श्रीभगवानुवाच ।
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ १५-१॥
श्रीभगवान् (श्रीकृष्ण ने) उवाच (कहा) ऊर्ध्वमूलं (ऊपर की ओर जिसका मूल है, अर्थात् क्षर और अक्षर से भी श्रेष्ठ पुरुषोत्तम जिसका मूल है) अधःशाखम् (नीचे की ओर जिसकी शाखायें हैं या कार्योपाधि हिरण्यगर्भ आदि जिसकी शाखायें हैं) अश्वत्थं (पीपल का वृक्ष, जो कल नहीं रहेगा) अव्ययं (अक्षय, अविनाशी) प्राहुः (कथित है)। छन्दांसि (वेद समूह जिसके) पर्णानि (पत्ते हैं) तत् (उस अश्वत्थ को) यः (जो) वेद (जानता है) सः (वह) वेदवित् (वेदवेत्ता है)॥१॥
Translation:
श्रीभगवान ने कहा – वेद में कथित है कि संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष का मूल ऊपर ब्रह्म में है और वेद, पुराण, विश्वब्रह्माण्ड आदि शाखायें नीचे की ओर हैं। यह अविनाशी है। इस अश्वत्थ के पत्ते वेद आदि समस्त ब्रह्माण्ड हैं। इस अश्वत्थ को जो जानता है, वही यथार्थ में वेदवित् है।
Commentary:
१ – कठोपनिषद् में लिखा है – “ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थ सनातनः।” अर्थात् इस संसार रूप सनातन अश्वत्थ वृक्ष का मूल ऊपर और शाखाएँ नीचें की ओर हैं। यहाँ अश्वत्थ वृक्ष के साथ संसार की तुलना की गई है। ऊर्ध्वमूल शब्द का अर्थ है, जिसका मूल ऊर्ध्व में है, अर्थात् उत्तम पदवाच्य पुरुषोत्तम, अर्थात् माया सहित ब्रह्म। अधःशाख शब्द का अर्थ है, जिसकी शाखायें नीचे की ओर हैं अर्थात् ब्रह्म से कुछ निकृष्ट हिरण्यगर्भ से लेकर जीव-जगत पर्यन्त यह संसार है। अव्यय अर्थात् प्रवाहरूप से क्षयरहित है। ‘न श्व स्थास्यति’ (श्व शब्द का अर्थ है कल या आगामी दूसरा दिन) अर्थात् कल रहेगा या नहीं, इसमें सन्देह है अर्थात् अल्प समय स्थायी और विश्वास के अयोग्य है। वेद-मन्त्रों को उस अश्वत्थ के पत्ते कहा गया है। अश्वत्थ के पत्ते जिस प्रकार छाया देकर जीवों को आश्रय देते हैं, वेद भी उसी प्रकार धर्माधर्म का प्रतिपादन करके मनुष्य मात्र को आश्रय देते है। जो संसार को इस रूप में जानता है, वही वेदवित् है।
।।15.1।। व्याख्या ऊर्ध्वमूलमधःशाखम् — [तेरहवें अध्यायके आरम्भके दो श्लोकोंकी तरह यहाँ पन्द्रहवें अध्यायके पहले श्लोकमें भी भगवान्ने अध्यायके सम्पूर्ण विषयोंका दिग्दर्शन कराया है और ऊर्ध्वमूलम् पदसे परमात्माका? अधःशाखम् पदसे सम्पूर्ण जीवोंके प्रतिनिधि ब्रह्माजीका तथा अश्वत्थम् पदसे संसारका संकेत करके (संसाररूप अश्वत्थवृक्षके मूल) सर्वशक्तिमान् परमात्माको यथार्थरूपसे जाननेवालेको वेदवित् कहा है।] साधारणतया वृक्षोंका मूल नीचे और शाखाएँ ऊपरकी ओर होती हैं परन्तु यह संसारवृक्ष ऐसा विचित्र वृक्ष है कि इसका मूल ऊपर तथा शाखाएँ नीचेकी ओर हैं जहाँ जानेपर मनुष्य लौटकर संसारमें नहीं आता? ऐसा भगवान्का परमधाम ही सम्पूर्ण भौतिक संसारसे ऊपर (सर्वोपरि) है। संसारवृक्षकी प्रधान शाखा (तना) ब्रह्माजी हैं क्योंकि संसारवृक्षकी उत्पत्तिके समय सबसे पहले ब्रह्माजीका उद्भव होता है। इस कारण ब्रह्माजी ही इसकी प्रधान शाखा हैं। ब्रह्मलोक भगवद्धामकी अपेक्षा नीचे है। स्थान? गुण? पद? आयु आदि सभी दृष्टियोंसे परमधामकी अपेक्षा निम्न श्रेणीमें होनेके कारण ही इन्हें अधः (नीचेकी ओर) कहा गया है (टिप्पणी प0 742.1)। यह संसाररूपी वृक्ष ऊपरकी ओर मूलवाला है। वृक्षमें मूल ही प्रधान होता है। ऐसे ही इस संसाररूपी वृक्षमें परमात्मा ही प्रधान हैं। उनसे ब्रह्माजी प्रकट होते हैं? जिनका वर्णन अधःशाखम् पदसे हुआ है।सबके मूल प्रकाशक और आश्रय परमात्मा ही हैं। देश? काल? भाव? सिद्धान्त? गुण? रूप? विद्या आदि सभी दृष्टियोंसे परमात्मा ही सबसे श्रेष्ठ हैं। उनसे ऊपर अथवा श्रेष्ठकी तो बात ही क्या है? उनके समान भी दूसरा कोई नहीं है (टिप्पणी प0 742.2) (गीता 11। 43)। संसारवृक्षके मूल सर्वोपरि परमात्मा हैं। जैसे मूल वृक्षका आधार होता है? ऐसे ही परमात्मा सम्पूर्ण जगत्के आधार हैं। इसीलिये उस वृक्षको ऊर्ध्वमूलम् कहा गया है।मूलशब्द कारणका वाचक है। इस संसारवृक्षकी उत्पत्ति और इसका विस्तार परमात्मासे ही हुआ है। वे परमात्मा नित्य? अनन्त और सबके आधार हैं तथा सगुणरूपसे सबसे ऊपर नित्यधाममें निवास करते हैं? इसलिये वे ऊर्ध्व नामसे कहे जाते हैं। यह संसारवृक्ष उन्हीं परमात्मासे उत्पन्न हुआ है? इसलिये इसको ऊपरकी ओर मूलवाला (ऊर्ध्वमूल) कहते हैं।वृक्षके मूलसे ही तने? शाखाएँ? कोंपलें निकलती हैं। इसी प्रकार परमात्मासे ही सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न होता है? उन्हींसे विस्तृत होता है और उन्हींमें स्थित रहता है। उन्हींसे शक्ति पाकर सम्पूर्ण जगत् चेष्टा करता है (टिप्पणी प0 742.3)। ऐसे सर्वोपरि परमात्माकी शरण लेनेसे मनुष्य सदाके लिये कृतार्थ हो जाता है। (शरण लेनेकी बात आगे चौथे श्लोकमें तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये पदोंमें कही गयी है)।सृष्टिरचनाके लिये ब्रह्माजी प्रकृतिको स्वीकार करते हैं। परन्तु वास्तवमें वे (प्रकृतिसे सम्बन्धरहित होनेके कारण) मुक्त हैं। ब्रह्माजीके सिवाय दूसरे सम्पूर्ण जीव प्रकृति और उसके कार्य शरीरादिके साथ अहंताममतापूर्वक जितनाजितना अपना सम्बन्ध मानते हैं? उतनेउतने ही वे बन्धनमें पड़े हुए हैं और उनका बारबार पतन (जन्ममरण) होता रहता है अर्थात् उतनी ही शाखाएँ नीचेकी ओर फैलती रहती हैं। सात्त्विक? राजस और तामस — ये तीनों गतियाँ अधःशाखम् के ही अन्तर्गत हैं (गीता 14। 18)।अश्वत्थम् — अश्वत्थम् शब्दके दो अर्थ हैं — (1) जो कल दिनतक भी न रह सके (टिप्पणी प0 742.4) और (2) पीपलका वृक्ष।पहले अर्थके अनुसार — अश्वत्थ पदका तात्पर्य यह है कि संसार एक क्षण (टिप्पणी प0 743.1) भी स्थिर रहनेवाला नहीं है। केवल परिवर्तनके समूहका नाम ही संसार है। परिवर्तनका जो नया रूप सामने आता है? उसको उत्पत्ति कहते हैं थोड़ा और परिवर्तन होनेपर उसको स्थितिरूपसे मान लेते हैं और जब उस स्थितिका स्वरूप भी परिवर्तित हो जाता है? तब उसको समाप्ति (प्रलय) कह देते हैं। वास्तवमें इसकी उत्पत्ति? स्थिति और प्रलय होते ही नहीं। इसलिये इसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होनेके कारण यह (संसार) एक क्षण भी स्थिर नहीं है। दृश्यमात्र प्रतिक्षण अदर्शनमें जा रहा है। इसी भावसे इस संसारको अश्वत्थम् कहा गया है।दूसरे अर्थके अनुसार — यह संसार पीपलका वृक्ष है। शास्त्रोंमें अश्वत्थ अर्थात् पीपलके वृक्षकी बहुत महिमा गायी गयी है। स्वयं भगवान् भी सब वृक्षोंमें अश्वत्थ को अपनी विभूति कहकर उसको श्रेष्ठ एवं पूज्य बताते हैं — अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम् (गीता 10। 26)। पीपल? आँवला और तुलसी — इनकी भगवद्भावपूर्वक पूजा करनेसे वह भगवान्की पूजा हो जाती है।परमात्मासे संसार उत्पन्न होता है। वे ही संसारके अभिन्ननिमित्तोपादान कारण हैं। अतः संसाररूपी पीपलका वृक्ष भी तत्त्वतः परमात्मस्वरूप होनेसे पूजनीय है। इस संसाररूप पीपलवृक्षकी पूजा यही है कि इससे सुख लेनेकी इच्छाका त्याग करके केवल इसकी सेवा करना। सुखकी इच्छा न रखनेवालेके लिये यह संसार साक्षात् भगवत्स्वरूप है — वासुदेवः सर्वम् (गीता 7। 19)। परन्तु संसारसे सुखकी इच्छा रखनेवालोंके लिये यह संसार दुःखोंका घर ही है। कारण कि स्वयं अविनाशी है और यह संसारवृक्ष प्रतिक्षण परिवर्तनशील होनेके कारण नाशवान्? अनित्य और क्षणभङ्गुर है। अतः स्वयंकी कभी इससे तृप्ति हो ही नहीं सकती किंतु इससे सुखकी इच्छा करके यह बारबार जन्मतामरता रहता है। इसलिये संसारसे यत्किञ्चित् भी स्वार्थका सम्बन्ध न रखकर केवल उसकी सेवा करनेका भाव ही रखना चाहिये।प्राहुरव्ययम् — संसारवृक्षको अव्यय कहा जाता है। क्षणभङ्गुर अनित्य संसारका आदि और अन्त न जान सकनेके कारण? प्रवाहकी निरन्तरता(नित्यता)के कारण तथा इसका मूल सर्वशक्तिमान् परमेश्वर नित्य अविनाशी होनेके कारण ही इसे अव्यय कहते हैं। जिस प्रकार समुद्रका जल सूर्यके तापसे भाप बनकर बादल बनता है। फिर आकाशमें ठण्डक पाकर वही जल बादलसे पुनः जलरूपसे पृथ्वीपर आ जाता है। फिर वही जल नदीनालेका रूप धारण करके समुद्रमें चला जाता है? पुनः समुद्रका जल बादल बनकर बरसता है — ऐसे घूमते हुए जलके चक्रका कभी भी अन्त नहीं आता। इसी प्रकार इस संसारचक्रका भी कभी अन्त नहीं आता। यह संसारचक्र इतनी तेजीसे घूमता (बदलता) है कि चलचित्र(सिनेमा) के समान अस्थिर (प्रतिक्षण परिवर्तनशील) होते हुए भी स्थिरकी तरह प्रतीत होता है।यह संसारवृक्ष अव्यय कहा जाता है। (प्राहुः)? वास्तवमें यह अव्यय (अविनाशी) है नहीं। अगर यह अव्यय होता तो न तो इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें यह कहा जाता कि इस(संसार)का जैसा स्वरूप कहा जाता है? वैसा उपलब्ध नहीं होता और न इस(संसारवृक्ष) को वैराग्यरूप दृढ़ शस्त्रके द्वारा छेदन करनेके लिये ही भगवान् प्रेरणा करते।छन्दांसि यस्य पर्णानि — वेद इस संसारवृक्षके पत्ते हैं। यहाँ वेदोंसे तात्पर्य उस अंशसे है? जिसमें सकामकर्मोंके अनुष्ठानोंका वर्णन है (टिप्पणी प0 743.2)। तात्पर्य यह है कि जिस वृक्षमें सुन्दर फूलपत्ते तो हों? पर फल नहीं हों तो वह वृक्ष अनुपयोगी है क्योंकि वास्तवमें तृप्ति तो फलसे ही होती है? फूलपत्तोंकी सजावटसे नहीं। इसी प्रकार सुखभोग चाहनेवाले सकाम पुरुषको भोगऐश्वर्यरूप फूलपत्तोंसे सम्पन्न यह संसारवृक्ष बाहरसे तो सुन्दर प्रतीत होता है? पर इससे सुख चाहनेके कारण उसको अक्षय सुखरूप तृप्ति अर्थात् महान् आनन्दकी प्राप्ति नहीं होती।वेदविहित पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान स्वर्गादि लोकोंकी कामनासे किया जाय तो वह निषिद्ध कर्मोंको करनेकी अपेक्षा श्रेष्ठ तो है? पर उन कर्मोंसे मुक्ति नहीं हो सकती क्योंकि फलभोगके बाद पुण्य कर्म नष्ट हो जाते हैं और उसे पुनः संसारमें आना पड़ता है (गीता 9। 21)। इस प्रकार सकामकर्म और उसका फल — दोनों ही उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं। अतः साधकको इन (दोनों) से सर्वथा असङ्ग होकर एकमात्र परमात्मतत्त्वको ही प्राप्त करना चाहिये।पत्ते वृक्षकी शाखासे उत्पन्न होनेवाले तथा वृक्षकी रक्षा और वृद्धि करनेवाले होते हैं। पत्तोंसे वृक्ष सुन्दर दीखता है तथा दृढ़ होता है (पत्तोंके हिलनेसे वृक्षका मूल? तना एवं शाखाएँ दृढ़ होती हैं)। वेद भी इस संसारवृक्षकी मुख्य शाखारूप ब्रह्माजीसे प्रकट हुए हैं और वेदविहित कर्मोंसे ही संसारकी वृद्धि और रक्षा होती है। इसलिये वेदोंको पत्तोंका स्थान दिया गया है। संसारमें सकाम (काम्य) कर्मोंसे स्वर्गादिमें देवयोनियाँ प्राप्त होती हैं — यह संसारवृक्षका बढ़ना है। स्वर्गादिमें नन्दनवन? सुन्दर विमान? रमणीय अप्सराएँ आदि हैं — यह संसारवृक्षके सौन्दर्यकी प्रतीति है। सकामकर्मोंको करते रहनेसे बारम्बार जन्ममरण होता रहता है — यह संसारवृक्षका दृढ़ होना है।इन पदोंसे भगवान् यह कहना चाहते हैं कि साधकको सकामभाव? वैदिक सकामकर्मानुष्ठानरूप पत्तोंमें न फँसकर संसारवृक्षके मूल — परमात्माका ही आश्रय लेना चाहिये। परमात्माका आश्रय लेनेसे वेदोंका वास्तविक तत्त्व भी जाननेमें आ जाता है। वेदोंका वास्तविक तत्त्व संसार या स्वर्ग नहीं? प्रत्युत परमात्मा ही हैं (गीता 15। 15) (टिप्पणी प0 744.1)। यस्तं वेद स वेदवित् — उस संसारवृक्षको जो मनुष्य जानता है? वह सम्पूर्ण वेदोंके यथार्थ तात्पर्यको जाननेवाला है। संसारको क्षणभङ्गुर (अनित्य) जानकर इससे कभी किञ्चिन्मात्र भी सुखकी आशा न रखना — यही संसारको यथार्थरूपसे जानना है। वास्तवमें संसारको क्षणभङ्गुर जान लेनेपर सुखभोग हो ही नहीं सकता। सुखभोगके समय संसार क्षणभङ्गुर नहीं दीखता। जबतक संसारके प्राणीपदार्थोंको स्थायी मानते रहते हैं? तभीतक सुखभोग? सुखकी आशा और कामना तथा संसारका आश्रय? महत्त्व? विश्वास बना रहता है। जिस समय यह अनुभव हो जाता है कि संसार प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है? उसी समय उससे सुख लेनेकी इच्छा मिट जाती है और साधक उसके वास्तविक स्वरूपको जानकर (संसारसे विमुख और परमात्माके सम्मुख होकर) परमात्मासे अपनी अभिन्नताका अनुभव कर लेता है। परमात्मासे अभिन्नताका अनुभव होनेमें ही वेदोंका वास्तविक तात्पर्य है। जो मनुष्य संसारसे विमुख होकर परमात्मतत्त्वसे अपनी अभिन्नता (जो कि वास्तवमें है) का अनुभव कर लेता है? वही वास्तवमें वेदवित् है। वेदोंके अध्ययनमात्रसे मनुष्य वेदोंका विद्वान् तो हो सकता है? पर यथार्थ वेदवेत्ता नहीं। वेदोंका अध्ययन न होनेपर भी जिसको (संसारसे सम्बन्धविच्छेदपूर्वक) परमात्मतत्त्वकी अनुभूति हो गयी है? वही वास्तवमें वेदवेत्ता (वेदोंके तात्पर्यको अनुभवमें लानेवाला) है।भगवान्ने इसी अध्यायके पन्द्रहवें श्लोकमें अपनेको वेदवित् कहा है। यहाँ वे संसारके तत्त्वको जाननेवाले पुरुषको वेदवित्त कहकर उससे अपनी एकता प्रकट करते हैं। तात्पर्य यह है कि मनुष्यशरीरमें मिले विवेककी इतनी महिमा है कि उससे जीव संसारके यथार्थ तत्त्वको जानकर भगवान्के सदृश वेदवेत्ता बन सकता है (टिप्पणी प0 744.2)परमात्माका ही अंश होनेके कारण जीवका एकमात्र वास्तविक सम्बन्ध परमात्मासे है। संसारसे तो इसने भूलसे अपना सम्बन्ध माना है? वास्तवमें है नहीं। विवेकके द्वारा इस भूलको मिटाकर अर्थात् संसारसे माने हुए सम्बन्धका त्याग करके एकमात्र अपने अंशी परमात्मासे अपनी स्वतःसिद्ध अभिन्नताका अनुभव करनेवाला ही संसारवृक्षके यथार्थ तत्त्वको जाननेवाला है और उसीको भगवान् यहाँ वेदवित् कहते हैं। सम्बन्ध — पूर्वश्लोकमें भगवान्ने जिस संसारवृक्षका दिग्दर्शन कराया? उसी संसारवृक्षका अब आगेके श्लोकमें अवयवोंसहित विस्तारसे वर्णन करते हैं।