसे उस कारण से हटा कर केवल अपने ‘स्व’ के अधीन करो’। (6.26)
- ‘निश्चय ही उस योगी को सर्वोच्च आनन्द प्राप्त होता है जो शान्त मन का है, जिसकी वासनाएँ शान्त हो गई हैं, जो ब्रह्म बन गया है और कलुष से मुक्त हो गया है’। (6.27)
- ‘एक योगी जो समस्त कलुषों से मुक्त है, मन को इस प्रकार निरंतर युक्त करते हुए सरलता से ब्रह्म के साथ संपर्क के असीम आनन्द को प्राप्त करता है।’ (6.28)
- ‘हृदय को योग में एकाग्र करके, सभी वस्तुओं के लिये समदृष्टित्व रखते हुए, वह स्त्री या पुरुष सभी प्राणियों में ‘स्व’ को देखता है, और ‘स्व’ में सभी प्राणियों को देखता है’। (6.29)
- ‘वह जो मुझे सभी जीवों में देखता है और सभी जीवों को मुझमें देखता है, ऐसा व्यक्ति मुझसे कभी पृथक नहीं होता है, और न मैं उससे पृथक होता हूँ’। (6.30)
- ‘वह जो एकत्व में स्थित हो कर सभी जीवों में विद्यमान मुझ को पूजता है, उस स्त्री या पुरुष का चाहे जीवन का कोई भी प्रकार हो, वह योगी मुझमें रहता है’। (6.31)
- ‘वह जो सभी जगह दुःख और सुख उसी प्रकार देखता है जैसे वह उसका सुख-दुख हो, हे अर्जुन, वह योगी उच्चतम माना जाता है’। (6.32)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘यह योग जो, हे मधु का वध करनेवाले, आपके द्वारा सिखाया गया है, जिसमें समदृष्टि का भाव है, मैं नहीं देखता कि अधिक समय तक (मन की ) चंचलता के कारण, यह संभव है’। (6.33)
- ‘हे कृष्ण, निश्चय ही यह मन चंचल है, उपद्रवी है, बलशाली और न मानने वाला है; मैं इसके नियंत्रण को उतना ही कठिन समझता हूँ जितना हवा को नियंत्रण में करना’। (6.34)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘हे शक्तिशाली भुजाओं वाले, निस्सन्देह मन चंचल और नियंत्रण में कठिन है; लेकिन हे कुन्तीपुत्र, अभ्यास और वैराग्य के द्वारा यह प्राप्त किया जा सकता है’। (6.35)
- ‘अनियंत्रित स्व के द्वारा योग प्राप्त करना दुष्कर है; ऐसा मेरा विश्वास है; लेकिन आत्मनियंत्रित व्यक्ति, सही उपायों द्वारा प्रयास करता हुआ, इसे प्राप्त कर सकता है’। (6.36)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘यद्यपि किसी में श्रद्धा है, लेकिन स्वयं को नियंत्रित न कर पाने के कारण, क्योंकि उसका मन योग से हट जाता है, ऐसे व्यक्ति का क्या होता है, हे कृष्ण, जब वह योग में पूर्णत्व प्राप्त नहीं कर पाता?’ (6.37)
- ‘हे महाबाहो, क्या ऐसा व्यक्ति दोनों ओर से गिरा हुआ, और ब्रह्म के मार्ग पर भ्रमित होकर बिना किसी सहारे के एक छिन्न-भिन्न बादल के समान नष्ट हो जाता है?’ (6.38)
- ‘हे कृष्ण, आप पूरी तरह मेरा यह संशय दूर करें; क्योंकि आपके अतिरिक्त्त अन्य किसी के द्वारा इस संशय को छेदना संभव नहीं है’। (6.39)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘हे पृथापुत्र, निश्चय ही ऐसे व्यक्ति का न तो यहाँ और न इसके बाद ही कोई नाश होता है, क्योंकि हे मेरे शिष्य, शुभ कार्यों को करनेवाला कभी कष्ट में नहीं पड़ता’। (6.40)
- ‘पुण्य कार्य करने वालों के लोकों को प्राप्त करके, और वहाँ दीर्घ अवधि तक रहने के बाद, वह जो योग से भ्रष्ट होकर गिर गया है, शुद्ध एवं समृद्ध लोगों के घरों में पुनर्जन्म लेता है’। (6.41)
- ‘अन्यथा, वह केवल प्रज्ञावान योगियों के परिवार में जन्म लेता है; निश्चय ही, इस प्रकार का जन्म संसार में दुर्लभ है’। (6.42)
- ‘वहाँ वह पूर्व जन्म में संचित बुद्धि के साथ संयुक्त हो जाता है, और पूर्णता के लिये, हे कुरुपुत्र, वह पहले से भी अधिक प्रयास करता है’। (6.43)
- ‘केवल उस पूर्व के अभ्यास के कारण स्वयं की चाहत के बिना भी उसे जन्म लेना पड़ता है। योग का जिज्ञासु भी वेदिक कर्म काण्ड करने वाले से ऊपर उठता है’। (6.44)
- ‘अध्यवसायपूर्वक प्रयास करता हुआ योगी, कलुष से मुक्त होकर, धीरे-धीरे अनेक जन्मों में पूर्णता को प्राप्त करता हुआ फिर अन्तिम ध्येय तक पहुँच जाता है’। (6.45)
- ‘जो तपस्या करते है’ उनसे, तथा जिन्होंने (धर्म ग्रन्थों से) ज्ञान प्राप्त किया है उनसे, योगी श्रेष्ठतर माना जाता है; योगी (धर्म ग्रन्थों में बताए गए) कर्म काण्ड करने वालों से भी श्रेष्ठतर है। इसलिये, हे अर्जुन तुम योगी बन जाओ’। (6.46)
- ‘और सभी योगियों में, वह जो श्रद्धायुक्त होकर अपना अन्तरतम स्व मुझमें विलीन कर देता है, स्वयं को मेरे प्रति समर्पित कर देता है, वह मुझे दृढ़ रूप में सर्वाधिक मान्य है’। (6.47)