कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥47॥
karmaṇyevādhikāraste mā phaleṣu kadācana
mā karmaphalaheturbhūrmā te saṅgo’stvakarmaṇi
karmāṇi = in prescribed duties; eva = certainly; adhikāraḥ = right; te = of you; mā = never; phaleṣu = in the fruits; kadācana = at any time; mā = never; karmaphala = in the result of the work; hetuḥ = cause; bhūḥ = become; mā = never; te = of you; saṅgaḥ = attachment; astu = there should be; akarmaṇi = in not doing prescribed duties.;
Thy right is to work only, but never to its fruits; let not the fruit-of-action be thy motive, nor let thy attachment be to inaction.
चौपाई:
“सुनु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥”
भावार्थ:
“हे भरत! सुनो, भविष्य (भाग्य) बहुत ही प्रबल होता है।” — ऐसा कहकर मुनिनाथ (महर्षि वसिष्ठ) विलाप करते हुए भरत को समझाते हैं कि:
हानि या लाभ,
जीवन या मृत्यु,
यश या अपयश —
यह सब मनुष्य के हाथ में नहीं, बल्कि विधाता (ईश्वर या प्रारब्ध) के अधीन है।
व्याख्या:
- “भावी प्रबल” — भाग्य अथवा प्रारब्ध इतना शक्तिशाली होता है कि उसका प्रभाव टालना कठिन है, चाहे कोई कितना भी प्रयत्न करे।
- वसिष्ठ मुनि भरत को यह समझा रहे हैं कि श्रीराम का वनवास, कैकेयी की जिद, और यह सब जो हो रहा है — वह केवल मनुष्यमात्र की इच्छा से नहीं हो रहा, यह सब विधि के विधान से हो रहा है।
- इस प्रकार, यह श्लोक मानव की सीमाओं को रेखांकित करता है और यह संदेश देता है कि हमें प्रयत्न तो करना चाहिए, किंतु फल की चिंता न करते हुए उसे ईश्वर की इच्छा मानकर स्वीकार करना चाहिए।