Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।18.10।। व्याख्या — न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म — जो शास्त्रविहित शुभकर्म फलकी कामनासे किये जाते हैं और परिणाममें जिनसे पुनर्जन्म होता है (गीता 2। 42 — 44 9। 20 — 21) तथा जो शास्त्रनिषिद्ध पापकर्म हैं और परिणाममें जिनसे नीच योनियों तथा नरकोंमें जाना पड़ता है (गीता 16। 7 — 20)? वे सबकेसब कर्म अकुशल कहलाते हैं। साधक ऐसे अकुशल कर्मोंका त्याग तो करता है? पर द्वेषपूर्वक नहीं। कारण कि द्वेषपूर्वक त्याग करनेसे कर्मोंसे तो सम्बन्ध छूट जाता है? पर द्वेषके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है? जो शास्त्रविहित काम्यकर्मोंसे तथा शास्त्रनिषिद्ध पापकर्मोंसे भी भयंकर है।कुशले नानुषज्जते — शास्त्रविहित कर्मोंमें भी जो वर्ण? आश्रम? परिस्थिति आदिके अनुसार नियत हैं और जो आसक्ति तथा फलेच्छाका त्याग करके किये जाते हैं तथा परिणाममें जिनसे मुक्ति होती है? ऐसे सभी कर्म कुशल कहलाते हैं। साधक ऐसे कुशल कर्मोंको करते हुए भी उनमें आसक्त नहीं होता।
त्यागी — कुशल कर्मोंके करनेमें जिसका राग नहीं होता और अकुशल कर्मोंके त्यागमें जिसका द्वेष नहीं होता? वही असली त्यागी है (टिप्पणी प0 878)। परन्तु वह त्याग पूर्णतया तब सिद्ध होता है? जब कर्मोंको करने अथवा न करनेसे अपनेमें कोई फरक न पड़े अर्थात् निरन्तर निर्लिप्तता बनी रहे (गीता 3। 18 4। 18)। ऐसा होनेपर साधक योगारूढ़ हो जाता है (गीता 6। 4)।
मेधावी — जिसके सम्पूर्ण कार्य साङ्गोपाङ्ग होते हैं और संकल्प तथा कामनासे रहित होते हैं तथा ज्ञानरूप अग्निसे जिसने सम्पूर्ण कर्मोंको भस्म कर दिया है? उसे पण्डित भी पण्डित (मेधावी अथवा बुद्धिमान्) कहते हैं (गीता 4। 19)। कारण कि कर्मोंको करते हुए भी कर्मोंसे लिपायमान न होना बड़ी बुद्धिमत्ता है।इसी मेधावीको चौथे अध्यायके अठारहवें श्लोकमें स बुद्धिमान्मनुष्येषु पदोंसे सम्पूर्ण मनुष्योंमें बुद्धिमान् बताया गया है।छिन्नसंशयः — उस त्यागी पुरुषमें कोई सन्देह नहीं रहता। तत्त्वमें अभिन्नभावसे स्थित रहनेके कारण उसमें किसी तरहका संदेह रहनेकी सम्भावना ही नहीं रहती। सन्देह तो वहीं रहता है? जहाँ अधूरा ज्ञान होता है अर्थात् कुछ जानते हैं और कुछ नहीं जानते।सत्त्वसमाविष्टः — आसक्ति आदिका त्याग होनेसे उसकी अपने स्वरूपमें? चिन्मयतामें स्वतः स्थिति हो जाती है। इसलिये उसे सत्त्वसमाविष्टः कहा गया है। इसीको पाँचवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें तस्माद्ब्रह्मणि ते,स्थिताः पदोंसे परमात्मामें स्थित बताया गया है।
सम्बन्ध — कर्मोंको करनेमें राग न हो और छोड़नेमें द्वेष न हो — इतनी झंझट क्यों की जाय कर्मोंका सर्वथा ही त्याग क्यों न कर दिया जाय — इस शङ्काको दूर करनेके लिये आगेका श्लोक कहते हैं।