- ‘श्रीभगवान् ने कहा’ : ‘निडरता, हृदय की शुद्धि, ज्ञान तथा योग में अवस्थिति, दान देना, इन्द्रियों का नियंत्रण, यज्ञ, शास्त्रों का अध्ययन, तपश्चर्या, सरलता’। (16.1)
- ‘अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शान्ति, निन्दा का अभाव, जीवों के प्रति करुणा, अ-लोलुपता, मृदुता, नम्रता, तथा चपलता का अभाव’। (16.2)
- ‘ऊर्जास्विता, क्षमा, सहनशीलता, शुद्धता, घृणा का अभाव, घमण्ड का अभाव – ये सब दैवी स्थिति के लिये जन्मे व्यक्ति के गुण हैं, हे भरतवंशज’। (16.3)
- ‘आडम्बर, अक्खड़पन, अभिमान, क्रोध, कठोरता तथा अज्ञान, हे पार्थ, उसके गुण हैं जो आसुरी (राक्षसी) स्थिति के लिये जन्मा है।’ (16.4)
- ‘दैवी स्थिति मोक्ष-प्राप्ति के लिये है, राक्षसी स्थिति बन्धन के लिये; हे पाण्डव, (अर्जुन) तुम शोक मत करो, तुम दैवी स्थिति के लिये जन्मे हो’। (16.5)
- ‘इस जगत् में दो प्रकार के जीव हैं, दैवी और आसुरी। दैवी विस्तारपूर्वक वर्णित हैं; हे पार्थ, अब आसुरी गुणों के बारे में मुझसे सुनो’। (16.6)
- ‘आसुरी प्रकृति के लोग नहीं जानते कि क्या किया जाय और किससे बचा जाय; न ही उनमें शुद्धता मिलती है, न सद्व्यवहार, और न ही सत्य’। (16.7)
- ‘वे कहते हैं, “यह जगत् बिना किसी (नैतिक) आधार के तथा असत्य है, ईश्वरविहीन है, कामवासना के कारण स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है और क्या?” (16.8)
- ‘इस प्रकार का दृष्टिकोण रख कर, ये नष्टप्राय मानवात्माएँ जिनकी बुद्धि तुच्छ और कर्म भयानक हैं, जगत् के शत्रु के रूप में उसके विनाश के लिये उठती हैं’। (16.9)
- ‘कभी तृप्त न होने वाली ऐन्द्रिय इच्छाओं से भरे होकर, मिथ्याचारिता, दम्भ व घमण्ड से परिपूर्ण, मोह के कारण दोषपूर्ण विचारों को ग्रहण करते हुए वे भ्रष्ट संकल्पों के साथ कार्य करते हैं’। (16.10)
- ‘केवल मृत्यु के साथ समाप्त होने वाली अत्यधिक चिन्ताओं को पालते हुए, वासनाओं की तृप्ति को सर्वोच्च ध्येय मानते हुए, और इसी को सब कुछ मानने के निश्चय के साथ’; (16.11)
- ‘इच्छाओं की सैंकड़ों ग्रन्थियों से बँध कर, वासना तथा क्रोध के वशीभूत होकर, वे ऐन्द्रिय सुखोपभोग के लिये अनुपयुक्त रीतियों से सम्पत्ति का ढेर लगाना चाहते हैं’। (16.12)
- ‘मैंने आज यह प्राप्त कर लिया; यह इच्छा मैं पूरी करूँगा; यह मेरा है, और फिर, भविष्य में वह संपत्ति भी मेरी होगी’। (16.13)
- ‘वह शत्रु मेरे द्वारा मार दिया गया है, तथा दूसरों को भी मैं मार डालूँगा। मैं स्वामी हूँ, मैं सुख भोगता हूँ, मैं सफल हूँ, मैं शक्तिशाली और प्रसन्न हूँ’। (16.14)
- ‘ “मैं धनाढ्य और अभिजात हूँ। मेरे समकक्ष और कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, मैं दान करूँगा, मैं आनन्द मनाऊँगा”। वे इस प्रकार के अज्ञान से मोहित हैं’। (16.15)
- ‘अनेक प्रकार की कल्पनाओं द्वारा चित्त में भ्रान्त होते हुए, मोहजाल द्वारा आच्छादित होकर, कामवासना की तृप्ति के आदी होकर, वे गन्दे नरक में गिर जाते हैं’। (16.16)
- ‘आत्माभिमान से युक्त होकर, घमण्ड व धन के मद में चूर, वे शास्त्रविधि विहीन रीति से केवल दिखावे के लिये नाममात्र का यज्ञ करते हैं’। (16.17)
- ‘अहंकार, बल, धृष्टता , वासना और क्रोध के वशीभूत होकर ये द्रोही व्यक्ति अपने व दूसरों के शरीर में मुझ (अन्तरात्मा) को घृणा करते हैं’। (16.18)
- ‘इन द्रोही तथा क्रूर अशुभ कर्म करने वालों को, जो कि मानव जाति में सर्वाधिक गिरे हुए लोग हैं, मैं बार बार आसुरी गर्भाशयों में फेंकता हूँ’। (16.19)
- ‘आसुरी गर्भाशयों को प्राप्त करके, तथा जन्मों के बाद जन्मों में मोहित होते हुए, मुझे न प्राप्त करके, हे कुन्तीपुत्र, वे और भी पतितावस्था में गिर जाते हैं’। (16.20)
- ‘ ‘स्व’ का नाश करने वाला नरक का द्वार तीन प्रकारों का है, अर्थात्, वासना, क्रोध तथा लोभ; इसलिये हमें इन तीनों से बचना चाहिये’। (16.21)
- ‘वह जो कि अन्धकार के इन तीन द्वारों से मुक्त हो चुका है, हे कुन्तीपुत्र, स्वयं के प्रति शुभ आचरण करता है, और इस प्रकार परम लक्ष्य पर पहुँचता है’। (16.22)
- ‘वह जो शास्त्र विधि को न मान कर स्वेच्छानुरूप कार्य करता है, पूर्णता को प्राप्त नहीं होता, न ही प्रसन्नता को, तथा न ही सर्वोच्च ध्येय को’। (16.23)
- ‘अतः यह निर्धारित करने के लिये कि क्या किया जाना चाहिये और क्या नहीं किया जाना चाहिये शास्त्रों को आधिकारिक मानो। शास्त्रों के आदेशों में क्या कहा गया है यह जानकर तुम्हें संसार में काम करना चाहिये’। (16.24)