Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
।।11.4।। व्याख्या–‘प्रभो’– ‘प्रभु’ नाम सर्वसमर्थका है, इसलिये इस सम्बोधनका भाव यह मालूम देता है कि यदि आप मेरेमें विराट्रूप देखनेकी सामर्थ्य मानते हैं, तब तो ठीक है; नहीं तो आप मेरेको ऐसी सामर्थ्य दीजिये, जिससे मैं आपका वह ऐश्वर (ईश्वरसम्बन्धी) रूप देख सकूँ।
‘मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति’–इसका तात्पर्य है कि अगर आप अपना वह रूप नहीं दिखायेंगे, तो भी मैं यही मानूँगा कि आपका रूप तो वैसा ही है, जैसा आप कहते हैं, पर मैं उसको देखनेका अधिकारी नहीं हूँ, योग्य नहीं हूँ, पात्र नहीं हूँ। इस प्रकार अर्जुनको भगवान्के वचनोमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं है, प्रत्युत दृढ़ विश्वास है। इसीलिये तो वे कहते हैं कि आप मेरेको अपना विराट्रूप दिखाइये।
‘योगेश्वर — योगेश्वर’ सम्बोधन देनेका यह भाव मालूम देता है कि भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्यानयोग, हठयोग, राजयोग, लययोग, मन्त्रयोग आदि जितने भी योग हो सकते हैं, उन सबके आप मालिक हैं, इसलिये आप अपनी अलौकिक योगशक्तिसे वह विराट्रूप भी दिखा दीजिये।
अर्जुनने दसवें अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें भगवान्के लिये ‘योगिन्’ सम्बोधन दिया था अर्थात् भगवान्को योगी बताया था; परन्तु अब अर्जुनने भगवान्के लिये ‘योगेश्वर’ सम्बोधन दिया है अर्थात् भगवान्को सम्पूर्ण योगोंका मालिक बताया है। कारण यह है कि दसवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनकी भगवान्के प्रति जो धारणा थी, उस धारणामें अब बहुत परिवर्तन हुआ है।
‘ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्’–आपका वह स्वरूप तो अविनाशी ही है, जिससे अनन्त सृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं, उसमें स्थित रहती हैं और उसीमें लीन हो जाती हैं। आप अपने ऐसे अविनाशी स्वरूपके दर्शन कराइये।
सम्बन्ध–पूर्वश्लोकमें अर्जुनकी नम्रतापूर्वक की हुई प्रार्थनाको सुनकर अब भगवान् अर्जुनको विश्वरूप देखनेके लिये आज्ञा देते हैं।