Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।11.43।। व्याख्या–‘पितासी लोकस्य चराचरस्य’–अनन्त ब्रह्माण्डोंमें मनुष्य, शरीर, पशु, पक्षी आदि जितने जङ्गम प्राणी हैं, और वृक्ष, लता आदि जितने स्थावर प्राणी हैं, उन सबको उत्पन्न करनेवाले और उनका पालन करनेवाले पिता भी आप हैं, उनके पूजनीय भी आप हैं तथा उनको शिक्षा देनेवाले महान् गुरु भी आप ही हैं — ‘त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।’
‘गुरुर्गरीयान्का’ तात्पर्य है कि मनुष्यमात्रको व्यवहार और परमार्थमें जहाँ-कहीं भी गुरुजनोंसे शिक्षा मिलती है, उन शिक्षा देनेवाले गुरुओंके भी महान् गुरु आप ही हैं अर्थात् मात्र शिक्षाका, मात्र ज्ञानका उद्गम-स्थान आप ही हैं।
‘न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव’– इस त्रिलोकीमें जब आपके समान भी कोई नहीं है, कोई होगा नहीं और कोई हो सकता ही नहीं, तब आपसे अधिक विलक्षण कोई हो ही कैसे सकता है? इसलिये आपका प्रभाव अतुलनीय है, उसकी तुलना किसीसे भी नहीं की जा सकती।