अपने विवेकको महत्त्व देना और अपने कर्तव्यका पालन करना- इन दोनों उपायोंमेंसे किसी भी एक उपायको मनुष्य दृढ़तासे काममें लाये तो शोक-चिन्ता मिट जाते हैं।
जितने शरीर दीखते हैं, वे सभी नष्ट होनेवाले हैं, मरनेवाले हैं, पर उनमें रहनेवाला कभी मरता नहीं। जैसे शरीर बाल्यावस्थाको छोड़कर युवावस्थाको और युवावस्थाको छोड़कर वृद्धावस्थाको धारण कर लेता है, ऐसे ही शरीरमें रहनेवाला एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरको धारण कर लेता है। मनुष्य जैसे पुराने वस्त्रोंको छोड़कर नये वस्त्रोंको पहन लेता है, ऐसे ही शरीरमें रहनेवाला शरीररूपी एक चोलेको छोड़कर दूसरा चोला पहन लेता है। जितनी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं, वे पहले नहीं थीं और पीछे भी नहीं रहेंगी तथा बीचमें भी उनसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है। तात्पर्य है कि वे परिस्थितियाँ आने-जानेवाली हैं, सदा रहनेवाली नहीं हैं। इस प्रकार स्पष्ट विवेक हो जाय तो हलचल, शोक-चिन्ता नहीं रह सकती। शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार जो कर्तव्य-कर्म प्राप्त हो जाय, उसका पालन कार्यकी पूर्ति-अपूर्ति और फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम (निर्विकार) रहकर किया जाय तो भी हलचल नहीं रह सकती।