Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।18.9।। व्याख्या — कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन — यहाँ कार्यम् पदके साथ इति और एव ये दो अव्यय लगानेसे यह अर्थ निकलता है कि केवल कर्तव्यमात्र करना है। इसको करनेमें कोई फलासक्ति नहीं? कोई स्वार्थ नहीं और कोई क्रियाजन्य सुखभोग भी नहीं। इस प्रकार कर्तव्यमात्र करनेसे कर्ताका उस कर्मसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। ऐसा होनेसे वह कर्म बन्धनकारक नहीं होता अर्थात् संसारके साथ सम्बन्ध नहीं जुड़ता। कर्म तथा उसके फलमें आसक्त होनेसे ही बन्धन होता है — फले सक्तो निबध्यते (गीता 5। 12)।
शास्त्रविहित कर्मोंमें भी देश? काल? वर्ण? आश्रम? परिस्थितिके अनुसार जिसजिस कर्ममें जिसजिसकी नियुक्ति की जाती है? वे सब नियत कर्म कहलाते हैं जैसे — साधुको ऐसा करना चाहिये? गृहस्थको ऐसा करना चाहिये? ब्राह्मणको अमुक काम करना चाहिये? क्षत्रियको अमुक काम करना चाहिये इत्यादि। उन कर्मोंको प्रमाद? आलस्य? उपेक्षा? उदासीनता आदि दोषोंसे रहित होकर तत्परता और उत्साहपूर्वक करना चाहिये। इसीलिये भगवान् कर्मयोगके प्रसङ्गमें जगहजगह समाचर शब्द दिया है (गीता 3। 9? 19)।सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव — सङ्गके त्यागका तात्पर्य है कि कर्म? कर्म करनेके औजार (साधन) आदिमें आसक्ति? प्रियता? ममता आदि न हो और फलके त्यागका तात्पर्य है कि कर्मके परिणामके साथ सम्बन्ध न हो अर्थात् फलकी इच्छा न हो। इन दोनोंका तात्पर्य है कि कर्म और फलमें आसक्ति तथा इच्छाका त्याग हो।
स त्यागः सात्त्विको मतः (टिप्पणी प0 877) — कर्म और फलमें आसक्ति तथा कामनाका त्याग करके कर्तव्यमात्र समझकर कर्म करनेसे वह त्याग सात्त्विक हो जाता है। राजस त्यागमें कायक्लेशके भयसे और,तामस त्यागमें मोहपूर्वक कर्मोंका स्वरुपसे त्याग किया जाता है परन्तु सात्त्विक त्यागमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग नहीं किया जाता? प्रत्युत कर्मोंको सावधानी एवं तत्परतासे? विधिपूर्वक? निष्कामभावसे किया जाता है। सात्त्विक त्यागसे कर्म और कर्मफलरूप शरीरसंसारसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। राजस और तामस त्यागमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेसे केवल बाहरसे कर्मोंसे सम्बन्धविच्छेद दीखता है परन्तु वास्तवमें (भीतरसे) सम्बन्धविच्छेद नहीं होता। इसका कारण यह है कि शरीरके कष्टके भयसे कर्मोंका त्याग करनेसे कर्म तो छूट जाते हैं? पर अपने सुख और आरामके साथ सम्बन्ध जुड़ा ही रहता है। ऐसे ही मोहपूर्वक कर्मोंका त्याग करनेसे कर्म तो छूट जाते हैं? पर मोहके साथ सम्बन्ध जुड़ा रहता है। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेपर बन्धन होता है और कर्मोंको तत्परतासे विधिपूर्वक करनेपर मुक्ति (सम्बन्धविच्छेद) होती है।
सम्बन्ध — छठे श्लोकमें एतानि और अपि तु पदोंसे कहे गये यज्ञ? दान? तप आदि शास्त्रविहित कर्मोंके करनेमें और शास्त्रनिषिद्ध तथा काम्य कर्मोंका त्याग करनेमें क्या भाव होना चाहिये यह आगेके श्लोकमें बताते हैं।