- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘मैंने विवस्वान् को यह अविनाशी योग बताया था; विवस्वान् ने इसे मनु को बताया; (और) मनु ने इसे इक्क्ष्वाकु को बताया:’ (4.1)
- ‘हे परंतप अर्जुन! इस प्रकार उत्तरोत्तर क्रम के अन्तर्गत, राजर्षियों ने इस योग को जाना; यह योग दीर्घकाल के बीत जाने के कारण इस संसार में शिथिल हो गया। (4.2)
- ‘आज मैंने वही सर्वोच्च प्राचीन योग तुम्हें मेरा भक्त और मित्र समझ कर बताया है’। (4.3)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘आपका जन्म बाद में हुआ, और विवस्वत का पहले; तब मैं कैसे समझूँ कि आपने इसके बारे में पहले कभी कहा था?’ (4.4)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘हे अर्जुन; मेरे और तुम्हारे अनेक बार जन्म हो चुके हैं, मैं उन सब को जानता हूँ, जबकि हे शत्रुओं को कष्टप्रद तुम नहीं जानते हो’। (4.5)
- ‘यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, परिवर्तन विहीन, सभी जीवों का स्वामी, फिर भी मेरी प्रकृति को अधीन करके अथवा दिव्य प्रकृति को, मैं मेरी ही माया से जन्म लेता हूँ’। (4.6)
- ‘जब भी, हे भरत वंशी, धर्म का ह्रास होता है, और अधर्म में वृद्धि होती है, तब मैं शरीर धारण करता हूँ’। (4.7)
- ‘सदाचारियों की रक्षा के लिये, दुष्टों के विनाश के लिये, तथा धर्म की स्थापना के लिये, मैं प्रत्येक युग में आता हूँ’। (4.8)
- ‘वह जो इस प्रकार, सही रूप में मेरे दिव्य जन्म तथा कार्य को जानता है, शरीर त्यागने के बाद, फिर जन्म नहीं लेता; एवं वह मुझे प्राप्त कर लेता या लेती है, हे अर्जुन।’ (4.9)
- ‘आसक्ति, भय, और क्रोध से मुक्त होकर, मुझ में तल्लीन होकर, मुझमें शरण लेकर, ज्ञानाग्नि से शुद्ध होकर, अनेक लोगों ने मुझे प्राप्त किया है।’ (4.10)
- ‘स्त्री और पुरुष जिस किसी प्रकार से मेरी पूजा करते हैं, उसी प्रकार से मैं उनकी इच्छाएँ पूरी करता हूँ; (यह) मेरा मार्ग है, (जिस पर), हे पृथा के पुत्र सभी प्रकारों से लोग चलते हैं। (4.11)
- ‘कर्म की सफलता की आकांक्षा करते हुए, इस संसार में (लोग) देवताओं को पूजते हैं; क्योंकि कर्म से प्राप्त सफलता मानव जगत् में शीघ्र प्राप्त की जाती है’। (4.12)
- ‘गुण और कर्म की विभिन्नताओं के आधार पर ‘चतुर्वर्ण व्यवस्था मेरे द्वारा बनाई गई थी।’ यद्यपि मैं इस व्यवस्था का कर्ता हूँ, तथापि मुझे अकर्ता और अपरिवर्तनशील समझो’। (4.13)
- ‘कर्मों का मुझ पर दोष नहीं होता, न ही मुझे कर्म के फल की पिपासा है। जो मुझे इस प्रकार जानता है वह कर्मों से नहीं बँधता’। (4.14)
- ‘इस प्रकार जान कर आध्यात्मिक मुक्ति के प्राचीन साधकों ने कर्म किये। इसलिये तुम भी केवल इस प्रकार कर्म करो जैसे प्राचीन साधकों ने पुरातन काल में किया था’। (4.15)
- ‘ऋषिगण भी किंकर्तव्यविमूढ हैं कि कर्म क्या है और अ-कर्म क्या है। अतः मैं तुम्हें बताऊँगा कि कर्म क्या है, जिसे जानकर तुम दोष मुक्त हो जाओगे।’ (4.16)
- ‘अवश्य ही, कर्म की भी वास्तविक प्रकृति को जानना चाहिये, और उसी प्रकार विकर्म या प्रतिबन्धित कर्म की, तथा अकर्म की भी : कर्म की प्रकृति गहन और अभेद्य है’। (4.17)
- ‘वह जो अकर्म में कर्म देखता है और कर्म में अकर्म देखता है मनुष्यों में बुद्धिमान् है, वह स्त्री या पुरुष एक योगी है और सभी कर्मों का कर्ता है।’ (4.18)
- ‘जिसकी कार्य-योजनाएँ काम, अर्थात् ऐन्द्रिक इच्छाओं से सर्वथा वंचित हैं और संकल्प, अर्थात् फल की इच्छाओं से, और जिसके कर्म ज्ञान की अग्नि से जल चुके हैं, उस स्त्री या पुरुष को ऋषिगण बुद्धिमान कहते हैं’। (4.19)
- ‘कर्म के फलों की आसक्ति का त्याग करते हुए, सदा संतुष्ट, किसी पर निर्भर न रहते हुए, यद्यपि वह कर्म में युक्त है, वह स्त्री या पुरुष वास्तव में कुछ नहीं करता’। (4.20)
- ‘बहुत सारी आकांक्षाओं को न रखते हुए, नियंत्रित शरीर और मन के साथ और समस्त व्यक्तिगत प्राप्ति की इच्छाओं का त्याग करते हुए, वह स्त्री या पुरुष केवल शारीरिक रूप से कर्म करते हुए कोई बुरे परिणाम का कष्ट नहीं भोगता।’ (4.21)
- ‘व्यक्तिगत रूप से उसीसे सन्तुष्ट, जो बिना प्रयास के आता है, विरोधी युग्मों से अप्रभावित, ईर्ष्या से मुक्त, सफलता और विफलता में सम बुद्धि धारण करके, यद्यपि वह कार्य करता है, वह (स्त्री या पुरुष) बन्धन में नहीं है।’ (4.22)
- ‘आसक्ति से मुक्त, स्वतंत्र, आध्यात्मिक ज्ञान में केन्द्रित मन के साथ, केवल यज्ञ के लिए कार्य करते हुए, उसका (स्त्री या पुरुष का) समस्त कर्म विलीन हो जाते हैं।’ (4.23)
- ‘अर्पण की प्रक्रिया ब्रह्म है, अर्पित किया गया घृत ब्रह्म है, ब्रह्म द्वारा ही, ब्रह्म की अग्नि में अर्पित किया गया है; इसके द्वारा, जो ब्रह्म कर्म की समाधि में है, उसे केवल ब्रह्म तक ही पहुँचना है’। (4.24)
- ‘कुछ योगी केवल देवताओं के लिये हवन करते हैं, जबकि दूसरे हवन रूप में केवल ब्रह्म की अग्नि में ब्रह्म रूप में स्व की आहुति देते हैं’। (4.25)
- ‘अन्य कुछ लोग श्रवण एवं अन्य इन्द्रियों को हवन के रूप में आत्म-संयम की अग्नि में अर्पित करते हैं, जब कि अन्य कुछ ध्वनि व अन्य ऐन्द्रिक विषय हवन रूप में इन्द्रियों की अग्नि में अर्पित करते हैं’। (4.26)
- ‘कुछ अन्य, इन्द्रियों के समस्त कर्मों और जीवनाधार प्राण-शक्ति की क्रियाओं को, आत्म संयम की योगाग्नि में अर्पित करते हैं, जो आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा प्रज्वलित की गई है।’ (4.27)
- ‘दूसरे लोग फिर भौतिक वस्तुएँ, कठोर अभ्यास और योग का यज्ञ रूप में अर्पण करते हैं, जब कि कुछ अन्य, जिनमें आत्म संयम और कठोर व्रत की क्षमता है वे धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन और ज्ञान के अर्पण का यज्ञ करते हैं।’ (4.28)
- ‘कुछ श्वास अन्दर लेते हुए निर्गामी की आहुति देते हैं ; और कुछ अन्य, बाहर जाती श्वास के समय, आवक को हवन करते हैं; श्वास-प्रश्वास को रोक कर, निरंतर प्राण रूपी उस जीवनी ऊर्जा का नियमन करते हैं’। (4.29)
- ‘अन्य, लोग अनुशासित भोजन द्वारा, प्राणों को प्राणों में हवन करते हैं। ये सब यज्ञ के ज्ञाता हैं, उनके सब पाप यज्ञ से नष्ट हो गए हैं। वे जो यज्ञ के बाद बचे हुए को खाते हैं, असीम ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करने वालों के लिए यह लोक तक भी नहीं है, फिर कैसे परलोक उनके लिये हो सकता है, हे कुरुओं में श्रेष्ठ?’ (4.30 & 4.31)
- ‘इस प्रकार, ऊपर दिये गये जैसे अनेक यज्ञ, वेदों के भण्डार में बिखरे हुए हैं। इन सब को कर्म द्वारा उत्पन्न हुआ जानो; और इस प्रकार जान कर, तुम मुक्त हो जाओगे’। (4.32)
- ‘हे शत्रुओं को झुलसाने वाले उस यज्ञ से ज्ञान-यज्ञ, उच्चतर है जो (भौतिक) वस्तुओं से किया गया है; सभी कर्म, अपनी संपूर्णता में, हे पार्थ, ज्ञान में अपनी परितृप्ति पाते हैं’। (4.33)
- ‘ज्ञानियों को दण्डवत प्रणाम करते हुए, बार-बार प्रश्न करते हुए, और उनकी सेवा करते हुए उस (सर्वोच्च ब्रह्म को) जानो, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, वे तुम्हें इस ज्ञान का उपदेश देंगे’। (4.34)
- ‘जिसे जान कर, हे पाण्डव, तुम इस प्रकार फिर मोहित नहीं होगे और जिसके द्वारा तुम समस्त सृष्टि को (तुम्हारे) स्व में और मुझमें देखोगे’। (4.35)
- ‘चाहे तुम पापियों में सबसे अधिक पापी हो, फिर भी ज्ञान की एक ही किरण से, तुम पाप के पार चले जाओगे’। (4.36)
- ‘जिस प्रकार धधकती अग्नि समस्त ईंधन को राख बना डालती है, उसी प्रकार, हे अर्जुन, आध्यात्मिक ज्ञान की अग्नि सभी कर्मों को राख बना डालती है’। (4.37)
- ‘अवश्य ही, इस संसार में इतना पवित्रता प्रदान करने वाला कुछ नहीं है जितना ज्ञान या आध्यात्मिक ज्ञान है। कुछ समय में, योग में पूर्णता प्राप्त करने के बाद, कोई भी इसे अपने में देख सकता है।’ (4.38)
- ‘वह व्यक्ति जिसमें श्रद्धा और भक्ति है, जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह (इस) ज्ञान को प्राप्त करता है। ज्ञान प्राप्त करने के बाद, वह तुरंत परम शान्ति प्राप्त करता है’। (4.39)
- ‘अज्ञानी व्यक्ति जिसमें श्रद्धा नहीं है, जो संशय युक्त है, नष्ट हो जाता है। संशयी व्यक्ति के लिये न यह संसार है, न ही आगे आने वाला संसार है, न प्रसन्नता है’। (4.40)
- ‘जिसने योग द्वारा कर्मों का त्याग कर दिया है और जिसके संशय आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा जीत लिये गये है, हे धनंजय, ऐसे व्यक्ति को, जो स्व में स्थित है, कर्म नहीं बाँधते।’ (4.41)
- ‘इसलिये ज्ञान की तलवार से स्व के बारे में यह संदेह काटते हुए, जो तुम्हारे हृदय में स्थित अज्ञान के कारण उत्पन्न हुआ है, योग का आश्रय लो, और उठो, हे भारत!’ (4.42)