Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।12.20।। व्याख्या — ये तु — यहाँ ये पदसे भगवान्ने उन साधक भक्तोंका संकेत किया है? जिनके विषयमें अर्जुनने पहले श्लोकमें प्रश्न करते हुए ये पदका प्रयोग किया था। उसी प्रश्नके उत्तरमें भगवान्ने दूसरे श्लोकमें सगुणकी उपासना करनेवाले साधकोंको अपने मतमें (ये और ते पदोंसे) युक्ततमाः बताया था। फिर उसी सगुणउपासनाके साधन बताये और फिर सिद्ध भक्तोंके लक्षण बताकर अब उसी प्रसङ्गका उपसंहार करते हैं।यहाँ ये पद उन परम श्रद्धालु भगवत्परायण साधकोंके लिये आया है। जो सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको आदर्श मानकर साधन करते हैं।तु पदका प्रयोग प्रकरणको अलग करनेके लिये किया जाता है। यहाँ सिद्ध भक्तोंके प्रकरणसे साधक भक्तोंके प्रकरणको अलग करनेके लिये तु पदका प्रयोग हुआ है। इस पदसे ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्ध भक्तोंकी अपेक्षा साधक भक्त भगवान्को विशेष प्रिय हैं।श्रद्दधानाः — भगवत्प्राप्ति हो जानेके कारण सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें श्रद्धाकी बात नहीं आयी क्योंकि जबतक नित्यप्राप्त भगवान्का अनुभव नहीं होता? तभीतक श्रद्धाकी जरूरत रहती है। अतः इस पदको श्रद्धालु साधक भक्तोंका ही वाचक मानना चाहिये। ऐसे श्रद्धालु भक्त भगवान्के धर्ममय अमृतरूप उपदेशको (जो भगवान्ने तेरहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक कहा है) भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे अपनेमें उतारनेकी चेष्टा किया करते हैं।यद्यपि भक्तिके साधनमें श्रद्धा और प्रेमका तथा ज्ञानके साधनमें विवेकका महत्त्व होता है? तथापि इससे यह नहीं समझना चाहिये कि भक्तिके साधनमें विवेकका और ज्ञानके साधनमें श्रद्धाका महत्त्व नहीं है। वास्तवमें श्रद्धा और विवेककी सभी साधनोंमें बड़ी आवश्यकता है। विवेक होनेसे भक्तिसाधनमें तेजी आती है। इसी प्रकार शास्त्रोंमें तथा परमात्मतत्त्वमें श्रद्धा होनेसे ही ज्ञानसाधनका पालन हो सकता है। इसलिये भक्ति और ज्ञान दोनों ही साधनोंमें श्रद्धा और विवेक सहायक हैं।मत्परमाः — साधक भक्तोंका सिद्ध भक्तोंमें अत्यन्त पूज्यभाव होता है। उनकी सिद्ध भक्तोंके गुणोंमें श्रेष्ठ बुद्धि होती है। अतः वे उन गुणोंको आदर्श मानकर आदरपूर्वक उनका अनुसरण करनेके लिये भगवान्के परायण होते हैं। इस प्रकार भगवान्का चिन्तन करनेसे और भगवान्पर ही निर्भर रहनेसे वे सब गुण उनमें स्वतः आ जाते हैं।भगवान्ने ग्यारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकमें मत्परमः पदसे और इसी (बारहवें) अध्यायके छठे श्लोकमें,मत्पराः पदसे अपने परायण होनेकी बात विशेषरूपसे कहकर अन्तमें पुनः उसी बातको इस श्लोकमें,मत्परमाः पदसे कहा है। इससे सिद्ध होता है कि भक्तियोगमें भगवत्परायणता मुख्य है। भगवत्परायण होनेपर भगवत्कृपासे अपनेआप साधन होता है और असाधन(साधनके विघ्नों) का नाश होता है।धर्म्यामृतमिदं यथोक्तम् — सिद्ध भक्तोंके उनतालीस लक्षणोंके पाँचों प्रकरण धर्ममय अर्थात् धर्मसे ओतप्रोत हैं। उनमें किञ्चिन्मात्र भी अधर्मका अंश नहीं है। जिस साधनमें साधनविरोधी अंश सर्वथा नहीं होता? वह साधन अमृततुल्य होता है। पहले कहे हुए लक्षण समुदायके धर्ममय होनेसे तथा उसमें साधनविरोधी कोई बात न होनेसे ही उसे धर्म्यामृत संज्ञा दी गयी है।साधनमें साधनविरोधी कोई बात न होते हुए भी जैसा पहले कहा गया है? ठीक वैसाकावैसा धर्ममय अमृतका सेवन तभी सम्भव है? जब साधकका उद्देश्य किञ्चिन्मात्र भी धन? मान? बड़ाई? आदर? सत्कार? संग्रह? सुखभोग आदि न होकर एकमात्र भगवत्प्राप्ति ही हो।प्रत्येक प्रकरणमें सब लक्षण धर्म्यामृत हैं। अतः साधक जिस प्रकरणके लक्षणोंको आदर्श मानकर साधन करता है? उसके लिये वही धर्म्यामृत है।धर्म्यामृतके जो अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः ৷৷. आदि लक्षण बताये गये हैं? वे आंशिकरूपसे साधकमात्रमें रहते हैं और इनके साथसाथ कुछ दुर्गुणदुराचार भी रहते हैं। प्रत्येक प्राणीमें गुण और अवगुण दोनों ही रहते हैं? फिर भी अवगुणोंका तो सर्वथा त्याग हो सकता है? पर गुणोंका सर्वथा त्याग नहीं हो सकता। कारण कि साधन और स्वभावके अनुसार सिद्ध पुरुषमें गुणोंका तारतम्य तो रहता है परन्तु उनमें गुणोंकी कमीरूप अवगुण किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहता। गुणोंमें न्यूनाधिकता रहनेसे उनके पाँच विभाग किये गये हैं परन्तु अवगुण सर्वथा त्याज्य हैं अतः उनका विभाग हो ही नहीं सकता।साधक सत्सङ्ग तो करता है? पर साथहीसाथ कुसङ्ग भी होता रहता है। वह संयम तो करता है? पर साथहीसाथ असंयम भी होता रहता है। वह साधन तो करता है? पर साथहीसाथ असाधन भी होता रहता है। जबतक साधनके साथ असाधन अथवा गुणोंके साथ अवगुण रहते हैं? तबतक साधककी साधना पूर्ण नहीं होती। कारण कि असाधनके साथ साधन अथवा अवगुणोंके साथ गुण उनमें भी पाये जाते हैं? जो साधक नहीं है। इसके सिवाय जबतक साधनके साथ असाधन अथवा गुणोंके साथ अवगुण रहते हैं? तबतक साधकमें अपने साधन अथवा गुणोंका अभिमान रहता है? जो आसुरी सम्पत्तिका आधार है। इसलिये धर्म्यामृतका यथोक्त सेवन करनेके लिये कहा गया है। तात्पर्य यह है कि इसका ठीक वैसा ही पालन होना चाहिये? जैसा वर्णन किया गया है। अगर धर्म्यामृतके सेवनमें दोष (असाधन) भी साथ रहेंगे तो भगवत्प्राप्ति नहीं होगी। अतः इस विषयमें साधकको विशेष सावधान रहना चाहिये। यदि साधनमें किसी कारणवश आंशिकरूपसे कोई दोषमय वृत्ति उत्पन्न हो जाय? तो उसकी अवहेलना न करके तत्परतासे उसे हटानेकी चेष्टा करनी चाहिये। चेष्टा करनेपर भी न हटे? तो व्याकुलतापूर्वक प्रभुसे प्रार्थना करनी चाहिये।जितने सद्गुण? सदाचार? सद्भाव आदि हैं? वे सबकेसब सत्(परमात्मा) के सम्बन्धसे ही होते हैं। इसी प्रकार दुर्गुण? दुराचार? दुर्भाव आदि सब असत्के सम्बन्धसे ही होते हैं। दुराचारीसेदुराचारी पुरुषमें भी सद्गुणसदाचारका सर्वथा अभाव नहीं होता क्योंकि सत्(परमात्मा)का अंश होनेके कारण जीवमात्रका सत्से नित्यसिद्ध सम्बन्ध है। परमात्मासे सम्बन्ध रहनेके कारण किसीनकिसी अंशमें उसमें सद्गुणसदाचार रहेंगे ही। परमात्माकी प्राप्ति होनेपर असत्से सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और दुर्गुण? दुराचार? दुर्भाव आदि सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।सद्गुणसदाचारसद्भाव भगवान्की सम्पत्ति है। इसलिये साधक जितना ही भगवान्के सम्मुख अथवा भगवत्परायण होता जायगा? उतने ही अंशमें स्वतः सद्गुणसदाचारसद्भाव प्रकट होते जायँगे और दुर्गुणदुराचारदुर्भाव नष्ट होते जायँगे।रागद्वेष? हर्षशोक? कामक्रोध आदि अन्तःकरणके विकार हैं? धर्म नहीं (गीता 13। 6)। धर्मीके साथ धर्मका नित्यसम्बन्ध रहता है। जैसे? सूर्यरूप धर्मीके साथ उष्णतारूप धर्मका नित्यसम्बन्ध रहता है? जो कभी मिट नहीं सकता। अतः धर्मीके बिना धर्म तथा धर्मके बिना धर्मी नहीं रह सकता। कामक्रोधादि विकार साधारण मनुष्यमें भी हर समय नहीं रहते? साधन करनेवालेमें कम होते रहते हैं और सिद्ध पुरुषमें तो सर्वथा ही नहीं रहते। यदि ये विकार अन्तःकरणके धर्म होते? तो हर समय एकरूपसे रहते और अन्तःकरण(धर्मी) के रहते हुए कभी नष्ट नहीं होते। अतः ये अन्तःकरणके धर्म नहीं? प्रत्युत आगन्तुक (आनेजानेवाले) विकार हैं।,साधक जैसेजैसे अपने एकमात्र लक्ष्य भगवान्की ओर बढ़ता है? वैसेहीवैसे रागद्वेषादि विकार मिटते जाते हैं और भगवान्को प्राप्त होनेपर उन विकारोंका अत्यन्ताभाव हो जाता है।गीतामें जगहजगह भगवान्ने तयोर्न वशमागच्छेत् (3। 34)? रागद्वेषवियुक्तैः (2। 64)? रागद्वेषौ व्युदस्य (18। 51) आदि पदोंसे साधकोंको इन रागद्वेषादि विकारोंका सर्वथा त्याग करनेके लिये कहा है। यदि ये (रागद्वेषादि) अन्तःकरणके धर्म होते तो अन्तःकरणके रहते हुए इनका त्याग असम्भव होता और असम्भवको सम्भव बनानेके लिये भगवान् आज्ञा भी कैसे दे सकते थेगीतामें सिद्ध महापुरुषोंको रागद्वेषादि विकारोंसे सर्वथा मुक्त बताया गया है। जैसे? इसी अध्यायके तेरहवें श्लोकसे उन्नीसवें श्लोकतक जगहजगह भगवान्ने सिद्ध भक्तोंको रागद्वेषादि विकारोंसे सर्वथा मुक्त बताया है। इसलिये भी ये विकार ही सिद्ध होते हैं? अन्तःकरणके धर्म नहीं। असत्से सर्वथा विमुख होनेसे उन सिद्ध महापुरुषोंमें ये विकार लेशमात्र भी नहीं रहते। यदि अन्तःकरणमें ये विकार बने रहते? तो फिर वे मुक्त किससे होतेजिसमें ये विकार लेशमात्र भी नहीं हैं? ऐसे सिद्ध महापुरुषके अन्तःकरणके लक्षणोंको आदर्श मानकर भगवत्प्राप्तिके लिये उनका अनुसरण करनेके लिये भगवान्ने उन लक्षणोंको यहाँ धर्म्यामृतम्के नामसे सम्बोधित किया है।पर्युपासते — साधक भक्तोंकी दृष्टिमें भगवान्के प्यारे सिद्ध भक्त अत्यन्त श्रद्धास्पद होते हैं। भगवान्की तरफ स्वाभाविक आकर्षण (प्रियता) होनेके कारण उनमें दैवी सम्पत्ति अर्थात् सद्गुण (भगवान्के होनेसे) स्वाभाविक ही आ जाते हैं। फिर भी साधकोंका उन सिद्ध महापुरुषोंके गुणोंके प्रति स्वाभाविक आदरभाव होता है और वे उन गुणोंको अपनेमें उतारनेकी चेष्टा करते हैं। यही साधक भक्तोंद्वारा उन गुणोंका अच्छी तरहसे सेवन करना? उनको अपनाना है।इसी अध्यायके तेरहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक? सात श्लोकोंमें धर्म्यामृतका जिस रूपमें वर्णन किया गया है? उसका ठीक उसी रूपमें श्रद्धापूर्वक अच्छी तरह सेवन करनेके अर्थमें यहाँ पर्युपासते पद प्रयुक्त हुआ है। अच्छी तरह सेवन करनेका तात्पर्य यही है कि साधकमें किञ्चिन्मात्र भी अवगुण नहीं रहने चाहिये। जैसे? साधकमें सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति करुणाका भाव पूर्णरूपसे भले ही न हो? पर उसमें किसी प्राणीके प्रति अकरुणा(निर्दयता) का भाव बिलकुल भी नहीं रहना चाहिये। साधकोंमें ये लक्षण साङ्गोपाङ्ग नहीं होते? इसीलिये उनसे इनका सेवन करनेके लिये कहा गया है। साङ्गोपाङ्ग लक्षण होनेपर वे सिद्धकी कोटिमें आ जायँगे।साधकमें भगवत्प्राप्तिकी तीव्र उत्कण्ठा और व्याकुलता होनेपर उसके अवगुण अपनेआप नष्ट हो जाते हैं क्योंकि उत्कण्ठा और व्याकुलता अवगुणोंका खा जाती है तथा उसके द्वारा साधन भी अपनेआप होने लगता है। इस कारण उसको भगवत्प्राप्ति जल्दी और सुगमतासे हो जाती है।भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः — भक्तिमार्गपर चलनेवाले भगवदाश्रित साधकोंके लिये यहाँ भक्ताः पद प्रयुक्त हुआ है।भगवान्ने ग्यारहवें अध्यायके तिरपनवें श्लोकमें वेदाध्ययन? तप? दान? यज्ञ आदिसे अपने दर्शनकी दुर्लभता बताकर चौवनवें श्लोकमें अनन्यभक्तिसे अपने दर्शनकी सुलभताका वर्णन किया। फिर पचपनवें श्लोकमें अपने भक्तके लक्षणोंके रूपमें अनन्यभक्तिके स्वरूपका वर्णन किया। इसपर अर्जुनने इसी (बारहवें) अध्यायके पहले श्लोकमें यह प्रश्न किया कि सगुणसाकारके उपासकों और निर्गुणनिराकारके उपासकोंमें श्रेष्ठ कौन है,भगवान्ने दूसरे श्लोकमें इस प्रश्नके उत्तरमें (सगुणसाकारकी उपासना करनेवाले) उन साधकोंको श्रेष्ठ बताया? जो भगवान्में मन लगाकर अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उनकी उपासना करते हैं। यहाँ उपसंहारमें उन्हीं साधकोंके लिये भक्ताःपद आया है।उन साधक भक्तोंको भगवान् अपना अत्यन्त प्रिय बताते हैं।सिद्ध भक्तोंको प्रिय और साधकोंको अत्यन्त प्रिय बतानेके दो कारण इस प्रकार हैं — (1) सिद्ध भक्तोंको तो तत्त्वका अनुभव अर्थात् भगवत्प्राप्ति हो चुकी है किन्तु साधक भक्त भगवत्प्राप्ति न होनेपर भी श्रद्धापूर्वक भगवान्के परायण होते हैं। इसलिये वे भगवान्को अत्यन्त प्रिय होते हैं।(2) सिद्ध भक्त भगवान्के बड़े पुत्रके समान हैं।
मोरें प्रौढ़ तनय सम ग्यानी।परन्तु साधक भक्त भगवान्के छोटे? अबोध बालकके समान हैं –,बालक सुत सम दास अमानी।।
(मानस 3। 43। 4)छोटा बालक स्वाभाविक ही सबको प्रिय लगता है। इसलिये भगवान्को भी साधस भक्त अत्यन्त प्रिय हैं।(3) सिद्ध भक्तको तो भगवान् अपने प्रत्यक्ष दर्शन देकर अपनेको ऋणमुक्त मान लेते हैं? पर साधक भक्त तो (प्रत्यक्ष दर्शन न होनेपर भी) सरल विश्वासपूर्वक एकमात्र भगवान्के आश्रित होकर उनकी भक्ति करते हैं। अतः उनको अभीतक अपने प्रत्यक्ष दर्शन न देनेके कारण भगवान् अपनेको उनका ऋणी मानते हैं और इसीलिये उनको अपना अत्यन्त प्रिय कहते हैं।इस प्रकार ? तत्? सत् — इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें भक्तियोग नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।12।। ,