मोहके कारण ही मनुष्य ‘मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ’ इस दुविधामें फँसकर कर्तव्यच्युत हो जाता है। अगर वह मोहके वशीभूत न हो तो वह कर्तव्यच्युत नहीं हो सकता।
भगवान्, धर्म, परलोक आदिपर श्रद्धा रखनेवाले मनुष्योंके भीतर प्रायः इन बातोंको लेकर हलचल, दुविधा रहती है कि अगर हम कर्तव्यरूपसे प्राप्त कर्मको नहीं करेंगे तो हमारा पतन हो जायगा; अगर हम केवल सांसारिक कार्यमें ही लग जायँगे तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी; व्यवहारमें लगनेसे परमार्थ ठीक नहीं होगा और परमार्थमें लगनेसे व्यवहार ठीक नहीं होगा; अगर हम कुटुम्बको छोड़ देंगे तो हमें पाप लगेगा और अगर कुटुम्बमें ही बैठे रहेंगे तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी; आदि-आदि। तात्पर्य है कि अपना कल्याण तो चाहते हैं, पर मोह, सुखासक्तिके कारण संसार छूटता नहीं। इसी तरहकी हलचल अर्जुनके मनमें भी होती है कि अगर मैं युद्ध करूँगा तो कुलका नाश होनेसे मेरे कल्याणमें बाधा लगेगी और अगर मैं युद्ध नहीं करूँगा तो कर्तव्यच्युत होनेसे मेरे कल्याणमें बाधा लगेगी।