Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।16.13।। व्याख्या — इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् — आसुरी प्रकृतिवाले व्यक्ति लोभके परायण होकर मनोरथ करते रहते हैं कि हमने अपने उद्योगसे? बुद्धिमानीसे? चतुराईसे? होशियारीसे? चालाकीसे इतनी वस्तुएँ तो आज प्राप्त कर लीं? इतनी और प्राप्त कर लेंगे। इतनी वस्तुएँ तो हमारे पास हैं? इतनी और वहाँसे आ जायँगी। इतना धन व्यापारसे आ जायगा। हमारा बड़ा लड़का इतना पढ़ा हुआ है अतः इतना धन और वस्तुएँ तो उसके विवाहमें आ ही जायँगी। इतना धन टैक्सकी चोरीसे बच जायगा? इतना जमीनसे आ जायगा? इतना मकानोंके किरायेसे आ जायगा? इतना ब्याजका आ जायगा? आदिआदि।इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् — जैसेजैसे उनका लोभ बढ़ता जाता है? वैसेहीवैसे उनके मनोरथ भी बढ़ते जाते हैं। जब उनका चिन्तन बढ़ जाता है? तब वे चलतेफिरते हुए? कामधंधा करते हुए? भोजन करते हुए? मलमूत्रका त्याग करते हुए और यदि नित्यकर्म (पाठपूजाजप आदि) करते हैं तो उसे करते हुए भी धन कैसे बढ़े इसका चिन्तन करते रहते हैं। इतनी दूकानें? मिल? कारखाने तो हमने खोल दिये हैं? इतने और खुल जायँ। इतनी गायेंभैंसे? भेड़बकरियाँ आदि तो हैं ही? इतनी और हो जायँ। इतनी जमीन तो हमारे पास है? पर यह बहुत थोड़ी है? किसी तरहसे और मिल जाय तो बहुत अच्छा हो जायगा। इस प्रकार धन आदि बढ़ानेके विषयमें उनके मनोरथ होते हैं। जब उनकी दृष्टि अपने शरीर तथा परिवारपर जाती है? तब वे उस विषयमें मनोरथ करने लग जाते हैं कि अमुकअमुक दवाएँ सेवन करनेसे शरीर ठीक रहेगा। अमुकअमुक चीजें इकट्ठी कर ली जायँ? तो हम सुख और आरामसे रहेंगे। एयरकण्डीशनवाली गा़ड़ी मँगवा लें? जिससे बाहरकी गरमी न लगे। ऊनके ऐसे वस्त्र मँगवा लें? जिससे सरदी न लगे। ऐसा बरसाती कोट या छाता मँगवा लें? जिससे वर्षासे शरीर गीला न हो। ऐसेऐसे गहनेकपड़े और श्रृंगार आदिकी सामग्री मँगवा लें? जिससे हम खूब सुन्दर दिखायी दें? आदिआदि।ऐसे मनोरथ करतेकरते उनको यह याद नहीं रहता कि हम बूढ़े हो जायँगे तो इस सामग्रीका क्या करेंगे और मरते समय यह सामग्री हमारे क्या काम आयेगी अन्तमें इस सम्पत्तिका मालिक कौन होगा बेटा तो कपूत है अतः वह सब नष्ट कर देगा। मरते समय यह धनसम्पत्ति खुदको दुःख देगी। इस सामग्रीके लोभके कारण ही मुझे बेटाबेटीसे डरना पड़ता है? और नौकरोंसे डरना पड़ता है कि कहीं ये लोग हड़ताल न कर दें।
प्रश्न — दैवीसम्पत्तिको धारण करके साधन करनेवाले साधकके मनमें भी कभीकभी व्यापार आदिके कार्यको लेकर (इस श्लोककी तरह) इतना काम हो गया? इतना काम करना बाकी है और इतना काम आगे हो जायगा इतना पैसा आ गया है और इतना वहाँपर टैक्स देना है आदि स्फुरणाएँ होती हैं। ऐसी ही स्फुरणाएँ जडताका उद्देश्य रखनेवाले आसुरीसम्पत्तिवालोंके मनमें भी होती हैं? तो इन दोनोंकी वृत्तियोंमें क्या अन्तर हुआ
उत्तर — दोनोंकी वृत्तियाँ एकसी दीखनेपर भी उनमें बड़ा अन्तर है। साधकका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका होता है अतः वह उन वृत्तियोंमें तल्लीन नहीं होता। परन्तु आसुरी प्रकृतिवालोंका उद्देश्य धन इकट्ठा करने और भोग भोगनेका रहता है अतः वे उन वृत्तियोंमें ही तल्लीन होते हैं। तात्पर्य यह है कि दोनोंके उद्देश्य भिन्नभिन्न होनेसे दोनोंमें बड़ा भारी अन्तर है।