Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।11.40।। व्याख्या–‘नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व’–अर्जुन भयभीत हैं। मैं क्या बोलूँ– यह उनकी समझमें नहीं आ रहा है। इसलिये वे आगेसे, पीछेसे सब ओरसे अर्थात् दसों दिशाओंसे केवल नमस्कारहीनमस्कार कर रहे हैं।
‘अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वम्’–‘अनन्तवीर्य’ कहनेका तात्पर्य है कि आप तेज, बल आदिसे भी अनन्त हैं; और ‘अमितविक्रम’ कहनेका तात्पर्य है कि आपके पराक्रमयुक्त संरक्षण आदि कार्य भी असीम हैं। इस तरह आपकी शक्ति भी अनन्त है और पराक्रम भी अनन्त है।
‘सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः’–आपने सबको समावृत कर रखा है अर्थात् सम्पूर्ण संसार आपके अन्तर्गत है। संसारका कोई भी अंश ऐसा नहीं है, जो कि आपके अन्तर्गत न हो।अर्जुन एक बड़ी अलौकिक, विलक्षण बात देख रहे हैं कि भगवान् अनन्त सृष्टियोंमें परिपूर्ण, व्याप्त हो रहे हैं, और अनन्त सृष्टियाँ भगवान्के किसी अंशमें हैं।
सम्बन्ध–अब आगेके दो श्लोकोंमें अर्जुन भगवान्से प्रार्थना करते हुए क्षमा माँगते हैं।