Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।18.33।। व्याख्या — धृत्या यया धारयते ৷৷. योगेनाव्यभिचारिण्या — सांसारिक लाभहानि? जयपराजय? सुखदुःख? आदरनिरादर? सिद्धिअसिद्धिमें सम रहनेका नाम योग (समता) है।परमात्माको चाहनेके साथसाथ इस लोकमें सिद्धि? असिद्धि? वस्तु? पदार्थ? सत्कार? पूजा आदि और परलोकमें सुखभोगको चाहना व्यभिचार है और इस लोक तथा परलोकके सुख? भोग? वस्तु? पदार्थ आदिकी किञ्चिन्मात्र भी इच्छा न रखकर केवल परमात्माको चाहना अव्यभिचार है। यह अव्यभिचार जिसमें होता है? वह धृति अव्यभिचारिणी कहलाती है।अपनी मान्यता? सिद्धान्त? लक्ष्य? भाव? क्रिया? वृत्ति? विचार आदिको दृढ़? अटल रखनेकी शक्तिका नाम धृति है। योग अर्थात् समतासे युक्त इस अव्यभिचारिणी धृतिके द्वारा मनुष्य मन? प्राण और इन्द्रियोंकी क्रियाओँको धारण करता है।मनमें रागद्वेषको लेकर होनेवाले चिन्तनसे रहित होना? मनको जहाँ लगाना चाहें? वहाँ लग जाना और जहाँसे हटाना चाहें? वहाँसे हट जाना आदि मनकी क्रियाओंको धृतिके द्वारा धारण करना है।प्राणायाम करते हुए रेचकमें पूरक न होना? पूरकमें रेचक न होना और बाह्य कुम्भकमें पूरक न होना तथा आभ्यन्तर कुम्भकमें रेचक न होना अर्थात् प्राणायामके नियमसे विरुद्ध श्वासप्रश्वासोंका न होना ही धृतिके द्वारा प्राणोंकी क्रियाओँको धारण करना है।शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गन्ध — इन विषयोंको लेकर इन्द्रियोंका उच्छृङ्खल न होना? जिस विषयमें जैसे प्रवृत्त होना चाहें? उसमें प्रवृत्त होना और जिस विषयसे निवृत्त होना चाहें? उसमें निवृत्त होना ही धृतिके द्वारा इन्द्रियोंकी क्रियाओंको धारण करना है।धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी — जिस धृतिसे मन? प्राण और इन्द्रियोंकी क्रियाओँपर आधिपत्य हो जाता है? हे पार्थ वह धृति सात्त्विकी है।
सम्बन्ध — अब राजसी धृतिके लक्षण बताते हैं।