Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।14.9।। व्याख्या–‘सत्त्वं सुखे सञ्जयति’–सत्त्वगुण साधकको सुखमें लगाकर अपनी विजय करता है, साधकको अपने वशमें करता है। तात्पर्य है कि जब सात्त्विक सुख आता है, तब साधककी उस सुखमें आसक्ति हो जाती है। सुखमें आसक्ति होनेसे वह सुख साधकको बाँध देता है अर्थात् उसके साधनको आगे नहीं बढ़ने देता, जिससे साधक सत्त्वगुणसे ऊँचा नहीं उठ सकता, गुणातीत नहीं हो सकता।यद्यपि भगवान्ने पहले छठे श्लोकमें सत्त्वगुणके द्वारा सुख और ज्ञानके सङ्गसे बाँधनेकी बात बतायी है, तथापि यहाँ सत्त्वगुणकी विजय केवल सुखमें ही बतायी है, ज्ञानमें नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि वास्तवमें साधक सुखकी आसक्तिसे ही बँधता है। ज्ञान होनेपर साधकमें एक अभिमान आ जाता है कि ‘मैं कितना जानकार हूँ !’इस अभिमानमें भी एक सुख मिलता है, जिससे साधक बँध जाता है। इसलिये यहाँ सत्त्वगुणकी केवल सुखमें ही विजय बतायी है।
‘रजः कर्मणि भारत’–रजोगुण मनुष्यको कर्ममें लगाकर अपनी विजय करता है। तात्पर्य है कि मनुष्यको क्रिया करना अच्छा लगता है, प्रिय लगता है। जैसे छोटा बालक पड़े-पड़े हाथ-पैर हिलाता है तो उसको अच्छा लगता है और उसका हाथ-पैर हिलाना बंद कर दिया जाय तो वह रोने लगता है। ऐसे ही मनुष्य कोई क्रिया करता है तो उसको अच्छा लगता है और उसकी उस क्रियाको बीचमें कोई छुड़ा दे तो उसको बुरा लगता है। यही क्रियाके प्रति आसक्ति है, प्रियता है, जिससे रजोगुण मनुष्यपर विजय करता है।
‘कर्मोंके फलमें तेरा अधिकार नहीं है’ (गीता 2। 47) आदि वचनोंसे फलमें आसक्ति न रखनेकी तरफ तो साधकका खयाल जाता है, पर कर्मोंमें आसक्ति न रखनेकी तरफ साधकका खयाल नहीं जाता। वह ‘तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है; कर्म न करनेमें तेरी आसक्ति न हो’ (गीता 2। 47), जो योगारूढ़ होना चाहता है, उसके लिये निष्कामभावसे कर्म करना कारण है (गीता 6। 3) आदि वचनोंसे यही समझ लेता है कि कर्म तो करने ही चाहिये। अतः वह कर्म करता है, तो कर्मोंको करतेकरते उसकी उन कर्मोंमें आसक्ति, प्रियता हो जाती है, उनका आग्रह हो जाता है। इसकी तरफ खयाल करानेके लिये, सजग करानेके लिये भगवान् यहाँ कहते हैं कि रजोगुण कर्ममें लगाकर विजय करता है अर्थात् कर्मोंमें आसक्ति पैदा करके बाँध देता है। अतः साधककी कर्तव्यकर्म करनेमें तत्परता तो होनी चाहिये, पर कर्मोंमें आसक्ति, प्रियता, आग्रह कभी नहीं होना चाहिये — ‘न कर्मस्वनुषज्जते’ (गीता 6। 4)।
‘ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत’– जब तमोगुण आता है, तब वह सत्-असत्, कर्तव्य-अकर्तव्य, हित-अहितके ज्ञान-(विवेक-) को ढक देता है, आच्छादित कर देता है अर्थात् उस ज्ञानको जाग्रत् नहीं होने देता। ज्ञानको ढककर वह मनुष्यको प्रमादमें लगा देता है अर्थात् कर्तव्य-कर्मोंको करने नहीं देता और न,करनेयोग्य कर्मोंमें लगा देता है। यही उसका विजयी होना है।
सत्त्वगुणसे ज्ञान (विवेक) और प्रकाश (स्वच्छता) — ये दो वृत्तियाँ पैदा होती हैं। तमोगुण इन दोनों ही वृत्तियोंका विरोधी है, इसलिये वह ज्ञान-(विवेक-) को ढककर मनुष्यको प्रमादमें लगाता है और प्रकाश-(इन्द्रियों और अन्तःकरणकी निर्मलता-) को ढककर मनुष्यको आलस्य एवं निद्रामें लगाता है, जिससे ज्ञानकी बातें कहने-सुनने, पढ़नेपर भी समझमें नहीं आतीं।
सम्बन्ध–एक-एक गुण मनुष्यपर कैसे विजय करता है–इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।