- ‘संजय ने कहा’ : (2.1)
- -(2.2)
- -(2.3)
- -(2.4)
- ‘मेरे लिये इस संसार में भिक्षान्न पर जीवित रह कर मेरे सम्माननीय बड़ों की हत्या से बचना श्रेष्ठतर होता; जो लोग अपने उद्देश्यों की पूर्ति में लगे हुए हैं उन्हें मारकर मैं रुधिर से सने हुए सुखों का भोग कैसे कर सकता हूँ।’ (2.5)
- – (2.6)
- ‘मेरा मूल स्वभाव दुर्बलहृदयता के दोष से आच्छादित हो गया है और मैं अपने धर्म व कर्तव्य को लेकर भ्रमित हूँ; इसलिये मैं आपसे पूछता हूँ कि मुझे निश्चयपूर्वक बताएँ मेरे लिये क्या लाभप्रद होगा। मैं आपका शिष्य हूँ; मुझे शिक्षा दीजिये, मैं आपकी शरण में हूँ।’ (2.7)
- ‘मैं पृथ्वी पर किसी प्रकार का समृद्ध राज्य, या स्वर्ग के निवासियों पर कोई आधिपत्य नहीं जानता जो उस शोक को हटा सके जिसने मेरी इन्द्रियों को सुखा दिया है’। (2.8)
- ‘संजय ने कहा’ : ‘श्रीकृष्ण को यह कह कर, अर्जुन ने कहा, मैं युद्ध नहीं करूँगा। और वह रथ में चुप बैठा रहा।’ (2.9)
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- ‘उसे जानो जो अखिल जगत् में अविनाशी रूप में व्याप्त है; उस अव्यय सत्य को कोई नष्ट नहीं कर सकता’। (2.17)
- ‘जो अनन्त रूप से शरीरधारी है, जो कि अविनाशी और अनवधार्य है, ऐसा कहा जाता है; उसके इन शरीरों का अन्त होता है, अतः हे अर्जुन, लड़ो’। (2.18)
- ‘जो इस आत्मा को वध करने वाला समझता है, और जो इस आत्मा को मरा हुआ समझता है, वे दोनो नहीं जानते कि न तो आत्मा मार सकती है और न मरती है’। (2.19)
- ‘यह ‘आत्मा’ कभी पैदा नहीं होती और न यह कभी मरती है; यह कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो जन्म लेकर पुनः अस्तित्व विहीन हो जाती है; यह अजन्मा, शाश्वत और चिरस्थायी है, जब शरीर मारा जाता है, तब यह पुरातन नहीं मारा जाता’। (2.20)
- ‘इसे अनाशवान्, नित्य, अजन्मा और अक्षय के रूप में जानो; हे अर्जुन, कैसे कोई व्यक्ति (जो इस सत्य को जानता हो), किसी को मारने का कारण हो सकता है, और किसे वह मार सकता है’? (2.21)
- ‘जैसे कि शरीरधारी व्यक्ति फटे हुए वस्त्र फेंक देता है और नये वस्त्र धारण कर लेता है, इसी प्रकार शरीरधारी जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग देता है और दूसरे नये शरीर को धारण करता है’। (2.22)
- ‘कोई शस्त्र इस आत्मा को नहीं काट सकता, कोई अग्नि इसे जला नहीं सकती, कोई जल इसे गीला नहीं कर सकता और कोई हवा इसे सुखा नहीं सकती’। (2.23)
- ‘इस ‘आत्मा’ को काटा नहीं जा सकता, न इसे जलाया जा सकता है, न भिगोया और न सुखाया जा सकता है। परिवर्तन रहित, सर्व-व्यापी, अचल, स्थिर, यह ‘आत्मा’ नित्य है’। (2.24)
- ‘आत्मा अव्यक्त कही जाती है, चिन्तन से परे, परिवर्तन से परे; इसे इस प्रकार का जान कर, तुम्हारे लिये शोक करना उचित नहीं है’। (2.25)
- ‘फिर भी, यदि तुम सोचते हो कि इस स्व का निरंतर जन्म और निरंतर मृत्यु होती रहती है, तब भी, हे बलिष्ठ भुजावाले, तुम्हारे लिये शोक करना उचित नहीं’। (2.26)
- ‘जो भी पैदा हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है; मरने वाले के लिये जन्म भी निश्चित है; अतः इस अपरिहार्य सत्य के कारण तुम्हारे लिये यह शोक करना उपयुक्त नहीं है’। (2.27)
- ‘प्राणी अदृश्य से आते हैं, बीच में वे दृश्य हो जाते हैं, और अदृश्य में ही वे लौट भी जाते हैं; इसमें चिन्ता की क्या बात है’? (2.28)
- ‘कुछ इस (सत्य) को एक आश्चर्य के रूप में देखते हैं; कुछ अन्य इसी प्रकार आश्चर्य से इसके बारे में बोलते हैं; कुछ और इसे आश्चर्य से सुनते है; कुछ अन्य इसके बारे में सुनकर भी इसे बिल्कुल भी नहीं समझते’। (2.29)
- ‘वह, जिसे सभी शरीर बद्ध करते हैं, वह मारे जाने से नित्य मुक्त है; इसलिये, तुम्हें (अर्जुन को) सभी प्राणियों के लिये शोक करना उचित नहीं’। (2.30)
- ‘तुम्हारे स्वयं के धर्म के दृष्टिकोण से, तुम्हारे लिये विचलित होना उचित नहीं है; एक क्षत्रिय के लिये केवल एक युद्ध से अधिक शुभ कुछ भी नहीं है’। (2.31)
- ‘जब उसे इस प्रकार का युद्ध मिलता है तब ‘ क्षत्रिय प्रसन्न होता है जो युद्ध बिना तलाश किये हुए आता है और जो (नायक के लिये) स्वर्ग के द्वार खोल देता है’। (2.32)
- ‘यदि यह धर्म-युद्ध तुम नहीं लड़ते हो तो अपने धर्म और कीर्ति से विमुख होकर, तुम पाप के भागीदार बनोगे’। (2.33)
- ‘लोग तुम्हारी अपकीर्ति के बारे में बहुत दिनों तक चर्चा करेंगे; और एक सम्माननीय व्यक्ति के लिये, अपकीर्ति मृत्यु से भी बढ़कर है’। (2.34)
- ‘महान् योद्धा समझेंगे कि तुम युद्ध से डर कर भाग गये हो’; येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्, ‘वे जिन्होंने तुम्हें अब तक सम्मान दिया, अब तुम्हें तुच्छ समझेंगे या तुम्हारा अनादर करेंगे’। (2.35)
- ‘तुम्हारे शत्रु तुम्हारे विरुद्ध सभी प्रकार के शब्द बोलेंगे जो बोलने योग्य नहीं हैं; वे तुम्हारी क्षमताओं और प्रतिभाओं का उपहास करेंगे’। (2.36)
- – (2.37)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘सुख और दुःख, लाभ और हानि, विजय और पराजय को, एक मानकर, युद्ध में भाग लो। इस प्रकार तुम कोई पाप नहीं करोगे।’ (2.38)
- ‘आत्म-बोध का ज्ञान तुम्हें बताया गया है। अब तुम योग का ज्ञान सुनो, जिसे प्राप्त करके, हे पृथापुत्र, तुम कर्म के बन्धनों को तोड़ सकोगे’। (2.39)
- ‘इसमें, अधूरा प्रयास व्यर्थ नहीं जाता, न ही यह विपरीत परिणाम देने वाला है। इस धर्म का थोड़ा सा पालन भी महान् भय से मुक्ति देने वाला होता है’। (2.40)
- ‘हे कुरु के वंशज, इस क्रम में केवल एक ही बुद्धि है जिसका एक ही दिशा में लक्ष्य होता है। लक्ष्यविहीनों के उद्देश्य अनेक और बहुत सी शाखाओं वाले होते है’। (2.41)
- ‘हे अर्जुन, वे मूर्ख हैं जो पुष्पित, अर्थात् अलंकृत दिखाऊ। बातें बोलते हैं। वे वेदों के अक्षरों का आनन्द उठाकर तर्क करते हैं कि इसके अतिरिक्त्त कुछ और है ही नहीं’। (2.42)
- ‘वे वासनाओं से भरे हुए हैं, स्वर्ग को सर्वोच्च समझते हैं, जो कि पुनर्जन्म और कर्म के फल प्रदान करता है, और वे उन विशेष कर्म-काण्डों से भरे हुए हैं जो सुख और शक्ति प्रदान करते हैं’। (2.43)
- ‘वे जो कि सुख प्राप्ति और शक्ति के प्रति आसक्त्त हैं, जिनका मन इनका दास बन चुका है, उनके लिए कोई संभावना नहीं है कि वे अपनी बुद्धि का विकास कर पाएँ अथवा ऐसा संकल्प कर सकें जो समाधि की उपलब्धि कर सके’। (2.44)
- ‘वेद तीनों गुणों पर विचार करता है। हे अर्जुन तुम गुणों की तिकड़ी से, परस्पर विरोधी युग्मों से स्वतंत्र हो जाओ, सदैव संतुलित, प्राप्ति और संचय के विचार से मुक्त, और अपने ‘स्व’ में स्थित’। (2.45)
- ‘उस आध्यात्मिक व्यक्ति के लिये, जिसने ‘स्व’ को जान लिया है, सभी वेद उतने ही उपयोगी हैं जितना कि सब तरफ बाढ़ आने पर किसी तालाब का उपयोग’। (2.46)
- ‘तुम्हारा अधिकार केवल कर्म पर है; लेकिन उसके फलों पर कभी नहीं। कर्म के फलों से, तुम कभी प्रेरित न रहो, न ही तुम कर्म न करने के प्रति आसक्ति रखो (2.47)
- ‘योग में स्थित होकर, हे अर्जुन, आसक्ति छोड़कर, सफलता या विफलता के प्रति तटस्थ होकर कार्यों को करो। मन की यह स्थिरता योग जानी जाती है’। (2.48)
- ‘(कामना के साथ) कार्य निश्चित ही अत्यन्त हीन है उसकी अपेक्षा जो मन को बुद्धि-योग में रख कर किया जाता है। हे धनञ्जय, इस बुद्धि की शरण में जाओ, मन के समत्व में, दुखी हैं वे जो (स्वार्थी) परिणामों के लिये कार्य करते है’। (2.49)
- ‘बुद्धि के इस समत्व को प्राप्त करके, व्यक्ति इसी जीवन में अच्छाई और बुराई को एक मानते हुए; मुक्त हो जाता है, अतः स्वयं को इस योग से जोड़ो। योग, कार्य में दक्षता का नाम है’। (2.50)
- ‘इस प्रकार से मन के समत्व को प्राप्त करके, बुद्धिमान व्यक्ति, अपने कर्मो के समस्त फलों का त्याग करके, सदा के लिए जन्म के बन्धनों से मुक्त होकर उस स्थिति को प्राप्त करते हैं जो सभी दोषों से परे है। (2.51)
- ‘जब तुम्हारी सोच माया के दूषण को पार कर लेती है, तब तुम्हें सुनी हुई और अब सुनी जाने वाली बातों के बारे में उदासीनता का भाव प्राप्त होगा’। (2.52)
- ‘तुम्हारी सोच बुद्धि, जो मतों के द्वन्द्व द्वारा इधर से उधर उछलती रहती है, जब वह ‘स्व’ में स्थिर और पूर्ण स्थित हो जाती है, तब तुम्हें आत्मबोध होगा’। (2.53)
- ‘अर्जुन ने कहा’ : ‘हे केशव, उस व्यक्ति का क्या विवरण है जो स्थित प्रज्ञ है, समाधि में विलीन? स्थित प्रज्ञ पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है, कैसे चलता है?’ (2.54)
- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘हे पार्थ, जब कोई पूर्णतः, मन की समस्त कामनाएँ छोड़ देता है, और स्व से स्व में ही संतुष्ट हो जाता है, तब वह स्थिर बुद्धि युक्त कहा जाता है’। (2.55)
- ‘वह, जिसका मन विपरीत परिस्थिति में भी विचलित नहीं होता है, जो सुख के पीछे नहीं दौड़ता है जो अन्धे राग, भय और क्रोध से मुक्त है, यथार्थ में स्थिरबुद्धि युक्त मुनि या ऋषि है। (2.56)
- ‘वह जो प्रत्येक स्थान पर अनासक्त्त है, न शुभ की प्राप्ति पर प्रसन्न होता है, न अशुभ में दुखी होता है, उसकी बुद्धि स्थिर है’। (2.57)
- ‘तब भी, जब जैसे कछुआ अपने हाथ पैर समेट लेता है, यदि कोई अपनी इन्द्रियों को पूर्णतः इन्द्रियों के विषयों से हटा लेता है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है’। (2.58)
- ‘संयमी व्यक्ति से इन्द्रियों के विषय छूट जाते हैं, किन्तु लालसाएँ पीछे रह जाती हैं। लेकिन वह लालसा भी छूट जाती है, जब कोई सर्वोच्च को जान लेता है’। (2.59)
- ‘हे कुन्तिपुत्र, अशान्त, उपद्रवी इन्द्रियाँ पूर्णता के लिए प्रयत्नशील एक बुद्धिमान व्यक्ति का भी मन बलपूर्वक हर लेती हैं। (2.60)
- ‘संयमी व्यक्ति, उन सब को नियंत्रण में करके, सर्वोच्च के रूप में मुझ पर ध्यान लगाते हुए बैठता है; जिसकी इन्द्रियाँ नियंत्रण में हैं’ उसकी बुद्धि स्थिर है,। (2.61)
- ‘इन्द्रिय विषयों के चिन्तन से, उनके प्रति (मनुष्य में) आसक्ति हो जाती है; आसक्ति से उन्हें प्राप्त करने की इच्छा जागृत होती है; और इच्छा जागृत होने पर क्रोध उत्पन्न होता है’। (2.62)
- ‘क्रोध से बुद्धि-भ्रम होता है, बुद्धि-भ्रम से स्मृति भंग हो जाती है। स्मृति भंग होने से विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है और विवेक नष्ट होने से, व्यक्ति नष्ट हो जाता है’। (2.63)
- ‘किन्तु, इन्द्रिय विषयों के बीच रहता हुआ, अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हुए, और आकर्षण-विकर्षणों से मुक्त होकर आत्म नियंत्रित व्यक्ति शान्ति को प्राप्त होता है’। (2.64)
- ‘प्रशान्ति में सभी दुख नष्ट हो जाते हैं। जो प्रशान्त मन का व्यक्ति है उसकी बुद्धि शीघ्र ही निश्चलता को प्राप्त हो जाती है’। (2.65)
- ‘अस्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति को ‘स्व’ का कोई ज्ञान नहीं हो सकता। न ही वह ध्यान कर सकता है; ध्यान न करने वाले को कोई शान्ति नहीं हो सकती, और जिसे शान्ति नहीं है वह कैसे सुखी हो सकता है। (2.66)
- ‘क्योंकि वह मन, जो भटकती हुई इन्द्रियों के पीछे-पीछे दौड़ता फिरता है, वह उसका विवेक हर लेता है, जैसे कि पवन समुद्र में जलयान को अपनी दिशा से भटका देती है’। (2.67)
- ‘इसलिये, हे शक्तिशाली भुजाओं वाले, उसका ज्ञान स्थिर है, जिसकी इन्द्रियाँ विषयों के प्रति नियंत्रित हैं’। (2.68)
- ‘जो सभी प्राणियों के लिये रात्रि है, उसमें आत्मसंयमी जाग्रत रहता है। उसमें, जिसमें सभी प्राणी जाग्रत रहते हैं, वह आत्म-द्रष्टा मुनि के लिये रात्रि है’। (2.69)
- ‘जैसे समुद्र में, जो कि पूर्ण व स्थिर है, (अनेक नदियों की बाढ़ का) जल (बिना समुद्र को आन्दोलित किये) बहता है उसी प्रकार मुनि है, जिसमें सभी इच्छाएँ प्रवेश करती हैं; फिर भी वह शान्त रहता है या रहती है, न कि इच्छाओं की कामना करने वाला’। (2.70)
- ‘वह व्यक्ति जो ऐन्द्रिक लालसाओं और इच्छाओं के बिना रहता है, ‘मैं’ और ‘मेरे’ के भाव के बिना, वह शान्ति प्राप्त करता या करती है’। (2.71)
- ‘यह ( स्थितप्रज्ञ स्थिति) ब्रह्म में स्थिति से होती है, ब्राह्मी स्थितिः, हे पृथापुत्र कोई भी, इसे प्राप्त करके भ्रमित नहीं होता। अपने जीवनकाल के अन्त में भी, इसमें स्थित होकर, वह ब्रह्म से एकाकार हो जाता है’। (2.72)