Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।18.56।। व्याख्या — मद्व्यपाश्रयः — कर्मोंका? कर्मोंके फलका? कर्मोंके पूरा होने अथवा न होनेका? किसी घटना? परिस्थिति? वस्तु? व्यक्ति आदिका आश्रय न हो। केवल मेरा ही आश्रय (सहारा) हो। इस तरह जो सर्वथा मेरे ही परायण हो जाता है? अपना स्वतन्त्र कुछ नहीं समझता? किसी भी वस्तुको अपनी नहीं मानता? सर्वथा मेरे आश्रित रहता है? ऐसे भक्तको अपने उद्धारके लिये कुछ करना नहीं पड़ता। उसका उद्धार मैं कर देता हूँ (गीता 12। 7) उसको अपने जीवननिर्वाह या साधनसम्बन्धी किसी बातकी कमी नहीं रहती सबकी मैं पूर्ति कर देता हूँ (गीता 9। 22) — यह मेरा सदाका एक विधान है? नियम है? जो कि सर्वथा शरण हो जानेवाले हरेक प्राणीको प्राप्त हो सकता है (गीता 9। 30 — 32)।सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणः — यहाँ कर्माणि पदके साथ सर्व और कुर्वाणः पदके साथ सदा पद देनेका तात्पर्य है कि जिस ध्यानपरायण सांख्ययोगीने शरीर? वाणी और मनका संयमन कर लिया है अर्थात् जिसने शरीर आदिकी क्रियाओंको संकुचित कर लिया है और एकान्तमें रहकर सदा ध्यानयोगमें लगा रहता है? उसको जिस पदकी प्राप्ति होती है? उसी पदको लौकिक? पारलौकिक? सामाजिक? शारीरिक आदि सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंको हमेशा करते हुए भी मेरा आश्रय लेनेवाला भक्त मेरी कृपासे प्राप्त कर लेता है।हरेक व्यक्तिको यह बात तो समझमें आ जाती है कि जो एकान्तमें रहता है और साधनभजन करता है? उसका कल्याण हो जाता है परन्तु यह बात समझमें नहीं आती कि जो सदा मशीनकी तरह संसारका सब काम करता है? उसका कल्याण कैसे होगा उसका कल्याण हो जाय? ऐसी कोई युक्ति नहीं दीखती क्योंकि ऐसे तो सब लोग कर्म करते ही रहते हैं। इतना ही नहीं? मात्र जीव कर्म करते ही रहते हैं? पर उन सबका कल्याण होता हुआ दीखता नहीं और शास्त्र भी ऐसा कहता नहीं इसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं — मत्प्रसादात्। तात्पर्य यह है कि जिसने केवल मेरा ही आश्रय ले लिया है? उसका कल्याण मेरी कृपासे हो जायगा? कौन है मना करनेवालायद्यपि प्राणिमात्रपर भगवान्का अपनापन और कृपा सदासर्वदा स्वतःसिद्ध है? तथापि यह मनुष्य जबतक असत् संसारका आश्रय लेकर भगवान्से विमुख रहता है? तबतक भगवत्कृपा उसके लिये फलीभूत नहीं होती अर्थात् उसके काममें नहीं आती। परन्तु यह मनुष्य भगवान्का आश्रय लेकर ज्योंज्यों दूसरा आश्रय छोड़ता जाता है? त्योंहीत्यों भगवान्का आश्रय दृढ़ होता चला जाता है? और ज्योंज्यों भगवान्का आश्रय दृढ़ होता जाता है? त्योंहीत्यों भगवत्कृपाका अनुभव होता जाता है। जब सर्वथा भगवान्का आश्रय ले लेता है? तब उसे भगवान्की कृपाका पूर्ण अनुभव हो जाता है।
अवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् — स्वतःसिद्ध परमपदकी प्राप्ति अपने कर्मोंसे? अपने पुरुषार्थसे अथवा अपने साधनसे नहीं होती। यह तो केवल भगवत्कृपासे ही होती है। शाश्वत अव्ययपद सर्वोत्कृष्ट है। उसी परमपदको भक्तिमार्गमें परमधाम? सत्यलोक? वैकुण्ठलोक? गोलोक? साकेतलोक आदि कहते हैं और ज्ञानमार्गमें विदेहकैवल्य? मुक्ति? स्वरूपस्थिति आदि कहते हैं। वह परमपद तत्त्वसे एक होते हुए भी मार्गों और उपासनाओंका भेद होनेसे उपासकोंकी दृष्टिसे भिन्नभिन्न कहा जाता है (गीता 8। 21 14। 27)। भगवान्का चिन्मय लोक एक देशविशेषमें होते हुए भी सब जगह व्यापकरूपसे परिपूर्ण है। जहाँ भगवान् हैं? वहीं उनका लोक भी है क्योंकि भगवान् और उनका लोक तत्त्वसे एक ही हैं। भगवान् सर्वत्र विराजमान हैं अतः उनका लोक भी सर्वत्र विराजमान (सर्वव्यापी) है। जब भक्तकी अनन्य निष्ठा सिद्ध हो जाती है? तब परिच्छिन्नताका अत्यन्त अभाव हो जाता है और वही लोक उसके सामने प्रकट हो जाता है अर्थात् उसे यहाँ जीतेजी ही उस लोककी दिव्य लीलाओंका अनुभव होने लगता है। परन्तु जिस भक्तकी ऐसी धारणा रहती है कि वह दिव्य लोक एक देशविशेषमें ही है? तो उसे उस लोककी प्राप्ति शरीर छोड़नेपर ही होती है। उसे लेनेके लिये भगवान्के पार्षद आते हैं और कहींकहीं स्वयं भगवान् भी आते हैं।
सम्बन्ध — पूर्वश्लोकमें अपना सामान्य विधान (नियम) बताकर अब भगवान् आगेके श्लोकमें अर्जुनके लिये विशेषरूपसे आज्ञा देते हैं।