Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।12.11।। व्याख्या–‘अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः’–पूर्वश्लोकमें भगवान्ने अपने लिये ही सम्पूर्ण कर्म करनेसे अपनी प्राप्ति बतायी और अब इस श्लोकमें वे सम्पूर्ण कर्मोंके फलत्यागरूप साधनकी बात बता रहे हैं। वहाँ भगवान्के लिये समस्त कर्म करनेमें भक्तिकी प्रधानता होनेसे उसे ‘भक्तियोग’ कहेंगे और यहाँ सर्वकर्मफलत्यागमें केवल फलत्यागकी मुख्यता होनेसे इसे ‘कर्मयोग’ कहेंगे। इस प्रकार भगवत्प्राप्तिके ये दोनों ही स्वतन्त्र (पृथक्-पृथक्) साधन हैं।
इस श्लोकमें ‘मद्योगमाश्रितः’ पदका सम्बन्ध ‘अथैतदप्यशक्तोऽसि’ के साथ मानना ही ठीक मालूम देता है; क्योंकि यदि इसका सम्बन्ध ‘सर्वकर्मफलत्यागं कुरु’ के साथ माना जाय, तो भगवान्के आश्रयकी मुख्यता हो जानेसे यहाँ ‘भक्तियोग’ ही हो जायगा। ऐसी दशामें दसवें श्लोकमें कहे हुए भक्तियोगके साधनसे इसकी भिन्नता नहीं रहेगी, जबकि भगवान् दसवें और ग्यारहवें श्लोकमें क्रमशः ‘भक्तियोग’ और ‘कर्मयोग’ — दो भिन्न-भिन्न साधन बताना चाहते हैं।
दूसरी बात? भगवान्ने इस श्लोकमें ‘यतात्मवान्’ (मन-बुद्धि-इन्द्रियोंके सहित शरीरपर विजय प्राप्त करनेवाला) पद भी दिया है। आत्मसंयमकी विशेष आवश्यकता कर्मयोगमें ही है; क्योंकि आत्मसंयमके बिना सर्वकर्म-फलत्याग होना असम्भव है। इसलिये भी ‘मद्योगमाश्रितः’ पदका सम्बन्ध ‘अथैतदप्यशक्तोऽसि’ के साथ मानना चाहिये, न कि सर्वकर्मफलत्याग करनेकी आज्ञाके साथ।
जिसका भगवान्पर तो उतना विश्वास नहीं है, पर भगवान्के विधानमें अर्थात् देश-समाजकी सेवा आदि करनेमें अधिक विश्वास है, उसके लिये भगवान् इस श्लोकमें सर्वकर्मफलत्याग-रूप साधन बताते हैं। तात्पर्य है कि अगर वह सम्पूर्ण कर्मोंको मेरे अर्पण न कर सके, तो जिस फलको प्राप्त करना उसके हाथकी बात नहीं है, उस फलकी इच्छाका त्याग कर दे–‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ (गीता 2। 47)। फलकी इच्छाका त्याग करके कर्तव्य कर्म करनेसे उसका संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा।,
‘सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्’–कर्मयोगके साधनमें स्वाभाविक ही कर्मोंका विस्तार होता है; क्योंकि योगकी प्राप्तिमें अनासक्त भावसे कर्म करना ही हेतु कहा गया है (गीता 6। 3 )। इससे कर्मोंमें फलासक्ति होनेके कारण बँधनेका भय रहता है। अतः ‘यतात्मवान्’ पदसे भगवान् कर्मफलत्यागके साधनमें मन-इन्द्रियों आदिके संयमकी आवश्यकता बताते हैं। यह ध्यान देनेकी बात है कि मन-इन्द्रियोंका संयम होनेपर कर्मफलत्यागमें भी सुगमता होती है। अगर साधक मन-बुद्धि-इन्द्रियों आदिका संयम नहीं करता, तो स्वाभाविक ही उसके मनद्वारा विषयोंका चिन्तन होगा और उसकी उन विषयोंमें आसक्ति हो जायगी। इससे उसका पतन होनेकी बहुत सम्भावना रहेगी (गीता 2। 62 63)। त्यागका उद्देश्य होनेसे साधक मन-इन्द्रियोंका संयम सुगमतासे कर सकता है।
यहाँ ‘सर्वकर्म’ पद यज्ञ, दान, तप, सेवा और वर्णाश्रमके अनुसार जीविका तथा शरीर-निर्वाहके लिये किये जानेवाले शास्त्रविहित सम्पूर्ण कर्मोंका वाचक है। सर्वकर्मफलत्यागका अभिप्राय स्वरूपसे कर्मफलका त्याग न होकर कर्मफलमें ममता, आसक्ति, कामना, वासना आदिका त्याग ही है।
कर्मफलत्यागके साधनमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी बात नहीं कही गयी; क्योंकि कर्म करना तो जरूरी है (गीता 6। 3)। जैसा कि पहले कह चुके हैं, आवश्यकता केवल कर्मों और उनके फलोंमें ममता, आसक्ति, कामना आदिके त्यागकी ही है।
कर्मयोगके साधकको अकर्मण्य नहीं होना चाहिये; क्योंकि कर्मफल-त्यागकी बात सुनकर प्रायः साधक सोचता है कि जब कुछ लेना ही नहीं है, तो फिर कर्मोंको करनेकी क्या जरूरत! इसलिये भगवान्ने दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें कर्मयोगकी बात कहते हुए ‘मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि’ ‘तेरी कर्म न करनेमें आसक्ति न हो’ — यह कहकर साधकके लिये अकर्मण्यता-(कर्मके त्याग-) का निषेध किया है।
अठारहवें अध्यायके नवें श्लोकमें भगवान्ने सात्त्विक त्याग के लक्षण बताते हुए कर्मोंमें फलासक्तिके त्यागको ही ‘सात्त्विक’ त्याग कहा है, न कि स्वरूपसे कर्मोंके त्यागको।फलासक्तिका त्याग करके क्रियाओंको करते रहनेसे क्रियाओंको करनेका वेग शान्त हो जाता है और पुरानी आसक्ति मिट जाती है। फलकी इच्छा न रहनेसे कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और नयी आसक्ति पैदा नहीं होती। फिर साधक कृतकृत्य हो जाता है। पदार्थोंमें राग, आसक्ति, कामना, ममता, फलेच्छा आदि ही क्रियाओंका वेग पैदा करनेवाली है। इनके रहते हुए हठपूर्वक क्रियाओंका त्याग करनेपर भी क्रियाओंका वेग शान्त नहीं होता। राग-द्वेष रहनेके कारण साधककी प्रकृति पुनः उसे कर्मोंमें लगा देती है। अतः राग-द्वेषादिका त्याग करके निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करनेसे ही क्रियाओंका वेग शान्त होता है।
जिन साधकोंकी सगुण-साकार भगवान्में स्वाभाविक श्रद्धा और भक्ति नहीं है, प्रत्युत व्यावहारिक और लोकहितके कार्य करनेमें ही अधिक श्रद्धा और रुचि है, ऐसे साधकोंके लिये यह (सर्वकर्मफलत्याग-रूप) साधन बहुत उपयोगी है।
भगवान्ने जहाँ भी कर्मफलत्यागकी बात कही है, वहाँ आसक्ति और फलेच्छाके त्यागका अध्याहार कर लेना चाहिये; क्योंकि भगवान्के मतमें आसक्ति और फलेच्छाका पूरी तरह त्याग होनेसे ही कर्मोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होता है (गीता 18। 6)।
सम्पूर्ण कर्मोंके फल-(फलेच्छा-) का त्याग भगवत्- प्राप्प्तिरका स्वतन्त्र साधन है। कर्मफलत्यागसे विषयासक्तिका नाश होकर शान्ति-(सात्त्विक सुख-) की प्राप्ति हो जाती है। उस शान्तिका उपभोग न करनेसे (उसमें,सुख-बुद्धि करके उसमें न अटकनेसे) वह शान्ति परमतत्त्वका बोध कराकर उससे अभिन्न करा देती है।
ग्यारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकमें भगवान्ने साधक भक्तके पाँच लक्षणोंमें एक लक्षण ‘सङ्गवर्जितः’ (आसक्तिसे रहित) बताया था। इस श्लोकमें भगवान् सम्पूर्ण कर्मोंके फलत्यागकी बात कहते हैं, जो संसारकी आसक्तिके सर्वथा त्यागसे ही सम्भव है। इस-(सर्वकर्म-फलत्याग-)का फल भगवान्ने इसी अध्यायके बारहवें श्लोकमें तत्काल परमशान्तिकी प्राप्ति होना बताया है। अतः यह समझना चाहिये कि केवल आसक्तिका सर्वथा त्याग करनेसे भी परमशान्ति अथवा भगवान्की प्राप्ति हो जाती है।
सम्बन्ध–भगवान्ने आठवें श्लोकसे ग्यारहवें श्लोकतक एक साधनमें असमर्थ होनेपर दूसरा, दूसरे साधनमें असमर्थ होनेपर तीसरा और तीसरे साधनमें असमर्थ होनेपर चौथा साधन बताया। इससे यह शङ्का हो सकती है कि क्या अन्तमें बताया गया ‘सर्वकर्मफलत्याग’ साधन सबसे निम्न श्रेणीका है? क्योंकि उसको सबसे अन्तमें कहा गया है तथा भगवान्ने उस-(सर्वकर्मफलत्याग-)का कोई फल भी नहीं बताया। इस शङ्का निवारण करते हुए भगवान् सर्वकर्मफलत्यागरूप साधनकी श्रेष्ठता तथा उसका फल बताते हैं।